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कला का नारीत्वकरण वीमेन्स फीचर सर्विस नई दिल्ली, (वीमेन्स फीचर सर्विस) - अमृता शेरगिल द्वारा किये गए अग्रगामी कृतित्व के कोई आधी सदी बाद जाकर हमारी अधिसंख्यक महिला कलाकारों के लिए नगर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना सम्भव हुआ है। हालांकि '70 के दशक का पूवार्ध आते-आते वे ज़रूर कला के परिदृश्य पर अपनी उपस्थिति से कहीं ज्यादा काबिलियत जता चुकी थीं और कला जगत के कई महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो चुकी थीं। दरअसल, विख्यात मूर्तिशिल्पी मीरा मुखर्जी की मानिंद बहुतों ने लोक व जनजातीय बोध अर्जित किया और अपनी अलग शैली गढ़ एक ऐसा मुहावरा रचा जो शहरी जीवन पर कटाक्ष करता हो। नसरीन मोहम्मदी और ज़रीना हाशिमी भी कागज़ पर उकेरे अपने सूक्ष्म प्रतीकों के ज़रिये आधुनिक प्रयोग शैली की अमूर्तवादी / न्यूनतमवादी समीक्षा में एशियाई योगदान दे रही हैं। सौंदर्यशास्त्रीय परम्परा के समूचे विस्तार में निखरे अर्पिता सिंह, नीलिमा शेख, नलिनी मालानी और मीनाक्षी मुखर्जी जैसे कलाकारों के स्पष्ट और विशिष्ट कृतित्व ने तो मानो फिर भारतीय कला पटल पर दिवास्वप्न और मनन का अन्तरिक्ष रच दिया। प्रारम्भ से ही उनकी दिलचस्पी न केवल उनके अपने निजी जीवन में थी; वृहत्तार सामाजिक अवस्था भी उसी के दायरे में आती थी। तमाम सीमाओं और परिपाटियों को लांघ जाने वाली उनकी यथार्थता, जो उनकी रंगस्थली भी रही, कालान्तर में गतिशील हुई। अर्पिता सिंह (जन्म 1937) ने अपनी चित्रकला के अंतरंग में ही एक ऐसा बहु-स्तरीय व घना फलक रच दिया जो अलंकारिक तो था ही, उसमें अंदरूनी तनावों का अनुनाद भी था। हवा में तिरती आकृतियों, शून्य में विचरते मानव, मेज़ पर टहलते हंस, कमरे में पसरी सजीव लगतीं वस्तुओं से निरंतर स्पंदित हो उठते रोज़ाना जीवन से भी ऐसा ही आभास मिलता था। साधारण लोगों के साथ रोज़मर्रा की इन हल्की-फुल्की मुठभेड़ों के ज़रिये ही अर्पिता सिंह ऐसी व्यंग्योक्ति रचती है जो एक ही पल में पर्याप्त रूप से घिसी-पिटी भी है और ऐन उसी पल, प्रगाढ़ रूप से कल्पित 'अन्य' से सराबोर भी मालूम पड़ती है। '60 के दशक में अर्पिता की कला मूर्त से अमूर्त की ओर मुड़ी, और '80 के दशक में फिर मूर्त हुई। शुरू-शुरू में उनकी कला ने ऐसा जादुई संसार रचा जिसमें तमाम वस्तुओं, मनुष्यों और वनस्पितयों की धड़कनें मायावी थीं। इस धड़कती, जादुई नुमाइश में फल, फूल, कश्तियां, साये, सभी रहे मुकम्मिल अपनी-अपनी जगह। अस्सी का दशक आते-आते उनकी पेंटिंग्स इस मायने में और भी प्रांजल हुईं कि भारतीय समाज में फैले विरोधाभास उनमें खूब मुखर हुए। मसलन, बेचैनी का आलम ढहाती, चौरंगी मेज़पोश पर बैठीं बत्ताखें; सन्नाटे को चीरती गुलाब उद्यान में खड़ी कार और सांझ के चुप, उदास धुंधलके में लिपटा कोई दरख्त! हालांकि, तैलचित्र भारत में कलाकर्म का पहला माध्यम है; लेकिन ठेठ निराले अंदाज़ मेें वॉटरकलर और काग़ज़ पर टेम्परा जैसे देशज तरीकों को भी प्रमुखता से अपनाया गया। नतीजतन, एक अखिल-एशियाई संवेदनशीलता निखर कर उभरी। अपनी विरासत को एक नये सिरे से सँवारने और पारम्परिक तरीकों को फिर से खोजने के उपक्रम में नीलिमा शेख (जन्म 1945) लगातार रही आईं। नीलिमा की शागिर्दी बड़ोदा में के.जी. सुब्रह्मण्यन के संरक्षण में हुई। नीलिमा अमूमन अपना कैन्वॅस बड़े जतन से बनाती हैं। एक-दूसरे के ऊपर रखी हाथ-बने कागज़ की तीन-चार तहों को सरेस लगा कर जोड़ने के बाद, उस पर सफेद रंग पोत फलक उजला बनाया जाता है। बारीक बनावट वाला यह कैन्वॅस नीलिमा को एक ऐसा अवकाश देता है कि जहां चाहे उसका ब्रश सतह में गोता लगाते हुए रंग खिला जाए, और जहां चाहे उसकी कूची पटल को बस छू भर जाए। नफासत में डूबे नीलिमा के कैन्वॅस पर महीन पोशाक से त्वचा भी झांकती नज़र आती है, तो कुछ जगहें पोशीदा भी रही आती हैं। यहां पर यह जतलाना ज़रूरी होगा कि भारतीय खड़िया एकदम सटीक घनत्व तक सूखने में खासा समय लेती है। इसमें संयम तो बरतना पड़ता ही है, साथ ही दूरदृष्टि भी ज़रूरी होती है। इस माध्यम में बने शेख के शुरूआती काम 'मिड-डे' (1984) में एक सीमित क्षेत्र में हो रहीं बहुतेरी गतिविधियां प्रस्तुत होती हैं - सब्ज़ियां छीलती औरत, फर्श पर बिखरे अनाज के दाने चुगते परिंदे, हवा में गेद उछालता बालक, टोंटी से टपकतीं पानी की बूंदे चाटने को झुका एक कुत्ता। नलिनी मालानी (जन्म 1946) का सफर समुदायों, वर्गों व राष्ट्रों के बीच गमने से तय हुआ है। तमाम माध्यमों के ज़रिये मिथक व साहित्यिक पाठ उनकी कूची के सहारे कैन्वॅस पर शोषण के अन्तरगुम्फित वृत्ताान्तों में अनूदित हुए, और इस सब में उन्होंने खूब रियायत भी ली। सत्तार व अस्सी के दशक में मालानी की पेंटिंग्स की प्रधान चरित्र, मर्मांतक हिंसा की शिकार औरत रही। 1990 का दशक आते-आते मालानी के कृतित्व के बढ़ते विस्तार ने शहर की कारिस्तानियों में घिरे व्यक्ति की भी सुध ली। मुम्बई की भीड़-भरी 'लोहार चाल' में अपने स्टूडियो के झरोखे से वहां के कूचे और गलियां परखते हुए वे साधारण कामगारों और उनकी चकल्लस से रूबरू हुईं। नब्बे के दशक की दहलीज़ पर बने उनके कृतित्व 'सिटी ऑफ डिज़ाइर्स' (इच्छानगरी) में एक ऐसा पृष्ठ बिम्ब विकसित हुआ जो अपने अपरूपण व अपमार्जन के साथ स्वयं सौंदर्यशास्त्रीय बोध की समीक्षा के साथ-साथ, आच्छादनों व रिसावों से क्रांतिक सन्धि बिन्दुओं का समूचा फलक रचने लगा। अस्सी के दशक में पुष्पमाला एक महत्वपूर्ण मूर्तिशिल्पी बन उभरीं जो मुख्यत: टेराकोटा के साथ काम करती थीं। उनकी कृतियों में तीखे व्यंग्य व हास्य का पुट था, साथ ही माध्यम पर पकड़ व लय के अपने एहसास में वे विशिष्ट भी थीं। उदाहरण के लिए उनकी कृति 'वूमन' में एक किशोरी अपनी ब्रा की पट्टी ठीक करते हुए कुतूहल से अपनी आंखें मीचे कल्पनालोक और वास्तविकता के बीच विचर रही है। बड़ोदा कला संकाय से प्रशिक्षण प्राप्त पुष्पमाला के संरक्षक के.जी. सुब्रह्मण्यन व भूपेन्द्र खक्कर थे और उन्हीं से प्रेरणा ले उसके काम में तल्ख हास्य का पुट आया। नब्बे के दशक से 'फैण्टम लेडी' या 'किस्मत' (1996-8) से शुरू हो वह अपने फोटोग्राफ्स में दिखाई दी हैं। 'फैण्टम लेडी' एक थ्रिलर है जिसमें चेहरे पर नकाब ओढ़े एक औरत एक भूतपूर्व डॉन से अपनी खोई हुई जुड़वा बहन खोजने में मदद मांग रही है। देश के व्यावसायिक व चलचित्र केन्द्र के बतौर उस महानगर के प्रति यह एक श्रध्दांजलि थी जो आज की हेकड़ कल्पनाओं को आश्रय देता है। 'सुनहरे सपने (गोल्डन ड्रीम्स, 1998)' व 'दर्द-ए-दिल (दि एॅन्ग्विश्ड हार्ट, 2002)' नामक उनकी रचनाओं में हा्रथ से रंगे फोटोग्राफ्स ऐसा कथा-संसार बुनते हैं जिसमें बसीं मध्यमवर्गीय महिलाएं वास्तविक परिस्थितियों में क्रीड़ारत हो अपनी रूमानी उड़ान भरती हैं। विरही रंगत के बावजूद इन छायाचित्र की कथावस्तु सम-सामयिक व अपशकुनी-सी लगती है। 'बॉम्बे फोटो स्टूडियो' (2000-03) शीर्षक की अपनी छायाचित्र श्रंखला में पुष्पमाला 1950 की फिल्मी नायिका की शैली वाले पहनावों में अपने को प्रस्तुत कर रूढ़ जेण्डर छवियों की पड़ताल करती हैं। उस ज़माने की बम्बइया हिन्दी फिल्मों के एक स्टिल फोटोग्राफर के वास्तविक स्टूडियो में इन पोर्ट्रेट्स तथा हॉलीवुड शैली की प्रकाश-व्यवस्था के ज़रिये वे ये प्रयोग करती हैं। इनके मूल्यांकन के ज़रिये अपने पारम्परिक रूपों में चेहरा ढांपे मुस्लिम, हिन्दू व क्रिश्चियन महिलाओं की विशिष्टताएं परखी जाती हैं। अन्य कलाकारों की तरह, इन महिला कलाकारों के लिए भी लैंगिक छानबीन अपनाना, अपने 'स्व' तथा समाज के साथ उसके सम्बंध को बूझने व उसे अभिव्यक्ति करने के बृहत्तार उद्देश्य का एक हिस्सा है। प्रतिदिन अस्तित्व के वस्तुगत तथ्यों में लिप्त होना, नज़र से ओझल हो चुकी चीज़ों को वापस नज़र के सामने ले आना तथा खस्ताहाल होते अपने पर्यावरण के प्रति एक तरह की संवेदनशीलता का इज़हार; यह सब उनके कृतित्व में दिखलाई पड़ता है। अपने हमसफर पाकिस्तानी कलाकारों की तरह ही उनके काम में भी भरपूर हाज़िर-जवाबी और हास्य के साथ तमाम चलन से इनकार साफ दिखाई देता है। इन महिला कलाकारों ने जो बहुआयामी व जटिल अन्तराल रचा है उसने इस उपमहाद्वीप के कला संसार में अपना महत्वपूण योगदान दिया है। यशोधरा डालमिया (उध्दरित - मेमॅरी, मेटाफॅर, म्यूटेशन्स : कॅन्टेम्पॅररी आर्ट ऑफ इण्डिया एण्ड पाकिस्तान, यशोधरा डालमिया व सलीमा हाशमी, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ सं. 227, कीमत 2,950 रु.) (साभार : वीमेन्स फीचर सर्विस)
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