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भारत
बांग्लादेश सम्बंध
नए परिप्रेक्ष्य में
समाचार
पत्रों में नित पढ़ने को मिलता था कि भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान कश्मीर
में दंगे करवा रहा है‚ और उसके द्वारा प्रशिक्षित उग्रवादियों ने इतने
लोगों को मारा‚ सेना के जवानों पर हमला किया‚ उक्त जगह आई। एस। आई। द्वारा
नकली नोट भेजे गए आदि–आदि। इस कथन का आशय यह है कि भारत के पड़ोसी देश के
रूप में अभी तक सिर्फ पाकिस्तान ही अपनी विशिष्ट पहचान बना पाया था।
लेकिन उस दिन बड़ी हैरत हुई जब समाचार पत्र की सुर्खियों में पढ़ा कि भारत
के पड़ोसी देश बांग्लादेश ने भारतीय सीमा में घुसपैठ की। यानि उस दिन एक
और भारतीय पडा.ेसी का उदय हुआ जिसने हमारे सैनिकों के साथ निर्दयता की भी
सीमाएं लांघ दीं।
ज़रा पीछे मुड़ कर इतिहास की गर्त में देखें तो ज्ञात होता है कि रैडक्लिफ
नामक अंग्रेज़ सर्वेयर ने 1947 में अविभाजित भारत का नक्शा सामने रखा और
अपनी लाल पेन्सिल के सहारे उसे तीन हिस्सों में बाँट दिया। यह लाल लाइन‚
अनगिनत गाँवों‚ खेतों‚ खलिहानों को चीरती हुई भारतीय उपमहाद्वीप की तकदीर
का फैसला कर गई। रैडक्लिफ को अम्जाम का अनुमान था‚ सो वह आज़ादी का ऐलान
होने से पहले ही भारत छोड़ चुका था। लेकिन अतीत की वह रेखा पीछे रह गई और
अगली आधी शताब्दी तक बारम्बार इस भू–भाग के देशों के सुख–चैन में ज़हर
घुलता रहा।
भारत बांग्लादेश सीमा पर करीब साढ़े छह किलोमीटर का इलाका अभी भी विवादित
है और इसके अलावा 42 किलोमीटर में तथाकथित एंक्लेव या एडवसे पजेशन का
मामला अभी तक सुलझा नहीं है। कुल मिला कर 162 ऐसे एंक्लेव हैं‚ जिन पर हक
तो किसी एक देश का है पर फिलहाल उन पर कब्जा दूसरे देश और उनके लोगों का
है। जब उनका आदान–प्रदान होगा तो भारत को 17000 एकड़ और बांग्लादेश को
7500 एकड़ जमीन अपने कब्जे से छोड़नी होगी। मेघालय में पिरदिवा और असम में
बोराईबाड़ी ऐसे ही एंक्लेव हैं जहाँ गत दिनों हुई झड़पों में बी। एस। एफ।
के 16 जवानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था।
इस बात पर गौर करना अत्यंत आवश्यक है कि पिछले दिनों वहाँ पर हुआ क्या?
1974 में इंदिरा गाँधी और शेख मुजीबुर्रहमान के बीच जो समझौता हुआ था‚
उसमें सीमा पर यथास्थिति बनाए रखने की बात कही गई थी। जिसके तहत दोनों
देशों की सेनाएं अपने कब्जे वाली ज़मीन पर कायम रहेंगी और ज़मीनी स्थिति को
यथावत रहने दिया जाएगा। ज्ञात हो कि पिछले कुछ अरसे से बी। एस। एफ। ने
पिरदिवा में एक सड़क का निर्माण शुरू किया था जिस बांग्लादेश राइफल्स ने
ऐतराज़ भी जताया था। इस पर बी। एस। एफ। की ओर से सफाई दी गई कि यह सिर्फ
एक पगडण्डी है जो कि पहले से वहाँ मौजूद थी। लेकिन इसी बात को बहाना बना
कर बांग्लादेश राइफल्स ने 16 अप्रेल को पिरदिवा पर हमला किया और वहाँ बसे
खासी आदिवासियों को भगा कर उस पर कब्जा कर लिया।
इस घटना का यहीं अंत हो जाता तो बेहतर था‚ लेकिन इसके दो दिन बाद ही
बोराइवाड़ी में ऐसा हादसा हो गया कि जिसके सदमे से भारत अभी तक उबर नहीं
पाया है। बोराईबाड़ी में उस दिन क्या घटना घटी ? उसके बारे में मूल रूप से
दो बातें सामने आती हैं। पहली तो यह कि भारतीय जवानों को किसी तरह फुसला
कर बांग्लादेश की सीमा में ले जाया गया और वहाँ उनकी हत्या कर दी गई।
विदेशमंत्री जसवंत सिंह का कहना है कि बी। एस। एफ। के जवान घुसपैठ पर नजर
रखने के लिये गश्त पर निकले थे। लेकिन घायल जवानों और बी। एस। एफ। के
सूत्रों से दूसरी ही कहानी का भास होता है। इनके अनुसार पिरिदिवा और
बांग्लादेशी कब्जे का जवाब देने के लिये बी। एस। एफ। ने बोराइबाड़ी पर
कब्जे की योजना बनाई। बोराइबाड़ी की स्थिति भी पिरीदिवा की तरह एडवर्स
पजेशन वाली है। यह इलाका भी भारत का है‚ लेकिन फिलहाल बांग्लादेश के कब्जे
में है। इसे मुक्त कराने के लिये भारतीय जवान बांग्लादेश की सीमा में घुसे‚
लेकिन बांग्लादेश राइफल्स के जवानों ने उन्हें देख लिया। इसके बाद जब
बांग्लादेश की ओर से जवाबी हमला हुआ तो भारतीय जवानों को पानी से लबालब
खेतों में दुबकना पड़ा‚ जिससे उनकी बंदूकें जाम हो गई और वे बोराईबाड़ी के
लोगों और बांग्लादेशी जवानों के सामूहिक हमले का शिकार बन गए।
पिरदिवा
के मामले को बांग्लादेश राइफल्स के चीफ फजलुर रहमान की कारस्तानी करार
दिया गया और कहा गया कि इसमें शेख हसीना सरकार की कोई भूमिका नहीं थी।
प्रयास तो यह भी हुआ कि पिरदिवा में बांग्लादेशी घुसपैठ को बोराईबाड़ी में
भारतीय घुसपैठ के बराबर रख कर मामले को रफा–दफा कर दिया जाए। लेकिन तभी
भारतीय जवानों के शव लौटे और यह पता चला कि उनके साथ किस बर्बरता के साथ
सुलूक किया गया। इसके बाद विवाद में एक नया मोड़ सामने आया और पिरिदिवा से
बांग्लादेश राइफल्स के हट जाने के बावजूद भारत में जनाक्रोश बढ़ता चला गया।
अंतर्राष्ट्रीय कानून किसी भी देश को इस तरह की बर्बरता की अनुमति नहीं
देता। यहाँ तक कि युद्ध में बनाए गए बंदियों को भी अमानवीय तरीके से सताया
नहीं जा सकता। भारतीय जवानों के शव वाले मामले के सामने आ जाने से
बांग्लादेश कमजोर पड़ता दिखा। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेखहसीना ने
भारत के प्रधानमंत्री अतलबिहारी बाजपेयी को फोन किया और पत्रकारों को
दिल्ली में बताया गया कि उन्हों ने मौत पर खेद व्यक्त किया है। लेकिन अगले
ही दिन ढाका में बांग्लादेश के विदेशसचिव ने बयान जारी कर कहा कि हसीना
ने खेद नहीं सिर्फ दु:ख व्यक्त किया है वह भी दोनों ओर हुई मौतों के लिये।
यहाँ तक कि बांग्लादेश जैसा छोटा राष्ट्र और कड़ी मुद्रा में आया और कहा
कि भारतीय सैनिकों पर अत्याचार की बात गलत है। लाशों को जो नुकसान हुआ‚
वह प्राकृतिक था. लेकिन इस प्रकरण में एक सुखद संयोग यह रहा कि
बांग्लादेश ने स्वयं ही अधिकृत क्षेत्र खाली करने का निश्चय किया और महज
48 घण्टे बाद खाली कर भी दिया। यदि भारत सैन्य शक्ति से अपना 230 एकड़ भू–भाग
खाली कराता तो भारत–बांग्लादेश संबंधों में कभी न पटने वाली दरार पैदा हो
जाती।
एक हद तक स्वीकार किया जा सकता है कि बांग्लादेश राइफल्स और वहाँ की सेना
की उन्नीसवीं डिवीजन ने जो हमला किया उसकी भनक वहाँ की सरकार को नहीं थी।
लेकिन यह भी विचारणीय प्रश्न है कि इस घटना के पूरे दो दिन बाद तक हमारी
सरकार क्या करती रही कि बोराइवाड़ी वाला हादसा हो गया?
यकीनन बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने भारत से रिश्ते सुधारने के लिये काफी
कुछ किया है‚ यहाँ तक कि वह भारत परस्त होने का आरोप भी झेल रही है। शेख
हसीना सरकार बनी रहे और अक्टूबर में होने वाले चुनाव भी उनके पक्ष में
जाएं यह हमारे हित में ही है.। इसलिये कहा जा रहा है कि मामले को तूल
देकर कुछ हासिल नहीं होने वाला। बेहतरी इसी में है कि इसी में है कि इसे
एक बुरा स्वप्न मान कर भुला दिया जाए। बांग्लादेश ने इस मामले की जाँच तो
बैठा दी है‚ लेकिन यह सभी को पता है कि जब मामला राष्ट्रवाद से जुड़ा हो
तो निष्पक्ष जाँच की संभावना नहीं के बराबर ही रहती है। यदि कुछ दिनों
बाद बांग्लादेश की जाँच रिर्पोट में यह निकले कि उसके जवानों ने आत्मरक्षा
में गोलियाँ चलाई थीं तो इसमें किसी को भी तनिक भी आश्चर्य नहीं होना
चाहिये। वैसे भी इस बात की जाँच होनी ही चाहिये कि यह कांड इन्हीं पाक–परस्त
ताकतों ने किया है या उन ताकतों के आरोंपों के दबाव में झुक कर हसीना
सरकार ने।
इस पूरे हादसे का सबक यह है कि हमें अपनी विदेश नीति में किसी एक व्यक्ति
को नहीं उस देश की मानसिकता को केन्द्र में रख कर चलना होगा। पाकिस्तान
में नवाज शरीफ पर विश्वास कर हम मुशर्रफ को भूल गए जिसका नतीजा कारगिल के
रूप में निकला। यही हाल बांग्लादेश में हुआ जहाँ हमने हसीना पर ऐतबार किया
लेकिन भारत विरोधी ताकतों को भुला दिया।
इतिहास में झाँके तो पता चलता है कि रैडक्लिफ के दस साल बाद 1958 में
नेहरू और फिरोज़ खाँ नून इस बात पर सहमत हो सके कि कूचबिहार के बेरूवाड़ी
कस्बे को आधा–आधा बांट लिया जाए‚ लेकिन किन्ही कारणोंवश यह समझौता लागू न
हो सका। 1974 में इन्दिरा और मुजीब ने यह फैसला किया कि बेरूवाड़ी भारत को
मिले और बदले में लगभग तीन बीघा गलियारा स्थाई लीज पर बांग्लादेश को दे
दिया जाए।
एक प्रश्न सभी देशवासियों के मन में उठता है कि आखिर भारत के अपने पड़ोसी
देशों से संबंध खराब क्यों हैं? आखिर क्यों पड़ोसी देशों से हमारे मतभेद
बने हुए हैं? इस मतभेद का एक कारण मनोवैज्ञानिक कारण भी है। ऐसा केवल
भारत के साथ ही नहीं अपितु विश्व के तमाम बड़े और शक्तिशाली देशों के साथ
ही कि उनके पड़ोसी देश उनसे द्वेष की भावना रखते हैं। उदाहरण के तौर पर
देखें तो ब्रिटेन के साथ ऐशिया‚ अफ्रीका या लेटिन अमेरिका आदि के देश उसके
साथ सहज हैं किन्तु आयरलैण्ड उसका पड़ोसी होते हुए भी हमेशा उससे दूर ही
रहा है। अमेरिका को छोटे पड़ोसी देश क्यूबा और मैक्सिको में अमेरिका विरोध
चरम पर देखने को मिल रहा है। यह दुर्भाग्य अब भारत के साथ भी जुड़ गया है।
भारत ऐशिया का एक ताकतवर‚ उन्नत और राजनितीक दृष्टि से परिपक्व
लोकतांत्रिक देश है। हमारे पड़ोसियों के लिये यह परेशानी का एक बड़ा कारण
है। यदि ऐसा नहीं होता तो हज़ार वर्षों तक जंग का ऐलान करने वाले
जुल्फीकार अली भुट्टो शिमला समझौता नहीं करते। बेनजीर सत्ता के अन्दर और
बाहर अपने बयान बदलने पर बाध्य नहीं होतीं। मुशर्रफ लाहौर घोषणा को एक
तरफ दरकिनार करते हैं तो दूसरी तरफ भारत से वार्ता की पेशकश करते हैं।
नेपाल में भारतीय फिल्म अभिनेता ऋतिक रोशन के बयान को जाँचे–परखे बिना ही
बवेला मच जाता है और वहाँ बसे भारतीयों के घरों और दुकानों में तोड़–फोड़
मचाई जाती है। इन सबके आगे तो श्रीलंका चला गया है जिसने भारत के बारे
में ' यूज़ एण्ड थ्रो' की नीति अपना रखी है। इनकी तो खैर छोड़ें… यह देखें
कि घृष्टता की एक ओर मिसाल तब भी बनी थी‚ जब सीमा पर तैनात हमारे कुछ
पुलिस कर्मियों को चीन ने घोड़े की पूंछ से बाँध कर साठ के दशक में लद्दाख
में रास्ते पर खींचा था और यह घटना तब हुई थी जबकि ' हिन्दी–चीनी‚ भाई–भाई'
के नारे गूंज रहे थे।
इस सारे परिप्रेक्ष्य में एक प्रश्न यह भी उठता है कि हमारी गलतियाँ क्या
हैं? भारत को क्या करना चाहिये? इसमें कोई शक नहीं कि भारत की नीति शांति
और सहयोग की रही है। दुर्भाग्यवश भारत की छवि एक नरम राष्ट्र हो गई है।
जो कभी भी किसी के साथ सख्ती से अपनी बात नहीं रखता है। यही कारण है कि
महाकाली परियोजना को मुद्दा बनाकर नेपाल भौंहें टेढ़ी करता है तो कभी
कच्छतीवु श्रीलंका अपनी शेखी बघारता है। पाकिस्तान कभी कारगिल स्थित पैदा
करता है तो कभी अजहर मसूद की आवभगत करता है। हमें यह जान लेना चाहिये कि
अपने हितों को दृढ़ता के साथ रखने एवं राष्ट्रीय हितों के साथ कदापि समझौता
न करने की नीति पर अडिग रहना होगा।
हमारे पडा.ेसी क्षेत्रफल और जनशक्ति के साथ ही संसाधनों में भी हमसे पीछे
हैं। उनके हृदय मैं जो कुंठा है उसका त्याग तभी हो सकता है जबकि हम बड़े
भाई की भूमिका में न होकर सच्चे दोस्त का किरदार निभाने के लिये स्वयं को
तैयार करें। हमारे 16 बी। एस। एफ। के जवानों की मौत के पीछे जो षडयंत्र
था भारत के धैर्य और सहनशीलता से ही असफल हो सकता है। बांग्लादेश के साथ
जो अप्रत्याशित घटना घटी है‚ उसे बहुत तूल देने की आवश्यकता नहीं है।
आवश्यकता इस बात की है कि हम नरम राष्ट्र की अपनी छवि बदलें और यह कार्य
बिना युद्ध के भी संभव है।
दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के दक्षिण ऐशिया मामलों के
विशेषज्ञ प्रो। कलीम बहादुर का मानना है कि भारत सरकार ने बांग्ला देश के
खिलाफ कोई कदम न उठा कर ठीक ही किया क्योंकि ऐसा करने से यहाँ की जनता
में उन्माद फैल जाता और बात बहुत बढ़ जाती। वे अपनी बात जारी रखते हुए कहते
हैं कि सरकार को बातचीत और चेतावनी के माध्यम से ही इस समस्या का हल करना
चाहिये। दरअसल यह समस्या बहुत सालों से हैऔर इसका हल निकालने में जितना
अधिक समय लगेगा‚ स्थिति उतनी ही अधिक बिगड़ेगी। दिसम्बर में जो संयुक्त
कमीशन बना है‚ उसके माध्यम से इस समस्या का हल निकालने का प्रयास करना
चाहिये। संबंध बिगाड़ने से उन भारत विरोधी ताकतों का उक्त आरोप कि '' भारत
अपने पड़ोसी देशों पर धौंस जमाता है ।'' की पुष्टि होगी। बांग्लादेश की
वर्तमान स्थिति पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि वहाँ कुछ महीनों में
चुनाव होने वाले हैं। उन चुनावों में भारत भी एक मुद्दा होगा। प्रधनमंत्री
शेख हसीना पर वैसे भी भारत परस्त होने का आरोप है।
बांग्लादेश में हसीना के खिलाफ बकायदा एक मोर्चा है। उसमें उनके कट्टर
प्रतिद्वन्दी जो कि भारत विरोधी भी हैं‚ के साथ जमात–ए–इस्लामी जैसी
कट्टरतावादी संस्था और कई कट्टर इस्लामिक तत्व हैं। इस कांड में
बांग्लादेश राइफल्स के प्रधान पर यह आरोप भी है कि चुनाव को ध्यान में रख
कर प्रधानमंत्री शेख हसीना को परेशानी में डालने के लिये
भारतीय जवानों को घेर कर हत्या कर दी गई ताकि एक तरफ भारत विरोधियों को
गोलबंद करने का अवसर पैदा हो और दूसरी तरफ हसीना के नरम रुख को मतदाताओं
के सामने प्रमाण के रूप में पेश किया जाए‚ लेकिन बांग्लादेश राइफल्स के
उच्च कमांडरों ने जैसा खुलासा किया उसके मुताबिक यह सब शेख हसीना सरकार
के इशारे पर किया गया। बहुत संभव है कि शायद हसीना ने ही स्वयं भारत
समर्थक होने के आरोप धोने के लिये यह सब योजनाबद्ध तरीके से करवाया हो।
जिस तरह हसीना भारतीय प्रधानमंत्री से मिलने से आनाकानी कर रही हैं और
मिलने की तिथि घोषित करने से कतरा रही हैं उससे तो ऐसा ही प्रतीत होता
है।
भारत सतकार को शायद यह अम्देशा भी हो सकता है कि बांग्लादेश संयुक्त
राष्ट्र संघ में भारत की दावेदारी को समर्थन देगा। लेकिन बांग्लादेश का
भारत के बारे में कोई बहुत बढ़िया अतीत नहीं रहा है। भारत यह प्रयास कर रहा
है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की दावेदारी में अपने पड़ोसियों का तो समर्थन
जुटा लिया जाए। परन्तु ज्ञात रहे कि गुजराल सिद्धान्त के द्वारा एकतरफा
लाभ लेने के बावजूद बांग्लादेश ने खुलकर किसी भी विदेशी मंच पर भारत का
साथ नहीं दिया है। सवाल गंगाजल का हो या पूर्वोत्तर के उग्रवादियों का या
फिर पेट्रोलियम पदार्थों का। बांग्लादेश ने भारत से एकतरफा लाभ लेने की
ही चेष्टा की है। लेकिन भारत सरकार को यह सोचना चाहिये कि वर्तमान विदेश
नीति ने भारत के अन्य देशों से संबंधों में जहाँ प्रवीणता प्रदान की है
वहीं इस नीति ने भारत की छवि एक पिलपिले राष्ट्र की भी बना दी है। वरना
क्या कारण है कि हर बार हम ही संघर्ष विराम करते हैं और क्या कारण है कि
हम बांग्लादेश ह्यजो कि आज हमारी ही वजह से स्वतन्त्र देश हैहृ को उसकी
घृष्टता के लिये डाँट तक नहीं पिला सकते?
आज आवश्यकता है कि देश की नरम छवि से उबरने की और एक ऐसे देश के रूप में
छवि बनाने की जो अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी बात औरों
से सख्ती से कह सके। देखना यह है कि सरकार इसमें कहाँ तक सफल हो पाती है…
अंत में यही कहा जा सकता है कि बोराईवाड़ी नरसंहार पर भारत की प्रतिक्रिया
की देश भर में आलोचना ही हुई है। आगामी दिनों में जब इस प्रकरण से
सम्बन्धित और भी असुविधाजनक तथ्य सामने आएंगे तो सरकार को अपने संयम बरतने
की कार्रवाई का औचित्य सिद्ध करना ही होगा।
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नीरज कुमार दुबे
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