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बूढ़ी काकी — प्रेमचन्द       
 
  बुढा.पा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा – स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का रोने के अतिरिक्त दूसरा कोई सहारा ही। समस्त इन्द्रियां, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे। पृथ्वी पर पड़ी रहतीं और जब घरवाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रतिकूल करते या भोजन का समय टल जाता, उसका परिमाण पूर्ण न होता अथवा बाज़ार से कोई वस्तु आती और उन्हें न मिलती तो रोने लगती थीं। उनका रोना – सिसकना साधारण न था, वह गला फाड़ – फाड़ कर रोती थीं।
उनके पतिदेव को स्वर्ग सिधारे कालान्तर हो चुका था। बेटे तरुण हो होकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के सिवाय और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति लिख दी थी। भतीजे ने सम्पत्ति लिखाते समय तो खूब लम्बे – चौड़े वादे किये, परन्तु वे सब वादे केवल कुली डिपो के दलालों के दिखाए हुए सब्ज़बाग़ थे। यद्यपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़ – दो सौ रुपये से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे पंडित बुद्धिराम का अपराध था अथवा उनकी अद्र्धांगिनी श्रीमति रूपा का, इसका निर्णय करना सहज नहीं। बुद्धिराम स्वभाव के सज्जन थे; किन्तु उसी समय तक जब तक कि उनके कोष पर कोई आंच न आये। रूपा स्वभाव से तीव्र थी सही, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढ़ी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी जितनी बुद्धिराम की भलमनसाहत।
बुद्धिराम को कभी – कभी अपने अत्याचार का खेद होता था। विचारते कि इसी सम्पत्ति के कारण मैं इस समय भलामानुस बना बैठा हूँ। यदि मौखिक आश्वासन और सूखी सहानुभूति से स्थिति में सुधार हो सकता तो उन्हें कदाचित् कोई आपत्ति न होती, परन्तु विशेष व्यय का भय उनकी सचेष्टा को दबाये रखता था। यहाँ तक कि यदि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगतीं तो वह आग हो जाते और घर में आकर ज़ोर से डाँटते। लड़कों को बुड्ढों से स्वभाविक विद्वेष होता ही है और फिर जब माता – पिता का यह रंग देखते तो बूढ़ी काकी को और भी सताया करते। कोई चुटकी काट कर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता। काकी चीख मार कर रोतीं; परन्तु यह बात प्रसिद्ध थी कि वह केवल खाने के लिये रोती हैं; अतएव उनके संताप और आर्तनाद पर कोई ध्यान नहीं देता था। हाँ, काकी कभी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियां देने लगतीं तो रूपा घटनास्थल पर अवश्य आ पहुंचती। इस भय से काकी अपनी जिह्वा – कृपाण का कदाचित् ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।
सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को अनुराग था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाड़ली थी। लाड़ली अपने दोनों भाइयों के भय से से अपने हिस्से की मिठाई – चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यही उसका रक्षागार था और यद्यपि काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत महंगी पड़ती थी, तथापि भाइयों के अन्याय से कहीं सुलभ थी। इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में प्रेम और सहानुभूति का आरोपण कर दिया था।
रात का समय था। बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी और गांव के बच्चों का झुण्ड विस्मयपूर्ण नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर रहा था। चारपाइयों पर मेहमान विश्राम करते हुए नाइयों से मुक्कियां लगवा रहे थे। समीप ही खड़ा हुआ भाट बिरदाावली सुना रहा था और कुछ भावज्ञ मेहमानों के " वाह, वाह " पर ऐसा खुश हो रहा था मानो इस वाह वाह का यथार्थ में वही अधिकारी है। दो एक अंग्रेजी पढ़े नवयुवक इन व्यवहारों से उदासीन थे। वे इस गंवार – मण्डली में सम्मिलित होना अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते थे।
आज बुद्धिराम के बड़े लड़के सुखराम का तिलक आया है। यह उसी का उत्सव है। घर के भीतर स्त्रियां गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिये भोजन के प्रबन्ध में व्यस्त थी। भट्टियों पर कढा.ह चढ़े थे। एक में पूरियां – कचौरियां निकल रही थीं। दूसरे में अन्य पकवान बन रहे थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पक रही थी। घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भांति बैठी हुई थीं। वह स्वाद – मिश्रित सुगन्धि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन ही मन विचार कर रही थीं, संभवत: मुझे पूड़ियां न मिलेंगी। इतनी देर हो गयी, कोई भोजन लेकर नहीं आया, मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके। मेरे लिये कुछ न बचा। यह सोच कर उन्हें रोना आया, परन्तु अपशकुन के भय से वे रो न सकीं।
" आहा! कैसी सुगन्धि है! अब मुझे कौन पूछता है? जब रोटियों के ही लाले पड़े हैं तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपेट पूड़ियां मिलें? " यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में एक हूक सी उठने लगी, परन्तु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया।
बूढ़ी काकी देर तक इन्हीं दु:खदायक विचारों में डूबी रहीं। घी और मसालों की सुगन्धि रह – रह कर मन को आपे से बाहर किये देती थी। मुंह में पानी भर – भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण कर हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूं; आज लाड़ली बेटी भी नहीं आई। दोनों छोकड़े सदा दिक किया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है।
बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल – लाल, फूली – फूली, नरम – नरम होंगी। रूपा ने भलीभांति मोयन दिया होगा। कचौरियों में अजवाइन और इलायची की महक आ रही होगी। एक पूरी मिलती तो ज़रा हाथ में लेकर देखती। क्यों न चलकर कढ़ाह से सामने ही बैठूं। पूड़ियां छन – छन कर तैरती होंगी। कढ़ाह से गरम गरम निकल कर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूंघ सकते हैं; परन्तु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकड़ू बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट उतरीं और धीरे धीरे रंगती हुई कढ़ाह के पास जा बैठीं। यहां आने पर उन्हें उतना ही धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खाने वाले के सम्मुख बैठने पर होता है।
रूपा उस समय कार्यभार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में; कभी कढा.ह के पास आती कभी भण्डार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा — महाराज ठंडई मांग रहे हैं। ठंडई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा — भाट आया है, उसे कुछ देदो। भाट के लिये सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा — " अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है? ज़रा ढोल मजीरा उतार दो।"
बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते – दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु रोष प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ौसिनें यह न कहने लगें कि इतने में ही उबल पड़ी। प्यास से उसका कण्ठ सूख रहा था। गर्मी के मारे फुंकी जाती थी, परन्तु इतना अवकाश भी नहीं था कि ज़रा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। यह भी खटका था कि ज़रा आंख हटी और चीज़ों की लूट मची।
इस अवस्था में बूढ़ी काकी को कढ़ाह के पास बैठा देखा तो जल गई। क्रोध न रुक सका। इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगी, पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झिंझोड़ कर बोली — ' ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा; तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गयीं। जल जाय ऐसी जीभ। दिन भर खाती न होतीं तो न जाने किस की हांडी .में मुंह डालतीं? गाँव देखेगा तो कहेगा बुढ़िया भरपेट खाने को नहीं पाती, तब तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। डाईन मरे न मांचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवा कर दम लेगी। इतना ठूंसती है, न जाने कहाँ भस्म हो जाती हो जाता है। लो! भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे तब तुम्हें भी मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुंह में पानी न जाये परन्तु तुम्हारी पूजा पहले हो जाय।"
बूढ़ी काकी ने सिर न उठाया, न रोईं, न बोलीं। चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गयीं।आघात ऐसा कठोर था कि हृदय और मस्तिष्क की सम्पूर्ण शक्तियां, सम्पूर्ण विचार और सम्पूर्ण भार उसी ओर आकर्षित हो गये थे। नदी में जब कगार का कोई वृहदखण्ड कटकर गिरता है तो आस – पास का जलसमूह चारों ओर से उसी स्थान को पूरा करने के लिये दौड़ता है।
भोजन तैयार हो गया। आंगन में पत्तल पड़ गये। मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार गीत गाना आरम्भ कर दिया। मेहमानों के नाई और सेवकगण भी उसी मण्डली के साथ, किन्तु कुछ हटकर, भोजन करने बैठे थे, परन्तु सभ्यतानुसार जब तक सबके सब खा न चुकें कोई उठ नहीं सकता था। दो एक मेहमान जो कुछ पढ़े लिखे थे, सेवकों के दीर्घाहार पर झुंझला रहे थे। वे इस बन्धन को व्यर्थ और बेसिर – पैर की बात समझते थे।
बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर रही थीं कि मैं कहां से कहां आ गयी। उन्हें रूपा पर क्रोध नहीं था। अपनी जल्दबाज़ी पर दु:ख था। सच ही तो है जब तक मेहमान लोग भोजन न कर चुकेंगे घरवाले कैसे खायेंगे। मुझसे इतनी देर भी नहीं रहा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने न आयेगा न जाऊंगी।
मन ही मन इसी प्रकार विचार कर वह बुलावे की प्रतीक्षा करने लगीं। परन्तु घी का रुचिकर सुवास बड़ा ही धैर्य – परीक्षक प्रतीत हो रहा था। उन्हें एक – एक पल एक – एक युग के समान मालूम होता था। अब पत्तल बिछ गये होंगे। अब मेहमान आ गये होंगे। लोग हाथ – पैर धो रहे हैं, नाई पानी दे रहा है। मालूम होता है लोग खाने बैठ गये। जेवनार गाया जा रहा है, यह विचार कर वह मन को बहलाने के लिये लेट गयीं और धीरे धीरे एक गीत गुनगुनाने लगीं। उन्हें लगा मुझे गाते देर हो गयी। क्या इतनी देर तक लोग भोजन ही कर रहे होंगे? किसी की आवाज़ सुनाई नहीं देती। अवश्य ही लोग खा – पीकर चले गये। मुझे कोई बुलाने नहीं आया। रूपा चिढ़ गयी है, क्या जाने न बुलाये, सोचती हो कि अपने आप ही आवेंगी, वह कोई मेहमान तो है नहीं, जो उन्हें जाकर बुलाऊं। बूढ़ी काकी चलने को तैयार हुई। यह विश्वास कि एक मिनट में पूड़िया और मसालेदार तरकारियां सामने आयेंगी, उनकी स्वादेन्द्रियों को गुदगुदाने लगा। उन्होंने मन में तरह – तरह के मन्सूबे बांधे — पहले तरकारी से पूड़ियां खाऊंगी, फिर दही शक्कर से; कचौरियां रायते के साथ मज़ेदार मालूम होंगी। चाहे कोई बुरा माने चाहे भला, मैं तो मांग – मांग कर खाऊंगी। यही न लोग कहेंगे कि इन्हें विचार नहीं? कहा करें, इतने दिनों के बाद पूड़ियां मिल रही हैं तो मुंह झूठा करके थोड़े ही उठ जाऊंगी।
वह उकड़ूं बैठ कर हाथों के बल खिसकती आंगन में आयीं। परन्तु हाय रे दुर्भाग्य ! अभिलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की मिथ्या कल्पना की थी। मेहमान मण्डली अभी बैठी थी। कोई खाकर उंगलियां चाटता था, कोई तिरछे नेत्रों से देखता था कि लोग अभी खा रहे हैं या नहीं? कोई इस चिन्ता में था कि पत्तल पर पूड़ियां छूटी जाती हैं किसी तरह इन्हें भीतर रख लेता। कोई दही खाकर जीभ चटखारता था, परन्तु दोना मांगते संकोच करता था कि इतने में बूढ़ी काकी रेंगती हुई उनके बीच में जा पहुंची। कई आदमी चौंक कर उठ खड़े हुए। पुकारने लगे… अरे यह कौन बुढ़िया है? यह कहाँ से आ गई? देखो किसी को छू न दे।
पं। बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गये। पूड़ियों का थाल लिये खड़े थे। थाल को ज़मीन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन किसी बेईमान और भगोड़े आसामी को देखते ही झपट कर उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपककर उन्होंने बूढ़ी काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अंधेरी कोठरी में धम्म से पटक दिया। आशारूपी वाटिका लू के एक झौंके से नष्ट – विनष्ट हो गयी।
मेहमानों ने भोजन किया। घरवालों ने भोजन किया। बाजेवाले, धोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परन्तु बूढ़ी काकी को किसी ने न पूछा। बुद्धिराम और रूपा बूढ़ी काकी को उसकी निल्र्लज्जता के लिये दण्ड देने का निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हतज्ञान पर किसी को करुणा न आती थी। अकेली लाड़ली उनके लिये कुढ़ रही थी।
लाड़ली को काकी से अत्यन्त प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल – विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाड़ली का हृदय ऐंठ कर रह गया। वह झुंझला रही थी कि यह लोग काकी को क्यों बहुत सी पूड़ियां नहीं दे देते? क्या मेहमान सब की सब खा जायेंगे? और यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जायेगा? वह काकी के पास जाकर उन्हें धैर्य देना चाहती थी; परन्तु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियां बिलकुल न खायीं थीं। अपनी गुड़ियों की पिटारी में बन्द कर रखी थीं। वह उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी। उसका हृदय अधीर हो रहा था। बूढ़ीकाकी मेरी बात सुनते ही उठ बैठेंगी। पूड़ियां देख कर कैसी प्रसन्न होंगी! मुझे खूब प्यार करेंगी!
रात के ग्यारह बज गये थे। रूपा आंगन में पड़ी सो रही थी। लाड़ली की आंखों में नींद न आती थी। काकी को पूड़ियां खिलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। उसने गुड़ियों की पिटारी सामने ही रखी थी। जब विश्वास हो गया कि अम्मा सो रही है; तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी — कैसे चलूं? चारों ओर अंधेरा था, केवल चूल्हों में आग चमक रही थी; चूल्हों के पास एक कुत्ता लेटा हुआ था। लाड़ली की दृष्टि द्वार के सामनेवाले नीम की ओर गयी। उसे मालूम हुआ कि उस पर हनुमान जी बैठे हुए हैं। उनकी पूंछ, उनकी गदा सब स्पष्ट दिखलाई दे रही थी। मारे भय के उसने आंखें बन्द कर लीं, इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाड़ली को ढाढ़स हुआ। कई सोये हुए मनुष्यों के बदले एक जागता हुआ कुत्ता उसके लिये अधिकतर धैर्य का करण हुआ। उसने पिटारी उठायी और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली।
बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़ कर घसीटे फिर ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाये लिये जाता है। उनके पैर बार बार पत्थरों से टकराये तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर पटका, वे मूच्र्छित हो गयीं।
जब वे सचेत हुईं तो किसी का ज़रा भी आहट न मिलती थी। समझा कि सब लोग खा पीकर सो गये और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गयी। रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊं? पेट में अग्नि धधक रही है। हा! किसी ने मेरी सुध न ली! क्या मेरा ही पेट काटने से धन जुट जायेगा? इन लोगों को इतनी भी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाये? उसका क्यों जी दुखायें? मैं पेट की रोटियां ही खाती हूँ कि और कुछ? इस पर यह हाल! मैं अंधी – अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूं न बूझूं, यदि आंगन में चली गई तो बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खा रहे हैं, फिर आना। मुझे घसीटा, पटका। उन्हीं पूड़ियों के लिये रूपा ने सबके सामने गालियां दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिये इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ही न दीं तो अब क्या देंगी?
यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गयीं। ग्लानि से गला भर – भर आता था, परन्तु मेहमानों के भय से रोती न थीं।
सहसा उनके कानों में आवाज़ आयी — " काकी उठो, मैं पूड़ियां लायी हूँ।"
काकी ने लाड़ली की बोली पहिचानी। चटपट उठ बैठीं। दोनों हाथों से लाड़ली को टटोला और उसे गोद में बिठा लिया। लाड़ली ने पूड़ियां निकाल कर दीं। काकी ने पूछा — " क्या तुम्हारी अम्मा ने दी हैं? "
लाड़ली ने कहा — " नहीं ये मेरे हिस्से की हैं।" काकी पूड़ियों पर टूट पड़ीं। पांच मिनट में पिटारी खाली हो गयी। लाड़ली ने पूछा — " काकी पेट भर गया?" जैसे थोड़ी सी वर्षा ठण्डक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है उसी भांति इन थोड़ी सी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इच्छा को उत्तेजित कर दिया था। बोलीं — " नहीं बेटी, जाकर अम्मां से और मांग लाओ। " लाड़ली ने कहा — " अम्मां सोती हैं, जगाऊंगी तो मारेंगी।"
काकी ने पिटारी को फिर टटोला। उसमें कुछ खुर्चन गिरे थे। उन्हें निकाल कर वे खा गयीं। बार – बार होंठ चाटती थीं, चटखारें भरती थीं।
हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियां कैसे पाऊं। संतोष सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण कराना उन्हें मदान्ध बनाना है। काकी का अधीर मन इच्छा के प्रबल बहाव में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक उस इच्छा को रोकतीं रहीं। सहसा लाड़ली से बोलीं — " मेरा हाथ पकड़ कर वहां ले चलो जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है।"
लाड़ली उनका अभिप्राय समझ न सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर जूठे पत्तलों के पास बिठला दिया। दीन, क्षुधातुर, हतज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन – चुन कर भक्षण करने लगी। ओह! दही कितना स्वादिष्ट था, कचौरियां कितनी सलोनी, खस्ता कितने सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थी कि मैं जो काम कर रही हूँ वो मुझे कदापि नहीं करना चाहिये। मैं दूसरों के जूठे पत्तल चाट रही हूँ, परन्तु बुढा.पा तृष्णा – रोग का अन्तिम समय है, जब सम्पूर्ण इच्छाएं एक ही केन्द्र पर आ जाती हैं। बूढ़ी काकी का यह केन्द्र उनकी स्वादेन्द्रिय थी।
ठीक उसी समय रूपा की आंख खुली। उसे मालूम हुआ कि लाड़ली मेरे पास नहीं है। वह चौंकी, चारपाई के इधर – उधर ताकने लगी कि कहीं नीचे तो नहीं गिर पड़ी। उसे वहां, न पाकर वह उठ बैठी तो क्या देखती है कि लाड़ली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर पूड़ियों के टुकडे. उठा – उठा कर खा रही है। रूपा का हृदय सन्न हो गया। किसी गाय की गर्दन पर छुरी चलते देख कर जो अवस्था उसकी होती, वही उस समय हुई ।
एक ब्राह्मणी दूसरों का जूठा पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असम्भव था। पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिये उसकी चचेरी सास ऐसा पतित और निकृष्ट कर्म कर रही है! यह वह दृश्य था जिसे देखकर देखने वालों के हृदय कांप उठते हैं। ऐसा प्रतीत होता मानो ज़मीन रुक गयी, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई नई विपत्ति आनेवाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ? करुणा और भय से उसकी आंखें भर आईं। इस अधर्म के पाप का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन – मण्डल की ओर हाथ उठा कर कहा — " परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो, इस अधर्म का दण्ड मुझे मत दो नहीं तो हमारा सत्यानाश हो जायेगा।"
रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न दिखाई पड़ा था। वह सोचने लगी — हाय! कितनी निर्दय हूँ मैं। जिसकी सम्पत्ति से मुझे दो सौ रूपया वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति! और मेरे कारण। हे दयामय भगवन! मुझसे भारी चूक हुई, मुझे क्षमा करो। आज मेरे बेटे का तिलक था सैंकड़ों मनुष्यों ने भोजन पाया। मैं उनके इशारों की दासी बनी रही। अपने नाम के लिये सैंकड़ों रुपये व्यय कर दिये, परन्तु जिसकी बदौलत हज़ारों रुपये खाये उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन न दे सकी। केवल इस कारण तो, वह वृद्धा है, असहाय है!
रूपा ने दिया जलाया, अपने भण्डार का द्वार खोला और एक थाली में सम्पूर्ण सामग्रियां सजा कर, लिये हुए बूढ़ी काकी की ओर चली।
आधी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे हुए थे और उन पर बैठे हुए देवगण स्वर्गीय पदार्थ सजा रहे थे, परन्तु उनमें किसी को वह परमानन्द प्राप्त न हो सकता था जो बूढ़ी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त हुआ था। रूपा ने कंठावरुद्ध स्वर में कहा — ' काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर दो कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दे।"
भोले – भाले बच्चों की भांति, जो मिठाइयां पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाते हैं, बूढ़ी काकी बैठी हुई खाना खा रही थीं। उनके एक – एक रोयें से सच्ची सदिच्छाएं निकल रही थीं और रूपा बेठी इस स्वर्गीय दृश्य का आनन्द लूटने में निमग्न थी।

(प्रेमचन्द की यह कहानी 1918 में उर्दू में लिखी गई तथा उर्दू की पत्रिका तहज़ीबे निसवाँ में छपी। तदन्तर यही कहानी हिन्दी में रूपान्तरित हो 1921 में 'श्रीशारदा' नामक हिन्दी पत्रिका में छपी थी।)


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