“इमराना अब अपने पति नूर इलाही की पत्नी नहीं रह सकती है, बल्कि अपने ससुर अली मुहम्मद की पत्नी और अपने पति की मॉ की तरह रह सकती है।”
अपने ससुर द्वारा अपने पर किए गये बलात्कार की ‘अभियुक्त’ इमराना का मुआमला जब ग्राम चरथावल, ज़िला मुज़फ्फरनगर की मज़हबी पंचायत के सामने प्रस्तुत हुआ, तो पंचायत ने शरियत के न्याय के अनुसार फै.सला देने हेतु काजी. की सलाह मांगी। काजी. साहब को शरियत की किताब हरूफ़–दर–हरूफ़ रटी पडी. थी फिर भी मुआमलो की पेचीदगी को ध्यान में रखते हुए शरियत के हुक्मनामों पर भलीभांति मनन करके उन्होंने उपर्लिखित फ़तवा दिया। ग्राम की मज़हबी पंचायत के पास उस पर ठप्पा लगाने के अलावा और रास्ता ही क्या बचा था– उसका विरोध कर क्या किसी को काफ़िर बनकर दोज़ख़ की आग में जलने का शौक थोड़े ही था? और यह ख़तरा भी तो था कि विरोध करने वालो को दोज़ख़ भेजने का मुआमला कोई काजी. क़यामत तक पेंडिंग ही न रखना चाहे,. और सलमान रूश्दी की तरह विरोधी का कटा सिर पेश करने वालो पर बडी. रक़म के इनाम का फ़तवा दे दे।
अगर आप गौर फ़रमायें तो इमराना के कुसूर को देखते हुए काजी. साहब ने उसे बडे. सस्ते में छोड़ दिया है। इमराना की हिमाकत तो देखिये कि उसने अपने पर ससुर द्वारा किये जाने वालो बलात्कारों को चुपचाप सहते रहने के बजाय उसकी शिकायत कर दी— बताइये इससे ससुर साहब की कितनी हत्तक हुई होगी, बिचारे कहीं मुंह दिखाने काबिल भी न रहे होंगे। अब ऐसी बददिमाग़ औरत को इससे कम क्या सजा दी जाती कि उसे बलात्कारी की पत्नी बना दिया जावे।
वैसे चरथावल के काजी. साहब ने ऐसा फै.सला देकर कोई अजीब या अनोखा काम किया हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि ऐसे बेमिसाल फै.सलो मेरठ, मुज़फ्फरनगर की गांवों की धार्मिक और जातीय पंचायतों द्वारा अक्सर सुनाये जाते हैं। अभी कुछ दिन पहलो एक औरत के खाविंद को युद्ध में मरा घोषित कर दिये जाने पर उस औरत ने दूसरी शादी कर ली। खाविंद साहब, जो पाकिस्तान की सेना द्वारा पकड़ लिये जाने पर वहां की जेल में बंद थे, कुछ साल बाद प्रकट हो गये, तो पंचायत ने उस औरत की राय लिये बिना ही फ़ैसला दे दिया कि उस औरत को पहलो शौहर के पास रहना होगा। दो अलग अलग जातियों के लड़के और लड़की के भाग कर विवाह कर लोने पर तो उन परिवारों की नाक इतनी झुक जाती है कि वह तब तक उठती ही नहीं है जब तक वे पुलिस को रिश्वत खिलाकर या लड़के–लड़की को बहला–फुसलाकर अथवा बलपूर्वक उनका अपहरण कर जातीय पंचायत के सामने प्रस्तुत नहीं कर देते हैं और उन्हें सरेआम पेड़ से लटकाकर फांसी दिला देने अथवा उनके
गर्दन कलम कर दिये जाने की सजा. नहीं दिलवा देते हैं।

अगर इतिहास के पन्नो  को पलट कर देखें तो मेरठ, मुज़फ्.फ़रनगर क्षेत्र, जो कभी हस्तिनापुर राज्यांतर्गत रहा था, में स्त्रियों के विषय में बेमिसाल फै.सले द्वापर युग में भी सुनाये जाते थे। द्रोपदी को अर्जुन ने स्वयंवर में जीता और पांडव उन्हें लोकर हस्तिनापुर चल दिये। जहां तक मेरा ज्ञान है पांडवों के पास मोबाइल फोन तो था नहीं और जगह जगह लॆंडलाइन फोन और पी.सी.ओ. की सुविधा भी तब उपलब्ध नहीं थी, क्योंकि अगर ऐसा होता तो कृष्ण जी पर मर मिटने वाली सोलह हजा.र आठ गोपिकाओं में सें हजा.र पॉच सौ तो उनसे प्रतिदिन प्रेमालाप करतीं ही, नहीं तो एस। एम। एस। ही भेजतीं, परंतु वे केवल एक बार ऊघो के माध्यम से अपनी विरह–वेदना का संदेश द्वारिका भेज सकीं थीं, इसलिये बेचारे पांडव द्रोपदी को स्वयंवर में जीतकर साथ लाने की खुशखबरी कुंती को नहीं दे पाये थे। यदि भारत की प्राचीन वैज्ञानिक श्रेष्ठता का गुणगान करने वालो मेरी इस बात से सहमत न हों, तो अपना सिर फोडे. जाने से बचाने के लिये मैं यह माने लोता हूं कि पाण्डवों के पास दूरभाष था, और केवल कुंती को सर्पराइज़ देने के उद्देश्य से उन्होंने उसका उपयोग नहीं किया था। बहरहाल, हुआ यह कि महल में पहुंच कर पाण्डवों ने द्रोपदी को बिना कुंती के सामने लाये उनसे प्रसन्न मुद्रा में कहा, “मां देखो, हम आप के लिये क्या लाये हैं?”, तो कुंती ने सोचा कि अब बुढा.पे में हमें कौन गहनों कपडों का शौक रह गया है और उन्होने विशाल–हृदयता से कह दिया— “जो लाये हों, तुम पांचो आपस में बराबर बराबर बांट लो।”

मेरा अनुमान है कि अगर 21वीं सदी की किसी कुंती ने ऐसी आज्ञा दी होती, और द्रोपदी सीधी सादी घरेलू लड़की रही होतीं, तो तुरंत कोप भवन में चलीं जातीं और तब तक न निकलतीं जब तक कुंती क्षमायाचना करते हुए अपनी आज्ञा वापस न ले लेतीं।  पर यदि तेज़ तर्रार किस्म की द्रोपदी होतीं तो बोलतीं — “पांच में बंटे मेरी जूती?” और अर्जुन को पटाकर उसी दिन अलग फ़्लॆट किराये पर लेतीं और फिर उसमें अपने हिस्से का सामान सजाकर हनीमून पर चली जातीं और अगर पाश्चात्य सभ्यता और रीमिक्स गानों के संस्कारों वाली द्रोपदी होतीं तो सोचतीं कि एक टिकट में पांच पिक्चर देखने में तो बडा मजा आयेगा और तुरंत कुंती सासू को ‘थैंक यू’ कहकर पांचों पतियों को किसी–किसी करने लगतीं। हां यह बात अलग है कि उस हालत में आधुनिक पाण्डवों में इस बात पर घमासान अवश्य हो जाता कि सप्ताह के पांच दिन को एक एक में बांट कर शेष बचे दो दिन में द्रोपदी के साथ सहवास कौन करेगा– और पता नहीं ऐसे में अर्जुन के वाण, भीम के गदा, नकुल के भाला, सहदेव के दांव–पेंच और युधिष्ठिर के नीतिवाक्य में कौन अधिक मारक सिद्ध होता। और फिर जब दिलजला दुर्योधन ऐसे हुक्मनामें की रिपोर्ट थाना चरथावल पर लिखा देता, तो क्या वह चुपचाप थोडे. ही बैठते? और चाहे कुछ करते या न करते, कम से कम अपना ‘हक’ वसूल करने के लिये तो मय फो.र्स के आ ही धमकते।

पर भई यह बात आज की नहीं है, हजा.रों साल पुराने द्वापर युग की है, जब मां की आज्ञा के उल्लंघन का साहस न तो पांडव कर सकते थे और न द्रोपदी – और द्रोपदी बिना किसी झगड़ा – टंटा के सहर्ष पांच पतियों की ब्याहता बन गईं। यदि किसी पुरूष को द्रोपदी के पांच पुरूषों की पत्नी बनने पर कोई नुख्.स दिखाई देता है तो मैं उसे दकियानूसी और मेल–शौविनिस्ट–पिग (पुरूष वर्चस्व में विश्वास करने वाला सुअर) समझता हूं और नारी स्वातंत्र्य एवं समानता की समस्त संस्थाओं की ओर से लानत भेजता हूं, क्योंकि उस युग में जब हर पाण्डव एक से अधिक पत्नी रखे था तो द्रोपदी के एक से अधिक पति होने से कौन सा आसमान फटा पड़ रहा था? मैं तो कहूंगा कि कुंती इस दुनिया में नारी –पुरूष समानता की प्रथम प्रणेता थीं।

वह तो आग लगे इस इक्कीसवीं सदी को, जो दुनिया के अधिकतर सभ्य देशों में एक वक्त में एक ही पति या पत्नी रखने का और बलात्कार को जुर्म मानने का कानून बना दिया गया है, जिससे पुरूषों के खुलो आम पौरूष–प्रदर्शन पर अनेक बंदिशें आयद हो गई हैं, और नारी समानता के नाम पर अनगिनत संस्थायें रोज़ रोज झंडा–डंडा उठाये हुए बवाल खडा. कर देतीं हैं। अगर ये न होतीं तो इमराना का मसला चुपचाप शहर काजी. के शरियती फै.सलो के अनुसार हल हो गया होता और इमराना बी अपने बलात्कारी की पत्नी बनकर उसका परिवार बढा. रहीं होतीं। पर हुआ यह कि, नारी स्वातंत्र्य वालो, महिला आयोग वालो और मीडिया वाले बीच में कूद पडे और ससुर साहब को जेल भिजवा दिया। इससे इमराना का साहस बढ़ गया और उसने काजी. के फै.सलो के ख़िलाफ़ अपनी जु.बान खोल दी और अपने पति के साथ रहने की इच्छा सरेआम जा.हिर कर दी और उसके पति ने भी इसकी ताईद कर दी। इमराना ने अपने ससुर को भरतीय सम्विधान के अनुसार दंडित कराने की बात भी कह डाली।
अब इस नाफ़र्मानी को पुरूष समाज कैसे बर्दाश्त कर सकता था — इससे तो उनका बहू–बेटियों पर बलात्कार करने और फिर शरियत के मुताबिक उन्हें उनके पति से छुडवा.कर अपनी पत्नी या रखैल बना लेने का हक ही मारा जा रहा था। इसलिये मुआमला इस्लाम की सर्वोच्च संस्थाओं में एक दारूल–उलूम–देवबंद के सामने फै.सला हेतु पेश किया गया। वहां के मुफ्.ती–ए–आज़म ने समस्त पहलुओं पर गौर फर.माकर 25 जून, 2005 को अपना ‘विद्वत्तापूर्ण’ फतवा दिया। जिसका सार नीचे दिया जाता है,
“बेहतर तो यही था कि पति नूर–इलाही इमराना को तलाक दे दे, लोकिन दुनियादारी की मजबूरियों के चलते नूर इलाही और इमराना दोनों यह नहीं चाहते हैं। यदि नूर इलाही और इमराना यह पक्का इरादा कर लों कि वे किसी भी सूरत में आपस में शारीरिक सम्बंध नहीं बनायेंगे तो अपने पांच बच्चों की ख़ातिर दोनों एक छत के नीचे रह सकते हैं, लोकिन इमराना को अपने पति से पर्दा करना होगा। शरियत के अनुसार इमराना अब कभी नूर इलाही की पत्नी नहीं बन सकती है। मज़हब इस्लाम और शरियत के हिसाब से ससुर के बलात्कार के कारण अब उसका रिश्ता बदल गया है।”
मुफ्.ती–ए–आज़म देवबंद का फ़तवा तो सुप्रीम कोर्ट के फै.सलो से ऊपर की चीज़ है क्योंकि इसके विरूद्ध न तो ‘फु.ल–बेंच’ में सुनवाई की दरख्.वास्त दी जा सकती है और न राष्ट्पति के यहां ‘मर्सी अपील’ की जा सकती है और यह दूसरे काज़ियों के लिये एक नजी.र भी है।
इसलिये बेचारे नूर इलाही और इमराना की क्या औकात कि इसकी नाफ़र्मानी कर अपनी इहलोक ओर परलोक दोनों में ऐसी तैसी करायें, और 26 जून को ही दोनों ‘सही’ रास्ते पर आ गये, और कहने लगे कि उनके लिये शरियत से बढ़कर कुछ भी नहीं है और वे देवबंद से आने वालो फ़तवे का पूरी तरह पालन करेंगे। 27 जून को आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने भी बयान जा.री कर दिया कि देवबंद से आने वाला फ़तवा शरियत के अनुसार है और इसकी कहीं अपील नहीं हो सकती है— अब इमराना अपने ससुर के खू.न के रिश्ते वालो किसी की बीवी नहीं बन सकती है। यह तो इमराना और नूर इलाही जाने कि वे अंत में ख़ुदाई कानून मानते हैं या सम्वैधानिक। पर जब से इमराना के मुआमलो में फ़तवा अख़बारों की सुख़ियों में आया है मैने अपने मुहल्ले के शोहदे किस्म के लोगों को अपनी मूंछों पर ताव देते और शरियत मानने वाली बहू–बेटियों और जवां पडो.सिनों पर निगाह रखे हुए पाया है कि कब उनसे बलात्कार का मौका हाथ आये ओर कब उन्हें पति से छुडा.कर ‘अपनी’ बनाने पर मजबूर किया जा सके।

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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