खण्ड-खण्ड उत्तराखंड (यात्रा वृत्तांत)
पहाड़ जो खड़ा हुआ था, ख्वाब सा ख्याल सा बिखर गया है रास्ते में, गर्द-ए-माह-ओ-साल सा नजर का फर्क कहिए इस को हिज्र है विसाल सा उरूज़ कह रहे है जिसको है वही जवाल सा।
करामत अली करामत पहाड़ तो पूरी धरती पर ही हैं, बल्कि पूरे ब्रह्मांड में जहाँ-जहाँ पृथ्वी (वेदों में धरती को पृथ्वी कहा गया है। ) है वहाँ-वहाँ अवश्य ही पहाडों का अस्तित्व भी होगा ही।लेकिन मेरे जहन में पहाड़ शब्द के साथ उत्तराखंड ऐसे सटकर बैठा हुआ है कि पहाड़ की ओर की खिड़की खुलते ही उत्तराखंड झाँकने लगता है।जैसे नदी की ओर की खिड़की खुलते ही गंगा।
बचपन में ड्राइंग शीट पर उकेरे पहाड़ के चित्र से भी पहले जो पहाड़ मेरी आँखों में बसे, वे मेरे राजस्थान के अरावली पर्वत थे।नन्हीं आँखों को उनकी ऊँचाई अचम्भे से फैला देती, तब वही सबसे ऊँची दुनिया लगती।उन्हीं को देख-देख कर घर-घर के खेल में रेत पर पत्थर जमा कर सबसे ऊँचा पहाड़ बनाती औऱ उस परअपना सपनों वाला घर बिठा देती।
मेरी ऊँचाई के साथ-साथ शहर की ऊँचाई भी बढ़ रही थी लेकिन पहाड़ हर रोज छोटे हो रहे थे, उसके फेफड़े सूख रहे थे जैसे उसे क्षयरोग ने जकड़ लिया हो या कई सारे चूहे मिलकर उसे कुतर रहे हों।उनका इलाज कभी किसी ने नहीं किया। हाँ! बरसाती मौसम का आगोश उन पर जरूर मलहम लगाता, मगर फिर भी वे सिकुड़ते रहे और बादल अपनी सिकुड़ती पनाहगाह देख मायूस होते हुए भी अपना प्रेम बिखेरते रहे। जरूर इन्हीं सिकुड़ती अरावली पर्वत मालाओं को देखकर ही मुजफ्फर हनफ़ी ने लिखा होगा-
देखो कब तक बाकी है
दरिया जंगल और पहाड़
जाने कब शहर की ऊँची दीवारों के नीचे निरन्तर कुतरे जा रहे अरावली की कराहें दब गईं औऱ किताबों के जरिए ह्रदय तक औऱ फिर मानस में शिवालिक- हिमालया नाम नागाधिराज पर्बत: का बिज़ हो गया।सूर्यवर्णीधोरों और अदरखी पहाड़ियों को देखने की अभ्यस्तआँखों को चन्द्रहासी गिरि शिखरों और गाढा हरा पन ओढ़े पहाडों ने ऐसा मोहा कि उनका जादू कभी उतरा ही नहीं और मैं आफ़ताब इक़बाल शमीम के शेर-
ये पेड़ ये पहाड़ जमीं की उमंग हैं
सारे नशे बजिन की उठानों पे दंग हैं,
की सच्चाई को जीती सचमुच दंग रह गई थी।
1987 में की गईं उत्तराखण्ड की यात्रा क़े बाद से, इन तैतीस बरसों में वहाँ क़े, मेरी किशोरवय क़े साथी किस्से, मेरे सपनों में गाहे-बगाहे झाँकते रहे हैं, जैसे पन्नो की जमीन क़े इंतजार में हों। वरुणावत पर्वत का सिरहाना लिए अधलेटी सी उत्तरकाशी की धरती पर जहाँ मेरे कदम पड़े और उस पर्वत की चोटी पर जहाँ मेरी नजर पड़ी, दोनो कभी न कभी नीचे बहते भागीरथी के अथाह जल से ही उपजे होंगे न! लेकिन शिखर का आकर्षण त्यागना क्या सहज है! और फिर किशोरवय को तो जैसे शिखर ललकारते हैं समीप आने के लिए। इस उत्तराखंड के प्रत्येक खण्ड ने मेरे साथ-साथ जाने कितने ही किस्से सहेज रखे हैं अपने मानस, ह्रदय और गर्भ में।और मेरे साथ ही क्यूँ! सदियों से प्रत्येक उस प्राणी के साथ जिसके कदम यहाँ पड़े होंगे। प्रत्येक उस पँछी के साथ जिसने यहाँ पँख फैलाए होंगे। प्रत्येक उस चेतन-अचेतन कण केसाथ जिसने इसे हल्का सा भी छुआ होगा। इसी धरती में कहीं निद्रा में होगी वो सुरं गया उसके अवशेष जिसने लाक्षा गृह से पांडवो के प्राणों की रक्षा की थी और इन्हीं देवदार के जंगलों से होकर गुजरे होंगे न पांडव! हिडिम्बा के जंगलों की ओर। इस पूरे उत्तराखंड में सिमटेया विस्तार पा चुके किस्सों का ज़िक्र एक साथ करना तो मेरे वश में नहीं ।तो आज बात करते हैं उत्तरकाशी से गंगोत्री को जाने वाले मार्ग की और वहाँ बसे एक कस्बे की। नाना के परिवार के हम करीब बीस लोग बस से गंगा मैया के जयकारों के साथ उत्तरकाशी से गंगोत्री की ओर रवाना हुए । सन 1987 का वो मार्ग आज तैतीस साल बाद वैसा नहीं रहा। विकास का पहिया अपने रथ पर विराजमान सुविधाओं का छिड़काव करता चलता है, फिर चाहे वो छिड़काव माटी की सुगंध ही क्यूँ न सोख ले। उस वक्त चार धाम यात्रा का वो मार्ग सबसे सकरा मार्ग हुआ करता था। कुछ देर घाटी की ओर की खिड़की वाली सीट पर बैठने के बाद मैने सीट बदल ली और पहाड़ी की ओर आ गई। शायद चार दिन पहले की, मुझे निगल लेने को आतुर सरसराती नागिन सी कालिंदीकी कालीघाटी ( जिस का जिक्र ‘काली घाटी क़े पार’ किस्से में किया है ) का डर अभी शेष रह गया था।सीट बदली तो लगा पहाडों की बाँहों के सुरक्षा घेरे में आ गई हूँ। उसी वक्त अरावली मेरे नजदीक आ बैठा। मेरे साथ-साथ बुलन्दियों को ताकता। बस में अधिकतर सभी दोपहर भोजन के बाद की तन्द्रा में थे और मैं अरावली और हिमालय के बीच किसी पुल पर अटकी हुई थी। मार्ग सकरा होता जा रहा था। ड्राइवर के केबिन में मद्धम आवाज में गाना बज रहा था-
पहाड़ियों की बुलन्दियों से
कभी चिनारों के दरमियाँ से
कभी नजर से कभी जुबाँ से
तुझे बुलाए ये मेरी बाँहे
कि तुझको गंगा यहीं मिलेगी
कि तुझको मुक्ति यहीं मिलेगी…….
बसने एक सकरा गोल घेरा लिया औऱत भी झन्न नन्नन……की आवाज के साथ खिड़की काशी शाचूर -चूर हो मेरी गोद में आ गिरा। मैं सचमुच नहीं जानती कि ऐसी प्रतिक्रिया क्यूँ हुई कि मैने उसे बस के फर्श पर गिरने से पहले अपनी हथेलियों में थाम लिया। कुछ देर पहले मेरी बगल में आ बैठा अरावली उन कतरों से झाँकता नजर आया । सभी इस चिंता में थे कि मुझे चोट तो नहीं लगी और मैं हथेलियों में अपनी जन्मदात्री माटी (बालूरेत) से उपजे शीशे के चूर्ण से झाँकते अक्स को अपने किसी प्रिय की अस्थियों की तरह सहेजे बस से बाहर आ गई और हौले से उसे घाटी में बहती गंगा में प्रवाहित कर दिया । उस दिन घर-घर के खेल में रेत से बनाए बचपन के पहाड़ बहुत याद आए। बस घुमावदार घेरों से निकल अपेक्षाकृत सीधी सड़क पर आ गई थी, जिसका अर्थ था कोई कस्बा आने वाला है। मिट्टी और पत्थरों को जमाकर बनाई गई सड़क का धैर्य एक हाथ से गंगा की चपलता को था मे था, तो दूसरे से हिमालय की स्थिरता को। सुबह बरस कर खाली हो चुके बादल इंद्र के घड़े से फिर जल भर लाए और सूर्य देव उसमे डुब की लगाने को क्या मुड़े किस र्द हवाओं को घुमक्कड़ी का अवसर मिल गया। सूर्य डुबकी लगाएँ उससे पहले हमे अपने अगले पड़ाव तक पहुँचना जरूरी था। मगर तभी बस रुक गई। पता लगा कि आगे भूस्खलन हुआ है। ओह! हिमालय भी टूटता है! पर कितनी अलग है न ये टूटन मेरे अरावली की टूटन से! भीतर से कहीं अरावली की कराह उभरी। मन हुआ कि उड़कर पहुँच जाऊँ उस टूटे हिस्से के पास।आखिर टूटना तो टूटना ही है!
सलेटी साँझ सूरज की पीठ पीछे दबे पाँव पहाडों पर का बिज हो जाना चाहती थी। हरी वर्दीधारी जवानों ने रास्ता बन्द कर दिया था। हमे बताया गया कि अब सवेरे ही आगे बढ़ा जा सकता है। वैसे भी सूरज डूबने के बाद उस मार्ग पर सिर्फ सेना के जवानों के निहायत जरूरी वाहन ही चल सकते थे।
पड़ाव से पहले या यूँ कहें कि दो पड़ावों के मध्य मार्ग में रुकने का आंनद, पड़ाव से कहीं अधिक रोमांचित कर रहा था। कस्बा तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। पहाडों की टोपी से अम्बर ने सारे रंगों को घोल सलेटी बना दिया। सलेटीपन में घुले रंगों को ब्लॉटिंग पेपर बना बादलों की ओट से सूरज सोख रहा था जिन्हें कल फिर सुनहरा बना धरती को सौंप देगा। धरती खोलकर रख देगी अपना ह्रदय किलो ले लो जिसे जो पसन्द हो। ख्याल बादल के फोहे से मन में तैर रहे थे। सच, बड़े साथ हों तो कहाँ रात बिताएँगे? क्या खाएँगे? जैसे सवाल नदारद होते हैं दिमाग से। होता है तो सिर्फ कुछ अनदेखे अनछुए को देखने औऱ महसूस करने का रोमांच।
जवानों ने बताया कि करीब आधा-एक किलोमीटर आगे ही एक कस्बा है, वहाँ रात बिताई जा सकती है। लेकिन वहाँ तक पैदल ही जाना होगा क्यूँकि उस कस्बे से कुछ मीटर आगे मलबा बिखरा पड़ा है, तो बस ले जाने की अनुमति नहीं।
‘मलबा’ शब्द जहन से जा कराया, जैसे किसी जीते-जागते इंसान को लाश कह दिया गया हो।तो क्या पहाड़ का खड़े रहना ही उसके जिंदा होने का सुबूत है! यही टूटा हिस्सा क्या फिर किसी पहाड़ की नींव नहीं बन जाएगा! धीरे-धीरे हर शै गुम हो गई।पहाड़ भी। लेकिन मन की खिड़की से चमकीली, अचंभित, रोमांचित धूप झाँक रही थी टॉर्च के चमकते जुगनुओं ने जिम्मा लिया मार्ग दर्शन का। कहाँ सोचा था ऐसा अनुभव होगा! उस पहियों से पिसती धरती ने भी तो नहीं सोचा होगा न! अनगिनत पहाडों, जंगलों, घाटियों से घिरी अंधेरी अमावस की रात कच्ची सड़क पर कदम जमाते हुए, सर्दहवा संग घुमक्कड़ी। नाना-नानी को जवानों ने अपनी जिप्सी में बैठा लिया था और हम अपने कदमो को जिप्सी बना बढ़ चले। सन्नाटा किसे कहते हैं उसी दिन समझ आया और सन्नाटे की आवाज से भी परिचय हुआ।थोड़ी दूरी पर लालटेनें चमकती नजर आईं। उन्हीं के पीछे की ढलान के घने अँधेरे में पहाडों के प्रेत ( हिमतेंदुआ ) से दिखते सफेदी पुते कुछ घर चमके। सड़क के दूसरी ओर कई सारी लालटेनों से जगमग ढाबा देख सभी की भूख कुल बुलाने लगी।ढाबे पर नजर पड़ते ही आँखे जिस ओर मुड़ गईं वो था ढाबे के ऊपर लगा निम्बू पीले रंग का टीन का बोर्ड, जिस पर बड़े-बड़े लाल अक्षरों में लिखा था- राज कपूर ढाबा। बोर्ड के चारों ओर लालटेनें इस तरह लगाई गईं थीं कि कुछ और दिखेन दिखे मगर ढाबे का नाम चमाचम रहे। बगल में ही लोहे के एंगल पर राम तेरी गंगा मैली फ़िल्म का रंग उड़ा कपड़े का पोस्टर, जिसमे मन्दाकिनी झरने के नीचे नहा रही थी लगा था। बाहर लगी खाटों, जिनमे प्लेटें रखने के लिए बीच में लकड़ी के फंटे लगे थे, में से एक पर दो जवान बैठे खाना खा रहे थे और दूसरी पर बुश हरी टोपियाँ पहने कुछ पुरुष बतिया रहे थे। कहीं रेडियो बज रहा था शायद ढाबे के भीतर या ढलान पर किसी घर में । मद्धम आवाज जैसे धूजती घाटी से निकल कर आर ही हो-
बारहों महीने यहाँ
मौसम जाड़ों का…
हुस्न पहाडों का…..
जरूर राम तेरी गंगा मैली से इस घाटी का कोई बहनापा है। अभी हम बात कर ही रहे थे कि देखा ढाबे का मालिक काउंटर पर खड़े हमारी ही बस के ड्राइवर को बड़ी शान से बता रहा था-
यूँ ही नहीं रखे हैं भैया ये नाम! खुद राजकपूर साब आए थे अपनी पूरी मण्डली के साथ इहाँ! कोई तीन बरस पहले की ही तो बात है। इहाँ से कुछ आगे हर सिल की घाटियों में शूटिंग की थी फिलम ‘राम तेरी गंगा मैली’ की। यहीं इन्ही खटियाओं पर बैठकर खाना खाया था। उसने खटियाओं को ऐसे प्रेमभरी नजरों से दुलराया जैसे वे कोई मखमली सिंघासन हों- अंगुलियाँ चटकारते बोले थे- तेरे हाथ में जादू है रे रमैया! चल मेरे साथ चल मुम्बई!
फिर अपने गोरे गालों को गुलाबी करता शर्माता सा बोला- हम कोई नाम भी वे ही दिए थे।बोले रमवा नहीं तू रमैया है रे रमैया ! रमैया का चेहरा ऊपर लटकी लालटेनों सा चमक उठा अपनी मीठी स्मृतियों के बखान में खोए रमैया का ध्यान हमारी ओर काफी देर बाद गया।इतने सारे लोगों को एक साथ देख और बोर्ड पर टिकी हमारी नजरें देख अपनी टोपी सम्भालता चमकती आँखों को घुमाता फिर टेपरिकॉर्डर सा बज उठा-
यूँ ही नहीं रखे हैं बाबूजी ये नाम ! खुद राजकपूर साब………………….
उस रोज हमारी बस के महाराज ने सिर्फ नाना-नानी के लिए खाना बनाया। रमैया ने हमें बड़े प्रेम से खाना खिलाया जिसमे आलू का स्पेशल पहाड़ी झोल, गहत की तड़का लगी दाल, अंगीठी की रोटी और अंत में पान के पत्ते में लिपटी मावे से बनी सिंगोड़ी। खा चुकने के बाद हम सब ने एक सुर में कहा- तेरे हाथ में जादू है रे रमैया! चल हमारे साथ चल जयपुर! रमैया ने ठहाका लगाया और हम सब एक साथ गाने लगे-
रमैया वस्ता वैया … रमैया वस्ता वैया……समवेत हँसी के स्वर हवाओं में तैरते पहाड़ और घाटियों में फैल गए और रमैया का गुलाबी चेहरा गहरा गया।
बिसवा! अरे ओबिसवा! रमैया ने आवाज लगाई तो पीछे के घरों से निकल एक नवयुवक हाजिर हो गया। रमैयाने आज्ञा दी- बाबूजी लोग का सोने का इंतजाम तेरे जिम्मे, चाहे जित्ते घर खुलवा और सुन खेसर जाई कम पड़े तो हरिया को बोल दियो इंतजाम कर देगा।
रास्ते भर पढ़ती आई थी- गढ़वाल आपका स्वागत करता है।
लेकिन असल स्वागत का अर्थ तो यहीं आकर पता चला। जैसे कोई बारात गाँव की बेटी को ब्याहने आई हो और सारा गाँव उसकी मिजाजपुर्सी में जुट गया हो। कुल मिलाकर आठ दस घर। किसी ने अपना अहाता किसी ने एक कमरा किसी ने दो कमरे हमारे लिए उपलब्ध करा दिए। गहराती बिन बादलों की रजाई के नंगी अमावसी रात ठिठुर रही थी।हम उसे अंक में भर लेना चाहते थे और इसी कारण नानी से कठ हुज्जती भी करनी पड़ी। मावसी रात का खुला आसमान उन्हें डरा रहा था और हमे उकसा रहा था। सो उनके सो जाने के बाद हम सभी बच्चों ने एक खुली छत की शरण ली। बगैर डोलियों वाली छत ऐसी जैसे अलादीन ने राजकुमारी जैस्मीन के लिए हवा में तैरता जादुई कालीन बिछा दिया हो । बिसवा ने उसके चार कोनों पर चार लालटेनें रख बीच में रजाई गद्दे बिछवा दिए। ठिठुरन ने रात को गिरगिटी बना दिया। सलेटी-स्याह और अब अचानक उसके होंठ गाढ़े नीले पड़ गए। सन्न अंधकार में भागीरथी के जल में पैर डुबोए बैठी घाटी और बेहद धीमे-धीमे उसे जल तरंग सुनाती भागीरथी। दोनो पक्की सहेलियाँ अपने पत्तों की सर सराहट से उपस्थिति दर्शाते दरख़्त। बादलों ने डेरा बदल लिया था सो अम्बर ने जी खोलकर अपना खजाना खोल दिया। चाँद ने अपनी नामौजूदगी में भी मौजूदगी दर्ज कर दी, अपनी सारी चमक तारों को सौंपकर। आकाश गंगा के दूर विदेश में बसे तारे भी अपने देस लौट आए उस रात उस जादुई कालीन से दिखते मुठ्ठी भर गगन में जितने तारे देखे उतने तो पूरे जीवन की रातों में भी न देखे होंगे।
तारा छाई रात थानै आयासरसीssssss
तारा छाई रात थानै आयासरसी….
थे तो मिजा जीम्हारे हिवड़े रा पांवणा….
बहते सुरों में हमारे साथ-साथ दोनो सहेलियाँ भी झूम रही थीं और पहाड़ दर्शक बना अचम्भे से ताक रहा था। काश मेरा सितार होता मेरे साथ! बन्द कमरे से कितनी अलग हो तीन यहाँ उसकी झनकार! ब्रह्मांडीय नाद से मिलन का सुकून मिलता उसे भी। पूनम रातों में कई बार घर की छत पर सितार बजाया था लेकिन अमावसी रात में बहते सुरों का अनुभव तो उसी दिन हुआ। तीन साल से राम तेरी गंगा मैली के गीतों से उकता चुकी घाटी, उस रात जी भरकर राजस्थानी औऱ पुराने फिल्मी गीतों से लबालब हुई और भूत-प्रेत के किस्सों को सुन दिले रब नी खूब खिलखिलाई। वो अमावसी गहरी रात भी मेरे भीतर के आकाश, वायु, जल को नया कर गई।
सवेरे पहाड़ बच्चे बने धुंध में लुका छिपी खेल रहे थे और कुबेर अपनी तिजोरी से सोना और चाँदी निकाल भास्कर की राह में बिखेर रहा था। घाटी रत जगे के बाद हमारे समान ही अलसाई सी दिखी। एकओर घाटी से उठती छप-छप के साथ घर्र-घर्र की आवाज मेरा ध्यान आकर्षित कर रही थी तो दूसरी ओर टूटा पहाड़ मुझे बुला रहा था।जाने क्यूँ पहाड़ के साथ जब से ‘टूटा’ जुड़ा, भीतर कुछ दरकने लगा था।
रमैया ने चाय के साथ स्वादिष्ट चटपटे अरबीके पत्तों से बने पातडे खिलाए।
अभी मलबा हटने में समय लगेगा साब! आप घूम आओ नीचे घाटी और झरनों की तरफ। रमैया ने सुझाव दिया।
टूटे पहाड़ को देखने की ललक मुझ पर हावी हो रही थी।
ये घर्र-घर्र की आवाज कैसी हैरमैया! क्या कोई मशीन चलर ही है! मैने पूछा तो रमैया ने हँसते हुए कहा-
हाँ! पहाड़ी मशीन ही तो है हमारा ‘घराट’। उसी में पिसे आटे की रोटी खाई थी आपने कल।
ओह पनचक्की!
रमैया खिली सुबहसा खिला गुनगुनाने लगा-
भेडां तेरियां हो…… ओ…चुगदियां फाट नीलमा
हेठे नालुए हो…….ओ… मेरा वो घराट नीलमा
टूटे घायल पहाड़ के पास पहुँचे तो उसे उठाने का काम चल रहा था। सड़क के सीने से लिपटा गर्द से सना छोटे-बड़े पत्थरों का बिखरा पहाड़ मेरे सामने था।जो कल तक जाने कितना भार उठाए था आज उसे कोई उठा रहा था।अपनी अंजुरी में भरा तो उनकी मजबूत स्थिरता के भीतर हलचल हुई-
ओह! सिसकी तो यहाँ भी है, मगर अस्तित्व को खो दे ने का डर नहीं है। मैने नजर भर उन टुकडों को निहारा फिर ऊँचे खड़े पहाड़ पर नजर डाली । दोनो मुझे तसल्ली देते से कह रहे थे-
खुदा के ज़िक्र में मशगूल हैं जो मस्त पहाड़
समझ गए हैं यकीनन अदा-ए-वक्तप हाड़।
फैज़ल नदीम फैज़ल
चेहरे पर आई मुस्कान के साथ मैने अँजुरी उसी ढेर में फिर से उँडेल दी। मन की दरकन कुछ कम हो गई थी।उस वक्त तो पूरी तरह नहीं समझ पाई थी, मगर आज इतने वर्षो में जाने कितने ही पहाडों की टूटन देख चुकने के बाद, एक कविता की कुछ पक्तियों का अर्थ बखूबी समझ रही हूँ कि-
पहाड़ पर आपदा दरअसल एक गति है
ठहराव के खिलाफ रहे हैं पहाड़
वे बनते-टूटते-बिखरते-जुड़ते ही पहाड़ हो पाते हैं।
पहाडों की दीवारों के बावजूद सूरज अपना सुनहला प्रेम घाटी के सीने में उतारने में कामयाब होता जा रहा था। पहली छुअन से नवकिशोरी कन्यासी लरजती मौन घाटी। दूधिया जलधाराएं उस का मौन तोड़ने को आतुर।देवदारऔरसनोबरकेपेडोंसेभरीघाटीमेंकुछनीचेउतरनेपरसेबसेलदेअनगिनतपेड़देखनारोमांचितकररहाथा।हरियाने बताया की विल्सन नाम के एक अंग्रेज ने यहाँ सेबों के कई बगीचे लगवाए थे, तब से कई वैरायटी के सेब के पेड़ इस जगह की पहचान बन गए हैं।उन सेबों का स्वाद क्या जिव्हा कभी भूल सकती है!
घर्र घर्र की आवाज तेज हो गई थी।नदी के पानी से बनाई नहर के किनारे की घास पर सफेद मखमली भेड़ों के झुंड अपनी मौज में चर रहे थे। पल्म हेडेड कई सारे तोते, काले गले वाली बुशीट चिड़िया और सैर को निकले बच्चे सी हवा, सुनहरी प्रेम में अपने सुर घोल दरख़्तों को जगा रहे थे। उसी नहर के सहारे -सहारे आगे बढ़ने पर एक डेढ़ मंजिला सा कमरा बना दिखाई दिया। ऊपरी मंजिल में चट्टानों को काटकर बनाए पहिए लकड़ी की फिर कियों पर पानी के वेग से घूम रहे थे। चक्की के ऊपरी पाट के ऊपर एक लय में धीरे-धीरे हिल ता बड़ा सात ले में छेद हुआ बर्तन लटका हुआ था जिससे अनाज पाटों के बीच गिर रहा था। पानी की ग्रेविटी से चलने वाले घराट की घर्रघर्र, लकड़ीकीटक-टक और पानी की छप-छपती नो मिल भागीरथी के कूल पर बिखरे सुरों को समेट लयबद्ध कर रहे थे। यहाँ के गीतों को वाकई किसी और वाद्य की जरूरत ही कहाँ है! आस-पास के कई कस्बों में तो अब घराट से बिजली भी बनने लगी है साब… हरिया कह रहा था।
अनाज के साथ चट्टान भी घिस-पिस रही थी, धीरे-धीरे।पहाड़ का ही एक हिस्सा घराट के दोनो पाट। जिंदा। कर्मरत।अस्तित्व को खोने के डर से सर्वथा मुक्त। मैने सिर उठाकर चन्द्रहासी गिरिशिखरों को मुस्कुराकर देखा तो वे कह उठे-
नजर का फर्क कहिए इसको हिज्र है विसाल सा
उरूज़ कह रहे हैं जिसको है वही जवाल सा।
बस गंगोत्री की ओर बढ़ रही थी।ड्राइवर के केबिन में गीत बज रहा था-
गल्ला तेरियां हो
मीठ डाम खीर नीलमा
तूतां लग दी हो
राँझने दी हीर नीलमा
भेडां तेरियां हो…..