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उल्का  
देश के सर्वश्रेष्ठ चित्रकार का यह सम्मानित पुरस्कार लेते हुए 65 वर्षीय उमा सहाय की कांपती उंगलियां प्रशस्ति – पत्र को सहला रही थीं। आंखें नमी से झिलमिल कर रही थीं, देश के राष्ट्रपति के हाथों…इतना बड़ा प्रतिष्ठित सम्मान… ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। पर स्वयं उमा अतीत की एक गली के मुहाने पर ठिठक गई थी।
" आज तुम होते तो! होगे तो ज़रूर… कहीं आस पास! देखो तो…तुम्हारा मेरे लिये देखा सपना आज…" सम्मान में ओढ़ाया गया शॉल उनकी झुकी जाती देह से फिसल गया। पास खड़े एक युवक ने फिर ओढ़ा दिया… वह चुपचाप मंच से उसी युवक का सहारा ले उतर आईं। पत्रकारों के सवालों के जवाब में क्या कहे, कुछ सूझ नहीं रहा था। मन सघन भावावेश से अवरूद्ध हो चला था।
" उमा जी, इस पुरस्कार का श्रेय…।"
" अपने उस अराध्य को!"
" आपकी महान कला की प्रेरणा…?
" वही अराध्य!"
" रंगों व आकृति का यह संयोजन… ? "
" प्रकृति और जीवन में उसी अराध्य की असीम कृपा का परिणाम…।"
" आपके अराध्य कौन हैं?"
एक पल की झिझक के बाद बोली, " अराध्य! इस निस्सीम में फैला है वह… चाहे उसे कृष्ण मान लें या शिव !"
" आधुनिक चित्रकला में बढ़ती नग्नता…"
इस सवाल का भी जवाब था उसके पास लेकिन… इतने बड़े समारोह की थकान, पुरस्कार पाने की प्रसन्नता, ढेर सी बधाइयां लेते लेते सांस चढ़ आई थी… हांफती हुई पत्रकारों से क्षमा मांगती हुई वह कार में बैठ गई। ड्राइवर कार ले कर चल पड़ा। ठण्डी हवा का बासन्ती झौंका, सड़क पर खिले गुलमोहर और दूर तक फैले आसमान की उत्प्रेरणा पा कर, उमा ने मन की एक छोटी सी खिड़की खोली…वहां से कहीं गहरे अतीत के एक संक्षिप्त अध्याय की पतली नीचे को उतरती गली जाती थी… वहीं से आवाज़ दी उसने… " सुन रहे हो! इतना सन्नाटा क्यों है? क्या तुम खुश नहीं?"
"……………………"
" अरे! तो तुम थे वहां! " वह हंसी।" हां पत्रकार चक्कर में तो पड़े होंगे, बुढ़िया सठिया गई है… ज़्यादा ही कुछ स्पिरिच्युअल … हर बात का जवाब अराध्य! क्या करती, याद आ रही थी आपकी।"
"……………………"
" तो और कौन है मेरी इस तथाकथित महान कला की प्रेरणा? हाँ, तुम ही मेरे …तुम ही तो मधुसूदन! और कौन?"
"……………………"
" हाँ, चलो सेलेब्रेट करें। मधु तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी मनपसन्द वाइन को हाथ तक नहीं लगाया मैं ने… चलो भले ही चल कर अपने उसी स्टूडियो में गिन लो अपने उस चांदी के सिगरेट केस में पूरी आठ सिगरेट्स हैं…। बस! तुम्हारे जाने के बाद मन ही नहीं किया उन्हें पीने का। हां, वैसा का वैसा ही रखा है उस स्टूडियो को मैंने …एक चीज़ इधर से उधर नहीं की। तुम्हारा उस शाम जामुनी रंग में डुबोया ब्रश वैसा का वैसा रखा है। तुम्हारी मखमली स्लीपर…उस ज़मीन पर बिछे गद्दे के पास यूं उतरी हैं … कि हर बार मुझे लगता रहा कि तुम थक कर खीज कर… पार्टी से लौटते में यामिनी से झगड़ कर आओगे और जूते उतार कर इन्हें पहन कर इस बेतरतीब स्टूडियो में चहल कदमी करते करते पूरा किस्सा बयां करोगे और फिर इन्हें उतार कर सैटी पर बैठ जाओगे। मैं अनमनी सी सुनती रहूंगी… फिर देर बाद तुम्हें कुछ याद आएगा…
" क्या बना रही हो? "
" बस ऐसे ही ज़रा …"
" ज़रा हटो तो पूरा दिखे।… अं अच्छा है, रंग भी ठीक हैं… पर कहीं यह नकल सी है किसी पहले देखी पेन्टिंग की… उमा… कुछ तो ओरिजनल…
" ……"
" बुरा मान गई न! भई ऐसा कुछ बनाओ कि लोगों को नाम पढ़ने की ज़रूरत ही न पड़े वैसे ही कह दें … ओह उमा सहाय की…।"
" मधु… बस यह बता दो कि किसकी पेन्टिंग की नकल है यह…। " उसने बुरी तरह खीज कर तमतमा कर कहा।
" वो तो याद नहीं पर पिछली किन्हीं एक्ज़ीबिशन में… पर बुरा क्यों मान रही हो…?"
" मधु इस पेन्टिंग को आपने इसकी स्केचिंग से बहुत पहले से देखा था… बल्कि खाली कैनवास हम साथ लाये थे तभी आपसे डिसकस किया था इसके बारे मैं! तब तो बड़ा कह रहे थे ' ओरिजनल है।'
" ए… मज़ाक…"
" झूठ! यह मज़ाक नहीं था। आप दरअसल ध्यान ही नहीं देते मेरी पेन्टिंग्स पर…। आप बस अपनी अधूरी पेन्टिंग्स को मुझसे पूरा करवाने का अधिकार भर समझते हो। और सारी दुनिया आपको सराहती है …। आप हो ही बहुत क्रुएल…यामिनी जी ठीक ही झगड़ती रही हैं, आपसे। और हमें क्या करना है अपने आपको प्रतिष्ठित करके? हम अमेचर्स हैं। आप ही को मुबारक कला का व्यवसाय! "
" लड़की, तुझे क्या पता तेरे लिये कितना बड़ा सपना देखा है मैं ने।"
" हंऽह!"
कभी कभी अपनी किस्मत पर गुस्सा – सा आता कि तुम मिल कहां से गये? मुझसे ये नामालूम से तार जोड़ ही क्यों लिये? कितना व्यवसायिक सा था रिश्ता हमारा… व्यक्तिगत किस तरह बन गया? सीधी सीधी नाक की सीध में अपनी ज़िन्दगी का लक्ष्य तय कर जिये जा रही थी मैं! सुबह एक एडवर्टाइज़िंग ऐजेन्सी में बतौर आर्टिस्ट काम करते हुए, जे। जे। आर्टस कॉलेज की शाम की डिप्लोमा कक्षाओं में 'आधुनिक चित्रकला' पढ़ा करती थी। तुम तो बहुत प्रतिष्ठित कलाकार थे और कभी कभी लैक्चर्स देने के लिये तुम्हें अतिथि के तौर पर बुलाया जाता था और तुम हमें बारीकियां सिखाते थे। कई बार तुम अपनी मीन मेख और साफगोई से हमारी नौसिखिया कलाकृतियों पर कमेन्ट कर सहमा देते थे। कितने अहंकारी लगते थे तब। पर सच यह था कि तुममें बनावट नहीं थी। तुमसे अपनी कला की बारीकियां भी छिपती नहीं थीं… छोटी मोटी टिप्स की तरह हममें यूं ही बांट जाया करते थे उदारता से।
मुझे आज भी याद है जब, हम डिप्लोमा स्टूडेन्ट्स की एक्ज़ीबिशन लगी थी… कॉलेज ही में… तुम चीफ गेस्ट थे।
हमारे दिल कांप रहे थे… न जाने क्या सुनने को मिलेगा… पर तुमने बहुत सीनयर स्टूडेन्ट्स से हमारी तुलना की थी। खास तौर पर तुम्हें मेरी पेन्टिंग ' श्रिकिंग शेडोज़ ' पसन्द आई थी।
मेरे लिये नया था तुम्हारा शहर, बल्कि महानगर! मैं एक छोटे शहर की… बल्कि एक चौड़े पाट वाली नदी के किनारे बसे बेतरतीब शहर की लड़की थी। जहां कला भी थी, संस्कृति भी थी…अपने पुराने पुराने सौंधे स्वरूप में, चित्रकला तो एक परम्परा की तरह शहर की नब्ज़ में मौज़ूद थी। वहीं से अपनी कला की सुघड़ बारीकियां, महलों – हवेलियों, हिरणों, बाघों के पेन्सिल स्केचेज़ और मिनिएचर किशनगढ़ शैली की सुनहली – रूपहली रेखाएं, पतले ब्रशेज़, कलात्मकता लेकर आई थी कृष्ण – राधा के चित्रों की। पर नकार दी गई थी तुम्हारे शहर में। वहां परम्पराओं, बारीकियों का क्या काम था? वहां नित नये प्रयोगों को, चित्रों की नई परिभाषाओं को, आड़े – तिरछे चित्रों और अजीबो गरीब रंग संयोजनों में रचे बिम्बों को ' चित्रकला की सार्थकता ' कहा जाता था। तब मुझे लगा था कि अरे! मैं तो कुछ नहीं जानती चित्रों के बारे में। मुझे महसूस हो गया था, कि मुझे सब कुछ नये सिरे से सीखना होगा … । फिर से शुरुआत सीखने की! तब काम ढूंढा गया, एक कमरे का घर ढूंढा गया या यूं कहो अपनी सारी जमा – पूंजी, पापा का भेजा पैसा लगा कर एक किराये के कमरे को घर बना लिया गया था फिर दाखिला लिया जे। जे। कॉलेज की शाम की क्लासेज़ में। वही एक कमरे का घर मेरा घर – स्टूडियो दोनों था। फर्नीचर के नाम पर कुछ भी तो नहीं था एक कुर्सी तक नहीं! नीचे ही गद्दा बिछा कर सैटी – सी बना ली थी। हाँ, कई कैनवास, इज़ल, रंग ज़रूर उस कमरे को घेरे रहते थे।
वह अजीब – सा दिन था, जब तुम्हारा मेरे घर आने का सबब बना था। मैं एक प्रिन्ट एडवरटाईज़मेन्ट के लिये बचपन से ही पिता से सीखी गई किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण का एक प्रणय चित्र बना रही थी, हाँ, क्लास में ही, तुम चले आये थे खाली कमरे में, बहुत देर तक देखते रहे।
"यह तो तुम यहां नहीं सीखती हो!"
मैं हड़बड़ा गई थी।
" जी…सर…जी नहीं।"
" फिर, कहां से सीखी यह शैली?"
" मथुरा… अपने पिता से…।"
" वाह…"
कमरे में उमस बढ़ गयी थी, तुम चित्र को और करीब से देख रहे थे। मैं सफाई देने लगी।
" सर, मुझे यह सीरीज़ कल सुबह तक पूरी करनी है, और मुझे वक्त नहीं मिल पा रहा था… इसलिये क्लास में…।"
" कहाँ देनी है?"
" सर! उस एडवरटाइज़िग ऐजेन्सी में जहां मैं बतौर आर्टिस्ट काम करती हूं।"
" क्या ऐसी और भी हैं।"
" इस सीरीज़ में तो चार और हैं… पर मिनिएचर्स में डोली, बर्डस, नूरजहां, दारा शिकोह, महाराणा प्रताप वगैरह और भी बने रखे हैं।"
" दिखाओगी? "
" कल ले आऊंगी।" सर की उत्सुकता पर उसे आश्चर्य हुआ था।
" आज ही दिखा दो।"
" …"
" दिखा भी दो भई।"
" सर! घर मेरा दूर है, … वहां से जाकर लाना…।"
" लाना क्यों… वहीं चल कर देखते हैं।"
मैं हतप्रभ थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसा क्या था इन ट्रेडीशनल पेन्टिंग्स में? ये तो अपने स्थानीय कलाकार पिता से बचपन से सीखी थी। मन्दिरों के बाहर ऐसी पेन्टिंग्स खूब बिकती थीं, पूरे मोल भाव के साथ। ऐसी पन्टिंग्स के लिये एक्ज़ीबिशन नहीं लगा करती!
गलियों में घुस कर सर की कार कहाँ आती, सो पैदल इस घाटकोपर की एक मोहल्ले नुमा कॉलोनी में पहुंचे। एक बहुत पुराना घर, जिसके पीछे के बदबूदार खुलते हिस्से में मेरा कमरा था। मैं हिचक रही थी, पर आप सहज थे।वही स्टूडियो… वही बेडरूम, वही रसोई, वही बैठक… खूब शर्म आई … हमारे पीछे पीछे मुहल्ले के कुछ बच्चे भी चले आये। जिन्हें आंख दिखा कर मैं ने भगाया था।
" वाह! यह चीज़ मैं सीखना चाहता था।"
" आप?" आश्चर्य से उसकी आंखें फैल गई थीं।"
" हाँ, एक तो ये, और दूसरे पेन्सिल स्कैचिंग की वह कला जो राजस्थान के लोकल आर्टिस्ट किलों, बावड़ियों, खण्डहरोें को देख कर मिनटों में बना देते हैं।रणथम्भौर का वह पुराने खण्डहर से किले के बुर्ज पर बैठा टाइगर का वह ह्यूज पेन्सिल स्केच मुझे मेरी एक विदेशी मित्र ने दिखाया था।"
" सर… यह कलाकारों के परिवारों में, स्थानीय कला विद्यालयों में आज भी जीवित है।"
" तुम मुझे सिखाओगी?"
" मैं!"
" मैं इसमें कुछ नये प्रयोग करना चाहता हूँ? इजाज़त दोगी?"
" मेरे पिता होते तो नहीं देते… वे सिखाते इसी शर्त पर कि इस शैली का स्वरूप विकृत न हो। पर अब क्या सर… अब तो हर चीज़ का व्यवसायीकरण हो गया है।"
तुमने मुझसे जो सीखा, सो सीखा… मैं ने तुम्हें सिखाते में जाने कितना सीख लिया था… मैं क्या सिखाती तुम्हें? बस एक प्राचीन चित्रकला शैली की ऑथेन्टिक जानकारी भर ही दे सकी थी। बाकि बारीकियों की कमी तुममें कहां थी? वह खास अन्दाज़ में सुनहरे – रूपहले रंगों का बारीक प्रयोग, राधा – कृष्ण की वही किशनगढ़ शैली के नैन नक्श, ज़ेवर, केले और आम के वृक्ष, नहरें, फव्वारे, महल, गलियारे, नहरों में खिलते कमल, वे अनूठे बादल, वन, फूलों के झाड़, तोते, मोर, अभिसारिकाएं झट से बनाना सीख गये थे तुम। गुरुदक्षिणा के नाम पर चौंकाया था तुमने जब एक पॉश सबर्ब की अच्छी कॉलोनी में मुझे अपना एक खाली पड़ा स्टूडियो मुझे मुम्बई में जब तक चाहूं तब तक रहने तक के लिये दे दिया था।
और इस शैली को लेकर किये गये प्रयोग अनूठे ही थे तुम्हारे। पहली बार मेरे गाल लाल हो गये थे जब तुमने अपना प्रथम प्रयोग मुझे दिखाया था, प्रणयरत राधा – कृष्ण की पेन्टिंग में एक घने पेड़ों का जंगल भी सही था, उस पर ब्रश के अलग तरह के प्रयोग से सुर्ख फूल भी सही उकेरे थे, रात के प्रहर में नहर की लहरों को सलेटी दिखाना भी उचित था, पेड़ों के झुरमुट में सोते पंछियों के घोंसले भी अपनी जगह ठीक थे। उस झुरमुट में धरती पर बिछा सूखे – गीले पतझड़ी पत्तों का बिछौना भी … चलो ठीक ही था, कृष्ण के तीखे नैन, मोर पंखी मुकुट और राधा की मराल ग्रीवा सी लहराती बांहें, पैरों का सुर्ख आलता भी अच्छा बना था। पर … गाल तपने लगे थे, गला सूख गया था, हथेली पर ब्लेड चला देते तो वहां तुम्हें मेरा बहता खून नहीं मिलता… जम गया था। माना प्रणयरत युगल का चित्र था, निर्वसना राधा – कृष्ण को भी मैं ने पापा की सेफ में बन्द रहने वाली और हज़ारों में बिकने वाली पेन्टिंग्स में देखा था। पर तुमने यह क्या किया था … राधा को कृष्ण के उपर … चित्रित किया था। जहां राधा जी की दोनों जंघाएं कृष्ण को कमर से लपेटे थीं। छि: ।
" छि: क्या? हां इसमें गलत क्या है? क्या विपरीत रति नहीं पढ़ा बिहारी की कविताओं में? मथुरा की हो मंदिरों के आस – पास रहती हो, क्या वैष्णव कविताएं नहीं सुनीं? वे भी तो कृष्ण – राधा ही हैं।"
मैं निरुत्तर। क्या कहती तुम्हें कि — सब कुछ देखा – पढ़ा – सुना था मधुसूदन लेकिन उसे मैं ने भक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं माना था। पर वह जो तुमने पेन्ट किया था वह बहुत दुनियावी किस्म का प्रणय व्यापार लगा था। और तुमने वैसी पेन्टिंग्स की एक पूरी सीरीज़ निकाल दी और तुम्हारे अगले एक्ज़िबिशन में वे सारी खूब सराही गईं। मुझे तब बहुत गुस्सा आया था तुम पर। पर मुझे उस नर्क जैसे घर से निकल कर इस स्टूडियो में आना था सो मैं ने तुमसे कुछ नहीं कहा। तुम्हारा इस शैली को सीखने का जुनून जल्द ही उतर गया। फिर लम्बे समय तक तुमने कुछ नहीं बनाया। यामिनी को लेकर बहुत परेशान थे तुम।
उसके बाद अगर तुमने कुछ बनाया भी तो अधूरा छोड़ दिया। उन्हें मैं कबाड़ से उठा उठा कर पूरा किया करती थी। दरअसल यह स्टूडियो जो तुमने मुझे दिया था वह तुम्हारे कबाड़ रखने के लिये ही तो इस्तेमाल होता रहा था। और तुम इतने चतुर थे कि अपने उन अधूरे कैनवासों को मेरे पूरा कर देने के बाद ज़रा सा टच अप करके एक्ज़िबिशन लगा कर बेच लेते थे। लाखों में बिकते वे… तुम्हारे नाम से।
यामिनी से तुमने चाव से ब्याह किया था, वह कथक नर्तकी तुम चित्रकार… बड़ा रोमान्स था इस बन्धन की कल्पना मात्र में, तुम बताया करते थे। कितनी कितनी भाव भंगिमाओं में नृत्यरत अतीव सुन्दरी यामिनी के चित्र तुमने बनाये मगर उन्हें कभी एक्ज़िबिट नहीं किया। न बेचा। आज भी वे मेरे इसी स्टूडियो में उलटे पड़े हैं, जैसे कि तुम उस रात उन्हें पटक गये थे।
उस काल्पनिक बंधन में जो रोमान्स था वह असल ज़िन्दगियों में नहीं चला। मैं ने मधु तुमसे कभी पूछा भी नहीं। तुम जब यामिनी से नाराज़ होकर यहां आकर प्रलाप किया करते थे उसमें से मैं कुछ हिस्सा ही सुनती थी, कुछ कानों में जाकर भी अनसुना – अनबूझा रह जाता। सुना हुआ अंश भी कुछ बहुत उथला लगता था। दोनों अपनी – अपनी जगह गलत लगते। दोनों के दोनों अतिमहत्वाकांक्षी। तुम दोनों ही अपने – अपने आसमान के चमकते सितारे, मैं एक अदना सा उल्का!
मैं थी ही कौन? तुम्हारी कोई नहीं। एक स्टूडेन्ट भी नहीं। तुम तो कभी यूं ही चले आते थे हमारे कॉलेज! ऑनरेरी प्रोफेसर बन कर कभी कभार। मेरे पास तुम्हारा दिया स्टूडियो था, उसके बदले में मुझे तुम्हें सुनना होता था, उस स्टूडियो की सुविधाओं व शांति के बदले मैं तुम्हें घण्टों सुन सकती थी, इसके सिवा और कोई लेना – देना नहीं था तब तक तो हममें – तुममें!
एक बार याद है उन्हीं बिना लेन – देन वाले दिनों में मैं तुम्हारे और यामिनी के बीच गेहूं बीच घुन की तरह पिसी थी। हर बार की तरह झगड़ कर तुम मेरे पास आये।ह्य तब मैं सोचती थी तुम्हारा कोई दोस्त नहीं होगा, पर सच तो ये था कि तुम्हारे दाम्पत्य के झगड़ सुनने को मैं ही एक बची थी जो बिना प्रतिवाद किये लगातार सुनती थी।हृ पीछे – पीछे यामिनी आ गईं। मैं ने उन्हें उनके चित्रों के बाहर पहली बार देखा था।
" तो ये है तुम्हारी ' नई वजह '।" उनकी भावप्रवण आंखों में रौद्र रस का भाव था।
मैं अचकचा गई थी।
" उस मासूम को बीच में मत घसीटो। यह तो बस यहां रह रही है।"
" गई नहीं तुम्हारी जवान लड़कियों को दोस्त बनाने की आदत? पहले वह तूलिका… अब यह …।"
" मुझे भी अपना – सा समझा है। हर डान्स ट्रिप पर एक फिरंग अनुभव! फिर आकर कहती हो कि क्या हुआ अगर भूख लगी तो बाहर एक बर्गर खा लिया तो! हाइट्स ऑफ डबल स्टैण्डर्डस ।"
" तो कहो न तुम भी… भूख लगी तो… बाहर …"
" बकवास मत करो यामिनी, इस बच्ची को बख्श दो। चलो घर।"
" बच्ची! …"
तब तक मैं उनके लिये पानी ले आई थी। उन्होंने चुपचाप पी लिया था। पता नहीं क्यों पानी पीकर, मेरे साधारण चेहरे, साधारण आंखों में झांक कर उन्हें अपने पति पर तो नहीं लेकिन मुझी पर हल्का सा यकीन आ गया था। वे चुपचाप तुम्हारे साथ चली गईं थीं। उसके बाद जब मिलीं एक आत्मीयता से।
उनके तुम्हारे झगड़े फिर कभी सुलझे ही नहीं। रम्या, तुम्हारी बेटी बड़ी हो रही थी और तुम दोनों तलाक की सोच रहे थे। किन्तु तुम दोनों ही ऐसा नहीं कर सके, कलाकार थे दोनों… किसी सम्बन्ध को तोड़ कैसे सकते थे, वह भी पेपर्स पर लिख कर साइन करके। तुम दोनों ने एक दूसरे को बिना लिखत – पढ़त स्वतन्त्र कर दिया था। मैं ने तुम्हें बुरी तरह टूटा देखा, तुम रम्या के लिये तरसते थे, वह घर जिसके होने का सुख यामिनी से जुड़ा था, समाप्त हो गया। तुम बड़े वाले स्टूडियो में ही रहते, पीते थे… पेन्ट करते थे। मैं ने तुम्हें महीनों नहीं देखा। पर फिर जब तुम इस हायबरनेशन से निकले तो कला का एक अनमोल खज़ाना लेकर। कितनी समीक्षाएं, कितने पुरस्कार! कितना नाम हुआ था। देश के वरिष्ठ चित्रकारों में नाम शुमार हुआ।
मैं अब भी हाथ – पैर मार रही थी, जीविकोपार्जन, कला साधना, कला के क्षेत्र में प्रतिष्ठा का प्रयास — तीनों के लिये। मैं ने मान लिया था कि तुम भूल गये होगे इस जान पहचान को। तुम्हारी एक्ज़ीबिशन में मैं वहीं थी, तुम मुझे ब्लैंक लुक देकर निकल गये थे, एक भीड़ के साथ। वह व्यवहार नया नहीं था, मैं थी ही क्या एक ज़र्रा और तुम कहां एक हस्ती! ना, मुझे बुरा नहीं लगा था। हां तो मैं ने मान ही लिया था कि तुम भूल गये हो। फिर भी लगा कि कभी इस स्टूडियो को खाली करवाने या किसी काम से आओगे ही।
एक दिन तुम आये भी, स्टूडियो को खाली करवाने या किसी काम से नहीं, मुझसे मिलने। क्योंकि बहुत दिन बाद तुम्हें अदरक वाली चाय की याद आई थी, लगातार बरसात की वजह ठण्ड हो गयी थी, भुट्टे बिकना शुरु हो गये थे। इधर से गुज़रे तो वही कुछ याद आ गया था। मैं…मेरे बहाने यामिनी… यामिनी के बहाने … मैं। मोती के मनके थे यादों के, कहीं से फेर लो।
" क्या चल रहा है?"
" कुछ खास नहीं, वही फ्रीलान्स काम और एम। ए।।
" एम। ए। किसलिये? आर्टिस्ट हो, प्रोफेसर बनना है क्या?"
" कुछ नया सीखने को मिलेगा।"
" कुछ नया – वया सीखने को नहीं मिलेगा। वहां युनिवर्सिटी में सब गधे बैठे हैं। वो तुम जैसी कलाकार को क्या सिखायेंगे? सीखना था जो सीख लिया, अब अपनी शैली बनाओ और अपना पी आर डैवलप करो, लोगों से मिलो, स्वयं को स्थापित करो। कुछ नहीं तो अपनी किशनगढ़ शैली को ही आगे बढ़ाओ। तुम में जो सच की कला है वह आज दुर्लभ है। बस लोगों के सामने आने की ज़रूरत है।"
" मैं तो कुछ भी नहीं हूँ।मेरे साथ के स्टूडेन्ट्स…"
" रबिश! वो चित्रा खाक कलाकार है? बस उसे लोगों को सीढ़ियां बनाना आता है, अच्छी अंग्रेज़ी आती है, स्टायल है उसमें। हरेक को खास महसूस करवा देती है। तुम्हारी तरह थोड़े ही कि एक कोने में बैठ कर बढ़िया पेन्टिंग्स बना लीं और मुंह पर ताला लगा लिया। एडवर्टाइज़मेन्ट एजेन्सीज़ के दरवाजे जा जा कर अपनी कला बेच लोगी पर बड़े स्तर पर अपनी कला बेचना नहीं आयेगा।"
मैं तमतमा गयी थी। पर वे शायद मुझे उकसा रहे थे तमतमाने को

" तो क्या आप चाहते हैं कि मैं भी चित्रा की तरह…"
" बस यही तो है तुम छोटे शहरों की लड़कियों की खासियत… बात बात पर तमतमाना, अपना आत्मसम्मान नमक लगा कर चाटते रहना। मेरे कहने का मतलब है, अपनी कला को आगे लाओ, किसी बड़े कलाकार की पिछलग्गू बन जाओ। फिर उस पर पैर रख कर आगे उससे भी।"
" किसकी?"
" हां तुम मुझे बड़ा कलाकार समझती कहाँ हो।" अब तुम शैतानी से मुस्कुरा रहे थे मुझे असमंजस में देख कर…
" आपकी!"
" बुद्धू, तूने तो मेरी जानपहचान तक का फायदा नहीं उठाया। मैं ही तुझसे सीख गया बहुत कुछ। हैट्स ऑफ टू यू उमा।"
" पर मैं…।"
" तू ऐसी ही रहना, धूल में लिपटे मोती सी। तेरी आब को दुनिया की हवा लगे यह मैं नहीं चाहता। पर चाहता हूँ तेरी प्रतिभा दुनिया पहचाने।" कह कर तुम भावुक हो गये थे। मेरा सर सहलाते रहे थे।
चाय के बाद, भुट्टा भी सिका। फिर मधुसूदन तुमने अपनी पुरानी कबर्ड खोल अपना ड्रिंक भी बना लिया, बाहर से खाना भी आ गया लेकिन बातें खत्म नहीं हुईं। बहुत अरसे की अकुलाहट थी, इसीलिये मैं याद आई थी। ज़माने भर की, कला की, कलाकारों की बातों का अन्त हो चुका था पर अकुलाहट कहीं शेष थी। बहुत देर बाद सिगरेट के धुंए के गुबार से कुछ बेचैन शब्द निकले —
" उमा, यामिनी यू एस ए जा रही है।
" तो… क्या परफॉरमेन्स होगी।
" ना… रत्ना को लेकर। हमेशा के लिये।"
" क्यों? "
" कोई है।"
" कौन? "
" जिससे शादी कर रही है। एक बिज़नेसमेन।" तो यह बात थी, जो मधुसूदन तुम्हें बरसों बाद उमा को बताने की अकुलाहट हुई थी। मैं उमा तुम्हारे बिखरते दाम्पत्य की राज़दार। मैं जो इस राज़दारी का, इस दोस्ती का फायदा नहीं उठा सकी। मैं जो तटस्थ थी, सुनकर भी नहीं सुनती थी उन जी मिचला देने वाली बातों को।
तुम ड्रन्क हो उसी सैटी पर सो गये थे। जहां मेरे सोने का ठिकाना था। मैं मूढ़े पर बैठी रही देर तक फिर थक कर वहीं बगल में चादर बिछा सो गयी। मेरा जी बहुत घबरा रहा था, लोग क्या सोचेंगे इस बात की चिन्ता नहीं थी, तब तक यहां चित्रकारों की कोई खास पूछ नहीं थी… न उन्हें और उनके किस्सों – प्रेम प्रसंगों को अखबारों के तीसरे पन्ने पर जगह मिला करती थी। पर मुझे ही किसी पुरुष के सान्निध्य की यूं आदत नहीं थी। पिता के पास सोना पांचवी कक्षा के बाद से छोड़ दिया था।और फिर तब से अब तक पुरुष प्रसंग से कोरा ही रहा था मन। साधारण चेहरा मोहरा, कभी किसी लड़के ने नहीं जताया कि मैं भी रुचि लेने लायक लड़की हूँ। हां एक बार ममेरे भाई ने पास खींच कर गन्दी सी बात कही थी। तभी से मैं लड़कों से भागती रही। फिर बी। ए। में शादी का प्रसंग चला तो चार – पांच बार रिजेक्ट होकर पापा के कहने पर बम्बई आर्ट पढ़ने आ गई थी।
अजीब सी स्थिति थी उस रात मधु। कभी कनफेस नहीं किया आज करने दो। मन कह रहा था कि " कहीं इस आदमी ने… पकड़ लिया तो।" पर यह बात डरा कम रही थी, रोमांचित ज़्यादा कर रही थी… पर फिर भी मैं अपने वाक् अस्त्र पैने कर रही थी, मसलन — " मुझे चित्रा समझ लिया है? मैं इस कीमत पर तो कतई आपका नाम लेकर आगे बढ़ना नहीं चाहती.। कितना विश्वास किया… अभी निकलें यहां से… और अगर यह आपका स्टूडियो है तो मैं ही निकल जाती हूँ।" पर एक अनजानी कामना के आगे ये अस्त्र भौंथरे थे मधु.। पर तुम उतने ही गरिमामय थे जैसा मैं ने आरम्भ से तुम्हें जाना था। रात बीतती जा रही थी, सुबह की आहट ठिठकी थी। तुम बेसुध। मैं प्रसन्नता और तुम पर गर्व, एक संतोष के साथ – साथ कहीं डिसअपॉन्इन्ट भी थी। उस तुम्हारे द्वारा स्वयं को पकड़े जाने की क्षीण सी उम्मीद खत्म हो रही थी। न जाने कब नींद आ गयी। उठी तो तुम नहीं थे। ईज़ल पर ' सॉरी ' का नोट चिपका था। वह सॉरी किसलिये था मधु?
फिर तुम अकसर साधिकार मेरे स्टूडियो आते थे। तुम्हारा दूसरा बहुत बड़ा स्टूडियो मेरे लिये अब तक रहस्य है। पहले सुना था उसमें कई कमरे हैं, दीवारों की साइज़ के कैनवासेज़, उसी स्टूडियो में तुम्हारी सारी महान पेन्टिंग्स बनी थीं। अब वहां एक बुटीक खोल लिया है तुम्हारी भान्जी ने। लोग तुम्हें भूलने लगे हैं मधु.। और मैं … मेरा क्या है… मैं तो वही उल्का हूँ — तुम्हारी लगातार घूमती व्यस्त दुनिया में जाने कहां से टूट कर आ गिरा एक पिण्ड! जो तुम्हारी परिक्रमाओं में खलल डाले बिना तुम्हारे चारों ओर नामालूम सा घूमता रहा… बल्कि आज भी घूम रहा है, इस निर्वात में तुम्हारी उपस्थिति के महज आभास के चारों ओर!
तुमने मुझे उस स्टूडियो आने के लिये सदैव अनुत्साहित किया। स्वयं तो कभी लेकर गये नहीं। लोग उड़ाते थे कि वहां तुम्हारे लिये कुछ लड़कियां न्यूड मॉडलिंग करती हैं। पर मैं ने तुम्हारी पेन्टिंग्स में वह तत्व कभी देखा नहीं। शायद पापा की तरह ही… जो प्रणयरत पेन्टिंग्स वे हम सब से छुप कर जाने कब बनाते थे, जाने कब वे बिक जाती थीं। वो तो गलती से एक बार मैं ने उनकी अनुपस्थिति में अलमारी खोल ली थी। पतली कलम निकालने के लिये। प्रेम का वह पक्ष मुझे तब भी उद्वेलित कर गया था।
तुमने मुझे सिखाया अपनी राह बनाना, तुमने मेरी सहायता की पहली एक्ज़ीबिशन लगाने में, हां, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक सहायता। न मुझमें मीडिया के लोगों और कला समीक्षकों से सम्पर्क करने की तमीज़ थी, न भाग दौड़ करने की ताकत व साधन, न ही पैसा। तुमने राह खोल दी तो मुझे पैर बढा.ने को नई दिशाएं मिलीं। पर तुमने मुझे सिखा दिया सिगरेट पीना, वाइन पीना। पर वह सब उसी स्टूडियो की चारदीवारी में। ढेर सी बातों के बीच। तुमने बनाया आत्मविश्वासी। मेरी पहली पेन्टिंग तुम्हीं ने खरीदी थी। लोग मुझे पहचानने लगे थे। पर तुम सदा नेपथ्य में रहे। हमारा नाम कभी जुड़ा नहीं। दो किनारे नहर के जिनके बीच बहता ज़रूर था एक रिश्ता पर उस रिश्ते का नाम नहीं था, पहचान नहीं थी। तुम्हें उसकी ज़रूरत भी नहीं थी। पर तुमने मुझसे भी नहीं पूछा कि मुझे इस पारदर्शी रिश्ते को कोई रंग देने का मन करता है क्या? जिस दिन दुनिया के बीचों बीच तुम मुझसे अनजान बन कर कतरा जाते थे, उसी शाम हम साथ अदरक की चाय पीते, रात को सिगरेट और वाइन के बाद फिर थाई फूड खाते। फिर दो मर्द दोस्तों की तरह इधर उधर मुंह करके सो जाते।
उस ज़माने में लिविंग इन रिलेशन दुर्लभ था, लेकिन हम साथ रहते थे स्वच्छन्द हो कर। शायद वह लिविंग इन रिलेशन ही था, बिना किसी ज़िम्मेदारी, बिना किसी बन्धन के… जहां देह की भूमिका शून्य थी। पर मैं भारतीय संस्कारी स्त्री की जात! कूट कूट कर भरा हुआ तन मन के रेशों में यही संस्कार… तुम आधार बने, तुम साथी बने, तुम प्रेरणा बने तो… मन के उस नितान्त खाली गर्भगृह में स्थान कैसे न पाते?
जब तुमने जाना तो खीज कर रह गये थे।
" और तुम जैसी मध्यमवर्गीय मानसिकता वाली लड़कियां और क्या कर सकती हैं। शादी कर लो, किसी को प्यार कर लो। मन ही मन चाह लो। मैं सोचता था अलग किस्म की लड़की है… इस बेबाक, बेरोकटोक साथ में ये सब घटियापन नहीं घुसाएगी।"
तब मुझे पहली बार लगा था कि मैं देखने में बहुत ही साधारण नहीं बल्कि बदसूरत ही हूँ। किसी को आकर्षित नहीं कर सकती। मुझसे दोस्ती की जा सकती है, पर … प्यार व्यार …नहीं। मन खिन्न रहा था। और मैं ने बहुत ही मटमैले रंग लेकर टूटी चारपाई पर लालटेन लिये एक छोटे वक्षों वाली, काली बदसूरत लड़की बनाई थी। तुम्हारे पूछने पर कि " यह क्या है? मैं ने कहा था, " सेल्फ पोट्र्रट है।" तुम भुनभुना कर रह गये थे तब तो।
फिर बहुत दिनों बाद यायावरी कर तुम लौटे थे, बल्कि रत्ना से भी यूरोप के एक बोर्डिंग स्कूल में मिल कर लौटे थे, तुम बहुत खुश थे कि तुमने उसे अठारह साल का होने के बाद अपने साथ भारत में रहने पर राज़ी कर लिया है।
तब एक रात फिर दो दोस्तों की महफिल जमी थी। मैं कला के क्षेत्र में कुछ और सीढ़ियां ऊपर चढ़ गई थी। पापा जब मुम्बई आये थे खुश थे चित्रकला के क्षेत्र में मेरे मुकाम को देख कर, पर नाराज़ होकर गये थे कि अब तक मैं ने शादी के बारे में सोचा तक नहीं है। मैं साफ मना कर चुकी थी 'अब कला ही जीवनसाथी है ' की अतिभावुक और अतिरंजित टिप्पणी के साथ। जो उनके गले कतई नहीं उतरी थी। तुम यह जान कर चुप ही रहे। हमने फिर वह वाइन पी जो तुम स्विट्ज़रलैण्ड से लाये थे। तुम हतप्रभ थे मुझे लगातार सिगरेट फूंकते देख। पर रोका नहीं था तुमने। उसी रात मैं ने तुम्हें बताया था कि उस बदसूरत सेल्फ पोर्ट्रेट को ललित कला अकादमी का युवा चित्रकारों में प्रथम पुरस्कार मिला है। तुमने कहा था, " गधे बैठे होंगे निर्णायक मण्डली में " मैं आहत हुई थी। तब तुमने प्रस्ताव रखा था पहली बार कि आज तुम मुझे अपने चित्र का विषय बनाओगे और बताओगे कि मैं क्या हूँ एक चित्रकार की निगाह में, अगर मुझे तुम पर भरोसा हो तो!
भरोसा! मधु! तुम हथेली की नस काट देने को कहते तो काट डालती। पर तुम्हें यह बहनजी नुमा डायलॉग्स पसन्द नहीं थे। सो मैं हमेशा की तरह चुप ही रही। तुम्हें पसन्द था मैं अपने व्यक्तित्व को लेकर सजग रहूँ। अपने नारीत्व पर गर्व करुं। दुर्लभ समझूं स्वयं को।
तुम्हारे इशारे भर पर मैं ने चुपचाप अपनी स्लिप तक उतार दी थी। तुमने नापा – जांचा – परखा … घुटनों के बल बैठ जाने को कहा… फिर पर्दे के पीछे आधा ढंका – आधा उघड़ा सा खड़ा किया कुछ रेखाएं उकेरीं और उठ कर सिगरेट सुलगा कर तुम बाहर बॉलकनी में चले गये। फिर तैयार होकर हम बाहर खाना खाने गये। तुम रहस्यमय तरीके से चुप थे।
बाद में मैं ने सुना तीन दिन तुम अपने स्टूडियो में हायबरनेट रहे। लोग कयास लगा रहे थे कि मधुसूदन का कोई मास्टरपीस ही आने वाला है। तुम बहुत दिनों बाद पेन्ट करने बैठे थे। वो तो मैं तुम्हारी अधूरी पुरानी पेन्टिंग्स को पूरा करती रही बीच में नहीं तो तुम्हारी कला में रिक्तस्थान आ जाता… तुम्हारा असर कम होने लगता। यह बात तुम जानते थे। अब इतने समय बाद मेरा ब्रश जब तुम्हारी अधूरी पेन्टिंग्स पर चलता था तो मैं रंग संयोजन और तुम्हारी विषय को लेकर मंशा खूब समझ जाती थी। तुम्हारी पेन्टिंग तुम्हारी ही लगती। तुम्हारे इस असर से मैं अपनी पेन्टिंग्स को बहुत कोशिश करके ही बचा पाती थी। अन्यथा दो चार टिप्पणियां इस पर आ चुकी थीं कलासमीक्षकों की आर्टटुडे में कि " उमा सहाय की पेन्टिंग्स पर मधुसूदन का प्रभाव।" मुझे तो भला लगा था। तुम मुझे हिदायत देने बैठ गये थे कि यह सब हम दोनों के लिये ही ठीक नहीं। पर तुम जानते थे मेरे बिना तुम्हारा और तुम्हारे बिना अब मेरा काम नहीं चलने वाला, हां भई इस साझे क्षेत्र में।
हां तो चौथे दिन तुम प्रगट हुए थे दाढ़ी बढ़ाए, खिचड़ी बाल और पसीने से महकता कुर्ता पायजामा लेकर। मुझे वह विशाल पेन्टिंग वैन की डिक्की में से लाने को कहा। अकेले लाना मुश्किल था पर लाई… उसे अखबारों और सुतलियों के प्रयोग से ढक रखा था। खोला तो हतप्रभ — ढेरों ढेर हरी पत्तियों वाली झाड़ी के बीच जामुनी रंग की एक पतली लम्बी आकर्षक देह, बालों से ढका वक्ष, पत्तियों के बीच झांकती प्रश्नचिन्ह सी नाभि, लम्बे पैर, चेहरा लम्बा, लम्बी खिंची तरल आंखें। बालों में जवा का रक्ताभ पुष्प। ' शिवाज़ पार्वती '
कुछ कहा नहीं तुमने, कहते ही कहां थे तुम कुछ। न मुझे कुछ कहने का मौका देते थे। तुमने फिर पूरी सीरीज़
बनाई। एक्ज़ीबिशन लगी। पर वे सब पेन्टिंग्स दान कर दीं तुमने एक संस्थान को। एक भी पेन्टिंग न मुझे दी , न खुद रखी।
आगे इस विषय पर न कुछ पूछा गया न कहा गया। मैं ने अपने आप जान लिया मैं क्या हूँ तुम्हारे लिये।
धीरे – धीरे तुमने पुराना घर छोड़ दिया। बड़ा स्टूडियो बन्द हो गया। तुमने इस स्टूडियो से लगा अपना फ्लैट किरायेदार से खाली करवा लिया और यहीं चले आये। तुम बीमार रहने लगे थे और तुम्हें किसी की ज़रूरत थी अपने पास। तुमने पेन्ट करना बन्द कर दिया पर मुझ पर नकारात्मक प्रतिक्रिया करना जारी रखा, मुझे डांट कर सिखाना जारी रखा। तुम्हें दिक्कत होती थी मैं ने सिगरेट पीना कम कर दिया था। हम एक अब भी एक ही बिस्तर पर दो अजनबियों की तरह सोते थे। मेरा हाथ गलती से तुम्हारी छाती पर या पैर तुम्हारी जांघ पर पड़ जाता तो तुम चिल्ला पड़ते थे। " ठीक तरह से सोओ उमा!"
लोग कहते थे, मैं तुम्हारी प्रेमिका हूँ! प्रतिक्रिया में तुम्हारी खीज देख कर मन ही मन मैं खुश होती थी। पर सच तो ये था तुम प्रेमी बनना ही नहीं चाहते थे, हाँ तुम्हें अराध्य बनना स्वीकार्य था। जहां बिना कुछ दिये लिये एक महज एक आभास बन कर रहा जा सके। बिना किन्हीं कर्तव्यों के।
याद है तुम्हारे अस्पताल जाने के पहले वाली शाम… मेरी एक पेन्टिंग को अवॉर्ड मिला था, याद नहीं जाने कौनसा। तुम्हारी नकारात्मक टिप्पणी पर पहली बार रोना आया था। मैं सेलेब्रेट करना चाहती थी, दोस्तों के साथ… तुम चीख पड़े थे…
" अपने यार दोस्तों का अड्डा मत बनाओ इस घर को। भूल गईं कि…" न जाने क्यों तुम दिन ब दिन चिढ़चिढे. हो गये थे। बात – बात पर गुस्सा तुम्हारे बढ़ते ब्लडप्रेशर के लिये घातक था। पर मैं भी तंग आ गई थी। मैं ने जवाब दे दिया।
" कुछ नहीं भूली हूँ मधुसूदन। छोड़ो कुछ सेलेब््रोट नहीं करना मुझे। तुम जैलस हो रहे हो। मेरी सफलता किरकिरी बन गई है अब तुम्हारे लिये है ना!"
" उमा!" तुम्हें ठण्डे पसीने आ गये थे। आंख भर आई थी। पर हम प्यार की उस हद पर खड़े थे जहां कामनाओं की मुश्कें कस कस कर हमारे अड़ियल मन एक दूसरे को आहत कर के सुख पाते थे।

" उमा! कैसे सोच सकती है तू! मैं जलूंगा तुझसे। मेरे नैगेटिव कमेन्ट्स तुझे परफेक्शन की बारीक हद तक पहुंचाने के लिये हुआ करते थे। तेरे लिये बहुत ऊंचा सपना है मेरा। और आज है ही कौन मेरा? रम्या वादा करके भी लौटी नहीं मेरे पास। अपने बाप के पास…उसे अमरीका की फास्ट लाइफ ही जंची। अब तुम ही हो मेरी सब कुछ कोई नाम दे लो, उमा! आज चाहता था मैं कि तुम मेरे साथ सेलेब्रेट करो, पर कह न सका, मुझे लगता था कि तुम्हें तन – मन से तो अपनाया नहीं किस अधिकार से रोक लूं? वह भी एक ज़िद ही थी। वरना क्या है उमा…… लेकिन हमारे मराठी में एक कहावत है न– एक पल बहकने का और बाकि पूरा जीवन उससे उबरने का। तुझे क्या देता मैं? " इतना कहकर ही हांफने लगे थे तुम।

मैं अपनी गलती समझ गई थी। माफी मांगी थी मैं ने। तब तुमने बड़े चाव से अपना चांदी का सिगरेट केस निकाला था, उसमें दस उम्दा विदेशी सिगरेट्स थीं। एक – एक हमने पी। फिर शैम्पेन खुली। बहुत दिनों बाद तुम्हारा जी चाहा कि तुम पेन्ट करो…तुमने जामुनी रंग में ब्रश डुबोया था… तुम्हारा मनचाहा रंग, तुम कहते थे मैं सांवली नहीं हूँ, सलेटी या नीली भी नहीं, लाल झांई मारती मेरी स्निग्ध त्वचा जामुनी रंग की है। वह ब्रश डूबा ही रह गया था, कि मुझे एम्बुलेन्स बुलानी पड़ी थी। तुम अस्पताल गये ज़रूर थे… मुझे पूरा विश्वास था तुम लौट आओगे एक यायावरी के बाद… पर तुम नहीं लौटे मधुसूदन।
इतने वर्षों के अन्तरालों में हज़ार – हज़ार बार लगा। चलो तुम तो नहीं लौटोगे मैं ही चली आऊं तुम्हारे पास। पर तुम्.हारे इस सपने ने पूरा होने में वक्त लगा लिया। पासपोर्ट बन चुका है…उम्र के दस्तखतों के साथ… बस वीज़ा मिल जाये, बुलावा आ जाये तुम्हारा तो सफर की तैयारी करुं।

– मनीषा कुलश्रेष्ठ
 


वरिष्ठ नागरिक
इमारतों का दायित्व नीवों के प्रति – सम्पादकीय

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बूढ़ी काकी – प्रेमचन्द
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