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आबिदा परवीन
सूफीयाना गायिकी में एक बेजोड़ नाम

 

ओदा रब भी नहीं रुठदा रब दी सौं
जिनू यार मनवाड दा चज होवे
औन्हूं मक्के जांवड़ दी तोड़ नहीं,
जिनू यार दे वेखियां हज होवे.

आबिदा परवीन सूफियाना गायिकी की एक नई पहचान बन कर उभरी हैं। उनकी गायिकी में सूफी गायिकी का वही लुभावना अंदाज़ मिलता है – आत्मा से निकली भावुकता भरी आवाज़ और रहस्यमय गायिकी। नुसरत फतह अली खान के बाद गायिकी के इस खास अन्दाज़ को लेकर सबकी निगाहें आबिदा परवीन की ओर है। आबिदा परवीन सिन्ध के प्रसिद्ध सूफी संत अब्दुल बिट्टई की शागिर्द तो रही ही हैं साथ ही बचपन से ही उनके पिता उस्ताद गुलाम हैदर ने उन्हें गायिकी की शिक्षा दी है।
ईश्वरीय तथा अलौकिक प्रेम की खुश्बू में रचे पगे इनके गीतों में कविता और मौसिकी दोनों का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। सूफीयाना गायिकी में अब तक पुरुषों का वर्चस्व था जिसे वर्तमान में आबिदा परवीन ने अपनी लगन और मेहनत तथा साधना से अपना मकाम कायम कर लिया है। उनकी भारी बेस की आवाज़ में एक दीवानगी भरी संजीदगी है जो श्रोताओं को सम्मोहित कर जाती है। आबिदा परवीन ग़जल, कव्वाली गायन में भी दखल रखती हैं किन्तु उनका सूफीयाना गायन ही है जो उन्हें सबसे अलग करता है और जिसने प्रसिद्धी के इस मकाम पर उन्हें ला खड़ा किया है। वे सिन्धी व पंजाबी लोकगीत भी गाती हैं और उनकी आवाज़ का कोई सानी नहीं।
उनके गायन का अन्दाज़ अनोखा है। वे गाते समय लगभग झूमने लग जाती हैं, उनकी मस्ती भरी गायकी वातावरण में एक अजीब सा नशा भर देती है। वे बीच बीच में कविताओं, ब्रज भाषा के दोहों, पंजाबी कविताओं के टुकड़ों को बोल कर श्रोताओं को भाव विभोर कर देती हैं। यों तो इनके कई एलबम भारत में लोकप्रिय हैं। उनमें से मुज़फ्फर अली के साथ किया गया एलबम रक्स – ए – बिस्मिल उल्लेखनीय है। मुज़फ्फर अली ने आबिदा परवीन की सुन्दर आवाज़ को अपने कलात्मक और रहस्यमय सूफियाना गज़लों के पारम्परिक अन्दाज़ में ढाला है। सूफियाना ग़ज़लें सर्वस्व समर्पण की कविताएं हैं, जो कि स्वयं को आशिक और ईश्वर को माशूक समझ कर प्रस्तुत की जाती हैं।

यार को हमने जा ब जा देखा
कहीं जा.हिर कहीं छुपा देखा
कहीं मुमकिन हुआ कहीं वाजिब
कहीं फानी कहीं बक़ा देखा
कहीं वो बादशाहे तख्ते नशीं
कहीं कासा लिये खड़ा देखा
कहीं वो दार लिबास ए माशूकन
बर सारे नाज़ो अदा देखा
कहीं आशिक़ नियाज़ की सूरत
सीना बेरियान ओ दिल जला देखा

(मैं ने अपने प्रेमी अपने खुदा को हर हाल में देखा, कहीं सामने और कहीं छिपा हुआ देखा है। कई बार संभव सा लगा, कई बार अपने हर रूप में स्वीकार्य तो कभी लौकिक लगा तो कभी अलौकिक। कहीं वह मुझे सिंहासन पर बैठा सम्राट लगा तो कहीं हाथ में भिक्षा पात्र लिये याचक लगा। कभी वह खुद प्रेमिका के वस्त्रों में नाज़ो अदा के साथ दिखा तो कभी ' नियाज़ ' – नार्सिसस की तरह का एक पात्र – की तरह खुद पर ही मुग्ध सुलगते हुए दिल के साथ दिखा।)
खुदा को प्रेमी की तरह देखने का यह अन्दाज़ सूफियाना ग़जलों में ही मिल सकता है जिसे मुजफ्फर अली और आबिदा परवीन की प्रतिभाओं ने मिल कर अद्भुत बना दिया है।
उनका नया एलबम ' बुल्लाशाह' सत्रहवीं शती के महान कलाकार 'बुल्लाशाह' को समर्पित है। आबिदा परवीन की गायिकी पर सूफी कवियों— बुल्लाशाह, शाह हुसैन, सुल्तान बहू का प्रभाव तो दिखता है और भक्ति काल के कवियों जायसी, कबीर, हजरत आदि का प्रभाव भी प्रतिबिम्बित होता है। किन्तु वे अद्वितीय हैं और आज उन्हें ' क्वीन आत्फ मिस्टीकल सिंगिंग' का खिताब हासिल है। उनकी गायिकी में वह अलौकिक स्पर्श है जो इन्सान को इस लौकिक प्रेम भरे शब्दों में अलौकिकता के दर्शन कराता है। प्रेम में भक्ति की पराकाष्ठा है सूफी गायिकी, उस पर आबिदा परवीन की रहस्य, भाव और रस से सराबोर आवाज़ श्रोता को इस भौतिकतावादी संसार से निकाल ईश्वर के प्रेम से साक्षात्कार कराती है।
उसका मुख एक जोत है घूंघट है संसार
घूंघट में वो छुप गया मुख पर आंचल डाल

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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