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(रेणु की जयंती पर)                                                          लेख

रस और आग की जुगलबंदी

मय की निगहबानी में लगी चौकस नजर को जरा सा ढीला छोड़ दो तो न केवल उसकी रफ्तार खतरनाक ढंग से तेज हो जाती है, बल्कि निर्जीव जड़ संरचनाएं भी अपना हमदम पाकर तेजी से भागने लगती हैं, और मनुष्य उनकी दौड़ में शामिल होने का भ्रम लेकर वहीं का वहीं खड़ा रहता है. दौड़ में होड़ अनायास शामिल हो जाती है और लक्ष्योन्मुखता भी - टॉलस्टॉय की कहानी ‘कितनी ज़मीन’ के नायक की तरह या कछुआ-खरगोश की नीति कथा की तरह. मनुष्य एवं संस्कृतियों के विकास के मूल में छिपी गति ‘दौड़’ की अपेक्षा ‘चलना’ क्रिया के सन्निकट स्वयं को पाती है क्योंकि ‘चलना’ में अपने समय और परिवेश के साथ ‘जुड़ने’ की उत्सुकता है; अपने ही बगलगीर किसी अजनबी के संग खरामा-खरामा चलते हुए बतकहियां करने की हिलेर है; इंद्रियों और चेतना के रास्ते बोध को बनाने वाले अनुभवों के संग जीवन की बहुपरतदार शख्सियत को पहचानने की धीरता है. ‘चलना’ संगति और संवाद का पर्याय है; ‘दौड़ना’ वर्चस्व और संवेदनशील वैयक्तिक दृष्टि का. ‘चलना’ में वक्त के भीतर छिपी जटिल-संश्लिष्ट परतों की शिनाख्त की वयस्कता है. ‘दौड़ना’ में कुहासे रच कर प्रतिद्वंद्वी की आंखों में धूल झोंकने की शाइस्तगी . आज धूल झोंकने के शौर्य से लेकर धूल भरी आंधियों के आसमान में अपने सांस्कृतिक महत्व को रचने की बदहवासी हमारे समय का चरित्र गढ़ रही है. इन सब के केंद्र में हैं हुंकारें और टंकारें; दंभ और जालसाजियां; शेखचिल्ली के सपने और झूठ के खोखले सिक्के को सोने की अशर्फी कहकर चलाने की धूर्तताएं. विश्रांति और विश्वास, सौहार्द और संवाद बिसरे युग की बातें हों मानो. चिल्ल पों ने शांति के धवल-तरल साम्राज्य को ‘हथिया’ लिया है क्योंकि शांति की निस्सीम निस्संगता में संवाद और आत्मालाप (एकलाप नहीं) के जरिए समय का संरक्षक और सर्जक बनने का भाव है. समय की रचना अपने वर्तमान की विसंगतियों से जूझने की वैचारिक निडरता में तो है ही, वर्तमान को परंपरा से जोड़कर मनुष्य, व्यवस्था एवं सत्ता के विकास के चरित्र को समझने की गंभीरता में भी है. भविष्य के सृजन का कोई भी रचनात्मक (वैचारिक एवं संवेदनात्मक) उपक्रम परंपरा के पुनरीक्षण के बिना संभव नहीं. आज की उत्तर आधुनिक संस्कृति यदि इतिहास, स्मृति, महावृत्तांत और नायक के अंत की बात करके मनुष्य को पल के भीतर स्थित कर पूंजी और सत्ता की अवैध संतानों - ग्लैमर और आतंक - के जरिए काबू में करना चाहती है, तो स्वप्नशील सर्जक स्वरों का दायित्व और भी गहरा हो जाता है कि परंपरा, साहित्य और व्यवस्थाओं का आलोचनात्मक पाठ कर वे समय को सूचना प्रौद्योगिकी द्वारा रचित भंवर से मुक्त कराएं.

साहित्यिक कृति फ्रेम में कैद किसी रचनाकार का कल्पना-चित्र नहीं होती; उसके समय के समाजशास्त्र को रचती किसी एक वृहद सच्चाई का छोटा सा जीवंत अंश होती है. उल्लेखनीय है कि रची जाने के बाद भी वह अपूर्ण रहती है. यही वजह है कि ‘पूर्णता’ पाने की लालसा में अपने रचयिता की उंगली छोड़ आलोचक (कृति का गंभीर सर्जक पाठक) के संग-संग दूर समय की अ-समाप्त पगडंडियों पर निकल पड़ती है. आलोचक कृति का सह सह-सर्जक है - अपने समय की गूंज और अपेक्षाओं, जड़ हो जाने की विडंबना, सवालों और परिवर्तनशील आयामों को उसमें मिलाकर उसके सहारे अपने समय का चेहरा-चरित्र देखने का प्रयास भी करता है, और रचनाकार के समय के समाज एवं शास्त्र की पड़ताल करते हुए मनुष्य एवं संस्कृति के विकास की यात्रा के स्तर- गहराई दोनों को भी माप आता है. रचना के पाठ के भीतर अपने समय की अंतर्ध्वनियों और अंतर्पाठों को गूंथ कर उसे नवा बना देना आलोचक की रचनाशीलता है जो प्रकारांतर से कृति के बहाने अपने समय को रचने की आकांक्षा का रूप बनती है. रचना की परिक्रमा आलोचना का चरित्र नहीं; प्रतिस्पर्धी दौड़ में बंध कर अपने को सक्रिय (रचनात्मक?) दिखाने की अनुर्वर बेचारगी है.

लेखक के तौर पर अपनी आलोचनात्मक दृष्टि के तमाम जालों-जंजालों को झाड़ कर और अपने वैचारिक संवेदनात्मक बोध को पाथेय बनाकर चलते हुए जब मैं फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों तक पहुंचती हूं और स्त्री दृष्टि से उन पर विचार करने के लिए छ: कहानियां चुनती हूं (महज केस स्टडी की तरह), तो मानो निर्बंध बहाव को भटकाव में विघटित न होने देने के वैचारिक अनुशासन को अपने दृष्टि का सहचर बना लेना चाहती हूं. ये कहानियां है - पंचलैट, लाल पान की बेगम, रसप्रिया, तीसरी कसम, नैना जोिगन और कस्बे की लड़की. रेणु को आंचलिक कथाकार कहकर उनकी जमीन, संवेदना और सरोकारों को छोटा करने का प्रयास किया जाता रहा है, किंतु सच यह है कि हर रचनाकार अपना एक विशिष्ट लोकेल चुनकर जिस मनुष्य की बात करता है, वह अपूर्णताओं और दुर्बलताओं के साथ दिक्-काल के भीतर अपने से जूझता विश्वमानव ही है. वर्ण्य विषय के आधार पर लेखक की कोटियां बनाकर उनका अध्ययन करने की अकादमिक युक्ति साहित्य को ‘विषय’ बनाने और फिर ‘पाठ्य विषय’ को सरलीकृत कर परीक्षार्थी को परीक्षा में अधिकाधिक अंक बटोरने का सुभीता देने की बौद्धिक (गर्हित) कोशिश ही है क्योंकि साहित्य और जीवन एक पारस्परिक संगति में साथ-साथ चलते हुए कोण विशेष के जरिए मनुष्य के जीवन को विडंबनापूर्ण बनाने वाली अंतर्क्रियाओं-मानसिकताओं को उद्घाटित करते हैं. साहित्य वस्तु के स्तर पर समाज के अध्ययन की समाजशास्त्रीय पद्धति है, तो शिल्प के स्तर पर क्षण में बंधी मानवीय नियति को उसके तमाम आयामों के साथ दिक्-काल में प्रतिस्थापित कर देने की कला भी जो अपनी धड़कनों और संवेगों, सपनों और आकांक्षाओं की निर्भार छुअन के साथ पाठक के भीतर तरंगायित होने लगती है. इसलिए साहित्य खंड, विचारधारा, काल, प्रवृत्ति में बंध कर मुझ तक नहीं आता; एक रिले रेस की तरह कौंधता है जहां एक विशेष कालखंड में अपनी चुनी हुई भूमिका के साथ रचनाकार समय को बुनने वाली व्याकुलताओं को अपनी दृष्टि के आलोक के साथ उद्घाटित करता है; और रिले रेस के अगले धावकों को अपना दाय विरासत के रूप में थमा कर परंपरा का प्रवाह अनवरत बनाए रखता है. रेणु की कहानियों के संक्षिप्त कलेवर में मानव मन की आकांक्षाओं और सपनों का समंदर ठाठें मार रहा है.

रेणु की खासियत है कि वह अपनी कहानियों को शब्दों के जरिए नहीं रचते. उन्हें जमीन में बो कर धान की संग-संग सटी झूमती महकती स्वर लहरियों में गूंथ देते हैं जहां से गीत की लय बिंब बनकर अंतर्मन के भीतर छिपी गोपन दृश्यावलियों को उद्घाटित करते चलती है. रेणु की कहानियों की संरचना ऊपर से देखने में जितने सरल है, भीतर से उतनी ही संश्लिष्ट. वे पल, संवेग, मूड के रोमांटिक गायक की तरह सतह पर तिरती दिखाई देती हैं. लगता है कि प्रेमचंद की तरह अपने समय की व्याकुलताओं और सवालों से उनका कोई सरोकार नहीं. न ही अपने पात्रों के साथ हमकदम होकर उन्हें किसी गंतव्य तक पहुंचाने की वैचारिक व्यस्तता उनमें दिखाई पड़ती है. बल्कि मस्ती में निर्द्वंद्व चलने और कहीं किसी भी मोड़ पर उन्हें वहीं छोड़ आगे निकल पड़ने की अधीरता रेणु की कहानियों की ऊपरी परत को रचती है जो पेंटिंग ब्रश के एक स्ट्रोक, संगीत के एक टुकड़ा आलाप, धूप की एक चौंध, हवा की सरसराहट, सुगंध की भीनी सी आहट की रचना कर पाठक को ‘ठग’ लेती है. लेकिन रेणु सही मायनों में कलाकार हैं. प्रेमचंद की तरह कलम के सिपाही नहीं,कलम के रसिया! जैनेंद्र की तरह डेट????? नहीं. वे अमूर्त में समाज की जटिल संरचनाओं को पिरो कर पाठक से सघन संवेदना, बृहद अध्ययन और गहरी विश्लेषणात्मकता की मांग करते हैं. उनके यहां अभिधात्मक स्तर पर हवा में झूलते दृश्य हैं; तो व्यंजना के स्तर पर दृश्य का निर्माण करने वाली सामाजिक-मनोविश्लेषणवादी सच्चाइयां. रेणु की खूबी है कि पाठक के बोध के स्तर के अनुरूप ये कहानियां उन्हें संतुष्ट करती हैं. वे सैलानी पाठक को नौका-विहार का सुख देती हैं और पनडुब्बी बनकर गोताखोर पाठक को जिंदगी की अंदरूनी सच्चाइयों से दो-चार करा कर भविष्य की रणनीति बनाने की अंतर्दृष्टि भी देती हैं.

मैं ‘पंचलैट’ कहानी से अपनी बात शुरू करती हूं. सतही तौर पर यह महतो टोले द्वारा पेट्रोमैक्स खरीद कर लाने की शौर्य कथा है जिसमें गांव की अन्य आठ पंचायतों की प्रतिस्पर्धा में अपने को समकक्षता पर लाने के दबाव भी हैं और जातीय अभिमान को बनाए रखने की यथास्थितिवादी जकड़नें भी. यही वजह है कि पंचायत की भौतिक समृद्धि का पल पूरी महतो बिरादरी के लिए उत्सव की सामाजिकता बन जाता है. रेणु बेहद सलीके से अपनी कहानियों की बुनाई करते हैं कि सैलानी और गोताखोर पाठक एक दूसरे से बिना टकराए रंसभंग की प्रतीति के बिना अपने-अपने हिस्से का कलश भरकर अमृतपान करते चलें. सैलानी पाठक के लिए पूरी कहानी एक उत्सव है - उमंग, उल्लास, आसन्न संकट की आशंका, और उससे उबरने की सयानी सूझें. पैट्रोमैक्स खरीद लाना जितना टेढ़ा काम है, उससे दुगुना टेढ़ा काम है उसे जलाकर जगर मगर आलोक के सहारे अपनी ‘जीत’ का पाठ रचना. पूरे टोले में किसी को पंचलैट जलाना आता ही नहीं. जिसे आता है - गोधन को - वह जाति-बहिष्कृत है. तो? सरल सा उपाय - उसे जाति में समाहित कर लिया जाए - गोधन की शर्तों पर. व्यक्ति के मान से बड़ा है जाति का मान. तब अपनी बेटी मुनरी को देखकर सलीमा के गीत गाने वाले गोधन पर नालिश ठोंक कर जाति बाहर करने का उपाय करती गुलरी काकी उसकी बलैयां लेते नहीं अघाती - गाओ बेटा, सलीमा के गीत गाओ. प्रेम और जातीय उल्लास की स्याही में डुबो कर रची इस कहानी मैं पात्रों की सादगी, सरलता, निष्कपटता और पारस्परिकता मंद्र आलाप की तरह पाठक के भीतर देर तक उतरती रहती है. लेकिन दरअसल कहानी यहीं से शुरू भी होती है. संवेदना और विजयोल्लास को विश्लेषण का बिंदु बनाकर वह सवाल उठाती है कि यदि प्रेम प्रकृति द्वारा मनुष्य को दिया गया सर्वोत्तम वरदान है तो इसकी अभिव्यक्ति पर व्यवस्था के प्रतिबंध क्यों? क्या इसलिए कि व्यवस्था अपने शासन और दीर्घायु के लिए मनुष्य नहीं, मोहरे चाहती है जो सोच-विचार की शक्ति से छूंछे महज सेवा और भक्ति को अपनी अस्मिता बना कर कृतार्थ होते रहें? प्रेम करना यथास्थितिवाद को झकझोर देना है. विवाह संस्था के प्रचलित रूप में हस्तक्षेप कर बिरादरी एवं बुजुर्गों की अधिनायकवादी सत्ता पर सवालिया निशान लगा देना है. प्रेम सुसंगठित जातीय चरित्र की समकक्षता में खड़े एक ‘व्यक्ति’ की भास्वर निर्णय संपन्नता और गत्यात्मकता है जो यथास्थिति के बरक्स क्रांति, आस्था के बरक्स तर्क, शास्त्र के बरक्स मनुष्य की सत्ता को सर्वोपरि सिद्ध करती है. अपने ही कमजोर वैचारिक आधार पर टिकी व्यवस्थाएं चुनौती और तर्क से घबराती हैं. इसलिए आज भी लोकतंत्र के भीतर कबीलाई संस्कृति खाप पंचायतों की दुर्दमनीय अमानुषिकताओं के सहारे स्वयं को जीवित रखे हुए है जो ‘इज्जत’ के नाम पर प्रेमी-युगल की हत्या से लेकर स्त्री के यौन-शोषण तक की क्रूरता में अपने एजेंडे को क्रियान्वित करते साफ देखी जा सकती है. कहानी के पन्नों में गोधन और गुलरी पंचलैट के फूटते प्रकाश में एक-दूसरे की आंख में आंख डाल कर प्रेम का एक नया रूपक रचते प्रणयी दिखाई पड़ते हैं - मनुष्यता के तमाम सौंदर्य और गति से आलोकित. लेकिन प्रेम की गर्दन को अपने शिकंजे में दबोच कर खड़ी समाज-व्यवस्था के लौह शृंखलाएं लेखक (मनुष्य) के इस स्वप्न को नासूर बना देती हैं. कहानी रेणु के समय से चलकर 21वीं सदी की प्रतिगामी संस्कृति से टकराती है तो मानो पाठक से पूछती है - सोचो, विकास की बदहवास आंधी में मनुष्यता को कहां छोड़ आए तुम?

‘सलीमा’ के गीत रेणु की कहानियों में काफी जगह घेरते हैं. उनके गांव अपनी जड़ता और नींद में डूबे कुंभकरण गांव नहीं हैं, राजनीतिक हलचलों और समसामयिक परिवर्तनकामी लहरों से बुने गए हैं, जहां चेतना और जड़ता, परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व के बीच अपनी अवस्थिति को ढूंढने का प्रयास जारी है. इस दृष्टि से उनके गांव पूर्णिया अंचल का क्षेत्र विशेष न रह कर स्वतंत्र भारत की मानवीय जातीय राष्ट्रीय अस्मिता पाने के प्रयास में निरंतर अपने को खंगालती चेतना का इतिहास बन जाते हैं. सिनेमा के गीत प्रेम की तरलता को बुनकर नैतिक वर्जनाओं के घटाटोप के बरक्स स्त्री (पुरुष भी) की दमित यौन आकांक्षाओं को उभारते हैं. वे वर्चस्ववादियों के लिए चुनौती हैं, नई पीढ़ी के लिए नए संघर्ष और अस्मिता की प्रेरणा. इन दोनों के बीच दोलायमान हैं आम आदमी की हसरतें जो प्रेम (मुक्ति/ वैयक्तिक अस्मिता) भी चाहती हैं, और व्यवस्था (सुरक्षा कवच) के भीतर सिकुड़ कर अपने को महफ़ूज़ कर लेना चाहती हैं. ‘लाल पान की बेगम’ कहानी में बिरजू की माई का बार-बार अपनी बेटी चंपिया को सिनेमा के गीत गाने से बरजना, और जंगी की पतोहू को इसलिए गरियाना कि वही ‘सलीमा’ की छूत गांव में लाई है, इस बात का साक्षी है. रेणु एक बार फिर पाठक को चकमा दे कर एक ही कहानी में दोहरी बुनाई का कौशल उकेर जाते हैं. कहानी सतह पर मेला जाने के लिए उत्सुक बिरजू की माई के पल-पल बदलते रंग की महीन पच्चीकारी है जिसमें पांच बीघा पाट और धान के खेतों और बैलों की जोड़ी के मालिक समृद्ध किसान की पत्नी होने का ठसका है; पैदल नहीं, ‘अपनी’ बैलगाड़ी में बैठ कर बलरामपुर मेला जाने का चाव है जिस का ऐलान कर वह अपनी ही केंद्रीयता में स्वयं मकड़ी की तरह घिर गई है; पति के देर शाम तक न लौटने पर उपहास से तिर-तिर कर आते गांव भर के स्वरों से टकराने की आक्रामकता है, जिनमें चरित्र हनन की तमाम कटुताएं दोनों ओर से भरपूर हैं; और फिर उन तमाम घटनाओं को भुलाकर मेला जाने की चिर-वांछित घड़ी में उसी जंगी की पतोहू, उसी राधे की बेटी और उसी लरेना की बीवी को हुलस-हुलस कर बुलाने का निष्कपट चाव है. बेटी और उसकी साथिनों को सलीमा के गीत गाने का अनुरोध करने के बाद बिरजू की माई का मेला देखने का चाव मद्धम हो गया है. उस चाव की जगह आभा बनकर छा गया है उल्लास जिसमें प्रकृति और परिवेश, संवाद और संगीत, साहचर्य और विश्वास जीवन-मेले को सतरंगी कांति से भर देते हैं. लेकिन इस कलात्मक संगीतमयी पच्चीकारी के नीचे जिंदगी की तल्ख सच्चाइयाँ है और नए युग का आह्वान करती देश की कुछ नई आर्थिक-राजनीतिक नीतियां. कृषि प्रधान देश की रीढ़ को मजबूत करने के लिए जमींदारी प्रथा का उन्मूलन जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है जमीन बंदोबस्त की नई नीतियों का निर्धारण. स्वतंत्र भारत में 1959 में लैंड सेटेलमेंट एक्ट के लागू होने का दौर किसानों को ही नहीं, कई-कई जातिगत टोलों में बंटे ग्रामीण समाज की आधारभूत संरचना को भी झकझोरने वाली परिघटना बना है जिसे आधार बनाकर रेणु ‘परती : परिकथा’ जैस बृहद् उपन्यास लिखते हैं. यह कहानी मानो उसी बृहद कथा की छलनी से छनी रेत के संग बह आई कुछ हीरक कणियों में से एक है. कहानी में स्त्रियों के गाली-गलौज, आरोप-प्रत्यारोप झगड़े का तूमार बांधने के अलावा गोपन रहस्यों को उघाड़ने का माध्यम बनते हैं. तब पता चलता है कि रात-रात भर भक्-भक् जलती बिजली-बत्ती (टॉर्च), घोड़े की टाप की तरह नोकदार जूते की छाप, और किसी साहब के संग बिरजू की माई का संबंध जोड़ने वाला प्रकरण दरअसल बिरजू की माई और उसके पति की उस दुर्धुर्ष संघर्ष कथा को कहता है जिसमें जमीन पर अपने हक़ के लिए वे ज़मींदार की धूर्तता (आश्वासन) और नृशंसता (धमकी) का प्रतिरोध कर अपने द्वारा बरसों से जोती जा रही ज़मीन पर दावा डालते हैं; और महज़ दावा ही नहीं करते, उस ज़मीन पर कब्ज़ा लेकर ज़मींदारी की आड़ में खड़ी पूंजी और सामंती ताक़तों से टकराते हुए हाशिए की आवाज़ मुखर करते हैं. तब कहानी अपने चरित्रों के उल्लास में संघर्ष की कांति जोड़कर समय को गढ़ने का ऊर्जस्वी स्वर बन जाती है.

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों में इस स्त्री प्राय: ज्यादा जगह नहीं घेरती. ‘रसप्रिया’ जैसी कहानियों में तो वह अलक्षित ही रह जाती है, या ‘तीसरी क़सम’ जैसी कहानी (फ़िल्म नहीं जिसे कहानी के रूप में पढ़ कर अक्सर दोनों स्वायत्त विधाओं का घालमेल कर दिया जाता है) में वह संग-संग चलते हुए भी कथानायक के चरित्र गढ़ने की भूमिका निभाती है. लेकिन कहानी की भीतरी पड़ताल मानो अपनी संरचना को उलटते हुए उसे केंद्र में ले आती है. तब ‘रसप्रिया’ नए अ-संवेदनशील समय में एक विद्यापति की रसप्रिया गायन शैली एवं अन्य कलाओं के लुप्त होने की कथा और कलाकारों की दुर्दशा की रुदाली मात्र नहीं रहती; स्त्री की दृष्टि से प्रेम की भीतरी अनसुलझी गांठों और तहों को सुलझाने की संवेदनशील चेष्टा बन जाती है. प्रेम दो हृदयों की परस्पर संयुक्ति की अनुभूतिप्रवण नवोन्मेषशालिनी चेतना है जो एक गहरी साझेदारी के साथ व्यवस्था की चुनौतियों से टकराने का हौसला भीतर पाती है. प्रेम देह से उगता है, दैहिक संवेगों के ज्वार में अपनी गति पाता है, लेकिन देह उसका अभीष्ट नहीं है. अभीष्ट है पारदर्शी विश्वास और संवाद के साथ अपने क्षितिज का विस्तार करते चलना. ‘रसप्रिया’ कोमल दूब की तरह उगे प्रेम की इस नरम दृढ़ प्रत्याशा के भंग होने के बाद की पीड़ा का बिम्ब है जिसे स्त्री, पुरुष से भिन्न, अपने देह और भविष्य पर अंकित एक त्रासद छाप की तरह भी झेलती है, और उसी मोहबिद्ध त्रासदी के भीतर से सृजन की राहें भी खोज लाती है. कलावंत मिरदंगिया सामंती मूल्यों से गढ़ा गया औसत पुरुष है. अपने ही अहं की रेशमी लच्छियों में उलझकर अपनी राह को फंदों में उलझाता-बांधता! वह प्रेम का मर्म नहीं जानता. प्रेम का औज़ार की तरह इस्तेमाल करता है ताकि गुरु-पुत्री से नजदीकियां बढ़ा कर गुरू से कला हासिल कर ली जाए. कला मर्मज्ञता के लिए चुनी गई इस मक्कारी भरी रसिकता के दौरान जब बाल विधवा रमपत्तिया गर्भवती हो जाती है तब वह वहाँ से भाग निकलता है. भाग कर नई दिशाओं में पनाह लेकार पुरुष मानो अपने अतीत की स्लेट को धो-पोंछ डालता है. वह नि:संग है, और निर्मोही भी. वह अपना केंद्र ख़ुद है और अपनी धुरी की परिक्रमा करके अपना आभामंडल रचने में विश्वास करता है. उसके ‘साम्राज्य’ में प्रजा उसी का अक्स हो सकती है या उसका प्रसाद. बीस बरस बाद उन्हीं-उन्हीं रास्तों-पगडंडियों पर लौटते हुए ह रमपतिया का स्मरण उसे ज़रा भी आहत नहीं करता. आहत करती है यह वेदना कि कितनी तेज़ी से ‘सलीमा’ के अधीन होता समय लोक-गायन और लोक-कलाओं को भूल फूहड़ता का अश्लील उत्सव मना रहा है; कि उस जैसा रसप्रिया गायक भिखारी बनने को बाध्य हो गया है. रेणु कहानी में मिरदंगिया-रमपतिया के पुत्र मोहना को मृगछौने की तरह लाते हैं ताकि मिरदंगिया के भीतर जमे हुए रस-स्रोत को तरल कर सकें. फिर मोहना की कला और फिर बातों के जरिये नेह के उसी रिश्ते को मज़बूती से थामे खड़ी रमपतिया की तस्वीर उकेरते हैं. भगोड़े प्रेमी के तमाम छल-छंद और विश्वासघात के बावजूद उसने मोहना को मिरदंगिया के ‘अवतार’ के रूप में गढ़ा है - पुत्र के ज़रिये प्रेम को जीते हुए. लेकिन प्रेमदीवानी रमपतिया को शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की नायिका की तरह नहीं गढ़ते रेणु जो प्रिय को रुग्ण शिशु की तरह छाती से लगा कर मातृ छवि में अपनी अस्मिता को सिकोड़ लेती है. रेणु की स्त्री पुरुष को सहचर के रूप में ही पाना चाहती हैं - अपने आत्मसम्मान एवंआत्माभिमान को अक्षुण्ण रखते हुए. स्पेस देकर स्पेस पाने की प्रखरता रेणु की स्त्री कापरिचय है. शिकवे-शिकायतें, आँसू, दैन्य समर्पण और रक्षणीया होने की कातर पुकारें रमपतिया की छवि नहीं गढ़तीं. वह लचीली टहनी की तरह हरा भरा रहने (सकर्मकता) का हुनर भी जानती है और दृढ़ (आत्मनिर्भर) रहने का हौसला भी. इसलिए अकारण नहीं कि मोहना से उसकी माँ के आने की ख़बर सुन मिरदंगिया वहाँ से नौ दो ग्यारह हो जाता है. मिरदंगिया पितृसत्तात्मक व्यवस्था का उत्पाद है, स्त्री की मनुष्यता को तिरस्कृत करने वाला अ-संवेदनशील जैविक प्राणी जो व्यवस्था के इंगित पर चलते-चलते स्वयं अपनी मनुष्यता को भी विघटित करता चला है. कहानी का यह पाठ कलाकार के भीतर छुपे पितृसत्ताक पुरुष की छवि को उद्घाटित करते ही रमपतिया को पितृसत्तात्मक व्यवस्था की साजिशों को समझने की वैचारिक लौ का रूप दे देता है.
रेणु की कहानियों में स्त्री व्यवस्था की गहरी छानबीन का माध्यम बन कर आती है. ‘तीसरी कसम’ कहानी में हिरामन गाड़ीवान की प्रेमानुभूति और यौनाकांक्षाओं का जीवंत चित्रण है. वह निष्कपट सरल युवक ‘स्त्री पदार्थ’ (हजारीप्रसाद द्विवेदी का शब्द) को अपने इतने करीब पाकर अकबका गया है. स्त्री को उसने तीन रूढ़ छवियों में जाना है - मां, सती (पत्नी) और देह (वेश्या). प्रेम की अपरिभाषेय हार्दिकता की अनुभूति में निमग्न वह आत्म-संकुचित युवक जान ही नहीं पाता कि प्रेम आत्मविस्तार का जरिया है - भीतर के संशयों, वासनाओं, अपेक्षाओं को धो डालकर अपने निष्कलुष सौंदर्य और मनुष्यता के साक्षात्कार का अप्रतिम पल. प्रेम चोट देने या चोट खाने का भौतिक खेल नहीं; प्रिय के जीवन के भीतर खुलती सरणियों की समान- यात्रा कर उसकी विवशताओं-विडंबनाओं को जानने की उदात्त संवेदनात्मक यात्रा है. प्रेम को विवाह (वर्चस्व) और प्रेयसी को जमाने भर की नजर से बचा कर रख लेने की आकांक्षा (स्त्री को रक्षणीया समझने का संस्कार) हिरामन को रचती पितृसत्तात्मक व्यवस्था को प्रकाश में ले आते हैं. रेणु अपने चरित्रों के हाथों में क्रांति का झंडा नहीं थमाते. वे जानते हैं कि व्यवस्था से अकेले टकरा कर मंजिलें हासिल करना महज यूटोपिया है. टकराव से पहले शिनाख्त की बारीक समझ जरूरी है. पितृसत्ता/वर्ण व्यवस्था के संस्कारों से रचे-बसे पात्रों से वे ऐसी कोई अपेक्षा भी नहीं करते, लेकिन पाठक से एक नि:संग दूरी के साथ व्यवस्था की पड़ताल की समझदारी विकसित करने की अपेक्षा अवश्य करते हैं. तब हिरामन की प्रेम-सिहरनें औसत भारतीय युवक की दमित यौन-आकांक्षाओं का प्रतीक बन जाती हैं जो नैतिक वर्जनाओं का महिमामंडन करते हुए ब्रह्मचर्य के दर्प में अपनी नैसर्गिक दैहिक आवश्यकताओं को क्षरित करता चलता है; और संबंधों की दहलीज से बाहर खड़ी स्त्री को जेंडर न्यूट्रल परिप्रेक्ष्य में देखने की अपेक्षा उसे देह से परे महसूस नहीं कर पाता. हीराबाई की अनुपस्थिति में बैलगाड़ी के टपरे में जाकर हीराबाई के बिछौने को प्रेम से सहलाना इसका उदाहरण है. हिरामन की प्रेमसिक्त अभिव्यक्ति पाठक के भीतर श्रृंगार की सरसता को जगाती है, लेकिन नायक के प्रति पाठकीय संवेदना को अपदस्थ करते ही पाठ का कोण बदलने की पूरी संभावना बनी रहती है. तब पुरुष की यही प्रेमासक्ति कामुकता का रूप लेकर कलावंत नर्तकी को पतुरिया बनाने की व्यवस्थागत नृशंसता में उभरने लगती है, और फिर स्त्री को देह में रिड्यूस कर भोगने/खरीदने/ मनमानी छूट लेने वाले पुरुष-अहं में तब्दील हो जाती है. कहानी के सतही पाठ को नजरअंदाज कर ठीक इसी स्थल पर हीराबाई गाड़ी में सवार ‘जनान सवारी’ न रहकर एक स्त्री के रूप में अपनी तमाम विडंबनाओं और सवालों के साथ उभर आती है. नृत्य उसका पैशन है, लेकिन पेट पालने के लिए पेशा भी बन गया है. वह कुलीनता की चौहद्दियों से बाहर खड़ी हुई है, दमड़ी वाले हर पुरुष के लिए ‘सुलभ’ देह. लेकिन उसकी डबडबाई स्मृतियों में कुलीन घर और रक्त संबंधों की गाढ़ी आत्मीयता है. साथ ही देह के बाजार की नियंता वर्चस्ववादी ताकतों का नारकीय अंडरवर्ल्ड भी जो आज भी पोर्न इंडस्ट्री और वुमन ट्रैफिकिंग के रूप में पुरुष की फैलोसेंट्रिक सोच और करतूतों का नग्न प्रदर्शन करने से बाज नहीं आ रहा है. रेणु की कहानियां इतनी कमजोर नहीं कि लेखक की उंगली थाम कर अबोध बालक की तरह चलती रहें. वे नई सदी के प्रबुद्ध पाठक के संग चल कर अपने भीतर की अनसुनी आवाजों को सुनाने के लिए व्यग्र हैं. वे जानती हैं कि परिवर्तन के चक्के पर घूमते हुए भी समय का भीतरी चक्र इतना जड़ है कि मनुष्य, समाज और व्यवस्था को आदिम गुलामी के मोह भरे बिंदु से मुक्त नहीं कर पाया है. रेणु की कहानियां अपनी मुक्ति के साथ मानव-मुक्ति का स्वप्न लेकर चलती हैं.

वर्जिनिया वुल्फ ‘अपना कमरा’ पुस्तक में एक शिकायत करती हैं कि लेखक अपने लिंग से उपरत होकर प्रायः नहीं लिख पाते हैं. निसंदेह लिंग किसी भी रचनाकार के अनुभव और स्मृतियों को रचता है; उसे दृष्टि देकर अपने भीतर हरहराते वर्जनाओं- महत्वाकांक्षाओं के संसार को सामने लाने का स्वप्न देता है. लैंगिक स्थिति लेखक के आग्रह को पूर्वाग्रह भी बनाती है और लक्ष्य भी देती है. मनुष्य का संघर्ष अपने पूर्वाग्रहों और दुर्बलताओं, वर्जनाओं और प्राथमिकताओं से लड़ते हुए भीतर के मनुष्य को समग्रता में पहचानने की अंतर्दृष्टि का विकास है. वर्जीनिया वुल्फ़ मानती हैं कि आत्म -विकास के इस वृहद लक्ष्य को पाना सरल नहीं. लेखक न चाहते हुए भी ‘सत्य के सफेद प्रकाश’ को नजरअंदाज करते हुए ‘भावना के लाल प्रकाश’ में आत्माभिव्यक्ति करने लगता है. उभयलिंगी मस्तिष्क पाकर ही जेंडर न्यूट्रल मनुष्य की रचना करना संभव है. रेणु अपनी रुचियों और संवेगों से संचालित होकर रचना करने वाले प्रवीण कथाकार हैं. उभयलिंगी होने का सजग श्रम उनका जीवन-संघर्ष नहीं बनता. तो की उभयलिंगी मस्तिष्क - विवेकशील समग्र मनुष्य चेतना - का सतत प्रवाह उनकी रचनाओं में दिखाई पड़ता है. यह कौशल पात्रों को चरित्र का औदात्य देकर उन्हें समाजशास्त्रीय विश्लेषण का टूल और केस स्टडी सैंपल बना देने में है. ‘नैना जोगिन’ और ‘कस्बे की लड़की’ कहानियां इसका प्रमाण है जहां स्त्री स्वयं कथा के केंद्र में आकर अपनी ग्रंथियों और आकांक्षाओं को खोलती है. अलबत्ता यह तथ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि मुक्ति की उनकी दौड़ पितृसत्तात्मक व्यवस्था से टकराकर उसी व्यवस्था की वीथियों में पनाह लेने में ही खत्म होती है.
इन सबमें ‘नैना जोगिन’ की तो बात ही अलग है.
धनुष की खिंची हुई प्रत्यंचा है नैना जोगिन! साक्षात् भैरवी! दुर्वासा ऋषि का स्त्री अवतार!
कोसना, सरापना और अश्रवणीय गालियां देना … जब तक नेरेटर के संग खड़ी हूं, नैना जोगिन को लेकर कटु हो रही हूं. - उफ़! कैसे स्त्री! रेणु की ही ‘तीसरी कसम‘ की हीराबाई और लाल पान की बेगम जैसी स्त्रियों को लजा देने वाली!
लेकिन नैरेटर के पार्श्व से निकल कर जब बीच मैदान में आती हूं, और पाले में डटे दो प्रतिद्वंद्वियों की तरह दोनों को देखती हूं, तो लगता है साहित्य को दूर से या ऊपर से देखकर निष्कर्ष बनाना ही पाठक की सबसे बड़ी भूल है. उसे दबे पांव कहानी में घुसना होता है - सांस बनकर; और पूरे परिवेश-पृष्ठभूमि के साथ जुड़कर गतिविधियों का लेखा-जोखा करना होता है. न, निष्कर्ष तब भी नहीं दे सकता वह. सिर्फ कुछ इंप्रेशंस, कुछ प्रभाव लेकर वह अपनी संवेदनात्मक संरचना में आने वाली हलचलों को रेखांकित कर सकता है.
मैं सबसे पहले नैना जोगिन को उस पर बुर्के की तरह ओढ़ाए गए विशेषण ‘नैना जोगिन‘ से मुक्त करती हैं. बुर्के के नीचे अब जो खड़ी है - आशंकाओं से थरथराती, ख्वाहिशों से उमगती - वह रतनी है. एक ऐसी निरुपाय स्त्री जिसका सात बरस की उम्र में यौन-शोषण किया जाता है; जो पंचायत और अदालत में दबंग अपराधी के खिलाफ न्याय की गुहार लगाती है तो पूरा गांव एक अघोषित बहिष्कार कर देता है; जो नामर्द से मरदुए को झेल ही इसलिए रही है कि मां बन कर जिंदगी की अतृप्तियों को पूर सके. जिंदा रहना उसकी जिद है; अपमान को विष-मंत्र बना कर समाज को लौटा देना उसकी रणनीति. गालियां उसकी सांस में रच-बस गई हैं, लेकिन दरअसल वे उसका परिचय नहीं, न रोने के फैसले का बदला हुआ प्रचंड रूप हैं. छोटी-छोटी ख्वाहिशें हैं उसकी - प्यार और विश्वास का संरक्षण पाने की. नेरेटर बाबू से और भी ज्यादा क्योंकि उन्हीं से वह ‘दूध का रिश्ता‘ मानती है. आत्मसम्मान की निजी लड़ाई में क्या सारे सामाजिक नेह-रिश्ते टूट जाते हैं? क्या विष-गांठ से लड़ाई में समाज का तत्पर सहयोग मनुष्य का दायित्व नहीं? रतनी के मन में सवाल हैं और दूर तक पसरा है ठंडी उपेक्षा का बियाबान. लेकिन जब संवाद का झीना-सा सूत्र जिंदगी में पहली बार उसके हाथ लगता है तो वह मानो एक निष्कलुष चमकीला हृदय बन जाती है - रेणु की अन्य स्त्रियों जैसी - प्रेम में पगी, उत्साह से छलकती, सकारात्मकताओं से बुनी ओजस्वी और ममतामयी स्त्री!
रेणु की खासियत है कि अपने स्त्री पात्रों को नेपथ्य में रखकर वे उनके जरिए पुरुष के अंतर्मन और व्यवस्था की रणनीतियों की पड़ताल करते हैं, लेकिन तमाम संवेदना के बावजूद स्वयं स्त्री की भीतरी गहराइयों की थाह वह नहीं ले पाते. यहाँ पहली बार वे नैना जोगिन के भीतर उतरने की कोशिश करते हैं. आतंक का पर्याय बनती निर्भीकता के भीतर छुपी शिशुवत् असुरक्षा को बाहर उघाड़ लाना चाहते हैं और पाते हैं, आत्मनिर्भर, साहसी संघर्षशील स्त्री यदि आधुनिक स्त्री होने की कसौटी है तो इसका अर्थ कदापि नहीं कि वह पुरुषद्वेषी है. वह अपनी छीनी हुई जमीन और आत्मगौरव के लिए लड़ाई लड़ते-लड़ते भी मां के रूप में, स्त्री के रूप में, मनुष्य के रूप में जिंदगी का उत्सव मना लेना चाहती है.
‘ नैना जोगिन‘ की संरचना रेणु की अन्य कहानियों की तरह केंद्रीय पात्र के चरित्र के साथ-साथ व्यवस्था के चरित्र की भी पड़ताल करती चलती है. रेणु पितृसत्तात्मक व्यवस्था और सामंती समाज व्यवस्था के अमानवीय आचरण पर उंगली उठा कर पाठक तक सवाल संप्रेषित करते हैं कि समाज की सामूहिकता का संरक्षण पाकर व्यवस्थाएं यदि निरंतर बर्बर व अमानवीय हो रही हैं तो उन से टकराने वाली दमदार शख्सियत को ‘अजूबा‘ घोषित कर हम दंडित क्यों करते हैं? क्या इसलिए की व्यवस्थाएं हमारी मनुष्यता का आखेट करने के बावजूद हमें सुरक्षा के घेरे, और अपने से कमजोर का आखेट करने का सुख भी देती हैं? यह रेणु की कहानी-कला की खासियत है कि वे चरित्र-प्रधान कहानी को समय की शिनाख्त का अनूठा आख्यान बना देते हैं, और पाठक को रसग्राही निष्क्रिय माध्यम नहीं, वैचारिक संवेदना से खदबदाती अविराम चेतना का रूप दे देते हैं. इसलिए अपनी अंतिम परिणति में रतनी आधुनिका स्त्री की सकारात्मकताओं का पुंजीभूत रूप बनकर ही याद रहती है - जांबाज़ और लोचशील; कड़क और मुलायम!

‘ कस्बे की लड़की’ कहानी अनायास राजेंद्र यादव के लघु उपन्यास ‘शह और मात’ और धर्मवीर भारती की कहानी ‘गुलकी बन्नो’ की याद ताजा कर देती है. ‘कस्बे की लड़’की की सरोज दी काली हैं, बदसूरत हैं, कुंवारी हैं. गुलकी बन्नो की तरह जरा सी कुबड़ी भी है और चलते हुए जरा सा लंगड़ाने का भ्रम भी देती हैं. लोगों की नजर में घुसी उपहास वृत्ति ने आत्महीनता और आत्मानादर के बियाबानों को उनके भीतर उगाया है. प्रेम और काम उसकी भी नैसर्गिक मानवीय आकांक्षाएं हैं, लेकिन हमारा समाज इन्हें पुरुष की बपौती मानता है और पुरुष काम-सहचरी के रूप में गोरी, सुंदर, सुशील स्त्री की कामना करता है. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर शिक्षिका सरोज दी अतृप्ति का मनोविज्ञान रचती हैं. इसलिए लुक-छिप कर पर्वर्टेड मानसिकता वाले लंपट पुरुषों से मिला स्पर्श-सुख उन्हें पुलका जाता है. आश्चर्य है कि वह अपने क्रमिक विघटन की गति को भी पहचानती हैं और चेतना के द्वारों को भी मजबूती से थामे हुए हैं. यही वह बिंदु है जो उन्हें लंपट पुरुष का स्त्री संस्करण नहीं बनने देता, बल्कि स्त्री से नैसर्गिक जीवन के अधिकार छीनने वाली समाज व्यवस्था पर सवाल उठाकर कहानी में धड़कती करुणा का विवेकशीलता के ऊर्ध्व छोरों तक उन्नयन कर देता है.
दरअसल रेणु की कहानियां अंचल की संस्कृति का समारोहपूर्ण उत्सव नहीं हैं, ‘मनुष्य’ के संधान और समय के सृजन की योग्यताएं हैं. वे हवा का झोंका है जिसमें बगीचे से गुजरने के दौरान संग्रहीत की गई सुवास और रंग की रेशमी तारे हैं तो व्यवस्था की बुनियाद में सड़ती जर्जरताओं की असहनीय बदबू भी. ये कहानियां गोताखोर पाठक को टेरती कुलबुलाहटें हैं जो जाति और लिंग के विभाजनकारी की कहानियां अंचल की संस्कृति का समारोहपूर्ण उत्सव नहीं हैं, ‘मनुष्य’ के संधान और समय के सृजन की योग्यताएं हैं. वे हवा का झोंका है जिसमें बगीचे से गुजरने के दौरान संग्रहीत की गई सुवास और रंग की रेशमी तारे हैं तो व्यवस्था की बुनियाद में सड़ती जर्जरताओं की असहनीय बदबू भी. रेणु की कहानियां गोताखोर पाठक को टेरती कुलबुलाहटें हैं जो जाति और लिंग के समाज में गहरे धंसे होने के बावजूद जिस मनुष्य की परिकल्पना करती हैं, वह लिंग और जाति के अभिशाप से मुक्त संवेदनशील मानवीय अस्मिता है. यही रेणु की दार्शनिकता है - स्वप्न को सृजन के औदात्य तक ले जाकर सृष्टि को समन्वय और पारस्परिकता के स्पंदन से संचरित करना. गद्य में कविता का यूं चले आना दरअसल दार्शनिक चिंतन को हृदय से जीने का नैतिक संतुलन और नैसर्गिक आह्लाद है.

- रोहिणी अग्रवाल
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