हस्ते लीला कमलमलके बालदुन्दानुविध्दं,
नीता लोध्रप्रसवरजसा पाण्डुतामानने श्रीः।
चूडापाशे नवकुरबकं चारु कर्णे शिरीषं,
सीमन्ते च त्वदुपगमजं यत्र नीपं वधूनाम्।।
कालिदास , मेघदूत
(हे मेघ) वहां (कुबेर की राजधानी अलकापुरी) की कुलवधुए/ हाथों में कमल के आभूषण और चोटियों में ताजे कुन्द के फूल गूंथती हैं। गौर वर्ण करने के लिए मुख पर लोध्रपुष्प का पराग मलती हैं। जूडे में नए कुरबक के फूल खोंसती हैं, कानों पर सिरस के फूल रखती हैं और वर्षा में फूलने वाले कदम्ब के पुष्पों से अपनी मांग सजाया करती है।
मैं तो चाहता था कि आपको सीधा दिल्ली से जोशी मठ ले जाकर फिर वहां से फूलों की घाटी की सैर कराऊं किन्तु शिवालिक (शिव की झलकें) पहाडियों को पार कर, ॠषिकेश पहुंचने पर पता चला कि नाग टिब्बा पर्वत शृंखला में देवप्रयाग के पहले एक भूमि स्खलन होने के कारण सडक़ बंद है। बजाय इसके कि हम ॠषिकेश में रूककर इंतजार करते कि जब सडक़ खुले तब आगे जायें, हम लोक कथाओं में छिपे चंबा और टेहरी होते हुए इस भूमि स्खलन को (बाइ-पास) बचाते हुए श्रीनगर पहुंचे। टेहरी की सुन्दरता कुछ पहारीफूलफ्युंली सी थी, तारों सी शर्मीली और अलसी के फूल सी उदास। टेहरी और उस सुंदर लडक़ी (जिसने अपने प्रेमी से विवाह न कर सकने के कारण आत्महत्या कर ली थी और उसकी मिट्टी से जो सुन्दर फूल निकले थे उनका नाम फ्यंली है) में अन्तर इतना है कि टेहरी को जबरदस्ती दफनाया जा रहा है क्योंकि टेहरी से, उसके प्राकृतिक सौंदर्य से कुछ अधिकारियों को, नेताओं को प्रेम नहीं है।
कश्मीरी में एक कहावत है, ”अन्न पोषि तेलि येलि वन पोषि” जो संस्कृति कहावत का कश्मीरी रूप है तथा इसका अर्थ है अन्न तब पोषण करता है जब वन का पोषण होता है, अर्थात बिना वन के अन्न नहीं होगा, इतना गहरा अर्थ हमारे ॠषियों को मालूम था यह बडे अचरज की बात हो सकती है किन्तु इससे भी बडे अचरज की बात है कि इसका अर्थ हमें नहीं मालूम तभी तो उत्तर प्रदेश में पिछले चार दशकों में 43000 हेक्टेअर भूमि से वनों को नष्ट किया जा चुका है। वन के साथ पर्यावरण और उसके साथ जीवन का विनाश होता है, विकास नहीं।
श्रीनगर आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित नगर है तथा यहां कमलेश्वर का प्रसिध्द मंदिर है जिसमें श्री राम ने शंकर जी की पूजा की थी, इसलिए इसका धार्मिक महत्त्व स्वाभाविक है। श्रीनगर से हम आगे जोशी मठ के लिए भोजन के उपरांत चल पडे। यद्यपि पीपल कोटि पहुंचते-पहुंचते ही रात हो गई थी तथापि हम लोगों ने तय किया कि हम लोग लगभग 30 कि मी पहाडी चढाई चढते हुए जोशी मठ ही जाकर विश्राम करेंगे। किन्तु पीपल कोटि में देखा कि वहां बहुत सी बसें और कारें रूकी पडी थीं, पता लगा कि आगे फिर एक भूमि स्खलन है और उसको बचाकर जाने का कोई रास्ता नहीं है। इसलिए रात पीपल कोटि में रुकना पडा। बातचीत के दौरान सुरेश शर्मा ने अपनी दो छोटी कविताएं सुनाई _
झौंके हवाओं के झूम झूम आने लगे
पेडों के कानों में क्या फुसफुसाने लगे
बजने लगे डालों पर कलियों के झुनझुने
पीपल के पत्ते भी तालियां बजाने लगे।
कविता बडी सटीक लगी क्योंकि ठंडी बयार धीरे धीरे चल रही थी फिर उन्होंने एक और मुक्तक सुनाया :
जंगल में रात देखो धीरे से आने लगी
सोने लगे पेड, लोरी झिल्लियां सुनाने लगी
तैर रहा हँसता सा चाँद आसमान में
चाँदनी भी कूद कूद झील में नहाने लगी।
सरल गीतात्मक भाषा में प्रकृति का निश्चल सौंदर्य; सुरेश जी के मुक्तकों ने उस बियाबान रात्रि में आनन्द दिया।
सुबह उठकर पता लगा कि सडक़ तब भी बंद थी। विश्राम गृह के बरामदे में सोचने के लिए बैठे कि क्या किया जाये। शामने पहाडियों के सुंदर दृश्य थे। पास वाली पहाडियों पर जैसे हरी मखमल बिछी थी और दूर वाली पहाडियां रजत मुकुट पहने हुए थीं। यह बर्फ जो सितंबर के महीने में छायी रहती है, लगभग स्थायी बर्फ है। सामने पहाडी पर वूक्षों के पास कुछ गिध्द उड रहे थे। दूरबीन से देखने पर पता लगा कि वे हैं, लगभग सफेद और वे ‘अपमार्जक’ गिध्द के नाम से जाने जाते हैं, हालांकि अपमार्जन गिध्द की सारी जातियों का काम है और उनकी ‘अतिजीविता’ का आधार है, अन्य जातियों के पक्षियों से इस भोजन (अपमार्जन वाला) के लिए कोई होड नहीं है। दूरबीन से देखते-देखते देखा कि एक वृक्ष गिध्दों का जोडा बैठा हुआ है। इनका रंग गाढा बदामी था। देखने में भी सुंदर लग रहे थे और देखा कि उनकी चोंच के पास दाढी सरीखी कोई चीज थी अर्थात वे ‘दढियल’ गिध्द थे।
पता लगाने पर मालूम हुआ कि सडक़ में जो अवरोध है उसके जल्दी खुलने के कोई आशा नहीं है। इसलिए तय किया कि अवरोध तक तो गाडी से जायें और उसके बाद पैदल ही पार कर आगे चलें। वहां से हैलंग कोई 10 किलोमीटर ही बचेगा और हैलंग से जोशी मठ करीब 10 किलोमीटर। हम लोग जब अवरोध तक पहुंचे तो देखा कि बडे ज़ोरों से काम चल रहा था। पहाड का एक बहुत बडा टुकडा आकर सडक़ पर जम गया था। मानो कि वह यह कह रहा था, ”आप लोग हमारे स्वाभाविक जीवन में क्यों बाधा डालते हैं?” और शांति पूर्ण ‘रास्ता रोको’ अभियान कर रहा था। किन्तु मनुष्य डीवट वाला जीव है और जब वह कुछ ठान लेता है, गलत या सही, तब उसे करके ही छोडता है। अब उसने प्रकृति के कार्य में जब जोरों से दखल देना, बिना परिणाम को ठीक से जाने, बडे बडे पहाडों को काटना, वनों को काटना शुरू कर ही दिया है, तब यह 15 टन का पत्थर तो कुछ घंटों में ही चूर कर दिया गया। किन्तु वाहन हमको हैलंग के पास ही ले जा सका क्योंकि वहां फिर अवरोध था और उस पर कोई काम नहीं हो रहा था। हम लोगों ने पैदल ही इस अवरोध को पार किया। और उस पार कोई वाहन न मिलने को कारण पैदल चलना ही शुरू किया यद्यपि हम सभी के पास दस-बीस किलो का सामान भी था। हम लोग अलकनंदा के बाएं तट पर पहाड क़ो काट कर बनाए रास्ते पर कोई पांच हजार फुट की ऊंचाई पर चल रहे थे। वृक्षों के हरियालेपन के बीच अलकनंदा गाते हुए चल रही थी। और हम लोगों को उस वातावरण में, अब बहुत सारे पक्षियों के गान भी सुनाई दे रहे थे लगा कि वे अलकनंदा के साथ एक समवेत गान प्रस्तुत कर रहे थे।
बायीं ओर मेरी नजर अचानक गई और देखा कि एक सुन्दर चिडिया उड रही थी। उसकी निराली सुन्दरता का वर्णन कठिन तो अवश्य है। चिडिया का शरीर काले रंग का था किन्तु उसके पंख गाढे तांबे के रंग के थे और जब वह उड रही थी वे पंख उस काले शरीर पर गाढे तांबे के रंग की आभा का मंडल बना रहे थे। इस ताम्र आभा वाली चिडिया का नाम कलगीदार मारीट (बंटिंग) है। थोडी दूर जाने पर एक और सुन्दर चिडिया दिखाई दी। यह चिडिया गौरैया के बराबर की थी और उसके पंखों का रंग भी लगभग गौरैया सरीखा ही था, किन्तु उसके शरीर का रंग सुन्दर गुलाबी था। इस सुन्दर चिडिया को मैंने पहचान तो लिया कि यह गुलाबी कुलिंग (फिंच) है किन्तु उस थोडी सी झलक में यह नहीं देख पाया कि इस गुलाबी कुलिंग (फिंच) ने अपनी भौंहों को सफेद रंग में रंगा था या इसने अपनी बाहों में सफेद छींटदार दुपट्टा ओढा था। क्या बात है कि इस तरह सुन्दर पक्षी हमारी थकान को भी उडा देते हैं।
यह सडक़ तो पहाडी सडक़ो की तरह ही तेज घुमावदार वाली; तेज चढाव वाली सडक़ थी किन्तु हम लोग अपने उत्साह में कहीं कहीं सडक़ को छोड, सीधा ही ऊपर चढ क़र, फिर से वापस आकर घूमती सडक़ को पकड लेते थे। इसी तरह हम लोग एक गांव के बीच से गुजरे। दूसरी तरफ पहुंचने पर हमें तो बडी ख़ुशी हुई और हम लोग जोशी मठ के लिए चल पडे। ज़ोशी मठ तक कार में जाते समय पहाडों से घिरी अलकनंदा के सौंदर्य का आनंद उठाया। कुटिटम (मैपल), चीड, वन-पीपल, बांज, अदरली आदि वृक्षों का आनंद भी उठाया किन्तु पक्षियों के गाने और सौंदर्य का आनंद उतना नहीं उठा पाये जितना पैदल चलने में मिल रहा था। और हमने गौर किया कि यद्यपि उस बिरली हवा में हम पहाड क़ी चढाई चढते हुए लगभग 10 किलोमीटर चले होंगे किन्तु उसकी थकान से हम लोग दबे नहीं।
जोशी मठ से पुष्प घाटी तो दूसरे दिन ही जाना था। उस दिन विश्राम गृह में शाम को जब बाहर खुली हवा में बैठे तो हरी-भरी पहाडियों से घिरे मंच पर मध्दम सुर में अलकनन्दा के मधुर गान के साथ प्रगाढ नीले आकाश में बादलों के नर्तन को देखते हुए मन आत्म विभोर हो गया। सूरज पश्चिम की पहाडी क़ी चोटी पर जैसे बैठा हुआ बादलों में से झांक रहा था। मैंने सुना, एक सुन्दर गढवाली स्त्री अपने पति से कह रही थी ”मैं कितनी भाग्यवान हूं कि तुम मुझे इतना प्यार करते हो। तुम सुबह होते ही सूरज की पहली किरण के साथ पहाड पर चले जाते हो और वहां दिन भर काम करते हो। तुम्हें देखती हूं कि तुम पहाड क़े मस्तक पर एक रजत किरीट पहना देते हो और तब पहाड क़ितना भव्य लगता है। इस मुकुट को पहनाने के बाद तुम मुझसे मिलने के लिए आर्द्र होकर चल देते हो और मैं देखती हूं कि अक्सर तुम मेरे घर के ऊपर आकर बरस जाते हो और मेरी प्यास बुझा देते हो।” अचानक एक मधुर तान से मेरी तंद्रा भंग हुई और मैंने देखा कि एक पेड पर बहुत सुंदर पक्षी बैठा हुआ है। यह बादामी रंग की चिडिया मादा स्वर्गिक चिडिया थी। जिसका शरीर बादामी रंग का होता है, सिर कजरारे मेघों सा काला और गले में बादलों का श्याम रंग होता है। मैं अब इस इंतजार में था कि इस मादा पक्षी के लिए नर-स्वर्गिक पक्षी भी आयेगा जो कि इससे कहीं अधिक सुंदर होता है। किन्तु वह नहीं आया।
अगले दिन की सुबह हमारी आशंका के विपरीत एकदम साफ थी और आसमान का नीला रंग बहुत ही सुहावना था। जोशी मठ से निकलते ही अलकनन्दा को पार कर हम उसके दाहिने तट पर चलने लगते हैं और लगभग 8-10 किलोमीटर आने के बाद हमें विष्णु प्रयाग मिलता है। विष्णु प्रयाग विष्णु गंगा और धौली गंगा का संगम है। उनके बाद ही इस नदी को अलकनन्दा नाम मिलता है। किन्तु अधिकतर लोग विष्णु गंगा को अलकनन्दा ही कहते हैं उसी तरह कि जिस तरह अलकनन्दा अथवा भागीरथी को गंगा। विष्णु गंगा की घाटी में आते ही हिमालय की विशालता के दर्शन होते हैं। यहां की चट्टानें विशाल पत्थरों की बनी हुई ठोस और कठोर, कर्णप्रयाग, देव प्रयाग या नन्द प्रयाग जैसी नहीं जो कि रेत और गोल पत्थरों से मिलकर बनी हैं। यहां हमें पृथ्वी की अनन्त शक्ति का आभास होता है कि वह कैसे अपनी शक्ति से इतने विशाल अनन्त भार वाली चट्टानों को जैसे खिलवाड में उलट-पलट देती है।
लगभग 40 मिनट में हम गोबिंद घाट पहुंच गये। और वहां से पैदल हमने अलकनन्दा को पार किया और लक्ष्मण गंगा के दाहिने तरफ पहुंच गये। गोबिंद घाट से चलते ही लक्ष्मण गंगा की घाटी का सौंदर्य चिदाकाश में छाने लगता है। वृक्षों में सबसे पहले तो दरली ज्यादा मिलता है और जैसे-जैसे ऊपर चढते हैं वैसे-वैसे वन पीपल की अधिकता बढती जाती है। बीच-बीच में बुरांश के फूल बहार के मौसम में मिलते हैं और यदि उनकी शोभा देखनी हो तो अप्रैल या मई के महीने में आना चाहिए। बुरांश वृक्ष तो गढवाल के जनमानस में लगभग उसी तरह समाए हैं जैसे कमल भारतीय संस्कृति में। इनका विश्वास है कि फूलों में देवता निवास करते हैं।
”बाल बुरांश शिव सिर शाबी” एक प्रचलित लोकगीत की टेक है। कोमल बुरांश शिव के सिर की शोभा है। कुछ बहुप्रचलित लोकगीत की पंक्तियां – ”धार मा फूले बुरांश को फूल, मैन जाणे मेरी सरू छ – ‘पर्वत शिखर पर बुरांश का फूल खिला है, मुझे लगा वह मेरी प्रिया है ‘त्वै देखी नामा बुरांश लांदी रास’ – प्रिये, तुझे देखकर तो बुरांश का फूल भी तुझसेर् ईष्या करता है। ‘मेरी मैत्यों का डांडा बुरांश फूल्या, हिलासी जाण दे मैन।” मेरे मायके की पहाडी पर बुरांश फूला है, मुझे मायके जाने दो।
चढते हुए हम लोगों के पास प्रकृति की सुन्दरता का रस लेने का पूरा समय था। पगडंडी के किनारे बहुत सारे पौधे लगे थे किन्तु उनमें एक आकर्षक पौधा था कोई पंद्रह से मी ऊंचा जिसकी दो डालें घूमकर एक वृत्त बना रही थीं और पत्तियां उन डालों से किरणों की तरह बाहर निकल रही थीं। इसमें हरे रंग के साथ-साथ काले रंग के भी धब्बे यहां वहां लगे थे जैसे कि चीते के बादामी बदन पर। पूछने पर पता लगा कि यह पत्ते जहरीले होते हैं। और संभवतः इसीलिए प्रकृति ने चेतावनी के लिए यह काले रंग के धब्बे इसमें लगा दिये हैं। ऊपर नीला आसमान लहरा रहा था। धूप तेज सी लग रही थी किन्तु इतनी नहीं कि बर्दाश्त के बाहर हो। थकान के कारण थोडी-थोडी देर में रुकने की इच्छा होती थी और प्रकृति इसमें पूरी सहायता दे रही थी। कहीं फूल के बहाने, कहीं किसी वृक्ष के बहाने, कहीं किसी पक्षी के बहाने हम लोग बीच-बीच में रुककर चल रहे थे। आसमान में विशालकाय भस्मवर्णी (साइनेरियस) नामक गिध्द उड रहे थे। इनकी गर्दन का रंग भस्म सा नीला होता है और ये लगभग एक मीटर लंबे होते हैं और बीच-बीच में गिध्दराज भी उडते हुए दिखे। गिध्दों का दिखना कोई अपशकुन नहीं मानना चाहिए क्योंकि उनका होना जगल की सफाई का काम बडी मुस्तैदी से होने का द्योतक है।
मुझे मित्र सुरेश शर्मा की छोटी सी कविता याद आ गयी :
हो गया है गिध्द तब से
व्यर्थ में बदनाम, देखो,
आदमी ने आंख में निज
गिध्द को जब से बसाया।
है तभी से भेडिया भी
व्यर्थ में बदनाम, देखो,
आदमी ने भेडिये को
पेट में जब से बिठाया।।
इतने में किसी की आवाज आई, ”अरे बाप रे बिच्छू ने काट लिया”। मालूम करने पर पता लगा कि एक पौधे की पत्ती का उसकी पिंडली से स्पर्श मात्र हुआ था। और वह पौधे की पत्ती इतनी जोर से लगती है कि जैसे बिच्छू ने काटा हो। इस पौधे का नाम भी बिच्छू पौधा है। थोडी ही देर में एक आदमी ने एक दूसरे पौधे से पत्ती तोडक़र उस आदमी को दिया और कहा कि वह उसे उसी जगह पर मल ले कि जहां बिच्छु ने काटा है। और उस पत्ती के मलने से उसे काफी आराम हुआ। कहीं-कहीं बीच में छोटे गांव दिख जाते थे। उनमें ज्यादातर चौलाई या रामदाना की खेती होती है। यह लगभग डेढ मीटर ऊंचा पौधा होता है और इसकी साग खाई जाती है। इसका फल जो निकलता है वह बहुत ही छोटे-छोटे दाने का हल्के सफेद रंग का होता है, जिसके पकवान बनाकर खाये जाते हैं। और यहां के लोग ठंड के दिनों में इसकी रोटी बनाकर खाते हैं क्योंकि यह रोटी उन्हें अच्छी गरमाई देती है। मैदान से व्यापारी लोग एक बोरा धान देकर, बदले मे एक बोरा रामदाना ले जाते हैं। आलू खूब होते हैं। अनाजों में मुंडई नामक अनाज अधिक होता है जिसकी रोटी बनाकर खाई जाती है। यहां कनक भी होती है, गेहूं को यहां मध्यप्रदेश की तरह कनक कहते हैं। सब्जियों में यहां बैंगन, टमाटर, भिंडी, मिर्ची आदि होती हैं। राजमां भी कई जगह पैदा किया जाता है। लेकिन जो पौधे सबसे ज्यादा देखने में आये वह थे भांग के। सारे रास्ते में आधे से अधिक जमीन पर भांग के पौधे लगे हुए थे। बीच-बीच में कहीं धतूरे के पौधे भी दिख जाते हैं। रास्ते में एक विशेष पौधा लगभग तीस से मी ऊंचा जिसका कि फल बहुत ही सुन्दर लाल रंग का होता है दिखा। कहते हैं कि यह फल भालू को बहुत ही प्रिय है अतः इसे भाल पौधा कहते हैं।
गांव से थोडी दूर चढने पर एक सुन्दर पीले रंग के, कुछ अलसी के फूल समान उदास फूल दिखे। इनका नाम फ्यूली है और गढवाल की लोक संस्कृति में इनका विशेष स्थान है। एक लोक गीत की दो पंक्तियां देखिए, ‘कूडा की रेणो डांडू की फ्यूंली छई धार मा सी गंणी। प्रिये तू पर्वत शिखर पर झिलमिल करते तारे जैसी फ्यूंली सी सुंदर है। किन्तु फ्यूंली के साथ बिना बुझी प्यास की, अधखिली आकांक्षाओं की भावना जुडी रहती है, पुराने जन्म की अधुरी लालसा के करुण अवसान का भावपूर्ण प्रतीक है फ्यूंली। कथा ऐसी है कि जब एक सुन्दर लडक़ी अपने प्रेमी से विवाह न कर सकी तो उसने आत्महत्या कर ली और उसकी मिट्टी से ‘फ्यूंली’ के उदास फूल निकले। देखिए एक लोक गीत की कुछ पंक्तियां, ‘फ्यूंली सी कली, कैकी बौराण छ ? घास काटद वणी द गितांग/ स्वामी गेन माल चिट्टी आई नी च/ कनु निरदै होलू जू विसरदू ई तैं।” यह फ्यूंली सी कली किसकी बहु है जो घास काटते काटते गीत गा रही है – ”स्वामी परदेश गए हैं और उनकी चिठ्ठी भी नहीं आई है।” वह कौन निर्दयी है जो इस फूल की कली को भूल गया है।” वृक्षों के प्रति प्रेम और पुण्य की भावना देखिए – ‘परायो डालो और अपणो बालों’ – दूसरे वृक्ष और अपना बेटा – एक समान। ‘नई डाली पैरुयो जामी देवतों की डाली’ – पद्म का नन्हा वृक्ष उगा है, देवताओं का वृक्ष है’। ‘ओंदी रया ॠतु मास/फूलदा रया फूल’ वसंत ॠतु आती रहे और फूल खिलते रहे। कितनी कोमल और सौंदर्यपूर्ण इच्छा है। ऐसी सौंदर्यमय भावनाओं से ओतप्रोत ‘फुलदेई’ (वसन्त) उत्सव में लडक़ियां इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करती हुई गीत गाती हैं, घर घर जाकर। फूलों की ही भांति गढवाली लोकगीतों में पक्षियों के प्रति प्रेम झलकता है। गढवाली में पक्षियों को ‘पोथली’ कहते हैं जिसका अर्थ होता है पुत्रल-पुत्र की तरह प्यारा। फ्यूंली की तरह घूघूती (कबूतर के परिवार का एक पक्षी जिसकी बोली से ‘माँ सोई है’ सरीखी करुण ध्वनि निकलती है) भी नारी के उत्पीडन का प्रतीक है। एक बालिका को उसकी विमाता ने मार डाला, उस बालिका ने दूसरे जन्म में घूघूती का रूप लिया और तब से ‘माँ सोई है’ कहती हुई अपनी माँ के अभाव का दुख व्यक्त करती रहती है। इस तरह लोकगीत गढवाल के जीवन मूल्यों, सुख दुख भरे यथार्थ जीवन को मार्मिक भावपूर्ण अभिव्यक्ति देते हैं। गढवाल आदि क्षेत्रों में हो रहे वनों के विनास के विरोध में सुन्दरलाल बहुगुणा आदि समाज सेवियों ने क्रांतिकारी कदम उठाए हैं जैसे वृक्षों को बचाने के लिए ‘चिपको’ आन्दोलन। महात्मागांधी के आदर्शों के अनुसार ये आन्दोलन सत्याग्रह के रूप में जनता जनार्दन ने किए हैं। जनमानस में आन्दोलन के प्रति चेतना बढाने का कार्य लोक गीतों ने भी किया है। गढवाली लोकगीत एक और अर्थ में जीवन्त हैं। उनमें सनातन मूल्यों के प्रति भावनात्मक रचनाएं तो हैं, अब वे आधुनिक जीवन की मिट्टी, हवा और पानी से भी जुड ग़ए हैं। पर्यावरण प्रदूषण और वनों की बेरहम कटाई के विरोध में जैसे लोकगीत गढवाली में मिले, अन्य लोकगीतों में नहीं मिले। ‘चिपको’ आन्दोलन पर घनश्याम शैलानी रचित लोकगीत दृष्टव्य है :
”खडा उठा मैं बन्धु सब कठा होला,
सरकारी नीति से जंगलु बचौला।
ढेकेदारी प्रथा से जंगल कटीगे
बुरा ऐसी समा काल वर्षा हटीगे
और फिर गीत आगे चलता है –
”चिपको पेडाे पर अब न कटेण द्या
जंगलों की सम्पत्ति अब न लुटेण द्या।”
शैलानी द्वारा रचित लोक गीतों ने चिपको आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया है और ने गढवाली लोकजीवन के सक्रिय अंग बन गए हैं। देखिए शैलानी रचित लोकगीत की एक और बानगी :
आवा धरती सजावा
” ओ हो नई डाली नया बण लगावा
धरती सजावा।
ऽओ हो धरती कू संकट मिटावा
मिली जुलीक आवा।
…………………………
ओ हो अन्न पाणी देण वाला
नदियों का सिर्वाणा
…………………………
आवा पेड बचावा डाली लगावा
धर्म छ हमारो।”
इस लोक गीत में कितनी सुन्दर भावना है – धरती को सजाओ (केवल अपने ड्राइंग रूम या घर को नहीं) वही ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ वाली भावना है, कितने सरल और आत्मीय ढंग से कही गई है। ये सरल लोकगीत उन ऊंची कविताओं से जीवन पर कहीं अधिक प्रभाव डालते हैं जो कविता-संकलनों के अन्दर बन्द रहकर जीवन की खुली हवा से वंचित रहती है।
लोक गीतों के साथ साथ लोक नृत्य-गीतों की भी गढवाल में बडी ज़ीवन्त एवं समृध्द परंपरा है। चौफुला एक प्रसिध्द नृत्य-गीत शैली है जिसमें गुजरात के गरबा, आसाम के बिहू, मणिपुर के रास आदि का प्रभावशाली मेल है। इसी शैली की एक विशिष्ट शैली का नृत्य है मयूर नृत्य जिसे कि महिलाएं बडे उल्लास के साथ करती है। इस नृत्य के साथ गाया जाना वाला एक लोक प्रिय गीत इस प्रकार है :
ह्यूचलि डाडयू की चली हिंवाली ककोर
रंगमतु है, नचण लगे मेरा मन को मोर।
धौली गंगा को छालूं पाणी
भागीरथी का जोल
डेव प्रयाग रघुनाथ मंदिर
नथुली सी पँवोर – ह्यूचली ….
आरू घिंगारू, बांज, बुँरास
सकिनी झका झोर
लखि पाखे बण माँग बिरडी
चकोरी को चकोर – ह्यूचली ….
ड़ांड की रसूली कुलैंई
झुपझूपा चवोर
उचि डाडी चौडंडो बथोऊ
गैरी गंगा भवोर – ह्यूचली …
वसुधारा को ठण्डो पाणी
केदार को ठौर
त्रिजुगी नारैण तख
बद्री सिर मौर – ह्यूचली ….
इसका अर्थ : हिम शिखाओं से जैसे ही हिम की हवा चली, मेरा मन मयूर मस्ती से नाचने लगा। भागीरथी का मटमैला पानी है और धौली गंगा अर्थात अलकनंदा का जल स्वच्छ है। दोनों जब देवप्रयाग संगम पर रघुनाथ जी के मंदिर के पास मिलती है तो लगता है कि (सुन्दरी की नाक पर सुशोभित होने वाली) नथ का पँवोर है। आरू, घिंघारू, बांज, बुराँस और सकिनी पर बसन्त ॠतु छा गई है और ऐसी ॠतु में चकोरी का चकोर खो गया है। पर्वतों में राँसुला चीड, (ऌस रंगीली ॠतु में) इतना खिल गया है कि उसके चँवर बन गए हैं। चारों ओर के पर्वतों से सुंगंधित हवा आ रही है। उधर गंगा में पानी जिस तरह भँवर में घूम रहा है उसी तरह मेरा मन एक ही के चक्कर लगा रहा है। यह धरती बद्री और केदार की है, त्रियुगी नारायण का स्थान है, यहीं वसुन्धरा का ठण्डा पानी है (जो सबकी प्यास बुझाता है, इसलिए मेरी प्यास भी बुझेगी।)
कितना भरोसा है उसे अपने प्रेमी का और उसे आश्वासन देता है पूरा वातावरण। अपने पर्यावरण से कितनी तन्मय है वह प्रेमिका। एक दो और लोक गीतों के उध्दरण का मैं लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं :
हे ऊँचि डाँडयो तुम नीसि जावा,
घैणी कुलाँय तुम छाँटि व्हवा।
मैंकू लगीं चा खुद मैतुडा की,
बाबाजि को देश देखण देवा।।
ससुराल वाले जब अपनी बहू को बसंत के फूलदेई त्योहार में घर नहीं जाने देते तब वह बहू पर्वतों से नीचे होने का तथा चीड क़े घने लदे वृक्षों से छँटने की प्रार्थना करती है कि जिससे वह अपना मायका देख सके। उसे पर्वतों और वृक्षों से इतना प्रेम है और एक ओर उनके सहृदय होने का इतना भरोसा है कि वे उसके निवेदन को मान लेंगे और दूसरी ओर, इससे ससुराल वालों की निठुरता और उसके हृदय का दर्द कितना तेज बन कर सामने आता है।
कालिदास के मेघदूत के ही समान वह अपने प्रियतम के पास मेघदूत भेजती है :
ऊँमा बथाई कलेजा की छाप,
चुचा ले आई ऊँ थई अपणा साथ।
हे मेघ तुम उन्हें अपना काला रंग दिखाकर कहना कि तुम्हारे वियोग में तुम्हारी प्रेयसी का कलेजा भी जलकर काला
हो गया है। और किसी तरह से तुम उन्हें अपने साथ ही ले आना।
जैसे-जैसे हम ऊपर चढ रहे थे वैसे-वैसे दरली, बांज, शाल आदि के झाड ज़ो कि गरम जलवायु में होते हैं कम होते जा रहे थे। वन पीपल जरूर अपनी कोशिश करके लगे हुए थे लेकिन कैल, चीड अौर देवदार वृक्षों की संख्या बढती जा रही थी। बीच-बीच में कहीं कुट्टिम (मेपल) और कहीं भोज पत्र के वृक्ष भी मिलने लगे थे। जहां भी कहीं रास्ते में पानी के झरने मिलते वहां हमें सुन्दर पक्षी देखने को अवश्य मिल जाते। रास्ते में ‘हाऊस स्विफ्ट’ (छोटा घरेलू अबाबील) पक्षी भी दिखे। यह बहुत ही छोटा, यानि गौरेया से परिमाण में आधा, किन्तु बहुत ही चपल पक्षी है। एक सुन्दर पक्षी जिसने सफेद टोपी पहन रखी है, जिसका शरीर गाढे बादामी रंग का था और जिसने गाढे नीले रंग का चोगा पहन रखा था, बडे मजे से पानी के आस पास कीडों को खा रहा था। इस चिडियां का नाम नद चैट या ‘सफेद टोपी चाली लाल दुम’ रैड स्टार्ट है। एक और चिडियां देखने में आई और लगा कि जैसे नद चैट ने अपनी सफेद टोपी शायद नदी में गिरा दी है, इसे सीसई (प्लम्बियस) लालदुम (रैडस्टार्ट) कहते हैं। यहां पानी के पास चैट परिवार की चिडिंयां बहुतायत से मिलती है इनमें एक चितकबरी वैगटेल होती है जिसकी पूंछ सफेद होती है इसकी पूंछ भी काली और सफेद रंग की होती है जबकि सफेद रंग ज्यादा और बाहर की तरफ होता है और जब यह पानी के पास बैठकर अपनी पूंछ ऊपर नीचे बाएं दाएं हिलाती है तो मानो लगता है कि कोई धोबन कपडे धो रही है इसलिए इसे आम भाषा में ‘धोबन चिडियां’ भी कहते हैं। किन्तु सलीम अली चितकबरी खंगटेल को मामूला खंजन कहते हैं और सफेद वैलटेल को धोबन कहते हैं। रास्ते में जब हम एक गांव के पास से जा रहे थे तब एक सेब और फलों के बगीचे में इतने सारे सुंदर पक्षी देखे कि हम वहां चकित से खडे रह गए। जो पक्षी सबसे ज्यादा ध्यान खींच रहा था वह था ‘अग्नि टोपी वल्गलि’ (फायर कैप्ड टिट) एक तो इसने सिर पर जैसे आग रखी थी और रंगों से अपने चेहरे को बहुत ही निराले ढंग से रंगा था, मुझे तो उसका मुंह ऐसा लगा कि जैसे कोई बिल्ली का बच्चा अपने मुंह को यध्दोचित रंगों में रंगकर दुश्मनों को कीडों की तरह चुगने की कसम खाने के लिए सिर पर आग रखे हो। एक और सुन्दर पक्षी जो रास्ते भर हम लोगों को आनन्द देता आया वह था हिमालय (फिंच) कुलिंग यह पीले और हरे रंग का बहुत ही सुन्दर पक्षी होता है जो कि गौरेया से तीन चौथाई होता है। किन्तु सुन्दरता में गौरेया इसका आधा भी नहीं होगी।
रास्ते में लगभग हर दो किलोमीटर पर छोटी-छोटी दुकाने थीं उन में चाय, फलों के रस और खाने के लिए पकौडे या बिस्कुट आदि मिल रहे थे। हम लोगों को रास्ते में एक बार भोजन के अतिरिक्त तीनबार चाय के लिए रूकना पडा। लगभग आधे दूर चलने के बाद पानी की हल्की-हल्की फुहार शुरू हो गई थी। इन पहाडों पर वर्षा ॠतु में आमतौर पर, सुबह साफ होने पर भी, दोपहर के बाद बारिश हो जाती है। इस फुहार से हम लोगों के परिश्रम की गरमी ठंडी हो रही थी और चढने के आनन्द का आयाम बदल गया था। लगभग सभी पक्षी चुपचाप अपने घोंसले में बैठ गए थे। मैं सुस्ताने के लिए, उस बारिश में भी एक पत्थर पर बैठ गया तो देखा कि सामने देवदार के वृक्ष की पीड पर एक पक्षी कुण्डलाकार चढ रहा था और बीच-बीच में रूक-रूक कर अपनी चोंच पीड क़े छिद्रों में लगाता जा रहा था। वह इस काम को इतनी सरलता और कुशलतापूर्वक कर रहा था कि लग गया कि यह एक विशेष पक्षी होना चाहिए, इस रेंगती चाल के कारण यह पक्षी हिमाययी विसर्पी (क्रपिर) के नाम से जाना जाता है।
ध्यान देने की बात यह थी कि गगरिया में गरमी के मौसम में एक बडे ग़ांव से ज्यादा ही आबादी बनी रहती है। किन्तु यहां काफी पक्षी दिखे क्योंकि यहां पर गगरिया से कोई पांच सौ गज की दूरी पर पुष्प हेम गंगा और लक्ष्मण गंगा का संगम होता है और यहां पानी की अजस्र धारा बहती रहती है। एक निराली चिडिया थी – एक कस्तूरी (थ्रश) जाति का नीला पक्षी जिसके पेट का रंग ‘शाह बलूत’ (वेस्टनट) या पाँगर के लाल रंग जैसा होता है इसका नाम पांगर पहाडी क़स्तूरी है। थोडी दूर जाने पर देखा कि एक सुन्दर पीली चिडियां इस ठंड में भी अपनी पूंछ में सुन्दर काला पंखा लगाये बैठी थी। यह पंखा जापानी पंखे सरीखा होता है और इस निराले पंखे में सफेद धारियां होती है। यह पीले पेट काले पंखे वाली चिडियां मक्खियों , पतंगों को खाती है। क्योंकि मक्खी खाने वाली चिडियों की बहुत सी जातियां हैं इसलिए इसका नाम बहुत लंबा है। उनकी जातियों में भेद को बतलाने के लिए इन नामों में कई विशेषण जोडना पडता है इसलिए इस चिडियां का नाम पीत उदर, पंखा पूंछ मक्खी भक्षक है। इस चपल चिडिया के ऊपरी बदन का रंग बादल के समान श्याम होता है। यह चिडिया बहुत ही सुंदर काजल लगाती है जो कि इसके पीले रंग पर बहुत ही शोभा देता है। थोडा और आगे चलने पर एक कबूतर के बराबर पक्षी दिखा जिसकी चोंच पीली थी और रंग गाढा नीला था, किन्तु ऐसा लगता था कि जैसे उसने सफेद धारी वाला बुर्का ओढ लिया हो। उसके पेट में और उसके पंख पर सफेद छींटे बहुत ही सुन्दर लग रहे थे। यह चिडिया भी कस्तूरी (थ्रस) परिवार की थी और अपने नीले रंग और अपने सुरीले गान की विशिष्टता के कारण सीटी वाली नीली कस्तूरी कहलाती है। हमें इस नदी को पार करने के लिए बर्फीली ऊंचाइयों पर अति बिलम्बित लय में बहने (खिसकने) वाले हिमनद के ऊपर से जाना पडा। धवल हिमनद जो स्वच्छ जल वाली नदी को जन्म देते हैं, नदी के जन्मस्थान पर बहुत ही गन्दे दिखते हैं क्योंकि अपने पथ का सारा कूडा करकट साथ में खींच कर ले आते हैं। शायद ऐसी घटना हर जन्म के साथ होती है, यहां तक कि नए विचारों या कविता के जन्म के साथ भी।
अचानक मुझे लगा कि इस सैर में हम लोगों को पक्षियों के दर्शन बडी विविधता और सुलभता से मिले। पहले सोचा कि यह स्थान पुष्पों के साथ साथ पक्षियों से भी खूब सम्पन्न है। कुछ सीमा तक तो यह बात सच हो सकती है क्योंकि पुष्पों की और पक्षियों की सम्पन्नता में सीधा सम्बन्ध है। किन्तु एक और कारण भी समझ में आया। इस सैर में हमारे मित्र सुरेश शर्मा भी साथ थे और वे उडती चिडिया को भी पहचानने में अत्यन्त कुशल हैं और एक कहावत – ”जो जितना अच्छा जानता है, उतना अच्छा देखता है” के अनुसार सुरेश ने ही हम लोगों की पक्षी दर्शन में मदद की। तथा वही बात अब पुष्पघाटी के फूलों के विषय पर एक सीमा तक सटीक है क्योंकि पुष्पघाटी घुमाने के लिए वन विभाग के अधिकारी हमारी मदद कर रहे थे।
जो फूल संख्या में सर्वाधिक थे उनका नाम है पॉलीगोनम। इन फूलों की सुन्दरता बहुत ही सुक्ष्म है क्योंकि ये आकार में बहुत ही छोटे फूल हैं। इस पौधे के सबसे ऊपर एक टहनी से बहुत सारी छोटी छोटी टहनियां निकलती है और उनमें ये फूल ”सम्मुख” रूप से निकलते हैं अर्थात टहनी में एक ही जगह से तीन फूल निकलते हैं और फिर थोडी दूर जाकर फिर तीन और फिर ऊपर जाकर फिर तीन इस तरह से ये फूल बारीकी से देखने पर ही अपनी विशिट सुन्दरता दिखलाते हैं, और दूर से देखने पर इनका बहुत ही हल्का महावरी (मेजैंव) लिए हुए सफेद रंग बहुत ही सुन्दर लगता है विशेषकर कि जब सूरज की किरणों उसे चूमकर आ रही हों।
यह फूल एक तरफ तो अपनी सूक्ष्म संरचना से आग्रह करते हैं और दूसरी तरफ अपनी सख्या से प्रभावित करते हैं। किन्तु थोडी देर के बाद ही जब यह देखा कि इन्हीं फूलों की भरमार है तो जैसे इन फूलों का आकर्षण अपने आप ही पहले से कम हो गया। यह भी क्या विचित्र बात है हमारे स्वभाव में, कि जब कोई चीज हमें बहुत मिलती है तो उसका मूल्य गिर जाता है। खरपरवार का एक गुण यह भी है कि वह अपेक्षाकृत स्वभावतया बहुलता में होता है। दूसरा गुण यह कि वह अन्य वनस्पतियों को दबाकर बढता है। मुझे लगता है कि शायद पालीगोनम खरपतवार का रूप ले रहे हों क्योंकि खरपतवार को भी रोकना आवश्यक होता है और संभवतया वह पुलिस का काम वे जानवर कर रहे थे जो यहां चरने आते थे और अब उनके प्रवेश पर, गलत या सही, प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। इस विषय पर विश्लेषण कर सही निर्णय लेना आवश्यक है।
संगम अर्थात लक्ष्मण गंगा तथा हेम गंगा के संगम के ऊपर नदी का नाम यहां पर पुष्पवती है और इस घाटी का नाम पुष्पवती घाटी है। पुष्पवती नदी में हिमनदों से आशीर्वाद पाकर बहुत से झरने आकर गिरते हैं। अब हम लोग काफी ऊंचाई पर आ गये थे और उस ऊंचाई पर पीले हरे रंग वाला हिमाली कुलिंग (फिंच) बहुत संख्या में मिल रहा था जैसे हम उसके देश में है और अन्य पक्षी बहुत ही कम हो गये थे। चलते-चलते हम लोगों ने एक झरने को लकडी क़े पुल से पार किया। और जैसे ही हम लोग उस पार मुडे तो घाटी की सुन्दरता और भी बढ ग़यी व लगा कि हम वास्तव में फूलों की घाटी में आ गये हैं।
वन विभाग के अधिकारी ने हमें उनके नाम बतलाए और आप चाहें तो उनमें से कुछ के नाम गिना दूं। इंपैशिएन्स हरे फ्रिटिलेरिया, पीले स्नन्कुलस, नीले नोमोचेरिस, लाल-नीले प्रिमुला, नीली पॉपी-मेकोनोप्सिस, महावी पालीगोनम, मनसुख (पैंजी), श्वेत-नीले बोने आइरिस, लाल जिरेनियम, थाइमस, पेंटटयुला, रीअम नोबील, नाग लिली, नीलारुण बालसम, लैला मजनू, (फरगेट मी नॉट), डाएन्थस, कैम्पनुला, भिन्न भिन्न प्रजातियों के रत्नज्योति (एनिमनीज) ज़ामुनी तारक (एस्टर) आदि आदि। इन मुस्कराते फूलों की बहार का आनन्द तो, वास्तव में देखकर ही उठाया जा सकता है। मैं तो इतना कह सकता हूं कि इस विरल ऊंचाई की 18 कि मी क़ी चढाई इस सौंदर्यपन के लिए एकदम सार्थक है।
यद्यपि घाटी में फूल बहुतायत से थे किन्तु घाटी फूलों से पटी नहीं पडी थी जबकि हम फूलों की घाटी के विषय में फ्रेंक स्माइथ या कर्नल एडमंड स्माइथ आदि के वर्णन पढते हैं तो यह बिल्कुल साफ सामने आता है कि उनके जमाने में यह निराली घाटी फूलों से पटी पडी थी। वे तो उत्तराखंड के हिमालय की सारी घाटियों को जानते थे और सभी घाटियों में सुन्दर फूल बहुतायत से होते हैं, तब इन्होंने इस घाटी के विशेष सौंदर्य का वर्णन किया था तथा फ्रैम्कस्माइथ ने इसे ”फूलों की घाटी” नाम भी दिया था। और भी लोगों से बातचीत करने से मालूम हुआ कि विगत कुछ वर्षों से फूलों में काफी कमी आ रही है, जबकि सरकार ने इस घाटी को बचाने के लिए जानवरों को चरने पर सफल प्रतिबन्ध लगा दिया है, तभी भी फूलों की घाटी का लावण्य कम होता जा रहा है। इस प्रतिबन्ध पर पुनर्विचार आवश्यक है।
एक छोटी सी घाटी में कितने प्रकार के फूल – सब की सुन्दरता अपनी अपनी, रंग बिरंगे, रूप अलग अलग। यह मैंने गौर किया कि पुष्प घाटी में जब हम फूल देखते हैं तब उन्हें घाटी के फूल के रूप में देखते हैं। अलग थलग नहीं देखते, ये सारे फूल घाटी की शोभा बढाते हैं – वे घाटी के फूल हैं – अलग थलग गमलों में मात्र अपने व्यक्तिगत सौंदर्य का प्रदर्शन करने के लिए नहीं लगाए जाते। और भी कि घाटी की सुन्दरता का आनन्द लेने के लिए पंजाब से, बंगाल से, केरल से, मणिपुर से, गुजरात से कितने दूर दूर से लोग आते हैं।
वास्तव में कुछ फूल अभी भी इतने सुन्दर बिछे हुए लगते हैं मानों देवताओं ने उनकी वर्षा आकाश से की हो और अपने अमृत्व व देवत्व के कारण से फूल यहीं लग गये हों। गढवाल के लोगों का वास्तव में ऐसा ही पूर्ण विश्वास है। इनका विश्वास है कि लक्ष्मण मेघनाद के शक्ति अस्त्र जब मूर्च्छित हो गए थे तब हनुमान जी उन्हें लंका में न छोड, ऌसी नंदनकानन में ले आए थे और जब लक्ष्मण की मूर्च्छा संजीवनी बूटी से दूर हुई थी तब देवताओं ने यहां आकर पुष्प वर्षा की थी। उन्हीं दिव्य पुष्पों के बीज यहां जम गए और नंदनकानन के फूल आज तक हमें हनुमान जी के दिव्य गुणों की याद दिलाते हैं।
जोशी मठ आते-आते हमें कुछ और नये पक्षी दिखे जिनमें एक था काँस्य (ड्रैंगो) भुजंगा जिस की अधिकतर जातियां गाढे क़ाले रंगों की होती है (इसलिए नाम भुजंगा), किन्तु दो तीन जातियों के रंग कुछ हल्के ही होते हैं। बुलबुल की भी दो नई जातियां देखने को मिली। एक तो हलके कत्थई रंग के कान वाली बुलबुल और लाल मूंछ वाली बुलबुल। आमतौर पर मैदानों में लाल पूंछ वाली बुलबुल सफेद कपोल वाली बुलबुल और लाल मूंछ वाली बुलबुल देखने को मिलती है। बुलबुल के स्वर ने हमें आकृष्ट किया। बुलबुल के स्वर में जैसे चांदी की सी गूंजने की ध्वनि निकालती है जो बहुत ही मधुर लगती है और सचमुच वह ‘ठनक’ किसी अन्य पक्षी की आवाज में नहीं। इसी तरह कबूतर में भी हमने एक नई जाति देखी वह है बादामी कच्छप कबूतर (रुफस टर्टल डव) इनके नाम में कच्छप विशेषण यह बतलाता है कि इनके पंखों में काले रंग का जो चौखना होता है वह कच्छप की पीठ पर बने चौखानों से थोडी समानता रखता है। यह आम कच्छप कबूतर (टर्टल डव) की अपेक्षा गाढे रंग का होता है और इसकी लंबाई भी उसके 28 सें मी क़े बजाय 33 सेंटीमीटर होती है। कबूतर के बारे में मैंने एक बात गौर की कि मैं हिन्दुस्तान के एक कोने से दूसरे कोने में कहीं भी गया हूं मुझे कबूतर के परिवार का कोई न कोई पक्षी हमेशा देखने को मिलता है। यहां तक कि लगभग 4000 मीटर की ऊंचाई पर, गोमुख जैसे बर्फीले स्थान पर मात्र दो परिवार के ही पक्षी दिखाई दिए। एक तो पीली चोंच वाला चीनी कौआ (यलो बिल्ड चुग) और दूसरा स्लेटी रंग का पहाडी क़बूतर (हिम पिजन) इस परिवार में अपने आप को पर्यावरण के अनुकूल (एडाप्ट) करने की बडी अच्छी योग्यता होती है फिर क्या आश्चर्य कि इसे शांति का प्रतीक मानते हैं। उतरते समय प्रवासी पाषाण चैट भी देखने को मिली। इसका रंग साधारण पाषाण चैट के रंग की अपेक्षा कम हल्का होता है। चैट चिडिया चपल और चुस्त होने के कारण विशेषरूप से आकर्षित करती है।
पुष्पघाटी से लौटने के बाद जोशीमठ पहुंचकर, सुरेश शर्मा ने एक कविता लिख डाली थी और उस शाम जब सुनाई, तब मुझे बहुत पसंद आई :
तुमसे बतियाना
तुमसे बतियाना
मरुस्थल का
एकाएक हरा हो जाना है
लू थपेडों के मैदान में
सघन पीपलों का गुनगुनाना है
तुम्हारे साथ बीता हर एक पल
आकाश का दर्पण ही नहीं
एक उछलती मछली की जान भी है
तुमसे बतियाना
कलैण्डर की उस तारीख का फूल बन जाना है
घडी क़ी सुइयों का खिलखिलाना है
उसके बाद भी देर तक
मेरे अन्दर में उग आए
कमल पत्तों पर
जल मोरों का थिरकना है
तुम्हारा मुझे पुकारने का अर्थ है
मेरे शब्द कोष में
नाचते मेघों तलेरिमझिम संगीत लिए
पोखर का झील बन जाना
गेहूं की पकी फसलों का
सुनहरी झील बन जाना
तुमसे ही संभव है
तुम्हारा मुझे देखना
हंसों, हंसावरों, सुरखाबों से भरे
अभयतालों का
रोम रोम में खिलते जाना
तुमसे ही संभव है
पथराते आदमी में
हिरणों का पुनः चौकडी भरना
तुम्हारी छुअन से ही संभव है
मेरे जिन्दा रहने की लालसा
तुम्हारे ओठों पर चहचहाती ललमुनियों के
निरन्तर उडते रहने से ही
संभव है।
लौटते समय जोशी मठ में जहां मैं ठहरा हुआ था वह मकान सडक़ के लगभग 60 सीढियों ऊपर था। पहाड में ऐसा होना कोई अचरज की बात नहीं। मैंने देखा कि माँ बेटी सुबह आठ बजे ही घास का गट्ठर लादे ऊपर जा रही थीं और उनका मकान मेरे मकान से भी ऊपर था। उनके गुलाबी चेहरे पर हल्के स्वेद कण चमक रहे थे और थकान के स्थान पर तोष का भाव झलक रहा था। मैं उनके घर गया और औपचारिकता के बाद मैंने लडक़ी से पूछा कि गट्ठर वह कितनी दूर से लाई थी ? तब उसने मुझे सामने की पहाडी में एक हरा भरा हिस्सा दिखलाया। निश्चित रूप से वह हिस्सा कोई 5-6 किलोमीटर दूर होगा। जब मैंने उनसे उस घास का वजन पूछा तो उन्होंने केवल मुस्करा दिया और कहा कि जितना बन सकता है वह उतना ही वजन ले आती है। मेरे अनुमान से प्रत्येक गट्ठर 30 कि ग़्रा क़े आसपास होगा। उन्होंने बतलाया कि वे अधिकतर सुबह 6 बजे ही पहाड पर पहुंच जाती हैं और कोई आधा घंटा काटने के बाद यह गट्ठर लाती हैं। चूंकि गर्मियों में पहाडों में घास सूख जाती है इसलिए बरसात और पतझड क़े मौसम में घास काटकर रखना जरूरी हो जाता है। लडक़ी के बात करने के ढंग से लग रहा था कि वह पढी लिखी थी। इसलिए मैंने उससे पूछा कि वह क्या पढ रही है, तो उसका जवाब सुनकर मैं दंग रह गया। उसने मुस्कराते हुए शांत स्वर में कहा, ‘एम ए पॉलिटिकल साइंस’। मैंने उसे अचरज भरे स्वर में कहा कि तुम्हें एम ए क़रने के साथ यह काम भी करना पडता है तो उसने मात्र मुस्करा दिया। फिर मुझे उन्होंने अपने घर के अन्दर बुलाया और मैंने देखा कि आम तौर पर दिखने वाले मकान के विपरीत उनका मकान बहुत ही साफ सुथरा था।
तेजी से आधुनिकीकरण करने के जो परिणाम हैं उनमें एक ओर तो घाटी और पहाड क़ी सुन्दरता का तेजी से ह्रास हो रहा है तथा परिणामस्वरूप पर्यावरण का संतुलन बिगड रहा है और दूसरी ओर लोगों में असंतोष, आपाधापी और भोग संस्कृति के घातक परिणाम फैल रहे हैं।