आपको यह जान कर हैरानी होगी पर यह बात सच है कि पुराने ज़माने में जो पच्चीस पचास सालों पहले ही पुराना हुआ है, जमाता वाकई दशम ग्रह हुआ करते थे, ससुराली मारे डर के उन्हे मनाये रखते थे और, दामाद के आने से ज़्यादा उसके मुँह फुलाये बिना, बिना उपद्रव किये लौट जाने की ख़ुशियाँ मनायी जाती थीं ।


उसे राज़ी रखने के सारे ही टोटके किये जाते थे गुलाब जामुन और मठरियाँ चार दिन पहले से बनने लगती थी, छप्पन भोजनों की खुशबु से महकते घर की वजह से, गली के हर घर में ब्रैकिग न्यूज़ सी ख़बर हो जाया करती थी कि परसो शर्माजी के यहाँ बड़ी मुन्नी वाले जीजाजी आ रहे हैं, उनके आने की आहट भर से गरीबखाना झाड पोंछ कर सज़ा लिया जाता था, पूरा मौहल्ला इस आपातकाल में एक साथ खड़ा दिखता था, युद्धगति से सभी काम में जुट जाते थे, अड़ोस के खन्ना अंकल के यहाँ से डिनर सैट और पड़ौस की वर्दा चाची के यहाँ का कटहल का अचार बिना माँगे ही चला आता था, और थोड़े अनमने होकर ही सही गुप्ताजी भी अपना नया सोफ़ा दो चार दिन के लिये दे ही दिया करते थे और ये सारी धमाचौकड़ी केवल इसलिये हुआ करती थी कि दामादजी पधार रहे हैं ।


पुराने दिनों मे दामाद और दिवाली में भेद करने का रिवाज ही नहीं था, मौहल्ले के उत्साही स्वंयसेवक सारी तैयारियों में ख़ुशी ख़ुशी हाथ बँटाते ही थे, उनके लिये ये सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के साथ साथ छोटी मुन्नी को भी ताड़ने का बेहतरीन मौक़ा हुआ करता था।


आस पास के छज्जो पर रिश्ते की भाभियों की भीड़ नये दामाद की शक्लों सूरत, चाल ढाल का बारिकी से पोस्टमार्टम कर के लाला अमरनाथ टाईप की राय ज़ाहिर किया करती थी, ऐसी ही शिखर वार्ताओं में यह तय किया जाता था कि मेहमान ठीक ठाक टाईप का ही है या उसे बड़ी मुन्नी की फूटी क़िस्मत का नतीजा माना जाये ।


और सबसे बड़ी बात उन दिनो किसी भी लल्लूलाल के लिये छप्पन इंच की छाती फुलाने के लिये दामाद होना ही काफ़ी था,अब वो किराने की दुकान का मालिक हो या वीडियो पार्लर से रोटी कमाता हो उसे ससुरालियो से आजकल के मंत्रियों टाईप की मनुहार की उम्मीद होती थी, और यदि बड़ी मुन्नी बुलंद क़िस्मत लिये जन्मी हो और उनके ताज़े ताज़े पतिदेव कही नायब तहसीलदार लगे हुये हो, किसी सरकारी बैंक के क्लर्क या औवरसियर के पद पर प्रतिष्ठित हों तो उसका हक़ बनता था कि उसके शुभागमन पर उसे चारों दिशाये बहारों फूल बरसाओ जैसा स्वागत करने को तैयार खड़ी मिले और नवजात दामाद का का यह ससुराल प्रवास भी क्या रोमांचक हुआ करता था,अपने गाँव आँगन का हर रिरयाता बिल्ला ससुराल के सुरक्षित अभ्यारण में प्रवेश करके ही कान्हा के बाघ में बदल जाता था, जीते जी स्वर्गवासी होने का सुख मिला करता था उसे, उसके पास ससुराल में सबसे बड़े कमरे, ठीक ठाक पलंग, नयी रज़ाई के इस्तेमाल का कापीराईट हुआ करता था, सास बलिहारी लिये थकती नहीं थी और सालियाँ मुग्ध भाव से आगे पीछे डोला करती थी, बहुत सारी नमस्ते और ढेर सारे चरण स्पर्श, यह वह अलौकिक दुनिया होती थी जिससे केवल दामाद होकर ही प्रवेश पाया जा सकता था ।


इतनी सारी ख़ातिरदारी के बावजूद पिछले सैकडो साल से दामाद बने हर हिन्दुस्तानी को यह पता होता था ससुरालियो पर रौब गाँठें बिना लौटने से बडी बेइज़्ज़ती कुछ हो ही नहीं सकती, और उसकी ससुराल की शुरूवाती यात्राये तभी सफल मानी जाती थी जब वह ससुरालियो को बेइज़्ज़ती करने के मौक़े तलाश ले, वह आता था यह नेक काम करता था और बहुत सी नगदऊ और नेग के साथ विदा होता था ।


पर दामादों के ये अच्छे दिन अब बीती बात हो गये है अब तो बेचारा दामाद ससुरालियो के आतिथ्य के लिये बाॅस की चार बातें सुनता है, नाक रगड़ कर छुट्टी मंज़ूर करवाना होती है उसे, ससुर को म्यूज़ियम देखना होता है तो सास को खजराना गणेश जी के दर्शन करवाने की ज़िम्मेदारी भी उसी निरीह बालक की होती है, साले को फ़िल्मे दिखाने ले जाने और सालियों की शापिग करवाने की नैतिक ज़िम्मेदारी से वह पीठ दिखा दे यह सुविधा उसे प्राप्त नहीं होती, वह पूरे मनोयोग से ससुरालियो की सेवा करता है पर उनके विदा होने के बाद उन ग़लतियों के लिये भी चार बातें सुनता है जो उसने की ही नहीं होती
जो दामादी हमारे बाप दादा कर गये, वो अब क़िस्से कहानियों की ही बातें है और यह शोध का विषय है कि सर्वशक्तिमान भारतीय दामादों की इस दुर्गति के क्या कारण रहे हैं, खैर जो भी हुआ हो, अब यह बात तो तय ही है कि दुनिया जहान के अच्छे दिन भले आ जाये, देशी दामादों के तो नहीं ही आयेंगे !
 

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मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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