आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्
तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः।
वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्ण : शोभाम्
शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्।।
 _ कालिदास, मेघदूत

(वहां से चलकर जब तुम हिमालय की उस हिम से ढकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे जहां से गंगा निकलती है और जिसकी शिलाएं कस्तूरी मृगों के सदा बैठने से महकती रहती है तब उस चोटी पर बैठे ही दिखाई दोगे जैसे महादेव के उजले सांड क़े सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से पंक जम गया।)

कहने को कोई कह सकता है एक बार आप गढवाल के एक पहाड पर घूमे और नदियों, झरनों, चीड, देवदारु, वन पीपल, भोजपत्र आदि वृक्षों और सुन्दर चिडियों को देख लिया फिर आप मध्य हिमालय के किसी और पहाड पर चले जाइये आपको कमोवेश यही मिलेगा, तब बार बार और अलग पहाडों पर क्यों जाएं? इसके कई जवाब हैं, और अच्छे जवाब हैं। किन्तु सबसे सरल और व्यावहारिक तो यह कि आज के घुटन तथा प्रदूषित नागरी वातावरण से पहाडी हरियाली की शीतल मन्द सुगन्ध हवा, कुर्सी पर धंसे रहने वाले शरीर को पहाडी चढाई और उतराई, हिमाली हरित कुलिगों से आँख मिचौली तथा प्रकृति के जितना सान्निध्य में रह सकें उतना ही उत्तम। आजकल तो बहुत से नगरवासियों को ॠतुओं का अहसास भी कितना कम हो गया है। यदि उनके नलों में पानी गर्मी भर मिलता रहे तो बारिश की उन्हें जरा भी प्रतीक्षा नहीं और आते ही सूखी और तप्त धरती के हरी चूनर ओढने का आनन्द भी नहीं। और, उसी त्रिकोण वाले हिंसा तथा चीन के भद्दे प्रदर्शन वाले सिनेमाओं से अल्पकालिक छुटकारा भी कितना अच्छा होता है। शायद आप में से बहुत इस अंतिम वाक्य से सहमत न हों। यद्यपि पहाडों में समानताएं हैं जैसे हर मानव में, परन्तु हर पहाड अलग है, उसकी हरी टोपी या हरित परिधान अलग है, उसके पक्षी अलग अलग है। आम तौर पर बोले जाने वाले दो शब्द ‘सुन्दर चिडियां’ जो उस दर्शक की प्रकृति में रुचि के अकाल का भंडाफोड ही करते हैं वे भी अलग है।

बद्रीनाथ के पास की घाटियों और वहां से कुछ ही किलोमीटर दूर पुष्पघाटी में बहुत अन्तर है। बद्रीनाथ, केदारनाथ में, गंगोत्री, यमुनोत्री में बहुत अन्तर है। बात नजर की होती है, कैमरे तो सबके पास वही हैं। पर्यावरण के प्रति जागरुकता चाहिए, प्रकृति के प्रति प्रेम चाहिए, आदमियों से लगाव चाहिए, फिर देखिए कितना निश्छल आनंद मिलता है और उस आनन्द को लूटने के लिए शरीर में ताकत और मन में उत्साह भी। और फिर हिमालय। संसार में सबसे ऊंचे पहाड ही नहीं हैं, वे भारतीय संस्कृति और इतिहास से एक सुन्दर माला के सुगंधित फूलों की तरह गुंथे हुए भी हैं।

पता नहीं गंगा में और हिमालय में क्या आकर्षण शक्ति है कि कितना भी दर्शन क्यों न कर लें ‘थोडा सा और’ की तीव्र अभिलाषा बनी ही रहती है, कुछ ऐसी ही जैसी शिशु की माँ के प्रति। तभी तो गंगा, सबकी माँ है (हिमालय नाना कहलायेंगे)। पिछले ही वर्ष बद्रीनाथ और पुष्पघाटी अलग अलग यात्राओं में घूम कर आया था। शिवालक पहाडियों (शिव की अलकों) में उलझी गंगा की धाराओं के मुक्त होने का आनन्द देख आया था। अहम् के मोह भंग में दुख नहीं आनन्द ही होना चाहिए। इसलिए शिवालकों में उलझने पर गंगा को अपने अहम् के प्रति मोह भंग का आनन्द ही मिला होगा, क्या इसमें सन्देह हो सकता है। जब पिछले वर्ष बद्रीनाथ में एक पंडे ने बतलाया था कि आदि शंकराचार्य बद्रीनाथ से केदारनाथ सीधे पश्चिम दिशा से होकर अर्थात नारायण पर्वत पार कर पहुंचे थे तब आश्चर्य तो हुआ था किन्तु हमारे साधु सन्त तो निर्विकार भाव से दुसाध्य कार्य यों ही कर लेते हैं, इसलिए मान लेने का मन हुआ। किन्तु जब उसने कहा कि कुछ वर्षों पूर्व तक पुजारी भी सुबह की आरती केदारनाथ में कर संध्या की आरती बद्रीनाथ में करते थे तब उस पर विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि यदि वे पुजारी निम्नतम दूरी वाले रास्ते से जाते तो उन्हें गंगोत्री हिमनद पार करना पडता और वह तो अतिकुशल पर्वतारोही, विशेष उपकरणों के साथ ही कर सकते हैं और वह भी लगभग 5-6 दिनों में। यदि वे अपेक्षाकृत सुगम मार्ग से जाते और दूरी भी कम रखने का प्रयास करते तब उन्हें लगभग 8000 फुट के पहाडों को चढते उतरते लगभग 70-80 किलोमीटर की दूरी तय करना पडती क्योंकि बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच 20-22 हजार फुट ऊंची चार चोटियां भी हैं जिन्हें चौखम्बा कहते हैं। इसे एक पहाडी चढाइयों पर अभ्यस्त जानकार तथा स्वास्थ्य पुरुष कम से कम तीन दिन में तय कर पाएगा।

मैंने किसी पुराण में पढा है कि सुमेरु पर्वत से चार नदियां चार दिशाओं में निकलती है। जब यह सब देखने के लिए नक्शे का अध्ययन कर रहा था तो बात कुछ स्पष्ट हुई। बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच में, देवताओं को बसन्तोत्सब मनाने के लिए, ब्रह्मा ने मानों एक अति विशाल वितान खींच दिया हो। लगभग 7000 (22000 फुट) मीटर ऊंचे चार खम्बों पर रजत धवल चाँदनी तानकर ॠतुराज स्वयं उस भूमि को सजाएं तब जो बसंतोत्सव होगा वह दिव्य ही होगा। इन चार खम्बों ने इस स्थान को बद्रीनाथ चौखम्बा नाम दिया है। चौखम्बा के क्रोड से गंगोत्री निकलता है जो लगभग उत्तर पश्चिम दिशा में 25 कि  मी  यात्रा कर गोमुख में भागीरथी को जन्म देता है। चौखम्बा के उत्तर पूर्व में सतोपन्थ बांक और भागीरथी हिमनद हैं जो अलकनन्दा को जन्म देते हैं। चौखम्बा के 15 कि  मी  पश्चिम में सुमेरु पर्वत हैं जिसके क्रोड में से निकले हिमनद से मंदाकिनी का जन्म होता है जो केदारनाथ के चरण स्पर्श करती हुई अलकनन्दा से मिलने हेतु चल पडती है। यह संभवतया प्राकृतिक व्यंग्य है कि केदार गंगा अपने नाथ के पास न जाकर, गंगोत्री में भागीरथी से मिलती है। और शायद यह भी कि गंगोत्री हिमनद से भागीरथी और भगीरथ हिमनद से अलकनन्दा गंगा निकलती है। सुमेरु पर्वत के लगभग उत्तर पश्चिम में यमुनोत्री है। अब पता नहीं पुराणों में जो चार नदियों के चार दिशाओं में निकलने की बात है वह इसी सुमेरु से इन चार नदियों की बात है अथवा सिंधु, ब्रह्मपुत्रा, गंगा और सतलज से है। किन्तु यह दिव्य वितान भारत के लिए वरदान ही है कि जिसके क्रोड से चार महान, बारहमासी, जलपूरित नदियों का जन्म हुआ है।

जब आप गंगा के क्षेत्र में घुमने जाते हैं तब आपको पता चलता है कि जिसे हम गंगा कहते हैं, जो हमारी संस्कृति का प्रतीक है, प्रारंभ में तो वह गंगा कहीं नहीं मिलती अनगिनत गंगाएं मिलती हैं वास्तव में वह अनगिनत गंगाओं से मिलकर बनी है वैसे ही जैसे हमारी संस्कृति आर्य, द्रविड, निषाद, किरात आदि संस्कृतियों के जैव मिलन से बनी है। बद्रीनाथ और गंगोत्री में यदि आप तीर्थ यात्रियों का अनुप्रस्थ काट (क्रास सेक्शन) लें तो आप देखेंगे कि उसमें आसामी, बंगाली, मणिपुरी, उडिया तो दूसरी तरफ तेलुगु, तमिल, मलयालम, कन्नड, तीसरी तरफ मराठी, गुजराती और चौथी तरफ पंजाबी, कश्मीरी आदि हिन्दी भाषियों के साथ एक से ही कार्य करते दिखेंगे, उनका एक ही ध्येय दिखेगा – गंगा।

छ मुख्य गंगाएं गिनी जा सकती हैं जिनसे मिलकर गंगा बनी है : धीली गंगा, अलकनन्दा, मंदाकिनी, पिंदार गंगा, मंदाकिनी और भागीरथी। जोशीमठ से लगभग 10 कि  मी  प्रतिधारा की ओर या बद्रीनाथ की ओर, विष्णु प्रयाग में धौली गंगा अलकनन्दा में मिलती है। (वैसे कई लोग कहते हैं कि विष्णु प्रयाग तक अलकनंदा नहीं वरन विष्णु गंगा है और धौली गंगा तथा विष्णु गंगा विष्णु प्रयाग संगम में मिलकर अलकनन्दा को जन्म देती है।) धौली गंगा भारत-तिब्बत की सीमा पर स्थित ‘नीति’ दर्रे (पास) के पश्चिम से निकलती है और जब विष्णु प्रयाग में अलकनन्दा (विष्णु गंगा) से मिलती है तब लम्बाई में अधिक ज्येष्ठा होती हुई भी अलकनन्दा को (या उसके पिता भगीरथ हिमनद को) सम्मान देती हुई उसमें अपना पूर्ण समर्पण कर देती है। नन्दापर्वत से प्रसूत मन्दाकिनी नन्द प्रयाग में तथा पिंदार गंगा कर्ण प्रयाग में अलकनन्दा से मिलती है। देव प्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा के मधुर मिलन से पावन से पावन गंगा बनती है।

गंगा का नाम त्रिपथगा भी है, सम्भवतया इसलिए कि गंगा-आकाशपथ, पृथ्वी पथ तथा पाताल पथ-तीनों पथों में प्रवाहित हुई है या कहें कि देव लोक, पृथ्वी लोक और पाताल लोक तीनों लोकों को गंगा ने पवित्र किया है। कुछ आधुनिक पुरानविद यह मानते हैं कि सुमेरु पर्वत के आसपास की भूमि ही देवलोक है। संभवतः पामीर पठार के हिस्से का जो आर्यों का मूल स्थान है, जिसमें सुमेरु भी सम्मिलित हो गया, आदरसूचक नाम देवलोक है। किन्तु विज्ञानिक रूप से देखें, गंगोत्री हिमनद और भागीरथी आदि हिमनद आकाश पथ से आए हुए हिमकशों से बनते हैं, इसलिए गंगा के प्रारंभिक पथ को आकाशपथ कह सकते हैं। आधुनिक भूगोलविदों का कहना है कि गंगा बहुत से स्थानों पर पृथ्वी तल के नीचे (अर्थात पाताल) भी बहती है। इसलिए विज्ञानिक दृष्टि से भी गंगा त्रिपथगा कहलाई।

गंगा का वाहन मकर है। गंगा के घडियाल अपनी किस्म के विशिष्ट जल जीव हैं और अब उनका अस्तित्व ही खतरे में है। यह स्वाभाविक लगता है कि एक नदी का वाहन मकर हो। किन्तु इससे एक अर्थ यह भी निकलता है कि बिना मगर या घडियाल से गंगा भी नहीं चल सकती। बिना मछलियों के मगर नहीं रह सकते। प्रदूषित पानी में मछली नहीं रह सकती। इसलिए पानी में मगर नहीं रह सकता और तब गंगा भी नहीं चल सकती। गंगा मकरवाहिनी और इसी तरह यमुना कर्मवाहिनी। तब हमें यदि गंगा को जीवन्त रखना है तब उसे प्रदूषण से बचाना अत्यावश्यक है।

उत्तराखण्ड में घूमने पर यह स्पष्ट दिखता है कि अधिकांश नदियों के नाम में गंगा जुडा है, यथा : बिरही गंगा, मार्कण्डेय गंगा, पागल गंगा, गोमती गंगा आदि आदि। हम देखते हैं कि शिवालकहिमालय की शृंखला में गंगा ही गंगा है। इसलिए शिव की अलकों में गंगा का नाम पारिवारिक नाम (सर) सा लगने का एक कारण यह भी सम्भव है कि उस नाम से अन्य छोटी (प्रतिष्ठा में) नदियों की प्रतिष्ठा बढ ज़ाती है जैसे गांधी नाम की प्रतिष्ठा महात्मा गांधी के नाम से। मध्य प्रदेश में भी कई नदियों के नाम में गंगा जुडा हुआ है जैसे कंग अथवा गंग है जो नदी में बहते पत्थर के समान गोलाई लेकर गंगा हो गई है। पहले गंगा शब्द का अर्थ ही नदी था-निषादों की भाषा में-जिसे आर्यों ने अपना लिया, अन्य शब्दों और परम्पराओं की तरह। भारतीय संस्कृति ने गंगा के प्रति आभार प्रकट किया उसे सम्मान दिया, पूज्य बना दिया। ऐसा अन्य देशों में नहीं होता। यह भारतीय संस्कृति की प्रकृति के महत्त्व को मान्यता देते हुए प्रकृति को-गंगा को – माँ का रूप देने की समझ का ही परिणाम है। प्रकृति के साथ एक प्रतयोगी का सा व्यवहार करने की तथा उस पर अपना अंकुश हमेशा लगाने की प्रवृत्ति भारतीय नहीं वरन प्रकृति के साथ तादाम्य स्थापित करने की, उसका यथोचित सम्मान करने की परम्परा भारतीय रही है।

जब कोई संज्ञा शब्द, जैसे गंगा (नदी), एक विशेष सर्वनाम जैसे भगीरथ वाली गंगा का रूप ले ले तब ऐसा उस वस्तु या व्यक्ति के अत्यंत अप्रतिम गुणों के कारण ही हो सकता है। क्योंकि जिस गंगा शब्द का अर्थ ही नदी होगा तब मात्र नदी कहने से जिस विशिष्ट नदी मात्र का बोध होता होगा, वह नदी वास्तव में सभी के हृदय में स्थापित होगी। यही बात बाइबिल शब्द में है जिसका अभिधात्मक अर्थ मात्र पुस्तक होता था किन्तु अब एक विशिष्ट सम्मानित धर्म ग्रन्थ है। और जब गंगा के स्मरण से ही कश्मीर से कन्याकुमारी तक के सभी लोगों के मानस पवित्र हो जाते हैं तब जो सशक्त और जीवन्त संस्कृति की झलक ‘गंगा’ में मिलती है, इसे एक भारतीय ही समझ सकता है, एक सच्चा भारतीय, नकली पाश्चात्य सभ्यता से दबा हुआ भारतीय नहीं।

गं ध्वनि हिंदचीन में ‘खंग’ (दोनों ‘क’ वर्ग की ध्वनियां) हो जाती है, जहां की प्रसिध्द नदी है मीखंग। डक्षिण चीन में यही ध्वनि ‘कंग’ या ‘किआंग’ बन जाती है, जैसे यांग टीसी किआंग। खासी भाषा में यह ध्वनि ‘कंका’ बन जाती है। और जयंतिया खासियों में बडी पुत्री का नाम कंका रखने की लोकप्रिय परंपरा रही है (और बेटों का नाम राम तथा लखन)।

व्युत्पत्ति की दिशा में मेरा मन भटक गया था, वहां से वापिस आकर हम देखते हैं कि बद्रीनाथ, केदारनाथ, अलकनंदा, मंदाकिनी, गंगोत्री और भागीरथी गोमुख तथा चौखम्बा से प्राकृतिक तथा भावात्मक स्तरों पर गुंथे हुए हैं। इसलिए इस बार मैंने गोमुख पर्यटन की ठानी। तथा रास्ते में पहली रात (4 सितम्बर 88) उत्तरकाशी में और फिर हर्षिल में डेरा डालकर घूमना तय किया।

पुष्पघाटी में पिछले वर्ष एक सैनिक घुमक्कड ब्रिग्रेडियर त्रिपाठी ने बतलाया था कि गंगनानी – कियार कोटी की पहाडियां और घाटियां गर्मियों में फूलों से चित्रित रहती है। इसलिए हर्षिल को केन्द्र बनाकर उसके आसपास की प्रकृति का आनन्द लेने के लिए लगभग 10,000 फुट की ऊंचाई पर गंगनानी में तम्बू या डेरा भी डाला।

उत्तरकाशी भागीरथी के दोनों तटों पर बसा एक अनोखे व्यक्तित्व वाला पहाडी नगर है। जब मैं संध्या समय भागीरथी के बांए तट पर कुछ ऊंचाई से भागीरथी का गान सुन रहा था तब थोडी ही देर में घंटों के शुध्द निनादों ने भागीरथी के अलापों के बीच ऊंचे स्तरों में तान छेडना शुरु कर दिया था। लग रहा था कि जैसे उत्तरकाशी में मंदिर ही मंदिर है और भागीरथी के साथ सारे वायुमण्डल को उदात्तस्वरों में गुंजायमान कर रहे हैं। बांए तट पर उस विश्राम गृह का बहुत ही सौंदर्यबोध के साथ चयन किया गया है। सूर्यास्त और सूर्योदय के समय जो आनन्दमय दृश्य सारी दिशाओं को भासमान करता है तथा भागीरथी की सतत कलकल ध्वनि जो वातावरण में छाई रहती है, वह प्रकृति से एक होने में – मात्र बाह्यरूप से नहीं वरन आतंरिक तन्यमया की ओर भी, मानो स्वतः ले जाती है और उत्तरकाशी में अनन्यता स्वयं आपका स्वागत करने के लिए तत्पर रहती है।

हर्षिल उत्तरकाशी से गंगोत्री के रास्ते पर ही गंगोत्री से 25 कि  मी  पहले भागीरथी के दांए तट पर एक छोटा सा गांव है। इसमें प्रवेश करने के लिए मुख्य सडक़ को छोडक़र भागीरथी को पार करना पडता है। इसलिए यहां अनजाने में आदमी नहीं आते, योजना बनाकर ही आते हैं। हर्षिल तक सारे रास्ते प्राकृतिक सौंदर्य की छटा पहाडी ख़ुशबू की तरह महमहाती हुई बिखरी मिलेगी।रास्ते में ‘चिडियां’ भी खूब मिलीं। एक बहुत बडी चिडिया, लम्बी पूंछ वाली नारंगी रंग की लिपस्टिक लगाए, सडक़ के किनारे, सभी को अपनी सुन्दरता दिखाने के लिए झाडों पर फुदक रही थी। यह तो नीली मैगपाई के समान दिखती है, मैंने सोचा। किन्तु नीली मैगपाई तो लाल रंग का लिपस्टिक लगाती है, तो ये नया फैशन कैसा? चिडियां तो फैशन करती नहीं, अर्थात यह नारंगी चोंच वाली नीली मैगपाई है जो सामान्यतया पाई जाने वाली लाल चोंच वाली की बहन है। हम लोगों को आशंका थी कि कहीं रास्ते में भूमि स्खलन न मिल जाए और सौभाग्यवश नहीं मिला, नहीं तो इस सडक़ का कोई विकल्प नहीं है और जब तक भूस्खलन साफ न कर दिया जाए आप सडक़ पर ही पडे रहते हैं। सुबह 7 बजे उत्तरकाशी से निकलने के बाद हम लोग कोई बारह बजे ही हर्षिल पहुंच गए थे।

गंगोत्री के लिए तो अगले दिन जाना था। उस दिन घुमने के लिए पास ही का गांव मुखवा चुना। इस गांव के लिए भागीरथी के दाहिने तट पर पगडंडियों से चढते उतरते कोई 4-5 कि  मी  चले। इस गांव में एक महत्त्वपूर्ण मंदिर है – गंगा मैय्या का। ग्रीष्म ॠतु में हिमनद तो गोमुख तक ही आता है, किन्तु शीत ॠतु में लगभग गंगोत्री तक आ जाता है। इसलिए शीत ॠतु में गंगा मैय्या की मूर्ति गंगोत्री से इस गांव में लाई जाती है। पता नहीं कितने सैकडों वर्षो से यह परंपरा चली आ रही है। आखिर गंगा की पूजा तो प्रतिदिन होना चाहिए।

यह गांव अपने सुन्दर निवासियों के लिए भी प्रसिध्द है। निवासी हैं तो सुन्दर पर हैं गरीब। इस गांव में मुख्यतया या तो पुजारी रहते हैं या किसान। मकान लकडी क़े बने हैं जिनमें गोशाला निचली मंजिल में रहती है, इसलिए मकान में सडते गोबर, गोमूत्र की दबादब खुशबू और लबालब भुनगे! गांव के बीच में एक मंदिर है, उसके सामने बडा चौगान है। इस चौगान में पंचायत बैठती है और दशहरे के समय रामलीला होती है। उस समय वह गाँव, किन्तु, सूना ही सूना था, क्योंकि सभी पुजारी सपरिवार गंगोत्री में रहते हैं। कठिनता से एक पुजारी जी मिले। वे कहने लगे कि, ”बच्चों को वे आगे पढाई के लिए उत्तरकाशी भेजना चाहते हैं (अभी तो बच्चे हर्षित पढने जाते हैं किन्तु वहां शालाएं मात्र दसवीं तक हैं) किन्तु गरीबी ही आडे अाती है।” हम लोग समझते हैं कि पुजारी हम लोगों को लूटकर अच्छा पैसा बनाते हैं, किन्तु अधिकांश मंदिरों में वास्तविकता कुछ और है।

गांव से लौटते समय संध्या हो चली थी। यद्यपि दोपहर में गांव जाते समय भी पक्षी मिले थे किन्तु संभवतया वे अपने कार्यों में चुपचाप दत्तचित्त हो लगे थे। अब वे झाडों पर उसी तरह चह चहा रहे थे जिस तरह छुट्टी के समय शाला के बच्चे! गांव के बिलकुल पास तो गौरैय्या अधिक मिलीं – ये नगरी गौरैय्या की तुलना में अधिक गौर वर्ण वाली तथा स्वस्थ्य, किन्तु सामान्य तथा तटीय मैना वैसी ही लडाकू और लाल दुम तथा श्वेत कपोल बुलबले वैसी ही घमंडिन। और जैसे जंगल में आए तब देखा कि हरित-नीले पतरिंगे(फ्लाइ कैचर) खेलते कूदते अपने शिकार-कीडों को ‘बुफे’ डिनर की तरह ले रहे थे और काले भुजंगे (ड्रांगो) कलावाजियां खाते हुए हवा में उडते कीडों को पुरस्कार की तरह ले रहे थे। और क्यों न लें पुरस्कार की तरह। यदि संसार के सब कीडे ख़ाना बन्द कर दें तो सब दुनियां कीडों से भर जाएगी क्योंकि कीडों का प्रजनन बहुत तेजी से होता है। कैनाडा के एक कीट-वैज्ञानिक का अनुमान है कि आलू कीडों (क्राइसो मिलाइडी परिवार) की एक जोडी एक ही ॠतु में बढक़र 6 करोड हो जाएगी, यदि उन्हें रोका-टोका न जाए। फिर मैंने देखा धूसर लदूषकें (ग्रेथइक) तरुओं की शाखों पर काजल लगाए बनी ठनी जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रही थीं। और देखा, जमीन पर खोदने का काम करता हुआ, काली पट्टीदार बादमी रंग का ओवरआल पहने, सिर पर नोकदार कलगी वाला हैलमेट लगाए हुदहुद पतली लंबी चोंच से कीडों को उसी उमंग से खा रहा था जैसे बच्चे आम के झाड पर चढक़र कच्चे पके आम खाते हैं। इस लम्बी चोंच के कारण, हुद हुद को लोग कठफोडवा समझते हैं।

पुष्पघाटी की सैर के समय लक्ष्मण गंगा के किनारे, पत्थरों पर बैठी गौरवर्ण धोबिनों (खंजन या वैगटेल परिवार) को अपनी पूंछ ऊपर-नीचे हिलाते देखा था जैसे कोई सुन्दर धाबिन नदी के किनारे कपडे धो रही हो। गौरवर्ण धोबिनें छरहरी और उमंग भरी, नदी किनारे, अकेले ही जल तरंग बजाती हुई दिखती हैं। किन्तु यहां यह चिडिया लगती तो धोबिन जैसी हैं, सिर तो काला है परन्तु जैसे उसने स्वर्णिम चोली पहिन ली हो इस स्वर्णाभ धोबिन ने तो मन मोह लिया।

नदी के दाहिने किनारे पर हम लोग चल रहे थे। यह किनारा पानी की सतह से 90 से 20 मीटर तक ऊंचा था, और किनारे का जंगल भी घना था। कभी हम लोग पगडण्डी छोडक़र चलने लगते तो हमें और अधिक पक्षी मिलते। थिरथिरा का चुहपन, काली रामगंगरा (ब्लैक टिट) और स्वर्ण भोंह राम गंगरा की मस्त उडानों के साथ हम लोग जंगल में मंगल मना रहे थे। रामगंगरा के सारे परिवार के सदस्य बहुत सुन्दर होते हैं, खुद नीले, पीले, लाल काले सफेद रंगों से सजे, और यह गौरय्या के लगभग बराबर होती है और भाव भंगिमाएं एकदम मनमोहक। और सबसे ज्यादा मन मोह लिया था अपने नीडों को लौटती हिमाली हरित कुलिंगों (फिंच) ने, अपने हरे-पीले रंगों और लहरिया उडान से जैसे बच्चे जब खुश होकर घोडे क़ी दौड-दौडते हैं या जब झील की सतह को हवा कोई प्रेम संदेश देती है तो जैसे उसका हृदय हिलोरें भरने लगता है। दूसरे दिन गंगोत्री होते हुए भोजवासा पहुंचना था इसलिए उस रात जल्द ही सो गए।

भैरों घाटी के पास हमने जान्हवी को एक नए पुख्ता सीमेंट कंकरीट के पुल से पार किया। यह पुल भारत में, संभवतः एशिया में, सर्वाधिक ऊंचाई (लगभग 9000 फुट) पर निर्मित पुल है। किन्तु इसी के पास एक पुराना झूला पुल है जो अब उपेक्षित दशा में है, जिसके द्वारा कुछ समय पूर्व ही सभी यात्री भागीरथी को पैदल पार करते थे और पैदल ही गंगोत्री तक जाते थे। कहते हैं कि झूला पुल पार करने में डर लगता था। एक तो एकदम नीचे गहराई (लगभग 100 मीटर) में हुंकारता तेजी से भागता पानी और दुसरे स्वयं हिलता डुलता पुल। कुछ वर्षों पुर्व, स्थानीय राजा की रानी का पुल पार करते समय गर्भपात हो गया था। ॠषिकेश में लक्ष्मण झूला पुल पर, जो पानी से इसकी आधी ऊंचाई पर भी नही है और वहां गंगा भी इतनी अल्हड नहीं, तो मैंने कई महिलाओं को डर के मारे रोते या चीखते सुना है।

जान्हवी इस पुल से थोडा सा ऊपर की ओर एक गहरा और संकरा दर्रा बनाती है।यदि इस दर्रे पर चार छः विशाल चट्टानें भूस्खलन के फलस्वरूप आ जाएं तो जान्हवी का प्रवाह अवरूध्द हो सकता है। इस तरह की घटनाएं गंगाओं में कभी कभार होती हैं। संभवतया अतिप्राचीन काल में ऐसी घटना के फलस्वरूप, जान्हवी का प्रवाह अवरूध्द हो गया हो और तब ॠषि जन्हु ने उस भूस्खलन को किसी युक्ति से खुलवाया हो और तब से यह किंवदन्ती बन गई कि गंगा का घमंड चूर चूर करने के लिए ॠषि जन्हु ने उसका पान कर लिया था और भागीरथ की प्रार्थना पर अपनी जंघा से सारा जल निकाल दिया था। इसी स्थान के पास जन्हु ॠषि का आश्रम माना जाता है। इस पौराणिक कथा से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि भागीरथी (गंगा) और जान्हवी एक ही नदी के दो नाम हैं। किन्तु यथार्थ में जान्हवी अब एक स्वतंत्र नदी का नाम है जो भारत की उत्तरी सीमा पर स्थित थागा ला दर्रे के पास से निकलती है और जन्हु ॠषि के आश्रम से थोडी दूर, लंका के पास भागीरथी से भेंट करती है। और जिस तरह सरस्वती अलकनंदा से लम्बाई में ज्येष्टा होती हुई भी बद्रीनाथ के पास अलकनन्दा में मिलकर अपना पूर्ण समर्पण कर देती है उसी तरह जान्हवी भी।

एक और नई चिडिया कष्ण कुलिंग (ब्लैक फिन्च) ने आनन्द बढया – जो अपने स्वर्ण मस्तष्क पर लाल टोपी पहने थी। रास्ते भर देवदारु, चीड, बांज, वनपीपल, गदवासा, भोजपत्र और धूपी आदि के वृक्ष दृश्य की जीवन्तता बढाते रहते हैं। सामान्यतया नदियों में पानी वर्षाकाल में आता है और फिर अन्य ॠतुओं में कम हो जाता है यथार्थ में अन्य ॠतुओं में नदियों में पानी को बिलकुल कम, लगभग नदी के बराबर, हो जाना चाहिए। हिमालय की कोख से जन्म लेने वाली नदियों को बर्फ के पिघलने से गर्मियों में भी अच्छी मात्रा में पानी मिल जाता है। किन्तु नर्मदा जैसी नदियों में भी गर्मी में भी काफी पानी रहता है, तब वह कहां से आता है ? यह पानी काफी मात्रा में वृक्ष सोखकर रख लेते हैं और कुछ मात्रा में वृक्षों आदि द्वारा बंधी मिट्टी तथा कुछ अभेद्य चट्टानों के ऊपर ठहर जाता है। धरती की ऊपरी मिट्टी की सतह को लुटेरी हवाओं और डकैत जल धाराओं से बचाने का काम करती हैं वृक्ष की पत्तियां और जडें। बैंक की तरह बचाकर रखने वाले वृक्ष और मिट्टी वर्षाहीन ॠतुओं में नदियों को पानी देते हैं। इन्हीं वृक्षों को हम लालच वश निर्ममता से काटते जा रहे हैं। क्या हमारा यह कार्य उतना ही मूर्खतापूर्ण नहीं है जितना कालिदास का था जब वे वृक्ष की उसी शाखा को काट रहे थे जिस पर वे बैठे थे ?

भैंरों घाटी के बाद नीले आकाश में धवल किरीट सुशोभित चोटियां सूरज के प्रकाश में दमक रही थीं। विशेषकर दक्षिण दिशा की ओर कामेट की सबसे ऊंची चोटी भव्यता की साक्षात प्रतिमा लग रही थी। गंगा मैय्या का मंदिर तो साधारण मंदिर जैसा ही है और नहीं भी। भक्तजनों की श्रध्दा उनके चेहरे पर सूर्य के प्रकाश में रजत धवल चोटियों के समान दमक रही थी। मंदिर के एक तरफ तो भागीरथी हैं और बाकी तरफ ऊंचे ऊंचे पहाड। ऌस मंदिर के प्रांगण में बैठने पर एक अनोखी शांति सी छाई रहती है, जैसै कोई अदृश्य हाथ अभय मुद्रा में निर्भयता बरसा रहा हो।

मेरे लिए तो गंगा (भागीरथी) का जल स्नान के लिए बहुत ठंडा था। मेरी पत्नी ने श्रध्दा की उष्नता से गंगा मैय्या में स्नान कर सारे पाप धो लिए, और एक चुल्लू जल मेरे ऊपर भी डाल दिया। फिर हम लोगों घोडों पर सवार होकर भोजवासा, गोमुख के लिए अंतिम पडाव की ओर चल पडे। ग़ंगोत्री समुद्रसतह से लगभग 10,300 फुट ऊंचाई पर है और 11 कि  मी  दूर 11,000 फुट की ऊंचाई पर चीडवासा होते हुए वहां से 7 कि  मी  अौर आगे 11,500 फुट की ऊंचाई पर भोजवासा है। जब गंगोत्री से चले तो जंगल घने थे और मनोहारी खंजन, हिमाली हरित कुलिंग, लाल दुम पतरिंगे आदि आंख मिचौनी सी खेल रहे थे। गैरैया, मैना तथा काले भुजंगों ने तो गंगात्री तक ही साथ दिया। और चीडवासा छोडते छोडते मुख्यतया, वनपीपल, भोजपत्र, और धूपी के ही वृक्ष दिख रहे थे। वृक्षों की सुन्दरता और दृश्य की मनहरता की सुन्दरता और दृश्य की मनहरता का आनन्द तो घोडों की पीठ पर से पूरा पूरा मिल रहा था किन्तु पक्षियों का आनन्द कम था क्योंकि घोडों की खटरपटर से पक्षी उडक़र भागते हुए ही नजर आ रहे थे। यदि कोई रोज 8-10 कि  मी  चलने का आदी है तब उसे पूरा आनन्द लेने के लिए यह यात्रा पैदल करना चाहिए, वरना घोडों पर ही चलना चाहिए। क्योंकि एक तो हवा का दबाव कम होने या पानी बहुत ही मृदु होने के कारण पेट की पाचन शक्ति कम हो जाती है और लोग जल्दी थक जाते हैं। अनुभवी लोग किशमिश मुनका आदि मेवे खाते चलते हैं, ग्लूकोज भी तुरंत ऊर्जा देने में बहुत सहायता करता है।

वृक्षों की कमी होने से अब हिमालय की मिट्टी के दर्शन हो रहे थे, रेतीली मिट्टी, चट्टानों के नहीं। बद्रीनाथ की यात्रा में जोशीमठ के बाद ही अलकनन्दा के दोनों तरफ विशाल और भव्य ऊंचाई वाली चट्टानों को देखकर लगता है मानो पिता हिमालय ने अपनी सारी सेना अलकनंदा की रक्षा के लिए लगा दी है। उन चट्टानों को देखकर भय मिश्रित आदर की भावना आती है, आश्चर्य नहीं होता। परन्तु यहां रेत देखकर आश्चर्य हुआ-हिमालय और रेत के टीले। एक स्थान पर पांच रेत के मीनार जैसे ऊंचे टीले-पानी के कटाव से बनकर – खडे थे। क्या हमारा नगपति समय की मार खाकर ढहने लगा है? क्या आधुनिकता की वर्षा से हमारा सांस्कृतिक हिमालय ढल जाएगा?

मुझे ख्याल आया, शायद इस उपरोक्त विचार को हटाने के लिए, कि लगभग 15 करोड वर्ष पूर्व आफ्रिका (सोमालिया का पूर्वी हिस्सा) का एक हिस्सा टूटकर, पृथ्वी के गर्भ में कार्यरत शक्तियों द्वारा, बहते बहते लगभग 4 करोड वर्ष पूर्व भारत रहित एशिया से टकराया। उस टुकडे क़ा अगला हिस्सा जिसे आज हम उत्तरी भारत कहते हैं, एशिया के दक्षिण भाग के नीचे बहुत ही धीरे अब तक धंसता जा रहा है। और उस धंसने के फलस्वरूप एशिया का जो हिस्सा ऊपर उठा वह ही भव्य हिमालय है। चूंकि धंसने की क्रिया अब भी चल रही है, यद्यपि बहुत ही धीमी है, इसलिए हिमालय के ऊंचे होने की क्रिया अब भी चल रही है। यह भी ठीक है कि हवा और पानी से हिमालय कट भी रहा है। उसकी ऊंचाई भी कम हो रही, किन्तु कुल मिलाकर उसकी ऊंचाई बढ रही होगी। जो भूमि चढ रही है उसमें पुराने हिस्से का रेतीला समुद्री तट भी है जो चढते चढते 11-12-13 हजार फुट चढ ग़या है। इसलिए हिमालय में रेत ही रेत, किन्ही स्थानों में मिल जाए तो अधिक आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऊंचाई पर भी उसकी मिट्टी में समुद्री जीवों के जीवाश्म, शंख इत्यादि फौसिल भी खूब मिलते हैं। हिमालय पर्वत युवापर्वत है उनमें अब भी परिवर्तन हो रहे हैं। उसका अब भी विकास हो रहा है। वे विकासशील हैं जैसे हमारी सभ्यता अन्य सभ्यताओं से टक्कर लेते हुए विकास शील है। यह भूभाग कुछ विशेष भाग्यवान रहा है इसके विकास में द्रविड, निषाद, किरात और आर्यों के अतिरिक्त भी अन्य जातियों ने योगदान किया है और भारतीय सभ्यता का निर्माण तथा विकास हुआ है। कोई बाहर से आया, इसका महत्त्व नहीं है वह तो पूरा भारतीय भूभाग बाहर से आया है। महत्त्व इस बात का है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास में उसका कितना योगदान रहा है, या कर रहा है।

रेत के टीलों के बाद देखा कि वनपीपल ने भी साथ छोड दिया था और धूपी ने भी घुटने टेक दिए थे अर्थात अब धूपी ने ‘वृक्ष’ के स्थान पर झाडी क़ा रूप ले लिया था। किसी तरह से भोजपत्र इस ऊंचाई पर बहने वाली ठंडी हवा की चुनौतिओं को सहते हुए खडे थे। परन्तु पक्षी तो मुश्किल से ही नजर आते थे।

जैसे ही भोजवासा पहुंचे, संध्या हो चली थी और पक्षियों का कलरव सुनाई दिया, उनके नवरंग और उनके खेल दिखाई दिए। विश्राम गृह से थोडी दूर आकर देखा तो खेती भी हो रही थी। सर्व विद्यमान आलू महाशय तो थे ही, राजगिरा या चौलाई की भाजी भी थी। इस जीवन्त वातावरण को किसम किसम के पक्षी और भी जीवन्त बन रहे थे। उनमें नए किसम की ‘चिडियां’ थीं ‘झाडी वाली फुटकी’ (बुश वार्वलर या गुल्मकूजनी) और लाल सिर कूजनी (रेड हैडैड ट्रोगन)। वैसे लाल सिर कूंजनी इतनी ऊंचाई पर सामान्यतया नहीं मिलती किन्तु मेरी समझ में वह लाल सिर कूंजनी ही थी। वह मुझे इतनी सुन्दर लगी कि उस ठंड में भी मैं चोरी चोरी, दबे पांव उसका पीछा करता काफी दूर निकल गया था। वह बहुत ही शर्मीली थी, मेरी आहट मिलते ही वह फुर्र से उड जाती। इसलिए उसकी कुछ झलकियों से ही संतोष किया। भागीरथी के तट पर लाल बाबा का आश्रम है जो श्रध्दालुओं को ठहरने के लिए स्थान, दो कंबल और भोजन देता है – निःशुल्क। इस कठिन ऊचाई पर भी। धनी भक्त दान दे जाते हैं। मेरे ठहरने और भोजन का प्रबंध विश्राम गृह में था, किन्तु जिज्ञासावश मैं लाल बाबा के आश्रम में गया। रात्रि को जब मैं उनके भोजनागार में गया तो अलाव में अच्छी आग जल रही थी और गहन आवरण देने वाला धुआं भी था। मैंने गौर किया कि यदि आप चाहें तो उस शीत वातावरण में सम्भाषण कर स्नेहिल उष्णता का आनन्द उठाएं और यदि चाहें तो गहन नीले धुएं को लपेटकर अपने में डुबे रहे। मैं भी एक रिक्त ‘सीट’ पर बैठ गया और सबको देखने लगा और खोजने लगा कि किससे बात की जाए कि इतने में एक युवा से साधु ने मुझसे बातचीत शुरू की और बतलाया कि उनका नाम चंद्रहास है, वे उत्तरकाशी में अपना मुख्यालय रखते हैं और अधिकतर सारे देश में भ्रमण करते हैं। उनका ध्येय आज के गिरे समाज में भारतीय संस्कृति और मूल्यों की पुनर्स्थापना है। मैंने पूछा कि गोमुख भ्रमण वे किस हेतु कर रहे हैं। उन्होंने बतलाया कि वर्ष भर सारे भारत में सामाजिक कार्य करते जब उन्हें आध्यात्मिक शांति की आवश्यकता लगने लगती है तब कुछ समय के लिए वे गोमुख और विशेषकर तपोवन आ जाते हैं? तपोवन भागीरथी के बाएं तट पर कुछ और भी ऊंचाई पर है और वहां जाने के लिए गोमुख के ऊपर जाकर गंगोत्री हिमनद को पार कर जाना पडता है।उन्होंने आग्रह किया कि मैं भी तपोवन चलूं। बहुत ही शांतिमय, अध्यात्म प्रेरक तथा सौंदर्यमय स्थान है किन्तु उसके लिए एक रात्रि और भोजवासा में रूकना पडता। मैंने दूसरे दिन गोमुख दर्शन पश्चात दोपहर को भोजवासा से प्रस्थान का कार्यक्रम बना लिया था, हर्षिल से कार मुझे लेने के लिए शाम को गंगोत्री में प्रतीक्षा करेगी। इसलिए इस आधुनिक ढंग से यात्रा का कार्यक्रम निर्धारित करने के कारण मैं, बहुत चाहते हुए भी अपना कार्यक्रम न बदल सका। शोचा कि चलो इस बहाने फिर गोमुख आऊंगा। देखा कि लोग जो भोजन कर रहे थे। वह अत्यंत सादा था दाल, रोटी और आलू की सब्जी, वैसे स्थान की दुर्गमता को देखते हुए तो हुए भोजन उच्च कोटि का ही कहलाएगा। और उन लोगों के चेहरे पर खुशी की झलक रही थी। उस नीले वातावरण में अरुण अग्नि की आंच का आनन्द लेते हुए, स्वामी चंद्रहास से स्वामी अध्यात्म चर्चा का लाभ उठाने के बाद जब मैं उस भोजनागार से बाहर निकला तो जैसे एकदम ठंड का झोंका लगा, जबकि हवा बिल्कुल शांति थी।

सुबह तैय्यार होकर हम लोग घोडों पर चल दिए, किन्तु बाकी सभी पैदल ही जा रहे थे-कुछ श्रध्दावश और कुछ साहस का आनन्द लेने। उनमें से अधिकांश तो महाविद्यालयों के युवक और युवतियां – निपथिया (ट्रैकर) थे जो अपने कंधों पर अपनी गृहस्थी लेकर चल रहे थे। पूछने पर पता चला कि रात वे तपोवन में बिताएंगे – वास्तव में मुझेर् ईष्या हुई – काश कि मैं भी ऐसा कर सकता, जब कि लगभग 10000 फुट की ऊंचाई पर गंगनानी में तम्बुओं में रहने का कार्यक्रम बन चुका था और कितने यूरोपीय देशों की यात्रा मैंने दो दो बार तम्बुओं में ठहरकर की है। निपथियापन और बंधी सुविधा साथ साथ नहीं चल सकते। थोडी देर चलने के बाद पगडंडी भी समाप्त हो गई थी, अधिकतर जगह चट्टानों पर छोटी गुल्म और झाडियां ही दिख रही थीं। उनमें से किसी किसी में छोटे छोटे फूल खिले थे। चट्टानों पर खिलने वाले फूलों को देखकर मुझे लगा कि जो चट्टानों में न खिल पाए वह फूल ही क्या! यह तो अस्मों से अणु निकलने वाली बात है। अधिकांश गुल्म या पौधे गुच्छों में ही थे। कुछ पौधों की पत्तियां ही प्रगाढ र्ऌंगुरी लाल हो गई थीं, कुछ की नारंगी रंग की और कुछ की पतझड क़े चिनार सी और वे फूलों वाले गुल्मों से भी सुन्दर लग रही थीं-कुछ ऐसी कि सुन्दर नारी बिना आभूषणों के और भी सुन्दर लगे। वहां से जब आकाश पर दृष्टि गई तो उस नीलिमा ने मन मोह लिया, कितनी निर्मल नीलिमा, इतनी कि हमारे हृदयकाश को भी निर्मल कर दे। ऐसी कोमल नीलिमा वाले पार्श्व आकाश में, दक्षिणपूर्व दिशा में सर्वेच्च हिममंडत शिखर-शिवलिंग-इस तरह समाधि लीन थे कि जैसे स्वयं महादेव कैलाश पर ध्यान मग्न बैठे हों।

थोडी ही दूरी के बाद हम लोग भागीरथी के तट पर पैदल चल रहे थे क्योंकि रास्ता इतना चट्टानी और खाबड हो गया था कि घोडी क़ो उसमें चोट लग सकती थी। भागीरथी की धारा में कभी कभार बर्फ के बडे बडे ख़ण्ड तैरते डुबकी लगाते दिख जाते थे। दूर गंगोत्री हिमनद के दर्शन भी हो जाते थे और दृष्टि फिर शिवलिंग की प्रभुता में आ जाती थी।

उन चट्टानों में इतना ही चढने उतरने में हम लोग हाँफने लगते थे। सोचा कि भगीरथ ने इतने दुर्गम और दुसाहस स्थान में आकर तपस्या की होगी कि गंगा पृथ्वी पर उतर आएं। किस तरह का तपस्या की होगी? क्या ध्यान लगाकर बैठ गए होंगे? या क्या यह संभव है कि हिमनद प्रसुत धारा किसी और दिशा में बहती होगी? या हिमनद एक झील में आकर समर्पित हो जाता होगा? वह झील या तो स्वाभाविक होगी या धारा में किसी अवरोध के कारण बन गई होगी? तब भगीरथ ने अपनी इंजीनयरी द्वारा उस धारा का प्रवाह खोलकर गंगा (भगीरथी) में बदल दिया होगा? यह सब अटकल बाजी है। आवश्यकता है किसी साहसिक अनुसंधानर् कत्ता की जो गंगावरण कथा का सही अर्थ समझाए। क्योंकि पौराणिक कथाएं कोरी कवियों या लेखकों की कल्पना नहीं होती जैसा कि कई लोग समझते हैं, उनमें एक तो, यथार्थ का बीज छिपा रहता है और दूसरे एक सामाजिक और आध्यात्मिक सत्य।

लगभग एक या डेढ क़िलोमीटर से ही गोमुख के दर्शन हो जाते हैं। प्रातः काल का सूर्य लगभग गोमुख के पीछे ही भासित हो रहा था और वातावरण में उष्णता का विकरण कर रहा था। गंगोत्री हिमनद दक्षिण पूर्व दिशा में रजतधवल झिलमिल कर रहा था। अब शिवलिंग के लगभग उत्तर दिशा में आ गए थे और दक्षिण दिशा में कोई 5 कि  मी  दूरी पर शिवलिंग अब और भी अधिक तेजस्वी लग रहे थे। और इस कोमल नीले आकाश में दक्षिणपूर्व की दिशा में कोई 7-8 कि  मी  दूर (गंगोत्री हिमनद के उत्तरी क्षेत्र में) भागीरथी पर्वत की चोटियां चमक रही थीं। हम लोग भागीरथी के चट्टानी किनारे पर, भागीरथी की कल कल ध्वनि के सहारे चढाई चढ रहे थे। भागीरथी की नितांत निर्मल जलधारा में निर्मल आकाश का नीलपन अठखेलियां कर रहा था और कभी कभार किसी हिमशिला की बांह पकडक़र डुबकी लगवा देता तो कभी किसी हमशैल को धक्का दे देता। नदी की नीलीधारा पकडते हुए जब दृष्टि गोमुख पर पहुंची तो उस विशाल मुख के मस्तक पर हल्की हरित आभा लिए हुए नीले हिम किरीट को देखकर रोमांच हो आया। गंगोत्री हिमनद का विशाल मुख और उसमें सामवेद की ॠचाओं के समान निकलती संगीतमयी सौंदर्यमयी पावन विशाल जलधारा। वह दृश्य तो मेरे मानस पटल पर मुद्रित हो गया, और साथ ही मेरे कैमरे की फिल्म पर भी।

गोमुख के पास पहुंचने पर भी उससे कोई 100 या 150 मीटर की दूरी भी बहुत अधिक लगी। इसलिए हिम्मत बढाकर जलधारा के बीच कुछ चट्टानों पर धारा को लांघते हुए पहुंचे और एक बडी सी चट्टान पर आनन्द से बैठ गए। मेरे बच्चे और श्रीमती जी तो गंगा मैय्या को प्रमाण करने के बाद उसी अत्यंत शीतल जलधारा में पैर डालकर बैठ गए। गोमुख का रूप एक विशाल कंदरा के समान है, गाय के मुख के समान भी कह सकते हैं। जिस मुख से पतित पवन गंगा निकलती है, वह कामधेनु के समान ही तो हो सकता है। गोमुख के सम्मुख भागीरथी के बीचोबीच एक शिला पर बैठकर मैं स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति कर रहा था। गोमुख से गंगा को निकलते देखकर भी, उसे गंगा का उत्स मानने के लिए हृदय नहीं मानता लगता है कि गंगा का उत्स अभी और ऊपर है। यद्यपि आसपास हिम का साम्राज्य था और हरीतिमा की हिम्मत न थी कि हिमदेव के इस साम्राज्य में झांक भी सके, किन्तु इस समय तक सूर्यदेव काफी ऊपर चढ आए थे। और उनकी किरणों में विशेष उष्णता थी जिसके सामने हिमदेव साष्टांगदण्डवत कर पानी-पानी हो रहे थे।

ऊपर आकाश में हिमशैल सदृश बदलियों का एक छोटा स समुह मानों स्वर्ग से उतर रही गंगा में तैर रहा हो और भागीरथी में तैर रहे हिमशिलों को अपने पास बुल रहा हो। फिर देखा कि कौओं का एक जोडा नीचे उतर रहा था मानो उन बदलियों ने उन कागों के हाथ कोई संदेश भेजा हो, वास्तव में वे कौए बिलकुल नीचे आ गए और चक्कर काटने लगे। अब देखा कि वे सामान्य कौओं की अपेक्षा कुछ छरहरे थे और उनकी चोंच मानो सोने से मढी थी (संभवतः प्रेमी तक प्रेमिका का संदेश सफलता पहुंचाने के उपलक्ष्य में मढवाई गई हो)। इनकी पीली चोंच के कारण इन्हें यहां चीनी कौआ (अंग्रेजी में एल्पाइन चुग) कहते हैं। इतनी ऊंचाई पर जहां हिम का साम्रज्य हो और हरीतिमा भी काई के रूप में नाममात्र को हो, पक्षी बहुत कम दिखते हैं। हां ऊंचे उडने वाले गिध्द, जैसे दढियल (लामरजायर) गिध्द और हिमालयी ग्रिफन गिध्द, अवश्य कहीं कहीं, कभी कभी दिख जाते हैं। इतनी ऊंचाई पर गिध्दराज भी नहीं आते। (वैसे गिध्दराज कोई 1000 से 4000 मीटर की ऊंचाई तक ही अपना बसेरा बनाते हैं)। भागीरथी की धारा के बीच छोटे से द्वीप पर, कोई 250 मीटर की दूरी पर एक जोडा हिम कपोत का दिखा। हिम कपोत ही कबूतर की एक जाति है जिसमें सफेद रंग है किन्तु हिम कपोत का सिर और पूंछ का छोर काला होता है पंखों में कुछ भूरापन होता है। यह संयोग नहीं था कि लगभग 4000 मीटर (11800 फुट) की ऊंचाई पर गोमुख में मात्र दो कुलों के पक्षी दिखे – काक (कोर्वाइडी) कुल और कपोत (कोलम्बाइडी) कुल। यह दोनो कुल बहुत सफल कुल हैं क्योंकि जमीन पर समुद्र सतह से लेकर 14000 फुट तक इनका बसेरा है। इन दोनों कुलों में भी काक कुल अधिकतर मानव आवास आसपास ही रहता है जब कि कपोतकुल मानव आवास और निर्जन स्थानों दोनों में ही। गोमुख में हिम कपोत तो लगभग 250 मीटर दूर थे और चीनी कौए लगभग सिर पर मंडरा रहे थे।

भारतवर्ष में एक और कुल (?) है जो कन्याकुमारी (समुद्र सतह) से गोमुख (4500 मीटर की ऊंचाई) तक आवास बनाता है, वह है साधु कुल। गोमुख पर भी एक कुटिया में एक साधु रह रहे थे, लंगोटी के साथ राख का सूट पहने। और उनकी कुटिया से मुझे चाय की खुशबू आ रही थी। मैंने सोचा कि दिन के 11 बजे तो साधुजी का ‘टी टाइम’ नहीं होना चाहिए तो पता लगा कि वे मेरे जैसे यात्रियों को कृतार्थ कर रहे थे।

आज ही लगभग 23 कि  मी  क़ी यात्रा (घोडों पर) कर गंगोत्री पहुंचना था और फिर कार द्वारा हर्षिल। इसलिए उस कागा द्वारा दिए गए प्रेमपत्र के बावजुद हम लोग वापिस चल दिए। रास्ते में जब वही लाल फूल मिले जो चट्टानों की दरारों में खिले थे, तो मानों कह रहे थे पहाडी लोग तो हमारे सगे भाई हैं जिन्हें जीवन की आवश्यकताओं के नाम पर तो पर्याप्त मिट्टी भी उपलब्ध नहीं किन्तु वे हमारे जैसे ही मुस्कराते रहते हैं। भोजवासा में भोजन के तुरन्त बाद ही हम लोग फिर चल दिए। अब जब फिर उस स्थान पर पहुंचे जहां 5-6 रेतीली मीनारें देखी थी उसके थोडे बाद ही, एक छोटा सा भूमि स्खलन हो गया था। मैंने सोचा कि मेरे नगपति मेरे विशाल को क्या हो गया है, जरा सी बारिश में पांक देते हैं? और फिर हमारा लालची समाज जैसे हिमालय को नंगा करने पर तुला है। अपने घोडे वाले से बात करता हुआ भी चल रहा था। रास्ते के किनारे कुछ पालक सरीखे पौधे दिखे तब उसने बतलाया कि वह जंगली पालक है और उसे उबालकर (उसका पानी फेंककर) खाते हैं। धूपी की सुन्दरता जालीदार पत्तियां फिर मन मोह रही थीं। वन पीपल ऊंचा, विशाल तो पीपल जैसा ही, किन्तु उसकी छाल चिकनी न होकर खुरदरी थी। रास्ते में गंगोत्री के बाद कुछ खेत इत्यादि दिखे। घोडेवाले ने बतलाया कि वे ज्वार की किसमें हैं, ज्यादा ऊंचाई पर मण्डुआ और थोडा नीचे झंगोरा। जब कि मण्डुआ की रोटी बनाई जाती है, झंगोरा उबालकर खाया जाता है। एक और किस्म का पौधा दिखा मारछा इसके दानेदार बीज स्वाद के लिए मिठाई में मिलाए जाते हैं और व्यापारी लोग एक बोरे मारछा बीज के बदले दो बोरे चावल देते हैं। रामदाना या चौलाई भाजी के बीज तो सारे देश में खाए जाते हैं पर होते ऐसी पहाडी पर हैं। लौकी और कद्दू सब जगह होते हैं और सब जगह (सिवाय पांच सितारे संस्कृति के) खाए जाते हैं। इन घोडे क़े साथ दो दिन बिताने पर ही जैसे उनसे स्नेह हो गया था, कुछ पहचान हो गई थी। अब वे हमारे इशारे (और हमारी बाते भी) समझने लगे थे और हम उनके। हमें उनके पैरोंपर, उनकी नजर पर भरोसा हो गया था। घोडा भी कितना समझदार और ताकतवर जानवर है, थोडा स्नेही भी। उन्हें छोडते हुए, (अपनी कार में बैठने पर) हमें हल्का सा दुख हुआ।

उसी रात हर्षिल पहुंचने पर एक कविता लिखने की प्रेरणा मिली : –

जय गंगे

पूस की चाँदनी में
देवदारु की अग्निशिखा से
आंच में तपना
नारंगी लपटों की लहरें
निहारना मंत्र मुग्ध
चीड क़े चिटखते
अंगारों में
रमना निश्शब्द
धूपी की महमही लौ में
महमंत निस्तब्ध
श्यामली रजनी भर।
झेठ की गरमी भर
अलकनंदा के शीतल जल में
रहना आनन्द निमग्न
गंगा की अनन्त लहरें मनहर
निहारना अपलक
अरुणोदय भर।
कितना रसमय लगता है
तुम्हारा संग
लगता है
मैं
तुममें समा गया हूं।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.