मन्दाकिन्या; सलिलशिशिरे : सेव्यमाना मरुद्यि

र्मन्दाराणामनुतटरुहां छायया वारितोष्णाः।

अन्वेष्टव्यै : कनकसिकतामुष्टिनिक्षेपगूढैः

संक्रीडन्ते मणिभिरमरप्रार्थिता यत्र कन्याः।।

कालिदास -मेघदूत 

          वहां की कन्याएं इतनी सुन्दर हैं कि देवता भी उनके लिए लालायित रहते हैं, वे कन्याएं मंदाकिनी के जल की फुहार से ठंडाए हुए पवन में, तट पर खडे हुए कल्पवृक्षों की छाया में, अपनी तपन मिटाती हुई, अपनी मुट्टियों में रत्न लेकर उनको सुनहरे बालू में डालकर छिपाने और ढूंढने का खेल करती हैं। 

संसार में क्या ऐसी कोई महिला है जो अपने को सुन्दर नहीं देखना चाहती। सभी महिलाएं अपना सौंदर्य बढाने के लिए शृंगार करती हैं और आभूषण पहनती हैं, वे आभूषण चाहे सोने के हों अथवा पुष्पों के। किन्तु एक ऐसी जनजाती है जहां की महिलाएं अपने को कुरूप दिखलाना चाहती हैं, अधिक से अधिक कुरूप। जब मैंने देखा तो विश्वास न कर सका, प्राकृतिक रूप से तो वे बहुत सुन्दर थीं। गौर वर्ण चेहरे पर ललामी, बडी आँखे, अन्य पूर्वांचलियों की अपेक्षाकृत पतले ओंठ तथा लंबी नासिका, काले बाल किन्तु उन्होंने नाक में दोनों तरफ बजाए हीरे या चमकदार कांच की लोंग के बडी बडी क़ाली चकत्तियां पहन रखी थीं। चेहरे को कुरूप कर देने वाले गुदने गुदाए थे – ललाट से लेकर नासिकाग्र तक एक काली लकीर, सुन्दर ठोडी पर पांच खडी क़ाली लकीरें। गुदने की प्रथा लगभग सभी जनजातियों में प्रचलित है। इनका मुख्य उपयोगी जनजाति की पहचान बनाना होता है। विभिन्न जातियों में अक्सर युध्द हो जाया करते थे, आकस्मिक आक्रमण हुआ करते थे तब मित्र और शत्रु की पहचान करने का अर्थ होता होगा जीवन और मरण में अंतर। कई जन जातियों में महिलाओं के विकास की विभिन्न स्थितियों को दर्शाने के लिए भी होता है। जैसे तिरय जिले की वान्चो जनजाति में, छ या सात वर्ष की उम्र में जब लडक़ी की मंगनी होती है तब उसके नाभि के ऊपर गुदने किए जाते हैं। और जब लडक़ी रजस्वला होती है तब उसकी पिंडलियों पर गुदने किए जाते हैं। लडक़ी जब विवाहोपरान्त लडक़े के घर जाती है तब उसकी जाँघों पर गुदने किए जाते हैं। शिशु जन्म के थोडा पूर्व या पश्चात उस महिला के स्तनों पर गुदने किए जाते हैं किन्तु अपातानियों में पहचान के साथ उसे कुरूपित करना भी एक ध्येय होता है।

यह स्थान है अरुणाचल के सुबनसिरी जिले का दक्षिणी हिस्सा। पन्यौर नदी की सहायक काली नदी की 16 किमी लंबी घाटी में मात्र 26 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में यह अपातानी नामक जनजाति रहती है। लगभग 10,000 अपातानी लोगों की घाटी दोनों तरफ से ऊंची विशाल हिमालय श्रेणियों से घिरी है। उत्तरपूर्वांचल की पहाडी ज़नजातियों में सैकडों वर्षो से स्थायी रूप से जल-डूबी धान की खेती करने वाली मात्र यही जनजाति है। सडक़ से ही इनके सीढीनुमा धान के खेत, अच्छी तरह से बनाए हुए दिखते हैं – कहीं एक मीटर जमीन भी व्यर्थ नजर नहीं आती। और जहां सीढीनुमा खेत नहीं बन सकते वहां पहाडी ढ़लानों पर ये लोग ज्वार बाजरा पैदा करते हैं। मैं जनवरी 91 में इस अनोखे प्रदेश घूमने गया था। इनके हवाई अड्डे जिरो पर उतरकर, उनके प्रमुख शहर हापोली जा रहा था। पिछाडी धान की फसल भी काटी जा चुकी थी। लेकिन खेतों में, पानी रुका हुआ था। घाटी में ठंडी हवा बह रही थी। कुरूपित सुन्दर महिलाएं अपने सिर के सहारे टोकरी पीठ पर साधे झुण्ड में हापोली के बजार की तरफ जा रही थी। लडक़ियों की ही नहीं वरन अधिकांश महिलाओं की वेशभूषा आधुनिक थी, स्कर्ट और ब्लाउज।

‘काली’ घाटी की समुद्र सतह से ऊंचाई लगभग 1500 मीटर है, ऊंचे पहाडों की छत्रछाया में है इसलिए शीत ॠतु में ठंड कडाके की पडती है। गर्मी का मौसम सुहावना रहता है, यद्यपि बारिश खूब होती है। थोडी देर में देखा एक जुलूस सा, किन्तु बहुत ही व्यवस्थित, चला आ रहा था। एक पुजारी उस जुलूस का नेतृत्व कर रहा था। उसके बाएं हाथ में ताड पत्रों का एक पंखा था और दाहिने हाथ में वह ‘अक्षत’ (पूजा के चावल) का प्रक्षेपण कर रहा था। अर्थात एक तो वह दुष्ट आत्माओं को पंखे से भगा रहा था और दूसरे अक्षत से गाँव वासियों को अभय दान दे रहा था। उसने लंबे बालों का जूडा सिर पर सामने की तरफ ऊपर बांध लिया था। ललाट पर बाल न आएं इसलिए उसने उन बालों की पतली चोटियां गुंथ ली थीं और उन चोटियों को उसने कान के पास से ललाट की ऊपरी सीमा बांधते हुए ले जाकर जूडे में बांध दिया था। दाढी क़े बाल जो कि बहुत कम थे, और छोटे थे, खुले छोड दिए गए थे। चेहरा लाल तो था किन्तु दिखला रहा था कि जीवन कठोर है। उसने काली ऊन की ढीली और लम्बी बंडी पहन रखी थी जो कि जांघों तक पहुंचती थी। जांघिए के नीचे उसने कुछ नहीं पहना था, हां घुटने और पिंडलियों के बीच पतली रस्सी बांध रखी थी। कौडियों की चौडी माला को उसने एक कंधे पर से पहन रखा था। इसके अतिरिक्त बहुत सी गरियों की मालाएं पहन रखी थीं। सिर के ऊपर जूडे में पीतल का एक ‘सूजा’ चेहरे के समानांतर लगा रखा था। यह जूडा अपातानी लोगों की उनके गुदने के अलावा एक और पहचान है। इस जूडे क़ो ‘पदुम’ कहते हैं। मेरी समझ में, पदुम, ‘पद्म’ का भ्रंश रूप हो सकता है। उसकी आंखें थोडी लाल थीं किन्तु उसके चेहरे पर गम्भीर मुस्कराहट थी और उसके चेहरे पर झलकता आत्मविश्वास दिखला रहा था कि वह अपने अधिकार के प्रति सचेत था।

जुलूस में अधिकांश युवा और किशोर वर्ग ही था। अधिकांश के हाथ में डंडे थे। कुछ युवतियों ने एकदम नए सफेद शाल ओढ रखे थे जिनकी किनार नारंगी रंग की थी। जुलूस में अधिकतर लडक़ियां एक समूह में (किन्तु एक पंक्ति में) और लडक़े अलग समूह में चल रहे थे। किन्तु कई बार लडक़े लडक़ियों की मिली जुली पंक्ति भी देखने में आई। अधिकांश जुलूसियों के मुख पर कुछ गम्भीर कुछ विनोदी भावनाओं का मिश्रण झलक रहा था। कुछ मुझे देखकर मुस्करा देते थे। एक विचित्र सा ‘बैच’ (जिसे कि किसी समारोह के कार्यकर्ता कपडों या कागजों का रंगीन फूल का बना हुआ पहन लेते है) जो एक हरे पांच के नोट के ऊपर दो रूपए के लाल नोट को पिन से जोडक़र बनाया गया था, बाईं छाती पर लगाया गया था। पता लगा कि उत्तम भोजन के साथ साथ यह उन उत्सवियों के लिए ‘भुरसी दक्षिणा’ थी।

यह जुलूस आसपास के गांवों के चौगानों पर जा रहा था जहां कुछ पूजा रचा के बाद वह आगे चल देता था। दोपहर के समय मिथुन नामक विशालकाय भैंस सरीखे जानवर को पूजा करके काटा जाएगा। लोगों की प्रतिष्ठा और साख उनकी जमीन के अतिरिक्त मिथुन सम्पत्ति द्वारा आंकी जाती है। इस उत्सव को मनाने वाला व्यक्ति अपनी बडी या छोटी हैसियत के अनुसार ‘उन पेदो’ अथवा ‘पादु लातु’ मनाते हैं। ‘उन पेदो’ में 5-6 मिथुनों की बलि की जाती है और पादु-लातु में दो या तीन। इनके साथ अपनी हैसियत के अनुसार अथवा अपनी नई हैसियत को उन्नत करने के लिए और गायें; सुअर तथा मुर्गे भी काटे जाते हैं।

यद्यपि अपातानी चांद्र कैलैण्डर मानते हैं, किन्तु वे उसका समज्जन सौर कैलैण्डर के साथ इस तरह करते हैं कि यह उत्सव हमेशा दिसम्बर अंत या जनवरी के प्रारंभ में आता है। चावल की पिछाडी फसल अक्टोबर तक कट चुकी होती है और नवम्बर तक भण्डार भर जाते हैं। अगली फसल की तैयारी मार्च में होती है, और बीच की ॠतु में भयंकर शीत रहती है, कभी कभार बर्फ भी पड ज़ाती है। उत्सव की तैयारी में भी समय लगता है। बहुत अच्छी फसल की खुशियां मनाने के लिए यह समय उपयुक्त है। जब जुलूस निकल गया तब इस गांव पर ध्यान गया। सडक़ कच्ची थी, नाली सडक़ के साथ चल रही थी। बांस के मकान, एक दूसरे से बिलकुल सटे हुए, तथा नीचे की मंजिल तो मुर्गों और सुअरों के लिए तथा ऊपर की मंजिल रहने के लिए। छप्पर भी बांस को चीरकर बनाई गई थी और इतनी अच्छी बनी थी कि उसमें से पानी के चूने का तो प्रश्न ही नहीं, वरन पानी रिसता भी नहीं होगा। प्रत्येक घर में ऊपरी मंजिल में एक छज्जा या बरामदा था। स्कूल में पढे लिखे लोग अपनी साफ वेषभूषा के कारण अलग ही दिख जाते थे। मकान इतने सटे थे कि एक मकान से आवाज दूसरे मकान में बिलकुल आसानी से जाती होगी। और धोखे से एक मकान में भी आग लगने पर सारी पंक्ति में आग लगेगी। इस तरह की बहुत सी बातें समझ में नहीं आ रही थीं।

पता चला कि अपातानी के चारों तरफ निशि जनजाति रहती हैं जिन्हें खेती करना नहीं आता। वे तो शिकारी और जंगली उपज के बटोरने वाले हैं। चूंकि अपातानी सैकडों वर्षों से उच्च कोटि की खेती करते आ रहे हैं और जिसके लिए उन्हें कडी मिहनत करना पडती है, वे अपेक्षाकृत सभ्य और कम-लडाकू हो गए। और जैसा कि हमेशा होता आया है कि बर्बर लोग ‘सभ्य’ पर लूटने के लिए आक्रमण करते हैं, निशि लोगों ने इनकी कमजोरी देखकर पहले तो मौका मिलते ही चांवल के भण्डारों को लूटना शुरू किया और फिर उनकी सुन्दर लडकियों को भी। (इसमें क्या आश्चर्य कि अरुणाचल की सभी जनजातियों में निशि परिवार की संख्या सर्वाधिक है) इसलिए इन (अपातानी) लोगों ने गांवों को छोटा बनाकर, उनमें मकानों को भी सटाते हुए बनाकर, उनकी रक्षा करना अपेक्षाकृत सरल पाया। और लडक़ियों के चेहरों पर अश्रृंगारिक गुदने गोदकर, उनकी नाक और कान के दोनों तरफ बडे से बडे क़ाले चकत्ते डालकर उन्हें सचमुच ही कुरूप बना दिया। किन्तु भारत की स्वतंत्रता के पश्चात पूर्वांचल की पहाडियों में व्यवस्था और कानून की स्थापना हुई, अरुणाचल एक अलग प्रदेश बन गया तब निशि लोगों का डर तो समाप्त हो गया किन्तु परंपराएं चलती रहीं। किन्तु कोड 25-30 वर्ष से युवा वर्ग में जागरण हुआ और उन्होंने इस कुरुपीकरण की परंपरा को समाप्त किया।

हापोली का संग्रहालय भी देखने और अध्ययन करने योग्य है। आजकल तो अपातानी लोग बेत तथा बांस के उपकरणों का उपयोग कम करने लगे हैं, अपनी समृध्द हस्तकला को छोडक़र प्लास्टिक सभ्यता में जोर शोर से पदार्पण कर रहे हैं। वे बांस और बेत की बहुत ही सुन्दर टोपियां और पूंछ बनाते थे, उनकी हस्तकला का सौंदर्य एकदम निराला है। अब वे टोपियां बडे बूढे ही पहनते है और पूंछ कोई भी नहीं। उनके शाल और चादर हस्तकरघा बुनाई के उत्कृष्ट नमूने हैं। संग्रहालय में रखे चादरों में से एक मुझे अत्यन्त सुन्दर लगी। पता लगा, दाम लगभग 1000 रुपए, वह भी यदि मिल जाए तब। कोई बुनता ही नहीं। पहले घर की सब लडक़ियों के पास एक एक करघा होता था और वे बहुत लगन से उस पर शाल, चादर, बंडी घाघरे आदि बनाती थीं और उस काम में, अपनापान होने के कारण और हस्त कौशल और सुन्दरता होने के कारण उन्हें आनन्द और सुख मिलता था – कहीं कोई ‘परकीयकरण’ (ऐलिएनेशन) नहीं था। वह कार्य गृहस्थी के कार्यों से सुमेलित ओर समेकित था – इसलिए सुख और आनन्द की वर्षा करता था। अब तो पढाई लिखाई भ्रमित तथा बेरोजगारों को पैदा कर रही है और जिन्हें काम मिलता भी है उसमें कुछ तो परकीयकरण के कारण और कुछ अपने ‘मूल्यों’ को छोडने के कारण, संतोष नहीं, सुख नहीं पाते तब उसे खोजने के लिए ऐन केन प्रकारेण पैसे की कमाई करना चाहते हैं। किन्तु उससे भी सूख तो नहीं मिलता, तब अपना जीवन स्तर ऊंचा करने के नाम पर उपभोग की अंतहीन लिप्सा ही जीवन का ध्येय बन गया है। यह क्रिया सारे भारत में हो रही है किन्तु इसके दुष्परिणाम जनजातियों में देखने अधिक मिलते हैं। क्योंकि इसके पूर्व उनका जीवन चाहे कष्टमय रहा हो, किन्तु था सुखी।

इस उत्सव मोरंग में मुझे विशेष रुचि हो रही थी क्योंकि बिना धार्मिक ध्येय वाले उत्सव कम ही होते हैं। एक मित्र ने पास के ही मिची गांव के रहने वाले सज्जन, जिनका नाम ही श्री मिचीकानी-मिची के रहने वाले है, से अनुरोध किया और श्री मिचीकानी सहर्ष मुझे अपने चचेरे भाई के यहां उत्सव में ले गए। हम लोग जब पहुंचे थे तब अंधेरा हो चुका था। हालांकि शाम के 6 ही बजे थे। अंधकार के समुद्र में कहीं कहीं प्रकाश के द्वीप थे, गांव के अन्दर तो द्वीप कहना भी सही नहीं होगा, कहूं कि रोशनी और अंधेरा की मिली जुली दलदल थी, इसलिए मुझे सम्हलकर चलना पड रहा था। एक खुली सी जगह दिखी जहां प्रकाश जगमगा रहा था। मिचीकानी ने बतलाया कि यह जो बांस का बडा चबूतरा है, लपांग है, इसमें गांव की पंचायत-बुलियांग-की बैठकें होती है। बुलियांग यद्यपि गांव के झगडों के बीच न्याय तथा समझौते के अतिरिक्त गांव के विकास, रहनसहन आदि सभी के लिए जिम्मेदार होते हैं किन्तु उनके अधिकार कुछ अधिक सीमित हैं क्योंकि अधिकांश निर्णय सर्वसम्मति से ही लिए जाते हैं। इसलिए आपस में सबका मिलना जुलना बहुत जरूरी हो जाता है। एक गाँव के अन्दर यह आसान है क्योंकि गांव छोटे और ‘गसे’ होते हैं। किन्तु पास ही के गांवों से भी मिलना जुलना होता रहे, उनमें मोरंग तथा म्लोको जैसे उत्सवों का बडा हाथ है। इसलिए इतना खर्चीला होने के बावजूद, इस उत्सव की लोकप्रियता कम नहीं हुई है – अपातानी लोग बहुत मिलना जुलना पसन्द करते हैं और यह आप स्वयं देखेंगे।

इतने में देखा कि दस बारह नवयुवक बहुत सारी लकडी ले जा रहे थे। यह लकडी उनके भाई के घर ही जा रही थी। ”तब क्या ये आपके भाई के सम्बन्धी या दोस्त हैं? मैंने पूछा।” नहीं – विशेष रूप से नहीं – ये केवल मित्रता वश ऐसा कर रहे हैं, ये लोग अजंग बुलियांग हैं, गांव का यह युवा वर्ग जो ज्येष्ठ बुलियांग-आका-लोगों की सहायता स्वयं ही करते हैं। अक्सर मकान बनाने में, फसल काटने में उत्सव की तैय्यारी में गांव के सभी जरूरत मंद लोगों की मदद करते हैं। युवा वर्ग की शक्ति और उत्साह का कितना समेकित उपयोग।

जब उनके भाई के घर के पास पहुंचे तो एक छोटी सी झोपडी में 8-10-12 वर्ष के बच्चे आग जला रहे थे और वहां कोई भी ज्येष्ठ नहीं था। मैंने पूछा कि ”यह तो खतरनाक खेल है?” मिचीकानी ने कहा, ”नहीं, आग की तरफ सावधानी तो बचपन से ही दिखाई जाती है, आप चिन्ता न करें। इन्हें भी तो उत्सव मनाना है, ये भी लगभग रात भर जागरण करेंगे – अपने ही उत्साह से – इन्हें जागने सोने के लिए कोई नहीं कहेगा, अधिकांश गांव 4-5 दिनरात उत्सव मनाएगा।” मैंने पूछा ”रात में क्या करते हैं?” मुख्यतया खाना और पीना, बस रात तीन बजे से पूजा शुरू हो जाएगी,” उन्होंने कहा। बाँस की सीढी से हमलोग ऊपर की मंजिल पर चढे। बरामदे, के बाद एक कमरा आया जिसमें थोडे सामान के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।

उनके चचेरे भाई आए, हमलोगों ने नमस्कार किया। अरुणाचल में पढे लिखे लोग हिन्दी पढ लिख लेते हैं, इसलिए सम्प्रेक्षण में जरा भी दिक्कत नहीं हुई। अरुणाचल ने शिक्षा में हिन्दी अनिवार्य कर बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया है, इससे अरुणाचल की 20-25 जनजातियों के बीच तथा शेष भारत के अधिकांश लोगों के बीच सम्पर्क आसान हो गया है। उन्होंने कहा, ”हमें खुशी हुई कि आप हमारे घर उत्सव में पधारे हैं।” ”मुझे आप लोगों से मिलकर बहुत खुशी हो रही है।” मैंने कहा। मेरे हिन्दी में जवाब देने से उन्हें खुशी हुई और उनके बडे भाई ने कहा कि आमतौर पर जो अफसर आते हैं, वे अंग्रेजी में ही बात करना पसन्द करते हैं। मेरे विचार में, अरुणाचल के सरकारी कर्मचारी के लिए हिन्दी ज्ञान अनिवार्य कर देना चाहिए। नहीं तो वहां के मुख्यमंत्री द्वारा लिया गया यह दूरदर्शी विवेक पूर्ण कदम आगे नहीं बढ पाएगा और वही अंग्रेजी की दासता बढेग़ी। मैंने ध्यान दिया कि वे सब यह प्रयास कर रहे थे कि मैं अपने को बाहरी न समझूं।

उस छोटे कमरे से हम लोगों ने एक बडे क़मरे (20′ x 50′) में प्रवेश किया। कमरा फिर भी भरा लग रहा था। उस समय वहां दस-बारह पुरुष और पांच-छः स्त्रियां थीं। स्त्रियां पूरे स्वाभिमान तथा विनम्रता से उठ बैठ रही थीं। देखा दो अलाव जल रहे थे, बांस की पट्टियों के फर्श पर दो छोटी छोटी टीन की चादर के ऊपर लकडी क़ी अरगनी परजलाउ लकडी सुखाने के लिए, रखी थी। मुझे पास वाले अलाव के पास स्नेह और आदर पूर्वक (यह उनका बडप्पन है, मेरा नहीं) बिठलाया गया। एक बडे हण्डे में से कुन कुनी सी ताजी ‘ओ’ एक बडे मग भरकर दी गई। बाकी लोग तो पहले से ही पी रहे थे। गृहास्वामी और स्वामिनी को छोडक़र सभी नशे में मस्त थे। सभी ने मुस्कराकर स्वागत किया था। उनमें से एक गांव का प्रतिनिधि था और तदनुसार ज्यादा पीकर ज्यादा बात कर रहा था। बाकी लोग मुस्कराते हुए आनन्द ले रहे थे। फिर गृहस्वामिनी आई, परिचय तथा नमस्कार। छरहरे बदन की फुर्तीली महिला, गृहाकार्य तथा उत्सव की जिम्मेदारी के बावजूद उन्होंने सहज मुस्कारहट से स्वागत किया। और थोडी देर में एक तश्तरी में चार उबले अंडे (छिले हुए) और साथ में काला काला सा चूरन सा तथा लाल मिर्च देते हुए गृहस्वामिनी ने अपनी भाषा में कहा, ”आपके लिए हम लोगों के स्नेह तथा खुशी का प्रदर्शन” मैंने भी धन्यवाद देते हुए खुशी प्रकट करते हुए कहा कि चार अंडे तो मैं नहीं खा सकता आशा है श्री मिचीकानी मेरा साथ देंगे। उन्होंने कहा, ”नहीं नही, उनके लिए तो गोश्त आ रहा है, आप चूंकि गोश्त नहीं खाते हैं इसलिए हम लोगों को आपका स्वागत करने में कठिनाई हो रही है। ये अंडे तो आपको खाने ही पडेंग़े।” इतना स्नेह इतने परिमार्जित रूप में ! और वे अलाव के दूसरे बाजू बैठ गई। जब मैंने काली काली सी चीज को कुछ शंका सी दृष्टि से देखा तब उन्होंने कहा, ”अपातानी नमक, विशेष घास से बनता है और ओ के साथ लेना इसे अच्छा माना जाता है।” मैंने नमक को पहले सादा ही खाकर देखा, थोडा तेज स्वाद, नमकीन पर साथ में और भी कुछ नया नया, किन्तु अच्छा लगा। मुझे याद आया कि सेन्फ्रांसिस्को में एक बार एक स्पेनी होटल में उनकी शराब ‘तिया मारिया’। पी थी तब उसमें भी खूब नमक लेने की प्रथा के अनुसार नमक लिया था। एक कुत्ता जो घर में, वैध सदस्य की तरह स्वतंत्र घूम रहा था मेरे पास आया। सबने उसे वहां से अलग बुलाया।

कमरा, बांस की दीवारों वाला कमरा, दो अलावों से अच्छा गरम था। फिर भी कुनकुनी ‘ओ’ अच्छी लगी थोडी ख़ट्टी मीठी ‘वाइन’ सरीखी, हालांकि बनाई गई थी बियर की तरह। यह कुनकुनी मदिरा पीकर मुझे टोक्यो में पी गई कुनकुनी ‘साके’ याद आ गई। और दुनिया में कहीं भी कुनकुनी शराब का चलन मैंने नहीं देखा, सिवाय आयरिश काफी सरीखी कुछ विशेष काकटेलों के। वे प्रतिनिधि महाशय हिन्दी में बोले, ”आप आए, हमें बडी ख़ुशी हुई, हमारे यहां बाकी सब ठीक है, बस बिजली की बहुत तकलीफ है, जब देखो तब चली जाती है। यदि आप कुछ कर सकें तो….  ”श्री मिचीकानी ने उन्हें टोकते हुए कहा, ”साहब ये एअर फोर्स में हैं।” प्रतिनिधि जी बोले, ”यदि साब कुछ कर सकें, किसी से बोल सकें।” सभी मुस्करा रहे थे। गृह स्वामिनी आ गई और मुझसे अनुरोध किया कि मैं उनके फोटो लूं। मैं तो प्रतीक्षा ही कर रहा था और फिर मैं फोटोग्राफी में लग गया।

देखा कमरे में अनाज भरा पडा है, कपडे – देशी विदेशी – भी। दीवारों पर मालएं बहुत सी। मैंने पूछा, ”जेड की हैं क्या?” उत्तर मिला ”जी हां, सभी तिब्बत से आती है।” तिब्बत से सम्बन्ध तो थोडे बहुत हैं, मैंने गौर किया। तिब्बत वहां से कोई तीन सौ किमी होगा। फिर पुजारी जी (मीबु) ने जो दूसरे अलाव पर साधिकार बैठे थे, फोटो खिंचवाते समय, अपना लकडी का चषक अच्छे से भरकर मुंह में लगा लिया और धीरे धीरे पीने लगे, मुझे फोकस इत्यादि का समय देते हुए।

मैं वापिस आकर अपने स्थान पर बैठ गया। कुनकुनी ओ तथा नमक का स्वाद लिया। इतने में देखा कि दो नवयुवक एक हांडी भर कर चांवल लाए और उस अलाव में गरम हो रहे पानी में डाल दिए। थोडी देर के बाद ज्वार लाए और डाल दिए। मैंने देखा कि एक महिला ने लकडी क़ो अलाव के अंदर तरफ खिसकाया क्योंकि वह जलते जलते बाहर तक आ गई थी। किसी को बोलने की जरूरत नहीं पडती थी, कोई न कोई आग की लकडी क़ो ठीक कर देती थी। महिलाएं ‘ओ’ लेती हुई नहीं दिख रही थीं, किन्तु सब ‘खुश’ दिख रही थीं।

मैंने पूछा कि क्या रात भर शराब बनती रहेगी। जवाब मिला कि चारों पांचों रातों को और काफी पहले से भी बनाकर रख ली जाती है। कई क्विंटल की शराब बन जाती है। रोज एक मिथुन, एक या दो गाय, चार पांच सुअर और दस बारह मुर्गे काटे जाते हैं। इतने में, कुछ इंतजाम करके गृहस्वामी आ कर बैठ गए थे। मैंने पूछा, ”आप यह उत्सव क्यों मना रहे हैं? उत्तर मिला, ”समाज की भलाई के लिए”। मैंने कहा, ”इससे अच्छा तो आप किसी अन्य अच्छे कार्य में लगा सकते हैं।” वे बाले, सबकी भलाई और खानेपीने से अच्छा काम और क्या हो सकता है, हमारे गांव में तो हर साल कोई यह करता है। पिछले दो सालों से मेरी फसल अच्छी हो रही है, इसलिए इस साल मेरी इच्छा हुई।” ”तो पुजारी जी किस देवता की पूजा करते हैं? मैंने पुछा। उन्होंने कहा, ”हम लोग तो प्रकृति के पूजक हैं प्रकृति के देवताओं की पूजा करते हैं, सूर्य, चन्द्र, वर्षा, वन आदि वैसे प्रकृति देव का नाम है ‘युलु’।” बिलकुल पढे लिखे लोगों के उत्तर देने की शैली थी। उनमें कहीं हीन भावना की झलक भी न थी।

मैंने देखा प्रतिनिधि कुछ उत्सुक थे, उनसे पूछा, ”आप अपनी संपत्ति का बंटवारा कैसे करते हैं? उन्होंने उत्तर दिया, ”मुझे जो बाप से मिला था वह मैंने बडे क़ो दे दिया। अब जो मैंने कमाया है, उसे अपने छोटे बेटे को दे दूंगा।” ”यदि आपका तीसरा बेटा होता तो? मैंने पूछा। उन्होंने कहा, ”तो उसे अपनी ये लंगोटी दे दूंगा।” और वे जोर से हंस पडे। ज़वाब से तो नहीं उनके उत्तर देने के ढंग से मुझे भी हंसी आ गई। इसके बाद उन्होंने वहीं थूक दिया, अलाव के पास। मेघालय में मैंने खासी लोगों से बहुत मुलाकातें की, वे बहुत ही सफाई पसन्द लोग हैं। किन्तु काली घाटी में पढे लिखे लोग काफी सफाई रखते हैं, अन्य नहीं। सभी इसी अलाव के चारों तरफ सोते हैं, खैर ये दो चार दिन तो शायद ही कोई सोए। तब शायद, उत्सव के बाद में लोग कुछ विशेष सफाई करेंगे।

अपातानी के प्रसंग में श्री हेमैनडॉर्फ क़ा उल्लेख अत्यावश्यक है क्योंकि उन्हीं की पुस्तक ‘हिमाली बर्बरता’ ने विश्व का ध्यान अपातानियों की दशा पर आकर्षित किया था। और उनकी चर्चा की प्रतिनिधि जी ने और बतलाया कि जब हेमैनडॉर्फ उस घाटी में रहने और काम करने आए थे तब वे किशोर थे और उनके जीवन से प्रभावित हुए थे। वे अपातानियों से बडा स्नेह करते थे और उन्होंने गांवों में पढाई लिखाई बढाने का काम भी किया था।

गौर करने वाली बात थी कि बडे उत्सव का उमंग भरा मधुमय वातावरण, मुफ्त की शराब और गोश्त, किन्तु कहीं भी अनुशासन हीनता नहीं, सब स्वनिर्धारित, दूसरों का ख्याल करते हुए, सब की सम्मति से होता नजर आ रहा था। इतने गांवों में यह उत्सव देखने गया, सब जगह ओ पी जा रही थी। किन्तु हुल्लड बाजी तक नहीं। इतनी मस्ती किन्तु अपने पर थोडा सा कम नियंत्रण जो किसी को बे मजा कर दे, कहीं भी नहीं। यही सर्वसम्मति, दूसरे का ख्याल और सहर्ष अनुशासन इनकी पंचायत में भी। कितनी ऊंची संस्कृति है इन तथा कथित ‘ट्राइबलों’ की!

लगभग आठ बजे, सभी के आग्रह के बावजूद मैं वापिस लौटा। उन्होंने भावभीनी बिदाई दी। और प्रतिनिधि जी ने भी नमस्कार के साथ कहा, ”देखिए यदि बिजली के लिए कुछ कर सकें तो ….।” लौटते में देखा सडक़ों पर अब तो रोशनी का दलदल भी नहीं था, अंधेरा घुप्प था। मैं अब श्री मिचीकानी के चरण चिन्हों पर सम्हल कर उस ऊबड ख़ाबड क़च्ची सडक़ पर चल रहा था। थोडी देर के बाद कुछ प्रकाश दिखा। एक बुढिया बांस की सूखी पत्तियों की छोटी मशाल सी बनाए जा रही थी। थोडी दूर हम लोग उसके साथ हो लिए।

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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