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उम्र
क्या सचमुच ठिठकती है
उम्र
कहीं किसी मोड़ पर आकर?
क्या सच में
बुझने से पहले
थरथराती है लौ दिये की?

लौटा कर कहां ले जाती है स्मृति ?

नहरों के किनारे की
पतली – पतली पगडण्डियों पर‚
जहां बिखरी है बचपन की हंसी
या
कॉलेज के उन गलियारों में
जहां टकरायी है बेखबरी में
जवानी दीवारों से
या
वहां उस फूलों से सजे मण्डप में जहां
सप्तपदी के सात कदम
नाप लिये थे सात समन्दरों की तरह
या फिर
चिड़ियाघर के बाहर टिकट की खिड़की पर
जहां अपने बच्चों के साथ
एक बार फिर बच्चा
बन जाने का मन किया था
फिर फिर लौटती है स्मृति
उस एकाकी नीड़ तक
जिसे एक एक कर छोड़
उड़ चले थे परों में
हमारे ही परों की ताकत समेट
वे अपने सलोने छौने
फिर भी बाकि है
एक संतोष अभी
कि तुम साथ हो…
तुम्हारी झुर्रियों के जाल में
बिखरा है मेरा सुख
फीकी नहीं पड़ी है
अब भी वही शोख हंसी
फिर भी बाकि है
एक सुख अभी
हम साथ – साथ
डूबते हैं स्मृतियों में
जब पलटते हैं
तुम्हारे कांपते हाथ
एलबमों के पन्ने
बस यहीं आकर शायद
ठिठक जाती है उम्र
थरथराती है लौ
पूरी ताकत के साथ
खत्म होते तेल
और तेज़ हवाओं को
अंगूठा दिखा कर

– मनीषा कुलश्रेष्ठ


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