|
टूटे
पंखों से परवाज तक
आत्मकथा अंश
सुमित्रा महरौल
आज जैसी असामाजिकता तब नहीं थी! लोग एक दूसरे के दुख सुख में शामिल होते थे!
गली के किसी लड़के या लड़की का विवाह होने पर कुछ दिन बड़ी रौनक रहती!
तीन-चार दिन पहले से ही रिश्तेदार आ जाते थे! रात में तो मंगल गीत गाए ही
जाते, पर कभी-कभी दिन में भी ढोलक खड़कने लगती! सारी सारी रात रतजगे होते थे!
बड़े-बड़े पतीले और कड़ाहो में बनते व्यंजनों की खुशबू से गली महक उठती और तब
पेटू किस्म के लोगों की पौ बारह हो जाती थी! शादी में खूब ढोल और बैंड बाजे
बजते और लोग खूब झूम झूम कर नाचते थे! इन अवसरों पर लड़कियों और स्त्रियों
में वस्त्र आभूषण के प्रदर्शन की होड़ भी लग जाती! लोगों को खुशी से झूम झूम
कर नाचते देख मेरा मन उन सब में शामिल होने के लिए लालायित हो उठता, पर दिल
में अपार उत्साह, उमंग होने के बावजूद अपनी अक्षमता के कारण सिर्फ उन सबको
हसरत से निहारना ही मेरी नियति थी,, वह भी कुछ अवधि तक नहीं अपितु जिंदगी
रहने तक! यह भाव मुझे बहुत कचोटता है, कटा हुआ पाती हूं मैं खुद को सबसे, खुद
पर ही बहुत तरस आता है तब मुझ को!
उद्विग्नता निराशा और अवसाद के क्षणों में कोई एक भी ऐसा नहीं मेरे जीवन में
जिससे मैं अपना मन बांट सकूं ,अपने जीवन की इस विडंबना पर मुझे बहुत दुख भी
होता है और आश्चर्य भी! क्यों मेरी हजार कोशिशों के बाद भी मेरी घनिष्ठता
दायरे के लोगों से बढ़ नहीं पाई?
विकलांग व्यक्ति आमोद प्रमोद के क्षणों में दूसरों को उस तरह से कंपनी नहीं
दे सकता जैसे दूसरे सामान्य व्यक्ति दे सकते हैं! वह दौड़ भाग नहीं कर सकता,
यहां तक कि ज्यादा दूर तक चल भी नहीं सकता, शारीरिक सक्रियता वाले खेल नहीं
खेल सकता शायद इसीलिए कमला नेहरू कॉलेज और यूनिवर्सिटी में सब मुझसे बस हाय
हेलो तक ही सीमित रहे! मैं कभी कॉलेज द्वारा आयोजित किसी टूर पर नहीं गई
क्लास बंक कर मित्रों के साथ कभी फिल्म नहीं देखी, कभी मित्रों में हो
हुल्लड़ के साथ नाच गाने में शरीक नहीं हुई! हरदम बस अकेली! शादी से पहले
पढ़ाई में गुम और शादी के बाद नौकरी और गृहस्थी में!
आज के युवा वर्ग को मस्ती करते देख कहीं मेरे मन में कसक उठती है यह जीवन तो
कभी मैंने रत्ती भर भी नहीं जीया, उन्मुक्त और स्वच्छंद, हर तरह के बंधनों से
मुक्त, गगन में उड़ते पक्षी की मानिंद स्वतंत्र
सामाजिक अस्वीकृति के दो बड़े कारण मौजूद है मुझ में, एक पैरों से विकलांग
होना और दूसरा इससे भी बड़ा मेरा दलित कही जाने वाली जाति से संबंधित होना!
इन वजहों से अधिकांश मुझसे बस औपचारिक संबंध ही रखते हैं! घनिष्ठ आत्मीय
संबंध कभी किसी से बन ही नहीं पाए! क्या कहूं इसे मैं, सामाजिक रिश्तो की
दौलत के मामले में कितनी निर्धन हूं मैं, कोई एक भी तो घनिष्ठ मित्र नहीं है
मेरा!
स्कूल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान संपर्क में आए लोगों का नितांत औपचारिक
व्यवहार और अजनबीपन मेरी दुखद यादों में से एक है! वह दौर तो स्वयं को अध्ययन
में व्यस्त करके मैंने झेल लिया पर आज जब जीवन में स्थायित्व आ चुका है अन्य
का मुझसे असंपृक्त रहना मुझे बहुत व्यग्र और विकल कर देता है, ऐसा प्रतीत
होता है कांच की एक बारीक अदृश्य दीवार मेरे और समाज के बीच आ गई है जो
उन्हें मुझसे और मुझे उनसे जुड़ने नहीं देती! मैं नहीं जानती कि कब और कैसे
मैं इस दीवार को गिरा पाऊंगी! मैं यह भी नहीं जानती कि मेरे विकलांग और दलित
होने से इस दीवार का कितना संबंध है, पर दीवार के इस पार से नितांत एकाकी
रहते हुए दीवार के उस पार की दुनिया की रंगीनियों को कोलाहल को और जीवंतता को
मात्र दर्शक बनकर देखना बहुत दुखद है!
बचपन से अब तक ऐसे परिवेश में रहते हुए, शारीरिक व्याधि के साथ, अंतर बाह्य
संघर्षों और चुनौतियों से जूझती मैं अब स्वयं को भीतर से बिल्कुल निर्जीव और
रिक्त महसूस करने लगी थी! जीवन रूपी वृक्ष को स्नेह सरोकार के जल से सीचने
वाला कोई ना था मेरे पास!
वैसे आज के स्वार्थी संवेदना से रहित मूल्य हीन समाज में स्नेह सरोकार की
अभिलाषा रखना स्वयं को दुख देने के समान ही है इस विराट सत्य को भलीभांति जान
लेने के बाद भी किसी के निश्चल स्नेह किसी के सरोकार को पाने की मेरी कामना
कम होने का नाम ही नहीं लेती! माना रेगिस्तान में भटके मुसाफिर को पानी भोजन
मिलना असंभव नहीं तो बेहद कठिन अवश्य है पर इस सत्य को जान लेने भर से क्या
उसकी प्यास उसकी भूख खत्म हो जाएगी? उसकी भूख प्यास तो समय व्यतीत होने के
साथ-साथ निरंतर बढ़ती ही जाएगी! ऐसे ही स्नेह प्रेम की अभिलाषा मन की भूख है
जो तृप्त होने पर ही शांत हो सकती है! सामाजिक अस्वीकृति के साथ सामान्य रूप
से जीवन जीना कितना कठिन है यह कोई मुझसे पूछे, शायद में सामान्य जीवन जी भी
लेती अगर प्रकृति ने मुझे इतना संवेदनशील और भावुक ना बनाया होता! किसी से
अपने हर्ष विषाद के क्षणों को बांट सकने का संतोष मुझे कभी नहीं मिला
टूटे पंखों से परवाज तक… (अंश)
Top
|
|
Hindinest is a website for creative minds, who
prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.
|
|