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कयामत का दिन उर्फ कब्र से बाहर
वह बडा अद्भुत दिन रहा होगा जब मैं ने तय किया और उल्लसित हो उठी। दौडती हुई सीढियाँ उतरी। वे सब बाहर बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे और जिन्दगी की गहन समस्याओं को सुलझाने में मशगूल थे। हालांकि समस्याएं उनकी अपनी खुद की तैयार की हुई थीं जिन्हें सुलझा सकने की कोशिश में वे अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन कर रहे थे। मेरे नंगे सर और रात वाले कपडों में वे मुझे देख कर इस तरह खडे हो गये जैसे उनपर गाज गिरी हो। पर उनकी तरफ से बेपरवाह मैं सीटी बजाती हुई पोर्च की तरफ बढी, ज़हाँ कार खडी थी। बहुत साल पहले जब मेरा बचपन मरा नहीं था, मेरे दोनों भाई इसी तरह सीटियाँ बजाते हुए फुटबॉल खेलने अपनी-अपनी सायकलों पर घर से निकला करते थे। उनके पीछे उसी तरह भागने को लालायित मैं जब उसी तरह सीटी बजाती हुई निकलती, वे बडी क़्रूरता से पीछे लौटते दोनों तरफ से मेरी बांहें पकड क़र घसीट कर कमरे में ले जाते और बाहर से दरवाजा बन्द कर देते। मेरी मां अपनी क्रूर चुप्पी में उनके साथ शामिल रहतीं और शाम को मैं बडी हसरत से अपने कुत्ते को देखती जिसे पिताजी चेन से बांध कर बहुत दूर तक घुमाने ले जाते। कार बंद थी। यह कार मेरे पति ने मुझे अपनी उन सेवाओं के लिये दान में दी जिन्हें हर चौबीस घंटे मैं बडी फ़रमाबरदारी से निभाया करती थी पर इसकी चाबी वे हमेशा अपने पास रखते थे। मैं ने सीटी बजाते हुए इशारे से उन्हें बुलाया। न भी बुलाती तो वे लपकते हुए मेरे पास आ ही रहे थे। ये किस तरह मुमकिन था कि उनके अंगूठे के नीचे से फिसल कर एकाएक मेरा पूरा कद निकल आए और वे चुप बैठे रहें। '' ये क्या हो रहा है? '' उनके चेहरे पर गुस्सा था, व्याकुलता और भय - इस गृहस्थी के लोगों के सामने यह जो मर्द बना फिरता है, मैं इसकी कलई न उतार दूँ। मैं ने हिकारत से उसकी ओर देखा - रात में जो आदमी मेरे पैरों में गिरता है, मेरा थूक चाटता है, वह दिन की रोशनी में किस तरह केंचुल बदल डालता है कितनी तत्परता से। मुझे उस वक्त लगा - मेरे भीतर एक खोखल है, जिसमें इसके लिये जाने कितनी नफरत है और जितना भी मैं उसे बाहर उलीचने की कोशिश करती हूँ, उतनी ही वह भीतर भरती जाती है। इसके पहले कि मैं कुछ कहूँ, उसने मेरा हाथ पकड क़र अंदर धकेल दिया। मैं लडख़डाई और सीधी होकर उसकी ओर देखा। मारे गुस्से के उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहा था। क्या क्या दबा कर रखा है, आज निकाल दूँ? मैं ने आगे बढ क़र एक करारा थप्पड उसे रसीद किया। यह इतना अप्रत्याशित था कि वह कई कदम पीछे हट गया। मैं ने एक जोरदार लात कार को जमाई और गेट खोल कर बाहर आ गई। '' चौकीदार पकडो इसे! '' पीछे से कोई बेकाबू होकर चिल्लाया और मैं और तेज भागी। किसी की पकड में आकर मैं एक दिन नष्ट नहीं करना चाहती थी। पता नहीं किन गलियों व घुमावदार रास्तों से होती हुई मैं किसी चौक पर पहुँच गई थी। सुबह की आवाजाही बढ रही थी। बच्चे स्कूल जा रहे थे और आदमी दफ्तर...और औरतें... पडी होंगी घर के किसी कोने में, बरतन मांजती, झाडू लगाती, बच्चों की गंदगी साफ करती हुई, तमाम नफरत के बावजूद मुस्कुराती हुई पति के साथ हमबिस्तर होतीं और सुबह घृणा से अपने आप को धोती हुइं। मैं ने नफरत से धरती पर थूक दिया। फिर ध्यान से चारों ओर देखा। एक गुमटी में एक चायवाला सबको चाय बना बना कर दे रहा था। मुझे अचानक चाय की तलब लगी और मैं उसके पास चली आई। '' एक चाय और एक पाव देना। मैं ने उससे कहा और गुनगुनाती हुई चारों ओर देखने लगी। मेरे गुनगुनाते ही गुमटी के चारों तरफ खडे लोग जैसे सतर्क हो गये और मुझे देखने लगे। धीरे धीरे उनका घेरा तंग होता गया और मैं बीच में आ गई। तभी चाय वाले ने चाय का गिलास और पाव मेरी तरफ बढाया जो कई हाथों से होता हुआ मुझ तक पहुँचा। मैं ने एक हाथ से सबको परे धकेला और स्टूल पर बैठ गई, बडे आराम से। पाव खाया, चाय पी और चाय वाले के मग्गे से हाथ मुंह धो डाले तब तक सारा वक्त जैसे थमा थमा मुझे देख रहा था। ''
ए,
कहाँ से आ रही है?''
एक ने लापरवाही से
पूछा। मैं चलती हुई पता नहीं शहर के किस हिस्स में आ गयी थी और अब तक थक गई थी। कितना वक्त हो गया, मैं सडक़ों पर इस तरह नहीं चली। जब निकली कार के काले शीशों के अन्दर बैठ कर। लोग कहते हैं, दुनिया बहुत बदल गई है- क्या सचमुच? मैं जाकर सडक़ के किनारे
बैठे हुए मोची के पास जाकर बैठ गई,
उसने संदिग्ध भाव से मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा,
उसने मुझे अपने एरिया के
बाहर धकेल दिया।
मैं उठकर चलने
लगी तो उसने पीछे से आवाज दी,
मैं हँस दी, मोची भी। और फिर मैं चल पडी। -आगे |
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