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रिपोर्ताज़
जादू टोनों के देस की कतरनें

- ओमा शर्मा

महानगर में जिंदगी गुजारते चले जाने के खामियाजे का पहला अहसास आपको तभी हिट करता है जब आप किसी छोटे शहर या कस्बे में पहुँच जाते हैं। मुझे गुवाहाटी एक कस्बा लग रहा था हालांकि सभी तरह के आधुनिक महानगरीय भग्नावशेष वहाँ प्रचुरता में बिखरे पड़े थे ... फ्लाईओवर्स, मल्टीप्लैक्स, बड़ी कंपनियों के शो-रूम इत्यादि। लेकिन इस सबके बावजूद कस्बे की हवा अपनी तरह से चुगली किये जा रही थी ... इमारतें उतनी बहुमंजिला या गगनचुंबी नहीं थीं, सड़कों पर चलते वाहनों में टेंपोनुमा स्थानीय वाहनों की तादाद ज़्यादा थी, बाजार में घूमते लोगों की वेशभूषा में खास तरह की चटखी मिलेगी और सौ बातों की एक बात यह कि लोगों की चाल-ढाल में गौरतलब आवारगी या आरमतलबी दिखेगी जो व्यस्तता नाम की महानगरीय महामारी के विपरीत छोर पर अवस्थित होती है।
असम और पूरे उत्तर-पूर्वीय इलाके के बारे में हम उत्तर-भारतीयों को इतनी कम जानकारी होती है कि शर्म आने लगती है। भूगोल की इतनी जानकारी कि इधर के मानचित्र में ऊपर अरुणाचल प्रदेश के बाद क्रमवार नीचे आने वाले राज्य कौन से हैं, बहुत लोगों के सिर के ऊपर से चली जाएगी। जिस व्यक्ति को इन राज्यों की राजधानियों के नाम बिना किसी घाल-मेल के पता हों, वह तो सचमुच का पढ़ा-लिखा हो सकता है। जानकार होने की इंतहा यही होगी कि आपको एक-दो राज्यों के लोकनृत्य या मुख्यमंत्रियों के नाम भी पता हों। 'आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है' से हमारा ज्ञान इतना प्रभावित रहता है कि इतने विशाल और संस्कृति-संपन्न इलाके के बारे में कुछ भी जाने बगैर हमारा काम बखूबी चल जाता है। दिल्ली के स्कूल-कॉलिजों या अखिल भारतीय सेवाओं में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित मणिपुरी-मिजोरमी लड़के-लड़कियों का जैनरिक नाम 'चिंकी' ही होता है। लेकिन
असम ?  इसकी पहचान का पर्याय यहाँ पनप रहे उग्रवादी संगठन 'उल्फा' (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम) की गतिविधियॉं (अपहरण, फिरौती, मारकाट) रही हैं। इसी की तर्ज पर बोडो उग्रवादियों का नाम आता है। कोई आश्चर्य नहीं कि यहाँ आने की सूचना मैंने जब मुंबई में रह रहे चंद मित्रों को दी तो उन्होंने मित्रतावश अनायास ही उल्फा-बोडो के प्रकोप से बचने की हिदायत जारी कर दी गोकि यह हिदायत जरूरी थी।
संयोग से यह असम समेत पूरे देश में संसदीय चुनावों का समय था और मुझे असम के ऐसे दूरस्थ अनसुने इलाके में जाने का मौका मिला जहाँ चयन से कोई दुबारा तो नहीं जाना चाहेगा। अपनी तरह से बड़े अजीबो-गरीब भूगोल में फैले ये दो कस्बे दरअसल बांग्लादेश और मेघालय से जुड़े हैं। इतने अलग और दूरस्थ क्षेत्र को जानने की जिज्ञासा और चुनौती अपनी तरह से एक साथ करवटें लेने लगी। पहली नज़र में ही जानकारियाँ बहुत हस्बेमामूल होते हुए भी दिलचस्प लगीं। मसलन, यह अपनी तरह का अकेला ऐसा इलाका होगा जो अपने मुख्यालय से ज़मीन के रास्ते जुड़ा हुआ नहीं है। ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते से आप जिला मुख्यालय तक अवश्य पहुँच सकते हैं मगर सड़क के रास्ते से तो आपको मेघालय होकर ही निकलना पड़ेगा; यह भारत का सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी का इलाका होगा (94%) ... अखिल भारतीय स्तर पर 'अल्पसंख्यक' कहलायी जाने वाली आबादी यहाँ 'बहुसंख्यक' है और देश का यह ऐसा इलाका है जहाँ सबसे अधिक नदी-द्वीप हैं यानी सौ से ऊपर गाँव नदी की गोद में साँस लेते हैं। इन तीनों कारकों के यहाँ की व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर निश्चित प्रभाव पड़ते हैं जिनकी तह में जाना दिलचस्प और चौंकाने वाला होता है। अलावा इसके, यह इलाका ब्रह्मपुत्र, मेघालय और बांग्लादेश की सीमा से लगा बसा है जो यहाँ की जीवन पद्धति से गहरा संपृक्त रखते हैं।
बॉर्डर और बिज़नेस
मैंने अभी तक दो देशों के बीच की सीमा रेखा नहीं देखी थी। यूरोप के कई देशों की तरह जिन देशों के बीच सीमा को लेकर कोई विवाद नहीं होता है या आर्थिक स्थितियाँ ऐसी होती हैं कि कोई आपसी चिंता जन्म नहीं लेती है, उनकी सीमा रेखा के बारे में सोचा जा सकता है ... कि वह कोई मामूली शिनाख्ती पट्टी या चिह्न बना रहता होगा। मगर पाकिस्तान और चीन की तरह बांग्लादेश भी भारत के लिए सीमा संबंधी कई विवाद और चुनौतियाँ पेश करता है। भारत-बांग्लादेश के बीच एक बेहद वृहदाकार जटिल सीमा है ... असम, मेघालय, प. बंगाल, मणिपुर और त्रिपुरा जैसे पाँच राज्यों से जुड़ी हुई। बांग्लादेश के इन सीमावर्ती इलाकों में गरीबी-बेरोज़गारी का इतना बुरा हाल है कि सैकड़ों किलोमीटर की कंटीली बाड़ और पहरे के बावजूद वहाँ के लाखों लोग नाजायज़ तरीके से सीमा पार करके भारत के तमाम इलाकों-प्रदेशों में समा जाने को आतुर रहते हैं, असम जैसे सीमावर्ती राज्य में तो और भी ज़्यादा क्योंकि भाषाई संस्कृति यहाँ ज़्यादा करीब पड़ती है। मुंबई तक में जब-तब उनकी उपस्थिति कराह उठती है। येन-केन अपनी दो जून रोटी (भात) और सलामती की तलाश में भटकते ये लाखों कमनसीब इस इलाके के संसाधनों पर इतना और ऐसा दबाव पैदा करते हैं कि एक ही धर्म का होना बेमानी हो उठता है। इससे मज़दूर ज़रूर कम दामों पर मिल जाते हैं मगर रिहाइश (स्लम-चर) की समस्या विकराल होने लगती है। बहुत जल्द नागरिकता का मामला उठने लगता है जिसके जटिल राजनैतिक आयाम होते हैं।
कुछ देर ब्रह्मपुत्र के किनारे बाँध सरीखी सड़क -- जिसे बी.एस.एफ. रोड यानी सीमा सुरक्षा बल रोड के नाम से जाना जाता है -- पर चलकर हम उस साफ-सुथरी सड़क पर आ गये जो आमजन के लिए वर्जित रहती है। सड़क उठान लिये हुए है और उसके दूसरी तरफ़ ऐसी घनी और कंटीली बाड़ लगी है कि कोई देखकर दहल जाये। ढाई से तीन मीटर चौड़े और पाँच-सात फिट ज़मीन से उठे हुए कंक्रीट के बेस पर दो मीटर के फासले पर ऐसे आँतेदार समानांतर खंबों की कतार है कि लगता है किसी मगरमच्छ का जबड़ा बिछा दिया गया है। हर खंबा अंग्रेजी के 'वाइ' अक्षर की तरह ऊपरी छोर से दो-मुँहा और सिरे तक दाँतेदार, नुकीले दाँतों के ऊपर से एक और काँटेदार तार गुजरती है। आयरन एंगल के एक खंबे से दूसरे की दूरी एक मीटर से भी कम होगी। खंबे का काँटेदार सिरा अंदर और बाहर दोनों तरफ़ खुला होता है ताकि उस पर चढ़कर दूसरी तरफ़ जाने का खयाल भी न आये। किसी तरह कोई उसे कूदकर 'इधर' आ गया तो उसके 'स्वागत' के लिए कंटीले तारों के तीन-तीन फिट व्यास के एक-दूसरे से सटे दो जालीदार सिलिंडर पसरे हैं। समानांतर चलते इन सिलिंडरों के ऊपर उन्हीं के आकार और उसी तरह कटखने दिखते सिलिंडरों की सवारी चलती है। तारों, खंबों और दाँतों का सबकुछ इतना सघन, पुख्ता और डरावना है कि लगता है यह इंतजाम किसी बनैले जानवर से बचाने के लिए किया गया होगा। किसी नरभक्षी-बाघ से भी कोई यूँ नहीं बचाता होगा। इस 'सीमा' के उस पार नज़र डालने पर खुद से यह भावुकता भरा सवाल किये बगैर नहीं रह सका कि क्या कोई समझा सकता है कि दोनों तरफ़ के मिट्टी, पानी, जीव-जंतु और मनुष्यों में क्या अलग है जो इस कदर दागदार बाड़ से विभाजित कर दिये जाने को अभिशप्त हैं। संयोग से यहाँ तो दोनों तरफ़ एक ही धर्म (इस्लाम) और जाति (गरीबी) के लोग रहते हैं फिर भी ... बाड़ के दूसरी तरफ़ की पहले सौ मीटर की ज़मीन भारत की है जिस पर बाकायदा खेती की जाती है। जगह-जगह बने निकास द्वारों पर रखे रजिस्टरों में नाम दर्ज कराकर उधर जाने की छूट रहती है। शाम तक लौट आना होता है जिसके लिए दूसरी एंट्री करके, हिसाबी खातों की तरह इन्सानों का हिसाब बिठा लिया जाता है। उसके बाद के सौ मीटर का क्षेत्र नो मेन्स लैंड कहलाएगा। उसके बाद बांग्लादेश।
बाड़ के अपनी तरफ़ वाले इलाके में खूब अच्छी फ़सल होती है जिसका प्रमुख कारण यह बाड़ ही है जिसके कंक्रीट का आधार ज़मीन से 5-7 फीट ऊपर उठा होने के कारण एक किस्म के बाँध का भी काम करता है। ब्रह्मपुत्र अपने पानी को जब उस परदेशी ज़मीन में छोड़ देती है तो इस बाड़-बाँध के कारण उस जल-राशि को वापस लौटने की छूट नहीं मिल पाती है। तीस-चालीस किलोमीटर तक इस पर काम हो चुका है और पता नहीं कितने सैकड़ों किलोमीटर और होना बकाया है। इस तरह की बाड़ के दो वर्ग मीटर में जितना मालो-सामान (लोहा, सीमेंट, बजरी, ईंटें) खपता है उसके खर्च में एक छोटा मकान तैयार हो जाएगा। लेकिन 'राष्ट्रीयता' के मसलों पर इस तरह 'रिड्यूस' होकर बात करना वर्जित है। बाड़ से सटी सड़क पर रफ्तार से चलती गाड़ी में बैठकर ही मैंने देखा कि हर आधा किलोमीटर के फासले पर एक तदर्थ किस्म के आसरों की श्रृंखला है। हर एक में एक जवान तैनात। कुछ जगह वे जवान वहाँ से निकलकर पाँच-सात किलो भार वाली बंदूकें थामे वक्तकाटू ढंग से टहल रहे थे। हमारे वाहन को देख उनकी संदेह करती निगाहें बहुत जल्द ही एक ठस्स एकरसता टूटने के अव्यक्त उल्लास से दमक उठतीं। शायद ये प्रहरी वहाँ हर दम, शिफ्टवार तैनात रहते हों, दिन-रात, सर्दी-गर्मी, एकदम निर्जन, सुनसान इलाके में अगले तबादले या मुँहबाये खड़ी बेकारी से निजात पाते युवकों की जमात। देश की सुरक्षा करने के मुगालते या जिम्मेदारी तले बोरियत की बोरी उठाये न जाने कितने निर्विचार युवक। सूचना थी कि जंगली जानवरों का तो नहीं मगर साँप-बिच्छुओं का इलाके में खूब प्रकोप रहता है। देश की खातिर कितने ही जवान साँपों के काटने पर 'शहीद' कहलाये जाते होंगे क्योंकि वे सीमा पर माने जाते हैं। बेतरतीब वनस्पति और नीची ज़मीन के कारण जगह-जगह उभर आयीं पोखरों से पूरे इलाके में मच्छरों ने दिमागी मलेरिया का प्रकोप अलग फैला रखा है। यह सब भी शहादत के पहलू हैं। आगे एक ऐसा स्थान भी आया जहाँ बड़ा दरवाजा था। यह बांग्लादेश जाने का आधिकारिक रास्ता है। जिन्हें वीज़ा-पासपोर्ट मिल जाता है वे इस रास्ते का इस्तेमाल कर सकते हैं। जिन्हें वीज़ा का रास्ता टेढ़ा या गैर-ज़रूरी लगता है उन्हें सैकड़ों मील लंबी सीमा पर किधर से भी चले जाना सहूलियत दे जाता है। दो रोज पहले के इतवारी 'असम ट्रिब्यून' का एक फीचर लेख अचानक कौंध आया।
भारत के अधिकांश भाग में गौमाँस नहीं खाया जाता है। बंगाली-असमी समाज माँसाहारी है लेकिन ब्रह्मपुत्र की कृपा से खाने में मछली का चलन ज़्यादा है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर बी.एस.एफ. की दस्त रहती है मगर पिछले कई बरसों से गाय (गाय-गोरू) और बैलों (बुलॅक-गोरू) का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। भारत में कोई गाय या बैल दो-तीन हजार रुपये में मिल जाता है लेकिन बांग्लादेश की सीमा पार करते ही उसका दाम पचास हजार तक पहुँच जाता है। जिस देश की आर्थिक स्थिति भारत से भी गयी-बीती हो, जहाँ बिजली-पानी तो छोड़िये खाने योग्य नमक तक की किल्लत हो, वह एक गाय की इतनी कीमत दे सकता है? यह बात अपनी बुनियाद में ही अर्थ-वित्त के प्राथमिक उसूलों के खिलाफ खड़ी लगती है। मगर जीवन की वास्तविकताएँ अर्थ-वित्त के उसूलों की कब मोहताज रही हैं ? थोड़ा खंगालने पर ज्ञात होता है कि गौमाँस के निर्यात का बांग्लादेश में बढ़िया उद्योग है। डॉलर-पाउंड को रुपयों में बदली करें तो प्रति गाय पचास हजार रुपयों से ज़्यादा का माँस ही मिल जाता है। अलावा इसके कई बहुराष्ट्रीय-औषधीय कंपनियाँ गाय की खाल, सींग और हड्डियों के व्यावसायिक इस्तेमाल से भी मोटी कमाई करती हैं। एक मुनाफेदार मंजिल किस तरह व्यवस्था के तमाम अवरोधों को पार करा देती है और निजी स्वार्थ-लाभ किस तरह तमाम दुश्वारियों को अपना रास्ता बना लेते हैं - यह जानने समझने के लिए इस इलाके से की जाने वाली गायों की तस्करी एक उम्दा मिसाल (केस स्टडी) की तरह देखी जा सकती है ... डेढ़-दो हजार किलोमीटर की दूरी और चार-पाँच राज्यों की चुंगियों और ट्रैफिक की अड़चनों को पार करने में दूसरी चीज़ों को हफ्ता-पंद्रह दिन लग जाएँगे मगर बांग्लादेश भेजी जाने वाली गायों में इतना लुब्रिकेशन लगा होता है कि तमाम तरह के रास्तों और एजेंटों की मार्फत बने 'ग्रीन चैनलों' से होकर वे अपने मुकाम तक तीन-चार दिन में पहुँचा दी जाती हैं। इस मुहिम में अंतिम अड़चन सीमा पर चौकसी करते बी.एस.एफ. के जवान होते हैं लेकिन इन्सान तो आखिर वे भी होते हैं ... वैकल्पिक अर्थोपार्जन के अभाव में जान जोखिम में डालकर लगातार कष्ट झेलकर की जाने वाली मामूली नौकरी के लाचार गुलाम। हर अवैध धंधे की मशीन को चलाने के लिए जिन पुर्जों की आवश्यकता होती है, यह जवान -- और संभवत: उनके आका भी -- उसका हिस्सा बना दिये जाते हैं। ईवान क्लीमा ने अपनी एक कहानी में दर्ज भी किया है कि बढ़ती व्यवस्थागत बाधाएँ कभी तस्करों को हौसलापस्त नहीं करती हैं ... उनका बढ़ता शिकंजा तस्करों को और चौकन्ना एवं कल्पनाशील ज़रूर बना देता है। एक अनुमान के मुताबिक नदी या सीमा के रास्ते से तकरीबन एक लाख गायों को तस्करी के जरिये बांग्लादेश पहुँचा दिया जाता है। कभी-कभार असम पुलिस या बी.एस.एफ. किसी की धर-पकड़ भी कर लेती है -- कागज़ों पर अपनी उपस्थिति दिखाने भर के लिए ... जैसे मुंबई के होटलों में यदा-कदा वेश्यावृत्ति के खिलाफ़ छापे मारने का उपक्रम होता है।
''इस धंधे को बंद करना मुश्किल है'' बी.एस.एफ. के एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक बातचीत में स्वीकारोक्ति की। जिस खेल में दोनों पक्षों के हितों में संलग्नता समा चुकी हो उसे कानूनन रोकना नामुमकिन है। ''मैंने तो अपने जवानों को भावनात्मक स्तर पर भी खूब ललकारा है ... कि (हरामजादों) गाय हमारी माता है जिसे बॉर्डर पार करते ही काट दिया जाएगा ... तुम अपनी माँ को ऐसे कैसे कटने दे सकते हो ... '' उन्होंने आगे बताया। कमांडर साहब आपकी बातें और सीख अपनी जगह दुरूस्त मगर हमारी जिंदगी तो हमारी ही है। इलाके के गाय-बैलधारी किसानों को विशेषत: इस अभियान में शामिल किया जाता है ताकि आन पड़ने पर तस्करी के माल को वे 'अपना' दिखाते हुए साधिकार उसे चरता-फिरता दिखा सकें (उन्हें कौन सी बैलेंस शीट रखनी होती है) और मौका मिलते ही बॉर्डर पास करा सकें। इतने लंबे सफर और कई तरह के एजेंटों के शामिल होने से तस्करित माल की रेवेन्यू में कई तरह की टूट-फूट और लीकेज होती है इसलिए अंतत: हाथ लगी आमदनी में इस तरह का बट्टा खर्च शामिल करके ही कीमत निर्धारण होता है। लेकिन यह जाहिर है कि आपसी मुनाफे के सौदे किसी चीज को न छोटा-बड़ा समझते हैं और न ही वे कानून-नैतिकता सम्मत बाध्यताओं से कुम्हलाते हैं।
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