सृजन : संपादकीय

सायबर फातिमा या ज़ुलैखाः चुनाव हिज़ाब के पीछे के विरोधाभासों का

मुस्लिम देशों के कानूनों के अनुसार, बेटी का पिता की जायदाद में हिस्सा बेटे से आधा,एक औरत की गवाही का महत्व, मर्द की तुलना में आधा,औरत की मौत का मुआवज़ा भी मर्द के मुकाबले आधा।एक तरह से आधी अहमियत, वज़ूद आधा मगर आधे गुनाह की सज़ा पूरी। मगर यह आधा वज़ूद गूंगा तो नहीं और पत्थर का बुत भी नहीं।
इंटरनेट पर इस्लामिक देशों की महिलाओं की उपस्थिति हैरान करने वाली है। चाहे वे लेखिकाएं हों, पत्रकार हों कि फेमिनिस्ट हों, इस्लाम में औरतों की स्थिति का विरोध कर समान अधिकार की बात करने वाली महिलाएं हों या इस्लाम का सम्मान करते हुए अपनी परिधियों में, अपने क्षेत्र में ऊंचा मुकाम हासिल करने वाली महिलाएं हों, वे वहां अपने अनमिट वज़ूद के साथ मौज़ूद हैं।
हाल ही में हुई असमां जहांगीर की गिरफ्तारी के विरोध में वे एक जुट खड़ी हैं, माध्यम है इंटरनेट। तसलीमा नसरीन की जलावतनी, तहमीना दुर्रानी के दुस्साहस को कुचलने को उठे हाथ और असमां जहांगीर की ताज़ातरीन गिरफ्तारी के ज़रिए हमारी नज़र पास - पड़ोस तक ही तो जा पाती है। हमें मध्यपूर्वी देशों की परदानशीन औरतों और उनकी स्थितियों पर महज अन्दाज़ भर लगाना होता है। हम में से तमाम यही सोचते हैं कि वहां स्त्रियां 'फेमिनिस्ट - एक्टीविज्म' जैसे शब्दों से ही नज़र चुराती होंगी। मगर इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियां हैरान करती हैं कि आधे वज़ूद, आधी अहमियत के बावज़ूद ' इक्वेलिटी ' के बारे में वे हमसे बेहतर सोचती हैं और हमसे बेहतर लिखती हैं। इसकी मिसाल हैं -ईरान की 'ज़नान' पत्रिका की भूतपूर्व संपादक और पत्रकार -लेखिका परवीन अरदालन जो इंटरनेट पर 'ईरान में स्त्री के अधिकारों' पर आधारित एक वेबसाइट चलाती हैं, वे ईरान में औरत के समान अधिकारों को लेकर चल रहे अभियान की मुख्य सदस्य रही हैं। उन पर उनके लेखन और एक्टीविज़्म को लेकर संगीन आरोप लगाए गए हैं और फिलहाल जेल में डाल दिया गया है। तमाम विरोधों और धमकियों ने उनका और उनकी अन्य लेखिका - पत्रकार सहयोगियों - फरीदा दावूदी मोहाज़र, नौशीन अहमदी ख़ोरेसानी, सुजाऩ तहमस्सेबी का हौसला नहीं तोड़ा है। वे ईरान में स्त्रियों की स्थिति के बारे में लगातार लिखती रहीं और उनके समान अधिकारों के लिए लड़ती रही हैं। ये चारों ईरान के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत आजकल जेल में हैं, दो से चार साल तक की कैद इन सभी को मिली है। 'इंग्लिश पैन' नामक लेखकों की विश्वप्रसिद्ध संस्था ने इनके पक्ष में आवाज़ उठाई है और दुनिया जहान के लेखकों को इनका साथ देने का आह्वान इंटरनेट के ज़रिये किया है। जबकि हिन्दी की लेखिकाओं में तस्लीमा नसरीन पर हैदराबाद में हुए हमले पर सुगबुगाहट तक नहीं हुई।
थोड़े दिनों पहले ही मैं ने एक ब्लॉग देखा था, एमडब्ल्युए डॉट कॉम। ‘एम. डब्ल्यु. ए. : वीमैन मेकिंग हिस्ट्री'। एम. डब्ल्यु. ए. यानि मुस्लिम राईटर्स एलियान्स, एक बेहद सन्तुलित किस्म का पोर्टल है। संतुलित इन अर्थों में कि - मुस्लिम औरतों के बारे में अकसर दो नज़रियों से लिखा जाता है। पहला ' गैर मुस्लिम नज़रिये से' इस समाज में औरतों की दुर्दशा को बढ़ा - चढ़ा कर, नितान्त दया भाव से देखा और लिखा जाता है। इस समय हम इस समाज की महान और साहसी औरतों को दरकिनार कर देते हैं। दूसरा रवैय्या 'मुस्लिम दृष्टिकोण' वाला होता है, जहां हिज़ाब, बुरख़ा, परदा औरतों के सम्मान का प्रतीक होता है, और होंठ सीं कर जीना एक सभ्य मुस्लिम औरत के जीने का ढंग माना जाता है।उस वक्त औरत के भीतर बह रहे संवेदनाओं के दरिया को ठंडी क्रूरता से पाट दिया जाता है। अगर बीच का कोई सही - सही नज़रिया दिखा सकता है तो वह है ‘एम. डब्ल्यु. ए.'। यह ब्लॉग जागरूक मुस्लिम औरतों का ब्लॉग है। इनका कहना है - ये एक पढ़ी - लिखी, आधुनिक मुस्लिम औरत की सही - सही तस्वीर न केवल संसार के समक्ष रखना चाहते हैं बल्कि इस प्रेरणादायी छवि के जरिये वे आम पारंपरिक मुस्लिम औरत को उसकी इस्लामिक आस्थाओं के साथ जागरूक बनाना चाहते हैं।

इसमें कई मुस्लिम देशों की या देश से बाहर पश्चिमी देशों में रहने वाली मुस्लिम लेखिकाएं हैं तथा अपने क्षेत्रों में नया इतिहास रचने वाली औरतें हैं। यहां उनके अपने भोगे हुए सच हैं, उनकी अपनी उपलब्धियां हैं, इस्लाम के प्रति उनका अपना - अपना नज़रिया है। बल्कि उन्होंने अपनी और दूसरों की धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करते हुए अपने रास्ते खोजे हैं। उनके संघर्षों और मुकाम तक पहुंचने की प्रक्रिया का ब्यौरा वे इस ब्लॉग में दर्ज़ करती हैं। इस ब्लॉग में इस्लामिक कुरीतियों और असमानता के खिलाफ उठी हुई मज़बूत आवाज़ें भी हैं।
इसमें लोकतन्त्र, मानव अधिकारों खास तौर पर औरतों और बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाली नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त शीरीं आबदी का प्रोफाइल भी शामिल है तो कार रैली की विजेता युवा मारवा अल आइफा भी हैं, रियाद की साहसी एक युवा लेखिका रज़ा अल सानी भी है, जिसने समाज के प्रतिरोधों के बावज़ूद अपना पहला उपन्यास चार युवतियों और उनके अंतरंग सम्बन्धों और उनके द्वन्द्वों को लेकर लिखा है।
यह ब्लॉग कहता है कि मुस्लिम राइटर्स एलियान्स इस लक्ष्य के साथ स्थापित किया गया है कि वे मुस्लिम लेखिकाओं को सूचनाएं, औज़ार, स्त्रोत और अवसर दे सकें, ताकि एक से दूसरे को प्रेरणा मिले, उनका लिखा हुआ विशुद्ध सच सारी दुनिया तक पहुंचे।

इसी ब्लॉग में एक किशोरी का प्रोफाइल है, नाज़नीन फतेही जिसने उस पर और उससे कुछ ही छोटी भतीजी पर बलात्कार के इरादे से हमला करने वाले तीन मर्दों में से एक को मार डाला था। ईरान की सरकार ने उसके लिए सज़ा ए मौत लगभग तय कर दी थी। मगर इंटरनेट के माध्यम से ईरान की बहुत - सी जागरूक औरतों ने विश्व को झिंझोड़ डाला और नाज़नीन फतही नाम की इस किशोरी को मौत की सज़ा से मुक्त कराने में एमेनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर न जाने किन - किन संस्थाओं को एकजुट किया और ईरानी कानून के हज़ारों पेंचो खम से उलझ कर एक लम्बी लड़ाई के बाद इस लड़की को मुक्त करवा कर ही दम लिया। जुर्माने के तौर पर एक बहुत बड़ी रकम तय हुई थी... ४०० मिलियन रियाल लगभग ४३ हज़ार डॉलर वह मसला भी पूर्व मिस वर्ल्ड कनाडा , पॉप सिंगर, हयूमन राइट एक्टीविस्ट नाज़नीन आफशीन जां ने 'हेल्प नाज़नीन.कॉम' बना कर हल किया और यह
अंतर्राष्ट्रीय अभियान छेड़ा था। इस ब्लॉग में नाज़नीन फतही के ट्रायल और जेल के दिनों की उसके परिवार की एक एक खबर छापी जाती थी। उसकी जमानत की राशि के लिए दान की अपील की जाती थी। कुछ ही दिनों में एक बड़ी रकम एकत्रित हो ही गयी। इस मुसलमान पॉप सिंगर ने अपने सारे कॉन्सर्ट की आमदनी इस लड़की की जमानत के नाम दान कर दी, सबसे ज्य़ादा डोनेशन ईरान की औरतों ने दिया। 'हेल्पनाज़नीन डॉट कॉम' के ज़रिये कनाडाई सांसद बिलिण्डा स्ट्रानेक तक ने उदारता से दान किया।
दरअसल हम मुगालते में हैं, कि हम हिदुस्तानी स्त्रीवादी, बुद्धिजीवी औरतें ' स्त्री की आज़ादी और अधिकारों ' को लेकर सजग हैं। मगर मुस्लिम देशों की औरतों के मुकाबले हम कुछ नहीं कर रहीं हैं, 'स्त्री विमर्श' एक झुनझुना पकड़े, पुस्त्र्षों के शोर में लगातार बजाए ज़रूर जा रही हैं। हम आधी नींद में जीने, चलने, लिखने वाली औरते हैं वरना ज़रूर ‘हैल्प नाज़नीन डॉट कॉम' की तरह ' हैल्प भंवरी डॉट कॉम' खोला गया होता और सामूहिक बलात्कार का यह केस बलात्कारियों के पक्ष न गया होता।

पारंपरिक अरब लेखिकाओं ने भी स्वयं और अपने पात्रों के ज़रिये आज पूरे ग्लोब में पैठ बना ली है। एक बहुत बड़े परिवेश को घेरते हुए, भौतिक और काल्पनिक हदों को पार करके इन लेखिकाओं ने वैश्विक स्तर पर अपना मुकाम बना लिया है। इन लेखिकाओं ने स्त्रीवाद, लैंगिक भेदभाव और सांस्कृतिक अध्ययन के मूलभूत सिद्धान्तों को पुर्नजीवित किया है। इनमें उल्लेखनीय नाम हैं - अहदाफ सोफी, नवल अल सादावी, लैला सैबर, लियाना बद्र और हनान अल शैख़।इनकी लेखनियां अरब देशों की औरतों पर पूरे साहस से निरन्तर लिख रही हैं।

इंटरनेट पर ही मैं मिली, शाहर्नुश परसीपुर नामक एक प्रसिद्ध ईरानी उपन्यासकार से, जिनका जन्म तेहरान में हुआ था १९४६ में। वे एक स्त्रीवादी हैं जो विवादास्पद मुद्दों पर लिखती हैं, उनके देश के अनुसार - असफल विवाह और कौमार्य जैसे बारूदी विषयों पर। आठ उपन्यास और एक संस्मरणों का संग्रह उनके ही देश में प्रतिबंधित हो चुके हैं। वे अपने लेखन के कारण ४ बार जेल जा चुकी हैं। एक बार तो लगभग पांच साल के लिए १९८१ से १९८६ तक।
शाहर्नुश परसीपुर ने १९७४ में लिखना शुस्त्र् किया था। ' द डॉग एण्ड द लांग विन्टर्स'उनका पहला उपन्यास था। 'वुमन विदाउट मैन' उन्होंने हेमिंग्वे की 'मैन विदाउट वुमन' से प्रेरित होकर लिखा था जिसमें वे खुल कर ईरान में औरत की दशा को उघाडती हैं।
परसीपुर के उपन्यासों के पात्र औरत की यौन कुण्ठाओं पर बेबाक बोलते हैं। चेस्टिटी की अनिवार्यता की लानत - मलामत करते हैं और ईरान के पुस्त्र्ष वर्चस्व वाले समाज के खिलाफ खुद को अभिव्यक्त करते हैं। 'वुमेन विदाउट मेन' उपन्यास में कई औरतों की सामूहिक गाथा गुंथी हुई है, जो अपने हालात से अपनी-अपनी तरह लड़ रही हैं, अंधेरों में रास्ते बनाने और पगडंडियां टोहने में लगी हैं। मसलन ज़रीन कोहला एक छब्बीस साला वेश्या है, जो अपने ग्राहकों को संतुष्ट करते समय, हर बार यही कल्पना करती है कि वे बिना सिर वाले हैं। एक ५१ साल की अधेड़ औरत है जो अपने दुष्ट और क्रूर पति को खूब मारती है पेट में और सीढ़ियों से धकिया कर मरने के लिए छोड़ देती है।
ईरान में इस किताब को तुरन्त प्रतिबन्धित किया गया कि यह भड़काऊ है और इसी किताब ने उन्हें दो बार जेल भेजा।उनकी केवल यही एक किताब है जिसका अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध है।
परसीपुर ने 'तौबा', 'मीनींग ऑफ नाइट' अपने जेल के दिनों में लिखा। 'मीनींग ऑफ नाइट' स्वीडन में छापा गया मगर ईरान में यह बेस्टसेलर साबित हुआ।
परसीपुर राजनैतिक निर्वासन के तहत ९४ तक अमरीका में रही हैं। उन्हें बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान और फैलोशिप मिले हैं।

एक युवा तुर्की लेखिका अलिफ शफक इंटरनेट पर एक पोर्टल पर अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में खुल कर लिखती हैं - ''इस्लाम के इतिहास में जुलेखा के चरित्र को जितना ग़लत तरह से पेश किया गया है उतना किसी और को नहीं। अतीवसुन्दरी ज़ुलेखा को पोटीफर की विश्वासघातिनी पत्नी की तरह युसुफ की कहानी में पेश किया है। जिसने युसुफ को अपने दैहिक आकर्षण और प्रेमजाल में फंसाने का प्रयास किया था। जिसके तमाम प्रयासों को युसुफ ने निष्फल कर दिया था जिससे नाराज़ होकर उसने उस पर बलात्कार का आरोप लगाया था। जिसकी वजह से युसुफ को पोटीफर के तहखानों में सालों कैद रहना पड़ा था।
जुलेखा ही थी जिसे हमेशा इस्लाम के धार्मिक अधिकारियों उारा बार - बार आरोपित किया गया है, जिसे सदियों से चरित्रहीन दुष्टा का खिताब दिया जाता रहा है। कट्टरपंथियों की नज़र में जुलैखा तिरस्कृत थी, वासना, यौनउन्माद की पुतली थी। जितनी तिरस्कृत वह कट्टरपंथी मुसलमानों की परिभाषा में थी, उतना ही उसे नितान्त अलग ढंग से प्रस्तुत किया 'सूफियों' ने। सूफियों के रहस्यमय संसार में जुलैखा एक पवित्र प्रेम - दीवानी स्त्री की तरह मानी गई।लगभग यही हाल कुरआन के हर शब्द का है, जिसे सूफियों और कट्टरपंथियों ने अलग - अलग तरह से समझा, अनुमानित और परिभाषित किया है। मेरी दादी कट्टरपंथियों वाली सोच रखती थीं और नानी मुसलमान कबीलों से सम्बद्ध थी सो उनकी सोच सूफियों से मिलती जुलती थी।दोनों के बीच पलती हुई मैं बचपन से असमंजस में रही, मगर जब मैं ने जब लिखने का रास्ता चुना तो मेरे लेखन पर ज़ुलेखा का प्यारा वाला भूत ही तारी रहा।
हमारे देश की लेखिकाएं 'सेक्सुअलिटी' पर लिखने से तब तक बचती हैं जब तक वे बहुत बूढ़ी और तमाम लानत मलामतों की तरफ से सुरक्षित नहीं हो जातीं। एक युवा लेखक के तौर पर, औरत होकर और वो भी इस्लाम से जुड़ कर सेक्स और सेक्सुअलिटी पर लिखना आसान नहीं था, क्या मैं अपने साठ साल के होने तक अपने लेखन को टालती?'

संसार भर में फैले मुस्लिम देशों की इन लेखिकाओं से इंटरनेट पर रू - ब रू होकर मेरी सोच में बहुत बड़ा फर्क़ आया है, कि हमारे गर्व करने के लिए मुस्लिम देशों की लेखिकाओं में तस्लीमा, तहमीना से पहले भी दुस्साहसी लेखिकाओं की लंबी क़तार है और बाद में भी।

मुस्लिम देशों की लेखिकाओं, पत्रकारों और फेमिनिस्टों के लिए इंटरनेट एक वरदान साबित हुआ है, वहीं आम हिज़ाब और नमाज़ का पालन करने वाली मुस्लिम औरत के लिए भी इंटरनेट ने नया क्षितिज खोला है।
'सायबर फातिमा' होना एक आधुनिक ट्रेण्ड है मध्यपूर्वी देशों में। मध्यपूर्व की इंटरनेट पर पढ़ने और इंटरनेट के ज़रिये काम करने वाली महिलाओं के बीच 'सायबर फातिमा' एक नयी सायबर टर्म वज़ूद में आई है। यह टर्म अपनी इस्लामिक परंपराओं का उल्लंघन किए बिना इंटरनेट का ज्ञान रखने वाली महिलाओं के लिए इस्तेमाल की जाती है।
बहुत सी मध्यपूर्व की औरतें, इंटरनेट पर फेमिनिस्ट ब्लॉग्स पर यह स्वीकार करती हैं कि इंटरनेट उनके लिए एक सुरक्षित साधन है। जहां उनकी एक आदर्श मुस्लिम औरत होने की पारंपरिक रवायतें फिर - फिर जांची - परखी जा सकती हैं, उन्हें विकसित किया जा सकता है तथा उन्हें तोड़ कर दुबारा नये तौर तरीकों के हिसाब से ढाला जा सकता है। मुस्लिम औरतों का आपसी संवाद बढ़ा है, उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी मिली है। चाहे वह परंपरावादी हो कि एक गृहणी या एक व्यवसायी या महज छात्रा - बहुत सी मुसलमान औरतें यह मानती हैं कि उन्हें अपने ही देश में मिले हुए कानूनी अधिकारों का पता ही नहीं चलता कि वे उनके हक में है... अगर इंटरनेट न होता तो! उन्हें हैरानी होती है कि धर्म के अनुसार चलते हुए सांस्कृतिक और पारंपरिक रोक टोक के बिना भी उनके पक्ष में बहुत कुछ है, जिससे पुस्त्र्ष उन्हें जानबूझ कर नावाक़िफ रखता है। उन्हें खुशी है कि वे बिना घर से निकले, इंटरनेट पर पढ़ाई या बिज़नेस कर सकती हैं।

मुस्लिम देशों की कई पारंपरिक मुस्लिम औरतें घर पर रह कर भी, इंटरनेट पर अपनी कंपनी चलाती हैं और बाक़ायदा उन्हें अपनी कंपनी के सी. ई. ओ. का दरजा हासिल है।
याकोबी, अपनी वेबसाइट ‘अफगान इन्स्टीट्यूट फॉर लर्निंग' के ज़रिये अफगानिस्तान की रिफ्यूजी औरतों को इंटरनेट पर इस्लामिक ज्ञान के साथ विज्ञान पढ़ाने का काम करती हैं। क्योंकि अफगानिस्तान में लायब्रेरियां मय किताबों के ध्वस्त हो चुकी हैं इसलिए फिलहाल शिक्षा का एकमात्र साधन बचा है इंटरनेट । अफगानी महिलाएं इंटरनेट पर इन वेबसाइटों के माध्यम से अपना जीवनस्तर सुधारने की लगातार कोशिश में लगी हैं।

मैं अब भी हैरान हूं कि हमसे कहीं जागरुक इस्लामिक समाजों की औरतें हैं, क्योंकि उनका दर्द, उन्हें आधी नींद में भी नहीं जाने देता, चीखने की उनको इजाज़त नहीं है मगर फिर भी उनकी आवाज़ विश्व सुनता है। वे तमाम खतरों से खेल कर खुद को व्यक्त करने की ईमानदार कोशिश में हैं...इंटरनेट उनकी अर्थमय ख़ामोशी को आवाज़ देता है ।

मनीषा कुलश्रेष्ठ

 

 

मनीषा कुलश्रेष्ठ