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कश्मीर
की औरतें
खामोश हैं वे सीने में हज़ारों ज़ख्म
छिपाकर‚ जीते चले जाने की
विवशता में वे पल पल मरती हैं। आतंकवाद‚ अस्थिरता और पुरुषप्रधान समाज के
बीच घुन सी पिस रहीं हैं। असमंजस में हैं वे कि कौन सच कहता है‚ सरकार‚
उनके समाज के वे नुमाइन्दे जो तथाकथित कश्मीर की स्वतन्त्रता के हामी
हैं‚ उनके पुरुष या पाकिस्तान से डोर हिलाते वे कठमुल्ले जो कभी कश्मीर
की औरतों के लिये परदा – बुरका की सज़ा तय करते हैं‚ कभी उनके मासूम किशोरों
के हाथ में ए के फोर्टी सेवन पकड़ा देते हैं। वे कुछ और नहीं बस शान्ति
चाहती हैं। मौतों के सिलसिलेवार हिंसक खेल से निजात चाहती हैं।
हर दिन नई समस्याओं को जन्म देते हुए उगता है कश्मीर में‚ हर दिन विधवाओं
की नई फसल तैयार हो जाती है‚ जिसे न समाज से कोई आसरा है न सरकार से। वे
अपने होंठ सिये घातक मानसिक रोगों का तथा हताशाओं का शिकार होती जा रही
हैं। आतंकवाद रोजगार को डंस गया है‚ सो अभाव की समस्या तो स्थायी है ही
उस पर आतंकवाद की पतली रस्सी पर पल पल मौत के भय के साथ जीना उन्हें
आत्मघात की ओर धकेल रहा है। लगातार असामान्य स्थितियों का बने रहने की
वजह से अतंतÁ कश्मीर की औरत ही प्रभावित हो रही है। क्योंकि वह मां भी
है‚ पत्नी भी‚ बहन भी। उस पर वह कुछ कह नहीं सकती उसकी आवाज़ गले में ही
घोट कर रख दी जाती है। सियासी दांव पेंचों‚ छद्म युद्ध‚ आतंकवाद इससे उसका
क्या वास्ता? ये सब उसे क्या देगा? वह घर चाहती है‚ दो वक्त के गुज़ारे
लायक रोज़गार और सुरक्षा। मेहनतकश सुन्दर कश्मीरी औरत जो अपने पुरुष के
साथ रोजगार में पूरा साथ देने वाली हुआ करती थी‚ आज हताश है‚ अनिश्चितता
और अभाव ने उसके चेहरे पर डर की बदसूरत लकीरें खींच कर रख दी हैं। उसे
हताशा के गर्त में धकेल दिया है।
हम सब जानते हैं कि युद्ध व अशान्ति या किसी भी किस्म के दंगों में औरत‚
बच्चे‚ वृद्ध गेंहू के साथ घुन की तरह पिस जाते हैं। अगर आंकड़ों की बात
करें तो श्रीनगर के गवर्नमेन्ट साईकाइट्री डीज़ीज़ेज़ हॉस्पीटल में डॉक्टरों
के अनुसार हर दिन के उनके रोगियों में साठ फीसदी महिलाओं की जांच होती
है।
भयावह अतीत से मानसिक रूप से विचलित हुई महिलाओं का आंकड़ा 1990 में 1‚726
से बढ़ कर 2000 में 38‚696 हो गया है।
कश्मीर की ये औरतें हर दुखान्तिका की जलन भोगती हैं। उस पर उन्हें पति‚
पिता‚ भाई या पुत्र की मृत्यु के बाद अपने घर को सहारा भी देना होता है।
उनकी मानसिकता के यह घाव देह के घावों से कहीं गहरे व दर्दनाक होते हैं।
ऐसे में महिलाओं में आत्महत्याओं का आंकड़ा भी चौंकाने की हद तक ऊपर आ गया
है। ये सभी केस घातक रूप से हताश गृहणियों के हैं। जिनमें से कई आत्महत्या
के समय गर्भवती थीं।
वे ऐसी स्थितियों में जी रही हैं जिनमें मानवाधिकारों के हनन का प्रतिशत
बहुत ही ऊंचा है। अशान्ति व आतंक तथा असमान्य परिस्थितियों का सीधा सीधा
असर औरत पर ही होता है। ऐसे में दैहिक या यौनशोषण घुटी घुटी चीखों में दब
कर रह जाता है। जहाँ बन्दूक के डर से पुरुष खामोश हैं तो स्त्री तो और भी
कमज़ोर हो जाती है। आतंक के साये‚ मौतों के सिलसिले‚ गरीबी‚ अशिक्षा‚ परदा‚
सामाजिक रूप से दोयम दर्जे में रह रही यह औरत आखिर कहे तो क्या कहे? सोचे
तो क्या सोचे? करे तो आखिर क्या? इस सब को नियति मान भी ले तो… आखिर दिल
के ज़ख्मों पर कितने पत्थर रख ले? अब इतने सालों बाद कुछ तो हल हो इन
असामान्य परिस्थियों का। हर वर्ष शान्ति की प्रतीक्षा में बढ़ती दहशतगर्दी
से उसका संयम टूट चला है। कितना सहन करे? बहुत सहन कर के तो पृथ्वी भी
विचलित हो जाती है‚ उसमें भी दरारें आ जाती हैं‚ वे तो बेटियां है इस
ज़मीन की‚ असहाय औरतें।
हालांकि ऐसा नहीं है कि सरकार कश्मीर की औरत की दारुण समस्याओं से वाकिफ
नहीं है। वहाँ मानवाधिकार आयोग के सेवाकर्मी भी मौज़ूद हैं‚ वहाँ
ज़रूरतमन्द औरतों के लिये शिकायतों व सुझावों हेतु कानून विज्ञों की कमेटी
भी बनी हुई है‚ जिसने फैमिली कोर्ट का प्लान बना रखा है जिससे कि आम औरत
के विवाह‚ तलाक‚ मुआवज़ों और विरासतों के मसले साधारण स्तर पर ही आसानी से
हल हो सकें। राज्य सरकार ने औरतों के लिये एक आर्थिक सहायता के लिये
संगठन भी स्थापित कर रखा है – वुमेन्स डेवलपमेन्ट कारपोरेशन। किन्तु
लालफीताशाही के चलते यह तथाकथित कारपोरेशन ज़रूरतमन्द व आतंकवाद की शिकार
अभावग्रस्त औरतों के लिये कोई ठोस सहायता नहीं कर सकी है‚ बल्कि यह
उच्चवर्ग की महिलाओं का क्लब मात्र बन कर रह गई है।
दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि कश्मीर में उजड़ी औरतों के पुर्नस्थापन की
व्यवस्था अपनी जगह बना ही नहीं सकी है। यहां तक कि कश्मीर के एकमात्र
महिला पुलिस थाने को खुले दो साल से ज़्यादा हो गये लेकिन वहां फोन तक की
व्यवस्था नहीं है। इस थाने में काम लगभग न के बराबर हुआ है‚ कम अज़ कम
आतंकित व भयभीत तथा पीड़ित औरत की सहायता हेतु वहां कुछ नहीं हुआ। जबकि
पूरा कश्मीर आतंक से आज भी सुलग रहा है।
दूरदराज के हिस्सों मसलन गुरेज़ और द्रास के इलाकों‚ कुपवाड़ा आदि में तो
कोई सहायता पहुंचती ही नहीं‚ न ही कानूनी‚ न ही आर्थिक‚ न स्वास्थ्य
सम्बन्धी। जबकि ये इलाके हर तरह के अभाव तथा आतंकवाद से सबसे ज़्यादा
प्रभावित हैं। भुगतती है औरत‚ चारों और से कुचली जाती है। हत्याओं‚
बलात्कारों के सिलसिले बदस्तूर बेखौफ चलते हैं।
उस पर आतंकवादियों के संगठनों का ' बुर्का या बुलेट आदेश' कॉलेज और स्कूल
की लड़कियों में खौफ पैदा किये हुए है।
हम मूक दर्शक हैं उनके हर पल बढ़ते ज़ख्मों
और
कराहों तथा यन्त्रणाओं के। हम हर दिन टी वी पर देखते हैं उनका दर्द‚
अकबारों में पढ़ते हैं। चाह कर भी कभी कुछ कर पाते हैं? हमारा ही हिस्सा
हैं वे। इसी आज़ाद भारतीय गणतन्त्र का। कभी वे मुक्त होंगी? कश्मीर की
सुन्दर वादी में फिर शिकारों में उनके गीत गूंजेंगे। भारत के हर हिस्से
से उमड़ कर आते सैलानियों की ये खूबसूरत औरतें सलज्ज मुस्कान के साथ फिर
से मेजबानी कर कश्मीर को पर्यटन का सबसे अच्छा केन्द्र बना पायेंगी? कोई
नहीं चाहता कि कश्मीर की खूबसूरती और पर्यटन का सुनहरा काल इतिहास बन कर
रह जाये। दो दशकों के आतंक से अब मुक्ति और रोज़गार का आश्वासन तथा
स्थितियों पर नियन्त्रण तथा ठहराव चाहती है कश्मीर की औरत। उससे पहले वह
चाहती है पुर्नस्थापन‚ स्वास्थ्य सम्बन्धी बेहतर व्यव्स्था‚ शिक्षा की उन
तक पहुंच‚ रोज़गार और बहुत सारा स्नेह व विश्वास।
– मनीषा
कुलश्रेष्ठ
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