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चाँद
के पास
- रुचि भल्ला
रुचि की रैंडम डायरियाँ फेसबुक पर
लोकप्रिय हैं। जब वे अपने कस्बाई शहर फलटन पर लिखती हैं वह घूम आने को
आकर्षित करता है। ताज़गी भरा गद्य किसे नहीं मोहता? मगर इन डायरियों में
केवल रोमानियत नहीं मेहनतकश औरतों के पसीने का नमक भी है।
चाँद के पास भी चाँद हो जाने का समय
होता हैं ...वह चलता हैं सोलह कलाओं की चाल। सूरज के पास भी वक्त होता हैं
सूरजमुखी फूल की तरह खिल जाने के लिए पर शीला के पास शीला होने का वक्त
नहीं होता। शीला के पास टेलीविज़न देखने का तो बिलकुल भी समय नहीं पर
रेडियो सुनने का समय वह काम करते जाते निकाल लेती हैं । काम चाहे खुद के घर
पर कर रही हो या बाहर के घरों में, रेडियो सुनना उसका साथ -साथ चलता जाता
हैं । परसों रेडियो पर उसने जब सुना कि 8 मार्च को 'महिला दिवस' मनाया
जाएगा तो वह उसके लिए नई जानकारी थी।
रसोई में खड़ी शीला जो कल बर्तनों की साफ़ -सफ़ाई में व्यस्त थी ...अपनी
व्यस्तता के बीच उसने मुझसे कहा कि दिवस तो आज 8 मार्च हैं पर यह महिला
दिवस की महिला कौन हैं ? मैं इस महिला को नहीं जानती। मैंने यह महिला देखी
नहीं हैं । उसके इस कहे पर मैंने उसकी ओर देखा ...वह बर्तन धोने में मशगूल
थी पर साथ -साथ बोलती भी चली जा रही थी कि महिला होना क्या होता हैं
...मुझे नहीं पता ...मुझे तो इतना पता हैं कि जबसे मैंने होश संभाला हैं
आदमी की तरह बन कर काम किया हैं । काम किया हैं और कमाया हैं उससे घर चलाया
हैं ...। घर मेरी कमाई से चलता हैं ...उस वेतन की फ़ीस से मेरा बारह साल का
बेटा कृष्णा विद्यालय जाता हैं । मेरे पति के भी खाने -पीने दवा -दारू का
खर्चा मेरी आमदनी से चलता हैं । दिन भर काम-काम रात को घर जाकर पति की
सुनना यही मेरी दिनचर्या हैं ।
वह काम करते जाते हुए बोल रही थी और मैं उसे देख रही थी ...सोच रही थी कि
1908 में जो 'ब्रेड एंड पीस' की माँग की गई थी, उस क्रांति का चेहरा सन्
2020 में भी वही हैं । क्लारा ज़ेटकिन तो स्त्री अधिकारों के लिए तब खड़ी
हो गई थीं पर अपने हक के लिए हर स्त्री को खुद खड़ा होना होगा...खड़े होने
की ज़मीन खुद तैयार करनी होगी। महिला दिवस की महिला मिले न मिले, क्लारा
ज़ेटकिन को खुद में तलाशना होगा...वह स्त्री जो हर स्त्री के भीतर हैं
...हर स्त्री को उस स्त्री को बाहर लाना होगा। माना स्त्री को जननी कहते
हैं पर खुद को जन्म देना भी उसका दायित्व हैं । जननी रूप इसे भी कहते हैं
जहाँ खुद के लिए खुद का आविष्कार करना हैं । यही 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
...यही अंधेरे से उजाले की यात्रा हैं ।
- 9 मार्च
2)
सायली मुझे कृष्णा के साथ मिली थी। कृष्णा सातारा में थी घाट के किनारे।
सायली ठहरी हुई थी पर कृष्णा चलती जा रही थी। हैं रत की बात थी कि दोनों
साथ थीं पर एक के पाँव ठहरे हुए, दूसरे के पाँव में गति थी। समय कभी ठहरता
नहीं, लोग ठहर जाते हैं। सायली समय नहीं थी। मराठी भाषा में सायली फूल को
कहते हैं। सायली फूल ही हैं पर कृष्णा फूल नहीं हैं । कृष्णा नदी का नाम
हैं । फूल और नदी का वह साथ था। सच कहूँ तो यह दो स्त्रियों का साथ था।
मैंने इन्हें साथ -साथ सातारा में देखा था। कृष्णा नदी को तो मैं उसके
चेहरे से पहचान लेती हूँ पर सायली कातकरी हैं । उसका कातकरी होना मैंने
उससे मिल कर जाना हैं । कातकरी एक Tribe हैं जो सातारा के सहयाद्रि पठारों
के आस -पास बस गई हैं जो पहले पहल सिर्फ़ जंगल में रहा करती थी। शिकार
करना- मछली पकड़ना इनका शौक और पेशा हैं । इनकी बोलचाल की अपनी खुद की बोली
हैं जो मराठी भाषा से उतनी ही अलग हैं जितनी अलग एक नदी फूल से होती हैं
...भले ही वे मिलती -जुलती हों।
कृष्णा नदी के घाट पर सायली जल की ओर झुकी हुई थी। उसके बालों में बड़ी सी
कंघी लगी हुई थी। बाल बनाते -बनाते जैसे उसे अचानक घाट की ओर जाना याद आ
गया हो और उस कंघी को बालों में खोंसे हुए वह जल में उतर गई थी। निश्चित
रूप से वह खुद को नदी के आईने में नहीं देख रही थी। वह किसी और ही तलाश में
थी। उसे उस तरह खोजते देख कर मैंने वहाँ ठहर कर उससे पूछा - यहाँ नदी की
भीतरी तह में तुम्हें क्या दिख रहा हैं ... मेरी बात पर वह थोड़ा और झुकी
और जल में नीचे हाथ डाल कर अपने अभ्यस्त हाथों से उसने पल भर में कुछ उठाया
और जल से हाथ बाहर निकाल कर अपनी हथेली मेरे आगे कर दी। बीस वर्ष की सायली
की हथेली से बड़ा वह केकड़ा था। केकड़ा उसके हाथ में ठहरा हुआ था। गोया
उसकी वह हथेली न हो नर्म आरामदायक गद्दा हो जहाँ वह आराम फ़रमा रहा था।
घाट की सीढ़ियाँ चढ़ कर पास रखा एक बैग सायली ने उठाया और केकड़े को उसमें
डाल दिया। यह सब कुछ इतनी आसानी से हो रहा था कि मैंने उतनी ही आसानी से
सायली से पूछा कि यह सब कैसे इतनी आसानी से कर लेती हो ? उसने बताया कि दो
पत्थरों को चटकाने से जो आवाज़ उत्पन्न होती हैं , उससे केकड़े को बारिश
होने का भ्रम होता हैं और वह अपने रहने के स्थान से बाहर चले आते हैं और
हमारे हाथ आ जाते हैं। शिकार करना एक कला हैं ।
बैग लेकर वह फिर सीढ़ियाँ उतर आयी थी। उसे उतरते देख कर मैंने कहा कि मुझे
पहले लगा कि तुम यहाँ मछली पकड़ रही हो...। उसने कहा कि मैं यहाँ मछली के
लिए नहीं, फ़िलहाल केकड़े के लिए आयी हूँ। दो किलो के लगभग केकड़े अभी मेरे
बैग में हैं। मैं इन्हें मंडी में जाकर बेचा करती हूँ। मछली भी पकड़ती हूँ।
यह कहते हुए वह फिर से झुकी और अपने पाँव के पास तैरती मरल मछली को उसने
पलक झपकते ही अपने हाथ में ले लिया। उसने इतनी तीव्रता से मछली को पकड़ा
जैसे किसी का कोई ज़रूरी सामान पाँव के पास अचानक गिरे और वह तुरंत झुक कर
उसे उठा ले।
हथेली पर धरी मछली वाला हाथ उसने मेरी ओर बढ़ा दिया था। वह हाथ जैसे Fish
Platter हो ...मरल मछली शांत भाव से कातकरी हाथ में खुली आँखों से मार्च की
हवा में सो रही थी। मछली और हरकत न करे...न हिले न डुले ...मैं अजूबी मछली
नहीं, कातकरी सायली का जादू देख रही थी। जादू जो हाथ का कमाल हैं । कातकरी
हाथ जो अपनी जादूगरी यह कह कर बयान करते हैं -
वाघाचा जबढ़ यात घालुनी हात
मोजिते दाँत जात आमची कातकार्यांची
[ हम वो हैं जो शेर का मुँह अपने हाथ से खोलते हैं और उसके दाँत गिनने का
दम भरते हैं ]
- 10 मार्च
3)
कड़वा बोलने वाले का शहद भी नहीं बिकता
और मीठा बोलने वाले की मिर्ची भी बिक जाती हैं -
यह बात किसी न किसी ने तो किसी से कहीं हैं पर इस कहे को सच में ढलते हुए
आज मैंने देखा हैं । देखा ऐसे कि इन दिनों गली में सब्जी बिकने के लिए दो
बार से अधिक आ जाती हैं । पहले घर की गली में सब्जी बेचने की खातिर सिर्फ़
दो लोग आया करते रहे थे पर अब वक्त ए कोरोना में सब्जी कोई न कोई थोड़ी
बहुत लेकर साइकिल, स्कूटी और बाइक पर चला आता हैं । इन दिनों ठाकुरकी गाँव
के किशन शिंदे भी सब्जी लिए गली में दिख जाते हैं। उनके पास अक्सर मूँग दाल
होती हैं जिसका ज़िक्र मैंने कल की डायरी में भी किया था। आज सुबह वह मिर्च
बेचते हुए दिख गए। गेट के बाहर खड़े होकर उन्होंने मुझसे मिर्च खरीद लेने
की बात कहीं ।
दूर से मिर्च दिखती नहीं थी कि कैसी हैं । दरअसल फलटन में रहते हुए मैंने
देखा कि यहाँ हरी मिर्च दो तरह की होती हैं। एक तीखी और एक पोपटी। पोपटी वह
होती हैं जो फलटन के पोपट रंग में रंगी होती हैं । पोपट यानी कि मिट्ठू
मियाँ। तीखी मिर्च वह जो तीखे मिज़ाज़ की होती हैं । इसका रंग गहरा हरा
होता हैं । लंबाई में यह औसत होती हैं । खास लंबी तो पोपटी मिर्चें होती
हैं जो कम तीखी होती हैं।
मिर्च की बात चली तो मैं कहूँगी कि मिर्च खाने में सारे सातारा का कोई जवाब
नहीं हैं । इस मामले में कोल्हापुर सैकड़ों किलोमीटर पीछे रह गया हैं ।
सातारा का स्वाद ही मिर्च हैं । उसकी ज़ुबान पर इस स्वाद का राज चलता हैं ।
इस राज के चलते किशन शिंदे गेट के बाहर खड़े होकर मुझे हरी मिर्च दिखा रहे
थे। मैंने कहा कि आप गेट से अंदर आकर दिखा दीजिए। नज़दीक से मैंने देखा कि
वह पोपटी मिर्च नहीं थी। मैंने कहा ,नहीं मुझे यह मिर्च नहीं चाहिए। यह
बहुत तेज हैं । आप इसे रहने दो पर किशन शिंदे ने कहा, नहीं... यह तेज नहीं
हैं । आप इस्तेमाल करके देखिए। आपको तेज नहीं लगेगी।
मैं उसका रंग देख कर कहती रही कि आप रहने दीजिए। मुझे यह तेज लगती हैं ।
किशन शिंदे ने फिर कहा कि आप अपने खाने में दो की जगह एक मिर्च इस्तेमाल कर
लीजिए। यह अच्छी हैं । हम खुद इसे अपने खाने में डाला करते हैं। हमें तेज
नहीं लगती। आप खा कर तो देखो। यह कहते हुए उसने अपने हाथ में थमी मिर्च
अपनी ज़ुबान पर रख ली और ऐसे चबाने लगा कि जैसे मीठा पान हो।
आज से पहले मैंने किसी मिर्च बेचने वाले को इस तरह से मिर्च बेचते देखा
नहीं था कि वह मिर्च बेचने की खातिर मुझे मिर्च खाकर दिखा दे। उसे खाते देख
कर फिर मेरे पास कोई चारा नहीं बचता था कि मिर्च का हरा चारा न खाया जाए।
फिर क्या था ...किशन शिंदे हरी मिर्च तौल रहा था और मैं उसके हाथ की ओर
अपनी टोकरी बढ़ा रही थी।
- 8 अप्रैल
4)
कहते हैं कि दिन लौटते हैं...। इस बात पर सोचती हूँ कि रातें क्यों नहीं
लौटतीं। क्या बीती रातों के लौटने का किसी आँख ने इंतज़ार नहीं किया। लौटती
रातों की प्रतीक्षा में लौटते दिनों को देखती हूँ। माँ कहती हैं कि सन् 55
की बात होती थी जब इलाहाबाद की लाल काॅलोनी में घर -घर अंडे बिकने आते थे।
बेचने का यह काम हामिद मियाँ के हाथ होता था।
लखनवी सफ़ेद कुर्ता -पायजामा होता उनका। सर पर टोपी होती अदब वाली क्रोशिए
की। उजली बकर दाढ़ी ...मझोले कद की शख़्सियत थी उनकी। लाल काॅलोनी में आते
-आते वह भी लाल काॅलोनी के रंग में रंगते गए। हर घर से उनका रिश्ता बन गया।
किसी को बहूरानी किसी को बहन किसी को अम्मा- चाची और मन से बिटिया बना लिया
था। शाम का सूरज जब लाल काॅलोनी से विदा लेने आता, हामिद मियाँ लाल काॅलोनी
की हद में तब प्रवेश कर रहे होते थे। हाथ में उनके होते मुर्गी और बत्तख के
अंडे से भरे झोले।
यह सच हैं कि दिन वक्त की बीती चाल लौटा करते हैं। क्या कभी सोचा होगा
हामिद मियाँ ने कि 40/11 के दरवाज़े तक बहूरानी पुकारते हुए जब वह घर की
सीढ़ियाँ चढ़ते थे...उन सीढ़ियों पर आज भी उस आवाज़ की याद बची रह जाएगी।
वह बहूरानी मेरी माँ अब 83 वर्ष की हो गई हैं। हामिद मियाँ की बात करते हुए
हामिद मियाँ का चेहरा माँ की आँखों के आगे धुँधला होता जाता हैं पर फिर भी
वह छवि बराबर बनी हुई हैं । क्या कभी हामिद मियाँ ने यह भी सोचा होगा कि
उनकी याद इलाहाबाद को साथ लिए फलटन में इस घर के दरवाज़े तक चली आएगी...
उस याद के संग मैं देखती हूँ वैशाली ताई को जो सर पर अंडों की टोकरी टिकाए
घर -घर अंडे बेचने गली में चली आ रही हैं । यह कोरोना काल की करामात हैं कि
300 अंडों से भरी टोकरी को बाकायदा संभाल कर उन्हें चलना पड़ता हैं । अपने
होश में मैंने अंडों को खुद घर आते कभी नहीं देखा था। हमेशा दुकान से जाकर
खरीदा हैं ।
वैशाली ताई को देखती हूँ और सोचती हूँ कि वक्त ए कोरोना में बहुत कुछ बदला
हैं । अब तक हम घर से बाज़ार जा रहे थे, अब बाज़ार घर लौटा हैं । हामिद
मियाँ भले न लौटे हों, उनकी सूरत के पीछे वैशाली का चेहरा चला आया हैं ।
चेहरे का फ़र्क इतना हुआ कि वैशाली ताई 6 रुपए का एक अंडा बेचती
हैं...हामिद मियाँ एक आने में चार अंडे दिया करते थे। तबसे अब तक दुनिया
इतनी बदल आयी हैं पर गनीमत इतनी कि बदलती दुनिया में अंडे हरगिज़ नहीं बदले
हैं।
- 14 जून
5)
जादू सिर्फ़ बंगाल के पास नहीं होता, महाराष्ट्र के पास हरा जादू हैं ।
जादू का यह रंग बरसात का रंग हैं । अब आप यह न कहिएगा कि पानी का रंग पानी
होता हैं । मौसम बारिश का हो तो महाराष्ट्र का मन हरे रंग में रंग जाता हैं
। यह वही रंग हैं जिस रंग को देख कर दुनिया हरे रामा हरे कृष्णा पुकार उठती
हैं । हरे रामा हरे कृष्णा के नाम पर मुझे देव आनन्द याद आ जाते हैं। देव
आनन्द जो सदाबहार नायक रहे। यकीन मानिए रंग सब सुंदर होते हैं पर सदाबहार
रंग सदा हरा होता हैं । अब आप हरे का रंग न पूछिएगा। हरे के हज़ार हरे होते
हैं।
फलटन में रह कर मेरी नज़र जहाँ तक जाती हैं ,आँखें हरी होती जाती हैं। धरती
इतनी हरी कि धरती का साया जब आसमान पर पड़ता हैं ,आकाश हरा हो जाता हैं ।
हरे आकाश के नीचे फलटन का मन बसता हैं । 125 गाँव वाली इस तहसील के पास
सबसे बड़ा खजाना खेतों का हैं । खेतों में उगी फसल जैसे धरती पर बिछे हरे
रेशमी कालीन हों। सिर्फ़ कालीन तक यहाँ बात नहीं सिमट पाती, कालीन का हरा
रंग पठारों पर जा चढ़ा हैं । Wall to Wall हरा रंग हैं । सहयाद्रि पर्वत
शृंखला इस रंग के घेरे में चली आयी हैं ।
इस रंग का पीछा करते हुए मैं फलटन के गाँवों में चली जाती हूँ। अब तातवडे
का नाम लूँ या विन्चूर्णी ,विन्डनी, ठाकुरकी, निंबलक, दहीवडी, कुरौली,
आसुगाँव...। किस- किस गाँव का नाम लूँ...मैंने जितने भी गाँव देखे ...देख
कर यकीन हुआ कि गाँव का दिल बहुत बड़ा हैं पर मन की ज़रूरतें बहुत कम। गाँव
को चाहिए होती हैं गाँव की धरती। गाँव का आसमान। आकाश भर पक्षी...धुली
हवा...निखरा एक सूर्य,नीला एक चाँद। अपने हिस्से के गिनती के तारे ...गिनती
के तारों जितने भरे खेत -हरे चारागाह और ज़रूरत भर के घर।
छोटी एक पाठशाला जहाँ सुविधा होती हैं बेसिक पढ़ाई की। कुलदेवी या कुलदेवता
का एक मंदिर जहाँ पूजा -अर्चना और जन्म से लेकर विवाह आदि रीति-रस्में
निभायी जाती हैं। बरगद के पेड़ होते हैं चौपाल सजने के लिए। चौपाल जहाँ
जन्म लेते हैं जीवन के किस्से। हाँ ! कुछ दुकानें होती हैं रोज़मर्रा के
सामानों से भरी। गाय ,महिष ,बैल ,बकरी, कुत्ता, मुर्गा ,बिल्ली ,मवेशी के
बगैर गाँव भी क्या गाँव होगा...। एक बैलगाड़ी भी होती हैं वहाँ हीरामन की।
लोहे की टीन वाली झोंपड़ीनुमा एक छत ज़रूर लगी होती हैं नदी,नहर ,तालाब के
किनारे जहाँ शवदाह से जुड़े क्रिया- कलाप संपन्न होते हैं।
गाँव इतना भर होता हैं जहाँ सुख -दुख के मेले लगते हैं जिनकी यादों में
धुँआ होता हैं गाँव की सोंधी मिट्टी में लीपे चूल्हे का ताज़ादम धुँआ। वह
धुँआ जो गाँव का बादल हो जाता हैं । बादलों वाले गाँव में किसान का मन ही
नहीं, गोरी का प्रेम भी बसता हैं । ज़रूरी नहीं कि वह गोरी चंपई वर्णा हो
,उसका रंग सुरमई भी होता हैं ...शीला जैसा कत्थई-जामुनी भी। यह रंग सिर्फ़
गाँव में बसा दिखता हैं ।
वह गाँव क्या जहाँ एक प्रेमी न हो, प्रेम के दम पर गाँव आबाद होता हैं ।
इलाहाबाद शहर की रुचि होते हुए जब मैं फलटन के गाँव देखती हूँ ,मेरी आँखें
हरी होती जाती हैं। इतनी हरी जैसे नाज़िम हिकमत की होती हैं इस्तानबुल के
लिए -
"हल्की हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेशमी दरख्त"
और मैं फलटन के प्रेम में हरी होने लगती हूँ। हरे रेशमी गाँव देख कर सोचती
रह जाती हूँ कि गाँव ने जन्म दिया शहर को। वह सड़क दी जो शहर की ओर जाती
हैं पर गाँव कभी उस सड़क पर चल कर खुद शहर नहीं हुआ। वह खड़ा रह गया
Milestone के पास।
मैं Milestone के पास खड़ी दूर-दूर तक फैले गन्ना ,ज्वार, बाजरा और मक्का
के खेत देखती जाती हूँ। मक्का के खेत में काम करता हुआ हरिभाऊ किसान मुझे
नहीं देखता पर मैं उसे देखती जाती हूँ। वह मक्का ही नहीं बीजता, जीवन की
उलझी पहेलियाँ भी सुलझाता हैं । वह पहेली जो छुटपन में मैंने किताब में पढ़
रखी थी -
हरी थी मन भरी थी
मोतियों से जड़ी थी
राजाजी के बाग में
दुशाला ओढ़े खड़ी थी
जीवन की इस पहेली का हल मैंने गाँव में आकर पाया हैं । हरिभाऊ के हाथ से
पाया हैं । वह हाथ जो खेत में हल चला रहा था। हल चलाते -चलाते मुझे पहेली
का हल दे गया था। दिखा गया था मुझे हरे मन की मकई का रंग, वह रंग जो हरे
जादू का नाम हैं ...
- 24 जुलाई
6)
आज आपकी मुलाकात मैं Burmese चटनी से करवाती हूँ। अव्वल तो इसमें चटनी जैसी
कोई बात नहीं ,न चटनी के लक्षण इसमें खोजे मिलेंगे पर बचपन से मैंने अपने
घर में यही सुना कि यह बर्मा वाली चटनी हैं । मैंने आपको बातों -बातों में
अक्सर बता रखा हैं कि बंटवारे से बहुत पहले मेरी दादी बर्मा से काफ़िले में
चलते हुए पंजाब आयी थीं। यह तब की बात थी जब बर्मा हिन्दोस्तान के नक्शे
में था तो इस तरह से यह चटनी भी दूर का सफ़र तय करते हुए हमारी रसोई की
दहलीज़ में चली आयी।
मेरी बड़ी बुआ जिनका नाम कमला था। यह वह बुआ थीं कि उनके नाम के क को लेकर
मेरी माँ ने मुझे क से कमला लिखना सिखाया। जीवन पर्यंत मेरे लिए मेरी बुआ क
से कमला रहीं। क मेरे जीवन में इतना महत्वपूर्ण था। मेरी बुआ को जानने वाले
मुझसे कहते हैं कि मैं अपनी बुआ जैसी हूँ पर मुझमें अपनी नफ़ीस- नायाब
-नर्म जुबां बुआ का क भी गलती से स्पर्श नहीं कर गया पर जब तक वह रहीं बात
-बात पर मुझे यह कह कर याद कराती रहीं कि तुझमें मेरे पिता का लहू हैं । वह
कहतीं और मैं उनके गुलाबी रंग का साया अपने चेहरे पर पा जाती। यह रंग मेरी
रंगरेज़ बुआ ने मुझ पर चढ़ाया हैं ।
खैर ! तो मैं बात चटनी की बता रही थी। इस चटनी का पहला- पहल स्वाद मैंने
अपनी Super Chef बड़ी बुआ के हाथ से पाया था। पत्तागोभी को महीन काट कर
उसमें नमक रचा -बसा कर वह आधे घंटे तक रख देतीं। आँच पर चढ़ायी जाती फिर
कड़ाही। रिफ़ांइड तेल की गिनी -चुनी बूँदों में कटे लहसुन का तड़का लगाया
जाता। तब तक नमक लगी पत्तागोभी को रेशमी स्कार्फ़ की तरह धोकर वह हल्के हाथ
से निचोड़ देतीं ताकि वह और मुलायम हो सके। निखरी पत्तागोभी को सुर्ख लहसुन
में मिलाते हुए उस पर भुनी मूँगफली का चूरा बुरक दिया जाता। नमक का अनुपात
वह भूले से भी नहीं भूलतीं। हाँ! सूखी लाल मिर्च का ज़ायका इसमें ज़रूर
रहता खास गंध और चटनी का अलग तेवर बनाए रखने के लिए। बस उन सबको आँच पर
एकसार हिलाने भर की देरी होती, कच्ची सी चटनी पक कर तैयार हो जाती।
काफ़िले में चलने वालों के खाने का सफ़र उनके कच्चे -पक्के जीवन जैसा होता
था। चलते काफ़िले का मन जहाँ थक कर रुका, बसेरे के लिए वहीं तम्बू गाड़
दिया। तारों का सहारा लेकर रात बिता दी। खाने के लिए जो मिला, उसे रल -मिल
कच्चा-पक्का पकाया ...खाया और मंज़िल की तलाश में आगे बढ़ गए। सफ़र की वह
आँच ही तो थी जिसने बीज डाला साँझा -चूल्हा सभ्यता का। साँझे -चूल्हे की वह
आग दिलों में शोलों की तरह जलती रही। वे शोले ही तो लिख रहे हैं ज़ायके के
सफ़र का फ़साना...
- 16 अगस्त
- रुचि भल्ला
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