मैं लैकंसिग्टन एवेन्यू की अड़तालीसवीं सड़क पर ठहरा था। विद्याभवन से थका-हारा लौटा। जल्दी थी इसलिए टैक्सी ली। मगर टैक्सी वाले ने होटल के दरवाजे तक छोड़ने से साफ इनकार कर दिया। वह भारतीय था और मेरे प्रति सहृदय भी। बोला, ‘‘लाचार हूं। कोई गाड़ी उस सड़क पर नहीं जा पा रही।’’ वजह यह थी कि सामने के वाल्डोर्फ-एस्टोरिया होटल में अमेरिका के राष्ट्रपति- माइकल मूर के शब्दों में दुनिया के सबसे जड़मति राजनेता- जॉर्ज बुश ठहरे हुए थे। वे संयुक्त राष्ट्र की बैठक के सिलसिले में वहां थे और आने-जाने के लिए होटल के पिछले द्वार का इस्तेमाल करते थे जो हमारे होटल के ठीक सामने था। उनकी आमदरफ्त से घंटों पहले सड़क दूसरे वाहनों के लिए बंद कर दी जाती थी।
तो फिर पैदल हुआ। कमरे में पहुंचते ही निढाल। थोड़ी देर बाद कलाई ऊपर कर आंखें खोलीं। सवा चार बजे थे। सवा चार! चोट के दर्द की तरह घड़ी की सुइयों का अर्थ थोड़ा देर से पल्ले पड़ा। बिजली की गति से उठ खड़ा हुआ। ताजादम होने के लिए मुंह पर छींटे मारने में भी वक्त जाया होता लगता था। फौरन लिफ्ट पकड़ी। तेज रफ्तार में तीस माले नीचे उतरती लिफ्ट की गति इतनी निर्लिप्त थी कि शंका होती थी कहीं ठहरी हुई तो नहीं है। बहरहाल, लिफ्ट से लॉबी और लॉबी से फिर सड़क पर। लक्ष्य किया, मेरे पास बमुश्किल चालीस मिनट हैं।
सड़क पर पुलिस ज्यादा थी, लोग कम। टैक्सी लेने पता नहीं कहां तक जाना पड़े। टैक्सी के लिए मैनहटन में कतार लगती है। भूतल गाड़ी (मेट्रो) टेढ़े-मेढ़े जाएगी। दो बार बदलनी भी पड़ेगी। मैंने देखा बुश की रक्षा में तैनात नीली वर्दीधारी तमाम पुलिस वाले बदलती शिफ्ट के वक्त ‘ओवरटाइम’ की पर्चियां भरने में लगे थे। एक ने मुझे अनुग्रह पर मोमा तक पहुंचने का रास्ता सुझाया और पैदल चल निकलने की सलाह दी। पैदल चलना मुझे सुहाता है। परदेस में हरदम सैर के जूते भी गांठे रहता हूं। लेकिन वक्त उलटी गिनती गिन रहा था। मैं चल पड़ा। थोड़ी देर में लगा चलने और दौड़ने का फर्क पट गया है। इसका भान तब हुआ जब हांफने लगा। जैसे राहत देने के लिए किसी राष्ट्राध्यक्ष का काफिला रास्ते पर कुछ देर के लिए थम गया। बगल में कुछ इमारतों का संयोजन फोटो के लिहाज से मुकम्मल जान पड़ता था। पर भीतर मन फुसफुसाया, यह सब लौटने पर!
कमोबेश पंद्रह मिनट में चार सड़कें पार कर मोमा के दरवाजे पर था। भीतर टिकट काउंटर पर बैठी युवती मुझ बदहवास को देखकर जैसे हैरान थी। मैंने पैसे के साथ सफाई पेश करते हुए कहा कि कल तड़के कैलिफोर्निया निकलना है। काफी समय बाद यहां हूं। सोचा एक दफा मोमा हो आऊं तो मन में तसल्ली रहेगी। पांच बजे यह बंद हो जाता है, सो दौड़ते-भागते पहुंचा हूं। इसमें थोड़ा आपके राष्ट्रपति का भी कसूर है। मेरे मजाक को उसने अपनी जिज्ञासा में ढांप लिया: इतनी देर में आप यहां क्या देख लेंगे? मैंने मुड़ते हुए कहा- सिर्फ एक तस्वीर! फिर लगी सांस यह भी बता दिया कि यों यहां मैं पहले कई दिन बिता चुका हूं। आज सिर्फ एक तस्वीर का बुलावा है। उसने मेरी सारी हड़बड़ाहट को सुखद मोड़ देते हुए कहा: तब उसे आप आराम से देख सकते हैं- आज मोमा पांच नहीं, साढ़े पांच बजे बंद होता है! वह अब मुस्कुराई और मैंने सोचा जिसे रूखी और कामकाजी समझे था, वक्त के रहस्य को उसने कैसे विनोद में बताया कि मैं सहज हो गया। इत्मीनान से अपनी सबसे पसंदीदा कलाकृतियों में एक, वान गॉग की ‘स्टारी नाइट’ (तारों छाई रात), एक बार फिर देखने के लिए।
कलाओं में यह चित्रकला की ही खूबी है कि वह जहां है, आपको वहां जाकर उसके रूबरू होना पड़ता है। साहित्य या सिनेमा की बड़ी से बड़ी कृति आप अपने घर ला कर देख-पढ़ सकते हैं!
मोमा (म्यूजियम आॅफ मॉडर्न आर्ट) में कोई डेढ़ लाख कलाकृतियां हैं। 1941 से, जब संग्रहालय ने विन्सेंट वान गॉग की कुछ कृतियां हासिल कीं, ‘स्टारी नाइट’ यहां की मशहूर कलाकृति है। न्यूयॉर्क शहर में चाहे जितनी धड़कन हो, मेरे लिए उसका दिल इस एक कृति में धड़कता है। ठीक वैसे जैसे पेरिस का तसव्वुर करते ही मन में विंची की ‘मोनालिसा’ या मैड्रिड के नाम से पिकासो की ‘गेरनिका’ की छवि उभरती है। इसका मतलब यह नहीं कि मोमा में पिकासो या मातीस की तरफ ध्यान नहीं जाता या अपने अत्यंत पसंदीदा पॉल क्ले, गुस्ताव क्लिम्ट और होन मीरो को फिर-फिर नहीं देखता। लेकिन संग्रहालय पर ताला पड़ने की घड़ी में महज एक कृति को देखने की मोहलत मिले तो चुनाव मेरे लिए मुश्किल नहीं।
यह बात उस रोज शिद्दत के साथ महसूस की।
दुनिया में वान गॉग के मुरीदों की कमी नहीं है। कुछ को उनका काम अपनी तरफ खींचता है, कुछ को रोमांचक जीवन लीला। डॉन मैक्लीन की कविता हो या इरविंग स्टोन का उपन्यास, फिलिप स्टीवंस का नाटक हो या जैफरी आर्चर की रहस्य-कथा या अकीरा कुरोसावा, विन्सेंट मिनेली, पॉल कॉक्स और मॉरिस पालिया की फिल्में। सबने अपने-अपने ढंग से वान गॉग को याद किया है। यह अब निर्विवाद है कि मानसिक रूप से उद्वेलित जिस शख्स ने जीवन दूसरों की कलाकृतियां बेचने के साथ शुरू किया; विरह वेदना में धर्म प्रचारक बना; अठाईस साल की उम्र में जाकर प्रभाववाद (इंप्रेशनिज्म) के असर में कलाकर्म में दतचित्त हुआ; दस वर्ष में अठारह सौ चित्र और रेखाचित्र- यानी हर दूसरे रोज एक कृति- बनाने के बाद गोली खाकर मर गया। उस एक शख्स के छोटे-से कला जीवन ने आने वाली कला-प्रवृत्तियों का नक्शा ही बदल दिया।
वान गॉग ने जीवन मुफलिसी में काटा। छोटे भाई थियो का अनवरत सहारा न होता तो अवसाद में वे शायद जल्दी बर्बाद हो जाते। हालांकि पेरिस में कला के व्यापार में मशगूल होते हुए भी थियो अपने भाई के जीते-जी सिर्फ एक कृति बिकवा सके। ‘रेड विनयार्ड’ (लाल अंगूरबाग) चार सौ फ्रांक में बिकी। लेकिन मृत्यु के बाद वान गॉग के नाम पर ऐसा बाजार पनपा कि उसकी शायद मिसाल न मिले। कुछ ही साल पहले, 1998 में, उनकी एक कृति ‘पोर्ट्रेट आॅफ डॉ. गाशे’ (डॉ. गाशे की शबीह)- जो गॉग ने मृत्यु से छह महीने पहले बनाई थी- जापान के एक रईस रयोई साइतो ने सवा आठ करोड़ डालर (करीब चार अरब रुपए) में खरीदी। कला के इतिहास में किसी कृति का इतना मोल कभी नहीं मिला। न्यूयॉर्क में क्रिस्टी की नीलामी में कलाकृति हासिल करने के बाद साइतो ने कहा, ‘‘मुझे शबीह सस्ते में मिल गई।’’ यानी कृति के लिए उसकी और ऊंचा दाम देने की तैयारी थी!
बाजार अपनी जगह, वान गॉग की रेखाएं और रंग आज समूची दुनिया के कलाकारों को प्रेरित करते हैं। कई कला-प्रवृत्तियां आर्इं और चली गर्इं। वान गॉग का काम पुराना नहीं पड़ता। वे अधुनातन बने रहते हैं।
उत्तर-प्रभाववाद की कोख से जिस अभिव्यंजनावाद (एक्सप्रेशनिज्म) का जन्म हुआ, उसकी बुनियाद में देखी जाने वाली कृतियों में वान गॉग की ‘स्टारी नाइट’ अहम है।
प्रो. रामू गांधी से मेरी इस पर लंबी बात हुई कि वान गॉग की सबसे उम्दा कृति कौन सी है। उन्होंने गॉग की बहुत सारी कृतियां देखी हैं। एम्सटरडम और पेरिस आदि के विशिष्ट वान गॉग संग्रह मैंने भी देखे हैं। रामू ‘वीटफील्ड विद क्रोज’ (गेहूं के खेत पर कव्वे) को अव्वल बताते थे। उस पर कौन फिदा नहीं! लेकिन मैंने कहा, ‘स्टारी नाइट’ निरा लैंडस्केप नहीं है। उसके निहितार्थ सघन हैं। हालांकि यह उधेड़बुन अपने में कोई मायने नहीं रखती कि कौन-सी कृति किस पर भारी है, पर जब आप बार-बार कुछ चीजों का सामना करते हैं तो कभी निरर्थक सवाल भी नए अर्थों की परतें खोलने में मददगार साबित होते हैं।
वान गॉग होने का मतलब रोशनी के सैलाब में रंगों को नया अर्थ देना है। यों उनकी रेखाएं बहुत सधी हुई थीं। आकृतियों में जान थी। अनेक रेखाचित्र महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं। अपने वक्त में उनकी कृतियों की विषय-वस्तु भी अनूठी थी। जब उनके प्रभाववादी प्रेरणा-स्रोत ज्यादातर अमीर स्त्रियों और निजी उपवनों के चित्र बनाते थे, गॉग के कैनवस पर किसान, खेत, गांव, श्रमिक, आलू खाते गरीब, अनाज, पुआल, पनचक्की, आसपास की छोटी चीजें और ‘छोटे’ लोग उतरते थे। यह उनका सहज विकसित हुआ मानववाद था। लेकिन जीवन और प्रकृति की उन सारी कृतियों में रंग रोशनी से खेलते थे। ऐसे चमकदार और जानदार रंग उनसे पहले शायद ही बरते गए हों।
याद करें पेरिस में थियो का घर छोड़कर जब गॉग ने दक्षिण फ्रांस के प्रोवोंस इलाके की तरफ मुंह किया तो दरअसल वहां की रोशनी उन्हें अपनी तरफ खींच रही थी। वे आर्ल में बसे। हालांकि दस महीने में उनके दिमाग का संतुलन वहां फिर हिल गया। उन्हें बगल के सां-रेमे चिकित्सालय में भरती होना पड़ा। लेकिन प्रोवोंस में दस महीने में उन्होंने दो सौ से ज्यादा कृतियां बना डालीं। इसमें अनेक कलाकृतियां आगे जाकर अमर साबित हुर्इं। मानो उनके कलाकर्म ने आर्ल में ही सिद्धि पाई। प्रभाववादी छाया से वे बहुत दूर निकल आए। सूरजमुखी, रात में कैफे, प्रोवोंस में फसल और सूर्यास्त में बोआई उसी वक्त की कृतियां हैं। उनके नायाब आत्मचित्र भी।
थियो और अपनी बहन के नाम उन्होंने अनगिनत पत्र लिखे। उनमें उन्होंने कहीं लिखा है: ‘‘मैं जब चित्र बनाता हूं तभी पूरी तरह स्वस्थ होता हूं, उसके आगे-पीछे नहीं।’’ उनके पत्रों में जीवन और कला का बारीक विवेचन है। लेकिन पत्रों में रंगों के मनोविज्ञान की व्याख्या में गॉग बेजोड़ ठहरते हैं। आज जब पत्र भी लोग भविष्य में छपने की गरज से लिखते हैं, यह अंदाजा लगाना मुश्किल होगा कि दो भाई एक ईमानदार कला-विमर्श में कैसे जीवन होम कर गए।
जब कभी वान गॉग का खयाल करता हूं, सामने हमेशा पहले उनका दिव्य पीला रंग उभर आता है। आर्ल को याद करने पर भी।
चार साल पहले अपनी आंखों आर्ल देखने का मौका मिला था। किसी गोष्ठी के सिलसिले में इटली के मिलान शहर में था। वहां से रेलगाड़ी में बैठकर दक्षिण फ्रांस के महानगर लियों पहुंचा। फिर आविन्यो और वहां से बस पकड़ कर आर्ल। बस रुकने से पहले ही ताड़ गया था कि हर हाल में यह आर्ल है। आर्ल इस तरह न पहचाना जा सके तो समझें वान गॉग को देखा नहीं। सूरजमुखी के खेत। जैतून के पेड़। कड़ी धूप। वह भूमध्य सागर के किनारे का इलाका है और उत्तरी हवाएं खूब तेज बहती हैं। यही कारण है कि वहां का परिवेश नितांत पारदर्शी है। हवा बादलों को बहा ले जाती है। साफ मौसम में रंग अपनी चरम आभा में खिलते हैं। धूप उन्हें कभी पैना करती है, कभी खुरदरा।
प्रकृति गॉग को अजीज थी। घर से बाहर निकल कर चित्र बनाते थे। आर्ल प्रकृति के सौंदर्य का खजाना है। रोमन साम्राज्य के खंडहरों के बीच ऊंघता शहर, सड़क पर पसरा बाजार, रोन नदी, पनचक्कियां और पुल। पुल की कृति ‘पों लेंगुआ’ की प्रसिद्धि को देख स्थानीय पालिका ने उसका नाम ही ‘पों वान गॉग’ कर दिया है। साक्षात इन दृश्यों को देखने के बाद आप गॉग की कृतियों को देखें तो अनुभव होगा कि उनका काम कोरा प्रकृति-चित्रण नहीं है। वे दृश्य के पार ले जाते हैं। जापानी कला से वे बहुत प्रभावित थे। आर्ल में वे अपने काम में जापानी कूची (रीड पेन) का इस्तेमाल करने लगे। भारी कूची के साथ गाढ़े और चपल रंगों में दृश्यों के पीछे उन्होंने अपना अर्थ खोजा। कृति की विषय-वस्तु को नया अर्थ दिया। मसलन अपने घर (यैलो हाउस) के चित्र ‘द स्ट्रीट’ (रहगुजर) में पीले रंग की स्वर्णिम आभा में छाई उदासी जो घर की बंद खिड़कियों, लगभग सूनी सड़क और गहरे नीले आकाश के विस्तार में उजागर होती है। जैसे सूनेपन में गॉग अपने एकांत, संत्रास और आत्म-निर्वासन को टटोल रहे हों, महज गली के मोड़ पर बने घर को नहीं।
लेकिन ‘स्टारी नाइट’ उनके बाकी काम से बहुत अलग कृति है। मनोरोग के इलाज के लिए वे सां-रेमे के आश्रम में थे। बाहर जा नहीं सकते थे। काम अपनी तरफ बुलाता था। ऐसे में कमरे के भीतर ‘स्टारी नाइट’ की रचना हुई। उनकी लगभग हर कृति की चर्चा पत्रों में मिलती है, ‘स्टारी नाइट’ की नहीं। उसके लिए एक पत्र में सिर्फ इतना हवाला है कि यह कुछ ‘‘अलग’’ (न्यू स्टडी) काम हुआ है।
तारे वान गॉग को पहले से आकर्षित करते थे। और रात भी। एक बार तीन रातें जाग कर खुले में एक तस्वीर बनाई। रात का आकाश तब आज की तरह शहरी रोशनी और धुएं से आहत नहीं था। 8 सितंबर, 1888 के एक पत्र में गॉग लिखते हैं: ‘‘मुझे कई दफा लगता है कि दिन के मुकाबले रात के रंग ज्यादा सघन होते हैं। बैंगनी, नीले और हरे रंगों की उत्कट रंगतें लिए हुए।’’ हालांकि रात की तस्वीरें उन्होंने कम बनार्इं, लेकिन जो बनीं वे सब खूब चर्चित हुर्इं। ‘कैफे टैरेस एट नाइट’ (रात में कैफे) उन्होंने मोपासां के उपन्यास ‘बेल-आमी’ में एक कैफे के वर्णन से प्रेरित होकर बनाई थी। पर उस कृति में आकाश के मुकाबले रोशनी में नहाई पाल का पीला रंग प्रबल था। ‘स्टारी नाइट ओवर द रोन’ (रोन नदी पर तारे) में रात का रंग जादू की तरह सर चढ़कर बोलता था। झिलमिल तारों के साथ नदी तट पर गैस की बत्तियां प्रकृति से नए दौर के रिश्ते का दिलचस्प खाका खींचती थीं। ये दोनों कृतियां 1888 में बनाई गर्इं। इसके कोई एक साल बाद सां-रेमे में ‘स्टारी नाइट’ की रचना हुई। इसका शीर्षक गॉग को शायद वाल्ट विटमेन की कविता ‘फ्रॉम नून टु स्टारी नाइट’ में सूझा हो। विटमेन को वे चाव से पढ़ते थे। बहन के नाम लिखे एक पत्र से इसका पता चलता है, जिसमें उसे वह कविता पढ़ने की सलाह है।
मोमा की चौथी मंजिल पर मशीनी सीढ़ियों को लांघ कर दाएं मुड़े तो पहले ही हॉल में ‘स्टारी नाइट’ प्रदर्शित है। लेकिन इससे पहले हमें गॉग की दूसरी प्रसिद्ध कृति दिखाई पड़ती है- कार्ल मार्क्स की सी दाढ़ी वाले डाकिए जोसेफ रूलां का पोर्टेÑट। ‘स्टारी नाइट’ पॉल गोगां- जिनके साथ आर्ल में गॉग हिंसक होकर झगड़े- की कृतियों के साथ एक बड़ी दीवार पर टंगी है। ‘स्टारी नाइट’ को देखने अक्सर दर्शकों-छात्रों के समूह आते हैं, शायद इसलिए उसे अपेक्षया चौड़ी जगह पर रखा गया है। मुझे लगा ऐसी कलाकृति के लिए कमरा नहीं तो अलग दीवार जरूर होनी चाहिए थी। न्यूयॉर्क जैसे शहर में जगह की किल्लत होगी। फिर कोई संग्रहालय अपनी तरफ से किसी कृति को दूसरों से कम या ज्यादा क्यों ठहराए!
वहां पहुंचा तब किसी समूह को एक कला-विशेषज्ञ कलाकृति की बारीकियां समझा रही थी। उनके हटने के बाद वहां सिर्फ मैं था और कलाकृति। निहारते हुए मैं कृति के एक हिस्से को गौर से देखने के लिए फ्रेम के थोड़ा और नजदीक हुआ तो दूर खड़ी गार्ड ने बरजा, ‘‘दो फीट दूर! दो फीट!’’ मैंने फुर्ती से कदम पीछे किए। उस हॉल के तीन दरवाजे हैं और तीनों पर एक-एक गार्ड तैनात रहता है। हालांकि यह सुरक्षा मैड्रिड में ‘गेरनिका’ की सुरक्षा के मुकाबले कुछ भी नहीं। बहरहाल, कृति आराम से देख लेने के बाद मैंने दोनों कैमरे संभाले। फिर दूर से गूंजती आवाज आई, ‘‘नो मूवी कैमरा, प्लीज!’’ इस कायदे का तर्क मेरी समझ में नहीं आया। आखिर अचल कैमरों में भी आजकल ‘मूवी’ का प्रावधान रहता है! दूर खड़ी गार्ड कैसे जानेगी कि फोटो खींचा जा रहा है या फिल्म उतारी जा रही है?
पर बहस करने का न वक्त था न फायदा। दूसरे, आप कितनी ही सुंदर तस्वीरें उतार लें, मेरा मानना है कि अच्छी से अच्छी तस्वीर और छपाई भी किसी कलाकृति के मर्म तक नहीं पहुंचा सकती। वह अपनी आंख के देखे ही पकड़ में आता है।
जैसे ‘स्टारी नाइट’ में रंगों के थक्के। उनके प्रवाह में रंगों की परतें। रंगों का पोत। गौर करें गॉग की और कृतियां यथार्थ का साक्षात चित्रण थीं, यह कृति उनकी स्मृति थी। बल्कि स्मृतियों का समुच्चय। सां-रेमे जैसा गांव। लेकिन बीचोबीच गॉग के अपने वतन हॉलैंड का सा चर्च। पीछे पहाड़। बार्इं तरफ किसी लपट-सा मोरपंखी (साइप्रस) पेड़। धरती से आकाश को एक करता हुआ। कृति के आधे से ज्यादा हिस्से में पसरा हुआ आकाश। बादलों से बादलों का टकराना। उनकी घुमड़न। ग्यारह तारे। जैसे तारों की बारात। अपनी पूरी आभा में दमकता चांद। आकाश, खासकर रात, का यह सौंदर्य अलौकिक है। किसी कैनवस पर ऐसी रात आपने शायद पहले न देखी हो।
गाढ़े और गहरे रंगों में वहां आकृतियां परत-दर-परत रूप लेती हैं। हम हैरान होते हैं कि नीला इतना बैंगनी क्यों है। पीला इतना उजला क्यों। तारों में रंगों के तीव्र और चक्रांत स्पर्श बिजली जैसी तरंग पैदा करते हैं। एक पत्र में गॉग ने लिखा है, ‘‘आज भोर से पहले अपनी खिड़की से गांव देखा। सिर्फ एक तारा, जो बहुत बड़ा जान पड़ता था।’’ कयास है वह शुक्र तारा रहा होगा। ‘स्टारी नाइट’ में छोटे-बड़े तारों के नीचे गॉग ने शायद उसे चित्रित किया है। उस तारे की सफेद कौंध चांद की पीली चमक से होड़ लेती है। चांद और तारों के बीच लगता है बादलों की दहाड़ गगन की निश्चलता को झकझोर रही हो। कभी लगता है सितारों की आतिशबाजी हो और जवाब में बादलों का तुमुल घोष। कभी पूरी कायनात का डोलना, जैसे प्रलय का कोई नाद। प्रकृति के द्वंद्व और ऊर्जा के इस झंझावात के ठीक नीचे धरती पर पूरा गांव सोया है। चर्च में अंधेरा है। हर तरफ शांति छाई है। या कहें सन्नाटा। किसी भी महान कृति की तरह आप ‘स्टारी नाइट’ को कई तरह, कई अर्थों में देख सकते हैं। उसके सौंदर्य, रंगाघात से पैदा होते द्वंद्व और विषम रूपाकारों से उपजती बेचैनी की तुलना शायद हम गॉग की अंतिम देन ‘गेहूं के खेत पर कव्वे’ से ही कर सकते हैं।
धरती और आकाश के रहस्यधर्मी वैषम्य के पीछे लोगों ने वान गॉग की विचलित मानसिक स्थिति देखने की कोशिश की है। खासकर मोरपंखी पेड़ के धरती से आकाश की तरफ खिंचने की भंगिमा देखकर। पश्चिम में यह पेड़ शोक का प्रतीक है। कब्रिस्तान में ज्यादा पाया जाता है, इसलिए उसे मृत्यु से जोड़कर देखा जाता है। हो सकता है, इस रूपायन में ऐसी कोई छाया हो। लेकिन इस बात के कई प्रमाण हैं कि वान गॉग ने मृत्यु को भय के नजरिए से नहीं, सम्यक दृष्टि से देखा। ‘रोन नदी पर तारे’ कृति के सिलसिले में थियो को लिखे एक पत्र में वे लिखते हैं- ‘‘तेरस्कों या रूआं जाने के लिए हमें रेलगाड़ी का सफर करना पड़ता है और तारों तक पहुंचने के लिए मृत्यु का।’’
‘स्टारी नाइट’ की रचना के अगले ही बरस, सिर्फ सैंतीस साल की उम्र में, विन्सेंट वान गॉग ने दुनिया से विदा ले ली। छह महीने बाद थियो की भी मृत्यु हो गई। आॅवेर में दोनों भाइयों की कब्रें अगल-बगल हैं। उस कब्रिस्तान में चारों तरफ सूरजमुखी के फूल उगाए गए हैं।
हताश वान गॉग ने लिखा था, दुनिया कभी मानेगी कि मेरी कृतियों का मोल कम से कम उस रंग से ज्यादा है जो मैंने अपने काम में बरते हैं। भाई की मृत्यु के बाद उद्विग्न थियो ने कहा: मुझे विश्वास है कि एक रोज कला में विन्सेंट की वह कद्र होगी जो संगीत में बीठोवन की है।
थियो का विश्वास, जाहिर है, ज्यादा खरा साबित हुआ।
मिर्जा गालिब के बाद लंबी खतो-किताबत शायद वान गॉग ने ही की है। उन्होंने सैकड़ों पत्र लिखे, जिनमें अधिकांश थियो के नाम थे। थियो की पत्नी ने उन्हें संभाल कर रखा। तीन खंडों में छपे कोई आठ सौ पत्र कला, साहित्य और जीवन पर एक संवेदनशील कलाकार के विचार-मंथन का बेशकीमती दस्तावेज हैं। वे महान चित्रकार के रूप में विख्यात न हुए होते तो अपने पत्रों के साथ शायद साहित्य में जगह पाते। उन पत्रों की कुछ बानगी:
– एक अच्छी कलाकृति किसी पुनीत कर्म के मानिंद है।
– विवेक मनुष्य का कुतुबनुमा है।
– मैं पहले चित्र की कल्पना करता हूं और बाद में अपनी कल्पना को चित्र में ढालता हूं।
-चित्र बनाते वक्त भाव कभी-कभी इतने प्रबल होते हैं कि मैं उनके अहसास के बगैर तस्वीर बनाता जाता हूं। कूची से रंग यों निकलते हैं जैसे बोलते या लिखते वक्त शब्द।
– संपूर्ण काले रंग का वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन सफेद की तरह वह हर रंग में मौजूद है और रंगत व तीव्रता में धूसर रंगों की अनंत छायाएं पैदा करता है। प्रकृति में आखिर हम (रंगों की) वह आभा और रंगत ही तो देखते हैं।
-पीला भी क्या अद्भुत रंग है। मानो साक्षात सूरज हो!
– नीले रंग का कोई मतलब नहीं, अगर पीला और नारंगी न हों।
– मैंने काम में अपने हृदय व आत्मा को झोंका है, दिमाग को खोया है।
– मैं गरीब झोंपड़ों और गंदले दड़बों में भी रेखाएं और चित्र (की संभावना) देख लेता हूं।
– शेक्सपियर में कितना अनुपम सौंदर्य है? उससे ज्यादा रहस्यमय कोई है? उसकी भाषा और उसका बरतना ऐसा है जैसे आवेश और उल्लास में कलाकार की कूची का लरजना।
– महान रचनाकारों की कृतियों में हमें ईश्वर बैठा मिलेगा। किसी ने उसे शब्दों में रचा है, किसी ने चित्रों में।
– हमारा गौरव इसमें नहीं है कि हम कभी नहीं गिरते – बल्कि इसमें है कि जब भी गिरते हैं, उठ खड़े होते हैं।
( जनसत्ता में 14 जनवरी, 2007 को प्रकाशित )