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लवलीन के पत्र

1.

प्रिय सत्यनारायण जी,

मन स्थिति शान्त है। जीवन भी हो जाएगा -

उम्मीद है कि कम से कम सतह पर कोई असमान्य विचलन नहीं दिखाई पड़ता। जिसके आप पिछली बार शिकार हुए थे। अपने आप को बेहद व्यस्त और कड़ी दिनचर्या में बांध लिया है। सब कुछ अन्तरंग हो -सब्लिमेट होकर सृजनात्मक स्तर पर ऊर्जा दे यही इच्छा है। कितनी अजीब बात है हम खुश होते हैं - सुखी होकर लिखते हैं। दुखी होते हैं तो मुक्ति पाने के लिये सब कुछ उतार फेंकने के लिये लिखते हैं। लम्बी कहानी लिख रही हूँ। अभी टुकड़ों में है। जम कर बैठूँगी एक दिन, तो खींच दूंगी। आत्म निर्भरता किस हद तक आत्म निर्भरता है, व्यक्ति का स्वायत्त होना कब कहाँ कैसे शुरू होता है। कैसे एक कॉम्पलेक्स से मुक्ति जब जीवन रीति के रूप में उतर जाती है - सायास अपने आप से लड़कर तब एक चित्त काम्पलेम्सिटी की शिकार नहीं हो जाती ? आपका क्या ख्याल है ?

सब सुलझता हुआ उलझता जा रहा है। अजीब है - इस प्रक्रिया में मन पोसरा हो मुलायम नहीं होता - भारी बोझिल - उदास कर जाता है। आज कल अभ्यास कर रही हूँ, चुप्पी का अभ्यास। बहुत समय पहले पढ़ा हुआ एक सुभाषित याद आता है ‘‘वाचोगुप्ति’’ वचन का समय। शब्दों को, कथनी को व्यर्थ ही न उगले तो आधी समस्याऐं सुलझ सकती हैं। आपके चुप रहने की गम्भीरता समझ में आने लगी है। धिक्कार है - आदि कथनों का मतलब भी।

- लवलीन

2.

प्रिय सत्यनारायण जी,

साफ देख पा रही हूँ। नाराज हो, बुदबुदाते हुये गालियाँ निकाल रहे हो - बैरन ! .......... आदि।

कह कर भी मैं नहीं आ पायी। चाहती तो आ सकती थी। बलात् अपने आप को जयपुर के आकर्षण (आकर्षण शहर का होता है या लोगों का) ने रोक लिया अब जनवरी अन्त में आना हो पायेगा।

यह निर्वासन मामोनी ने रहना मेरा चुना हुआ है। दोस्तियों, रिश्तों में अपनी भावनाएँ संवेदनाएँ इनवेस्ट करने पर जो पुरस्कार मिला हार, हताशा, और पीड़ा का यही निदान समझ में आया - जीवन का ध्येय कर्म होना चाहिए। पर मशीन की तरह कर्म उत्पादन की यान्त्रिक नियति से बच पाएंगे हम लोग। क्योंकि हमारा कर्म लिखना और पढना लोगों और स्वयं को ही देखना और आश्यान्तरित कर जीना है - इसलिये काम से सन्तुष्ट हूँ।

लेकिन कभी-कभी बेहद उदासी और अकेले होने की पीड़ा से आत्मा पछोड़ खाती हैं। कलपती है। कवितायें लिखती हूँ। यह कवितायें खुद मुझे नहीं मालूम लेकिन कुछ हद तक दुःसह भार से मुक्ति अवश्य देती हैं।

इधर मुक्तिबोध रचनावली पढ़ रही हूँ। हैरत में हूँ - मुक्तिबोध की प्रतिबद्धता की अर्न्तद्वन्द्व की उत्कट मर्मानुभूति और समाज व देश की प्रश्नाकुल घना जुड़ाव साफ तीखा और खरा विश्लेषण साहित्य का बड़ा उत्तेजक अनुभव है।

तुम क्या पढ लिख रहे हो ? क्या लिख रहे हो ? पत्र लिखोगे ? तुम्हारा संकोच समझती हूँ। यकीन मानो मेरा अपना अन्तरंग जीवन है। किसी की दखल हस्तक्षेप नहीं है। इसलिए पत्र लिखना ........

सस्नेह।

लवलीन

3.

प्रिय सत्यनारायण जी,

बहुत दिनों से आप रह-रह कर याद आ रहे थे। लेकिन जब कथोदश में ‘दुख की खजड़ी’ पढी तो याद इतनी तीव्र हो गई कि एक बार तो इच्छा हुयी कि रात को जोधपुर की बस पकड लूँ। फिर पता नहीं क्या और कैसे अपने आप को रोक लिया। कारण मुझे खुद ही समझ मैं नहीं आया। शायद अवचेतन में कहीं यह बात थी कि जब आपने जोधपुर पहुँचकर इतने दिनों तक पत्र नहीं लिखा ....

एक इस उचाट मनस्थिति में किसी से भी संवाद करने की इच्छा नहीं होती। आपका एकान्त भंग करने का साहस नहीं हुआ।

इन दिनों स्थिति विकट रही। माँ बेहद बीमार अस्पताल में। मुझे फोन पर मिलती लानतें। आखिर मन मार कर कोटा जा कर माँ को संभालना पड़ा। मन में कही हल्की सी आशा कि स्थितियों में कुछ सुधार होगा। लेकिन पन्द्रह दिनों में ही मुझे समझ में आ गया कि बिगड़ने के बाद कुछ चीजें सुधरने-सुधारने के प्रयास में और अधिक बिगड़ ही सकती है और अधिक तीखी होकर आत्मा में घाव करती है। मैं जानती हूँ कि वहां से कैसे घायल होकर वापिस अपने ठिकाने जयपुर पहुँची। लेकिन जब तक माँ है कोटा जाना ही पड़ेगा।

इस बेबसी पर दिन रात कुढती जलती रहती हूँ। खैर। यह स्थिति तो जीवन भर की है फिर भी पहले की तुलना में अब स्थितियाँ अनुकूल है क्योंकि अपने हाथ में है।

बीच में धनबाद में कथा समय संगमन में गई। हरि नारायण जी आपके बारे में बात कर रहे थे। तीन दिन का प्रवास अच्छा बीता। लोगों से मिल कर अच्छा लगा।

उपन्यास यादव जी ने पढ लिया है कुछ मामूली संशोधन और एक अध्याय और लिखना - अक्टूबर मध्य में प्रकाशन के लिये दे दूँगी। कहानी चल रही है। शेष में आपकी लघु कहानी पढ़ी मुझे अब भी लगता है कि आप संस्मरणों में कहानियाँ खपा रहे हैं। तो नई कहानी जो आपने मुझे जयपुर में पढ़ाई थी वह शेष को क्या नहीं दी। इस बार रघुनन्दन कैसे गायब हैं?

आप जयपुर कब आ रहे हैं? जब भी आएँ सुबह आठ बजे के करीब फोन करे। मैं अंजू से अंग्रेजी की ट्यूशन ले रही हूँ और अगले उपन्यास की तैयारियाँ के लिये आवश्यक रिसर्च कर रही हूँ। इसलिए दिन में अक्सर घर से बाहर रह रही हूँ। हो सके तो फोन करें।

सस्नेह।

लवलीन

4.

प्रिय सत्यनारायण

बिम्ब बन कर बार-बार आँखों के सामने बार-बार आता है, आपका जाना और बुदबुदाना - शहर छोड़कर जा रही हूँ। मुझे नहीं मालूम था कि आपके लिये इस जयपुर शहर के अक्स में एक इति मेरी भी है। एक दम मालूम नहीं था, यह कहना तो झूठ होगा। लेकिन आपकी संवेदना इस शहर के प्रति तीव्रतर है यह आभास नहीं था।

सो मुझे तो जाना ही है, जैसे आप जोधपुर चले गये। परसों कोटा जा कर मकान तय करके आयी हूँ, जैसे ही जाने के दिन नजदीक आ रहे हैं, मुझे इस शहर की कामना नहीं राहत महसूस हो रही है। न जाने क्यों, शायद मेरे अस्थिर स्वभाव को परिवर्तन, रास आते हैं। इस शहर से मुझे वितृष्णा या नाराजगी कतई-कतई नहीं है। इस शहर में लवलीन बनी है लेकिन मुझे लगता है इस शहर को पूरी तरह तो निचोड़ा भी नहीं है और मैं जा रही हूँ। महत्त्वकांक्षा और सफलता की मारी दिल्ली, मुम्बई नहीं, कोटा जा रही हूँ (फिर वहीं समानता जैसे आप जोधपुर चले गये।)

सत्यनारायण जी स्थितियों, यह कठोर निर्मम स्थितियाँ जो मुझे जड़ों से छूट का नगर से कस्बाई नगर में ले जा रही हूँ। कारण, महेश का शेयर का काम ठप्प, बचा हुआ पैसा उसने अपने भाई के ट्रक बिजनेस में लगा दिया है और योगी वापिस अपनी साधना की ओर यानी संस्था में दुबारा कार्यरत और सचिव। मेरी तबीयत ठीक है और अनिल बोर्ढिया जी के दबाव में और बंकर राय की सलाह कर मैंने भी एक हल्का फुल्का प्रोजेक्ट ले लिया है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों की स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए मासिक बुलेटिन/पत्र निकालने जा रही हूँ। जैसे सुष्मिता निकाल रही है, घर पर ही ऑफिस बना कर मुझे लगता है कि इतने सालों से निठल्ले घर बैठने के बाद यह काम मुझे रास आएगा।

ये तो थी तथ्यात्मक सूचनाएँ। दिल का आलम यह है कि जनाब एक तरफ शहर छोड़ने से हताश हूँ दूसरी तरफ परिवर्तन के प्रति उत्सुकमना! अंजाम क्या होगा खुदा जाने। या तो मैं मर खप कर खत्म हो जाऊँगी, या फिर एक नया आयाम जीवन को मिलेगा। फिर वहीं समानता जैसे - आपको जोधपुर में क्या-क्या मिला है। ले जाऊँगी अपने साथ उभरती, दयी, कडवी तीखी मीठी मक्खनी यादें और अपनी रॉकिंग चेयर पर झूलते हुए उन्हें बूढ़ियों की तरह चुभलाया करूँगी। शायद-शायद कुछ कहानियाँ बन जाए स्मृतिपरक (आपकी तरह समानता नं.4)। शेष पढ़ा यह रघुनन्दन क्या उल्टी सीधी हरकतें करता रहता है। सामान्य कहानी पर विलक्षण टिप्पणी और अच्छी कहानी पर प्रध्यापकीय टीप। किताब से कुछ-कुछ साहित्यिक राजनीति की भी बू आ रही है। संपादकीय महत्ता और महत्त्वकांक्षा की भी। उस पर हसन जमाल और रघुनन्दन त्रिवेदी संपादक द्वय ने आमन्त्रित रचनाकारों को किताब की प्रति उपलब्ध कराना भी अपना दायित्व नहीं समझा।

- लवलीन

5.

प्रिय सत्यनारायण जी,

कैसे हैं।

इधर महेश की तबीयत काफी खराब चल रही थी। उसे डॉक्टर को दिखाने दिल्ली जाना था। दस दिन कोटा रही।

उपन्यास चल रहा है। फाइनल ड्राफ्ट कर रही हूँ। जब तक उससे पीछा नहीं छुटेगा ......।

कुछ और लिखना सम्भव नहीं है, 28.03.99 को चक्रवात का विमोचन है। असगर वजाहत आ रहे है। मैत्रेयी पुष्पा भी। आपको आना है इधर जरूर। कवितायें काफी पढी बहुत दिनों बाद लगातार छः सात कविताओं की किताब बहुत अच्छा लगा। अजीब तरह की जहनी समृद्धि का अहसास हुआ। आपकी कविताएँ लिखना जारी होगा - साथ लेकर आइयेगा।

मेरी मनस्थिति अजीब है - अकेले रहना अच्छा लग रहा है पर जीवन में असफलता का एहसास मुझे दुखी कर देता है। पीछे देखती हूँ तो खासी उदास हो जाती हूँ। पर यह उदासी भी अपनी लगती है। पहले अकेलापन था लेकिन एकान्त उपलब्ध नही था। अब एकान्त और मैं हूँ - आई एम अलोन नाट लोन ली।

चिट्ठी पोस्ट करने वाली थी फिर कोटा जाना पड़ा। शरीर का कोई अंग शरीर से टूट जाये लेकिन जुड़ा शरीर रहे - तब कैसा दर्द होता होगा - उसे हर समय अपने साथ घसीटते बिल्कुल ऐसा लग रहा है। खैर - आप आएंगे तब विस्तार से बात होगी।

इसी इन्तजार में।

लवलीन,

( किताब ‘‘इस पते पर कुछ चिट्ठियाँ ’’ - संपादक माधव राठौड़ से )

 

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