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बाहुबली के एलान में कितना दम

11 सितम्बर के आतंकवादी हमले से बौखलाए अमेरिका ने हमले के जिम्मेदार ओसामा बिन लादेन को जिन्दा या मुर्दा पकड़ने का एलान कर लगभग एक महीने तक इंतजार किया। अन्ततः कोई परिणाम न निकलता देख अमेरिका की ठकुराई जाग उठी और अफगानिस्तान पर हवाई हमलों का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। अमेरिकी सीनेट ने राष्ट्रपति जार्ज बुश को आतंकवाद से लड़ने के लिए 15 अरब 60 करोड़ डॉलर खर्च करने की मंजूरी दे दी। राष्ट्रपति बुश ने लड़ाई के लिए जितने पैसे की मांग की थी उन्हें उससे 34 करोड़ डॉलर अधिक दिए गए हैं।

अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान पर शुरू की गयी यह बमबारी अब दूसरे महीने में है। पर कोई स्पष्ट नतीजा निकलता नजर नहीं आ रहा है। पेंटागन में होने वाली नियमित प्रेस ब्रीफिंग सुनने से ऐसा लगता है कि अमेरिकी फौजें काबुल में अब घुसीं कि तब घुसीं। जब अमेरिकी हमले ने तालिबान के सभी ठिकाने नेस्तनाबूद कर दिए तो फिर अमेरिका इस लड़ाई में जहां का तहां खड़ा क्यों है? आखीर अब प्रतिदिन के हमले में अमेरिका की प्रगति नजर क्यों नहीं आ रही है? अफगानिस्तान के पास ऐसा क्या है कि वह महाशक्ति अमेरिका के लिए भारी पड़ रहा है? ऐसा लग रहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान में आकर फंस गया है।

ओसामा बिन लादेन के इन्टरनेशनल इस्लामिक फ्रंट फॉर जेहाद अगेन्स्ट यू एस ए का उद्देश्य सारे इस्लामिक देशों की पवित्रता और परिशुद्धता को अमेरिकी असर से बचाना है। ओसामा के इस आतंकी तंत्र को धार्मिक कट्टरता का समर्थन प्राप्त है। अगर इस धार्मिक कट्टरता पर गौर करें तो पता चलेगा कि ओसामा के इस सोच में इतना दम है कि पूरा इस्लामिक जगत एक झंडे के नीचे खड़ा हो सकता है।

" दरअसल इस्लाम के सोच के अनुसार पूरा विश्व दो भागों में विभक्त है। एक वह जहां रहने वाले सभी इस्लाम को कबूल करते हैं और इस्लाम की सर्वोच्चता स्वीकार करते हैं। ऐसे भाग को 'दारूल इस्लाम' कहा गया है। और जो भाग हजरत मुहम्मद साहब और कुरान पर ईमान नहीं लाता वह 'दारूल हरब' है तथा वहाँ रहने वाले काफिर हैं और काफिरों को मुसलमान बनाकर मिल्लत में शामिल करना हर मुसलमान का मजहबी कर्तव्य है। और यही पुण्य कार्य है। काफिरों के कुफ्र को खत्म करने या मिल्लत में परिवर्तित करने और 'दारूल हरब' को 'दारूल इस्लाम' बनाने के लिए जो संघर्ष किया जाए उसे जेहाद अर्थात् युद्ध कहा जाता है। जिनका यकीन जेहाद पर है वे यह कहते हैं कि "अल्लाह के रास्ते को रोकने वालों से आखिरी लड़ाई की इजाजत है और काफिरों तथा मुनाफिकों से लड़ो और उन पर सख्ती करो।" शरियत के अनुसार मोमिन से ज्यादा ऊंचा दर्जा मुजाहिदीन अर्थात् इस्लाम का प्रचार – प्रसार करने के लिए जेहाद छेड़ने वालों का है। मुजाहिदीन से ज्यादा ऊंचा दर्जा उस मुसलमान को दिया गया है जिसने अपने हाथों एक काफिर का कत्ल किया हो।"

ओसामा ने इस विचारधारा को केवल हवा देने का काम भर किया है। और आज की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। अफगानिस्तान की भौगोलिक परिस्थिति अमेरिका के पक्ष में नजर नहीं आती। अमेरिकी फौजें हवाई हमलों की विशेषज्ञ हैं। इराक हवाई हमलों में तो परास्त हो गया था लेकिन महीनों से जारी इस हमले में अमेरिकी तालिबान को बहुत विचलित नहीं कर सके। वैसे भी अफगानिस्तान की भौगोलिक परिस्थिति में नार्दन एलाइंस के सहयोग के बिना अमेरिका को सफलता मिलना कठिन है। अगर अमेरिका के युद्ध सफर पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछले दो सौ सालों में दोनों महायुद्धों के साथ–साथ अमेरिका ने छोटी बड़ी लगभग 25 लड़ाइयां लड़ीं हैं। इनमें से अधिकतर में वह अपना मकसद हासिल करने में कामयाब रहा लेकिन फिर भी कुछ निम्न लड़ाइयां ऐसी भी रहीं जहां वह न सिर्फ अपने मकसद में नाकामयाब रहा बल्कि उसकी कोशिश रही कि वह किसी तरह अपनी जान बचाकर निकल भागने में सफल हो जाए।

उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच लड़े गए युद्ध की छाया में एक तरह से अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ ने एक दूसरे के खिलाफ अपनी ताकत आजमाई। अमेरिकी रिकार्डों के मुताबिक 25 जून 1950 को करीब 90 हजार सोवियत और उत्तर कोरियाई सैनिकों ने 38 पैरेलल को पार कर दक्षिण कोरिया पर हमला किया। इस युद्ध में दक्षिण कोरिया की मदद में अमेरिका सेना मौजूद थी लेकिन उसे रक्षात्मक रणनीति अपनाने की वजह से भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसमें अमेरिका के लगभग 50 अरब डॉलर खर्च हुए। उसके 54246 सैनिक मारे गए और एक लाख से ज्यादा सैनिक घायल हुए। यह युद्ध 1951 में ही लगभग समाप्त हो गया पर औपचारिक रूप से इसकी समाप्ति 27 जुलाई 1953 को एक समझौते के साथ हुयी।

जब फ्रांस ने वियतनाम को वामपंथी प्रभाव में जाने से रोकने के लिए 1957 में हमला कर दिया तो वियतनाम दो हिस्सों में बंट गया। एक वामपंथी प्रभाव वाला उत्तर वियतनाम और दूसरा पश्चिमी खेमे वाला दक्षिणी वियतनाम। अमेरिका ने शुरू में फ्रांस का साथ दिया पर बाद में पश्चिमी खेमे के साथ हो गया। वह इसमें 1961 से पूर्ण सक्रिय हुआ। पर परिणाम कुछ नहीं निकला। इसमें उसके 11 अरब डालर खर्च हुए और 58000 सैनिक मरे। 1968 में पेरिस में शांति वार्ता की शुरूआत के साथ इस युद्ध पर विराम लगाने की कोशिशें तेज होनें लगीं और अमेरिकी सैनिकों की वापसी पूरी होने के साथ ही युद्ध का अन्त हो गया।

जब 2 अगस्त 1990 को कुवैत पर इराकी आक्रमण हुए तो अमेरिका ने कुवैत को इराकी सेना से मुक्त कराने के लिए ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म प्रारम्भ किया। इस युद्ध में अमेरिका के 61 अरब डॉलर खर्च हुए। और 363 सैनिक मरे। अमेरिका ने राष्ट्रपति सद्दाम हुस्सैन के खिलाफ जमकर मोर्चाबंदी की पर अपने मिशन में असफल रहा। 9 अप्रैल 1991 को युद्धविराम के समझौते के पश्चात् युद्ध समाप्त मान लिया गया।

इसी प्रकार 1992 में जब सोमालिया भुखमरी के दौर से गुजर रहा था तो अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र मानवीय मिशन के तहत् अमेरिकी सैनिकों ने यहां ऑपरेशन रेस्टोर होप चलाया। इस हमले के दौरान सोमालिया के विद्रोही गुट अपने जोरदार हमले से अमेरिका को भगाने में सफल रहे। इसमें उसके 5 करोड़ डॉलर खर्च हुए।

अफगानिस्तान पर हमले के लगभग एक महीने बाद भी अमेरिका न तो तालिबान को तोड़ने में सफल रहा है और न ही तालिबान अल कायदा को छोड़ने के लिए तैयार हुआ है। तालिबान ने अमेरिका को जवाब दिया है कि हमारा देश अफगानिस्तान ऐसे ही खत्म हो चुका है और हमारे पास कोई आर्थिक सम्पदा भी नहीं है। अब हम इससे नीचे नहीं जा सकते हैं। अतÁ आप बात करें तो हम तैयार हैं पर लड़ाई करेंगे तो हए लड़ने के लिए तैयार हैं।

अगर अफगानिस्तान के इतिहास पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि अफगानियों से लड़कर कोई भी सफल नहीं हो पाया है। इसलिए यह चिन्ता का विषय है कि अमेरिका का आतंकवाद के समूल नाश की यह प्रतिज्ञा पूरी हो भी पाएगी या पानी में भींगे बारूद के गोले के तरह फिस्स करके रह जाएगी। अपगानिस्तान के साथ लड़ाई में क्रूज मिसाइल, बी–2, बी–52 बमवर्षक और एटैम हेलिकॉप्टरों की जरूरत नहीं बल्कि काफी तादाद में जमीनी फौज चाहिए, जो किसी भी वातावरण में युद्ध करने के लिए तैयार हो। अमेरिका के पास इतनी सेना नहीं है और जो भी है वह अफगानिस्तान जैसे देश में पहाड़ियों और रेगिस्तानी इलाकों में लड़ने में सक्षम नहीं हैं। साथ ही जब अफगानिस्तान में बर्फ गिरने लगेगी तो परिस्थितियां और विपरीत हो जाएंगी। जबकि अफगानिस्तान की सेना ऐसी परिस्थितियों के लिए सक्षम है। युद्ध तो उनकी आम जिन्दगी का हिस्सा सा है।

अमेरिका जिस तरह से बमबारी कर रहा है उसमें निर्दोष जनता बड़े पैमाने पर मारी जा रही हे। अमेरिका का कहना है कि रमजान के महीने में भी बमबारी नहीं रूकेगी। हो सकता है कि जेहादी सोच वाले इस्लामिक देश भी अमेरिका के खिलाफ हो जाएं। आज जो देश अमेरिका के साथ आतंकवाद की लड़ाई में साथ हैं अगर वे अमेरिका के खिलाफ हो जाते हैं तो परिस्थितियां और विकट हो सकती हैं।

– सुधांशु सिन्हा "हेमन्त"

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