मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

कयामत का दिन उर्फ कब्र से बाहर

वह बडा अद्भुत दिन रहा होगा जब मैं ने तय किया और उल्लसित हो उठीदौडती हुई सीढियाँ उतरीवे सब बाहर बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे और जिन्दगी की गहन समस्याओं को सुलझाने में मशगूल थेहालांकि समस्याएं उनकी अपनी खुद की तैयार की हुई थीं जिन्हें सुलझा सकने की कोशिश में वे अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन कर रहे थे

मेरे नंगे सर और रात वाले कपडों में वे मुझे देख कर इस तरह खडे हो गये जैसे उनपर गाज गिरी होपर उनकी तरफ से बेपरवाह मैं सीटी बजाती हुई पोर्च की तरफ बढी, हाँ कार खडी थी

बहुत साल पहले जब मेरा बचपन मरा नहीं था, मेरे दोनों भाई इसी तरह सीटियाँ बजाते हुए फुटबॉल खेलने अपनी-अपनी सायकलों पर घर से निकला करते थेउनके पीछे उसी तरह भागने को लालायित मैं जब उसी तरह सीटी बजाती हुई निकलती, वे बडी क़्रूरता से पीछे लौटते दोनों तरफ से मेरी बांहें पकड क़र घसीट कर कमरे में ले जाते और बाहर से दरवाजा बन्द कर देतेमेरी मां अपनी क्रूर चुप्पी में उनके साथ शामिल रहतीं और शाम को मैं बडी हसरत से अपने कुत्ते को देखती जिसे पिताजी चेन से बांध कर बहुत दूर तक घुमाने ले जाते

कार बंद थीयह कार मेरे पति ने मुझे अपनी उन सेवाओं के लिये दान में दी जिन्हें हर चौबीस घंटे मैं बडी फ़रमाबरदारी से निभाया करती थी पर इसकी चाबी वे हमेशा अपने पास रखते थे मैं ने सीटी बजाते हुए इशारे से उन्हें बुलायान भी बुलाती तो वे लपकते हुए मेरे पास आ ही रहे थेये किस तरह मुमकिन था कि उनके अंगूठे के नीचे से फिसल कर एकाएक मेरा पूरा कद निकल आए और वे चुप बैठे रहें

'' ये क्या हो रहा है? '' उनके चेहरे पर गुस्सा था, व्याकुलता और भय - इस गृहस्थी के लोगों के सामने यह जो मर्द बना फिरता है, मैं इसकी कलई न उतार दूँ। मैं ने हिकारत से उसकी ओर देखा - रात में जो आदमी मेरे पैरों में गिरता है, मेरा थूक चाटता है, वह दिन की रोशनी में किस तरह केंचुल बदल डालता है कितनी तत्परता सेमुझे उस वक्त लगा - मेरे भीतर एक खोखल है, जिसमें इसके लिये जाने कितनी नफरत है और जितना भी मैं उसे बाहर उलीचने की कोशिश करती हूँ, उतनी ही वह भीतर भरती जाती है

इसके पहले कि मैं कुछ कहूँ, उसने मेरा हाथ पकड क़र अंदर धकेल दियामैं लडख़डाई और सीधी होकर उसकी ओर देखामारे गुस्से के उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहा थाक्या क्या दबा कर रखा है, आज निकाल दूँ? मैं ने आगे बढ क़र एक करारा थप्पड उसे रसीद कियायह इतना अप्रत्याशित था कि वह कई कदम पीछे हट गयामैं ने एक जोरदार लात कार को जमाई और गेट खोल कर बाहर आ गई

'' चौकीदार पकडो इसे! ''

पीछे से कोई बेकाबू होकर चिल्लाया और मैं और तेज भागीकिसी की पकड में आकर मैं एक दिन नष्ट नहीं करना चाहती थीपता नहीं किन गलियों व घुमावदार रास्तों से होती हुई मैं किसी चौक पर पहुँच गई थीसुबह की आवाजाही बढ रही थी बच्चे स्कूल जा रहे थे और आदमी दफ्तर...और औरतें... पडी होंगी घर के किसी कोने में, बरतन मांजती, झाडू लगाती, बच्चों की गंदगी साफ करती हुई, तमाम नफरत के बावजूद मुस्कुराती हुई पति के साथ हमबिस्तर होतीं और सुबह घृणा से अपने आप को धोती हुइंमैं ने नफरत से धरती पर थूक दियाफिर ध्यान से चारों ओर देखाएक गुमटी में एक चायवाला सबको चाय बना बना कर दे रहा थामुझे अचानक चाय की तलब लगी और मैं उसके पास चली आई

'' एक चाय और एक पाव देना। मैं ने उससे कहा और गुनगुनाती हुई चारों ओर देखने लगी। मेरे गुनगुनाते ही गुमटी के चारों तरफ खडे लोग जैसे सतर्क हो गये और मुझे देखने लगे। धीरे धीरे उनका घेरा तंग होता गया और मैं बीच में आ गई। तभी चाय वाले ने चाय का गिलास और पाव मेरी तरफ बढाया जो कई हाथों से होता हुआ मुझ तक पहुँचा। मैं ने एक हाथ से सबको परे धकेला और स्टूल पर बैठ गई, बडे आराम से। पाव खाया, चाय पी और चाय वाले के मग्गे से हाथ मुंह धो डाले तब तक सारा वक्त जैसे थमा थमा मुझे देख रहा था।

'' , कहाँ से आ रही है?'' एक ने लापरवाही से पूछा।
''
यार के बिस्तर से।'' दूसरे ने चटखारा लिया।
''
हाँ, सच तुम्हें कैसे पता? '' मैं आश्चर्य से हंस दी।
''
हम भी यारों के यार हैं, साथ चलेगी?'' तीसरे ने मेरी बांह पकडी और मेरा हाथ चूम लिया।
''
नहीं, आज नहीं, फिर कभी।'' मैं ने पैसों के लिये कुरते की जेब में हाथ डाले।
देख कर एक ने कहा, '' एक पप्पी दे दे, पैसा मैं दे देता हूँ।''
''
नहीं, तुम बहुत बदसूरत हो।'' मैं ने जेब से पैसे निकाले और चाय वाले को दे दिये। वह अकबकाया सा मुझे देख रहा था।
मैं ने दोनों हाथों से सबको परे धकेला और वहाँ से भाग ली।

मैं चलती हुई पता नहीं शहर के किस हिस्स में आ गयी थी और अब तक थक गई थीकितना वक्त हो गया, मैं सडक़ों पर इस तरह नहीं चलीजब निकली कार के काले शीशों के अन्दर बैठ करलोग कहते हैं, दुनिया बहुत बदल गई है- क्या सचमुच?

मैं जाकर सडक़ के किनारे बैठे हुए मोची के पास जाकर बैठ गई, उसने संदिग्ध भाव से मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा,
'' , क्या चाहिये?''
'' कुछ नहीं, सुस्ता रही
हूँ।''
'' सुस्ताने के लिये तुझे और कोई जगह नहीं मिली ? चल चल मेरा धंधा खोटा मत कर
पुलिस वाले ने देख लिया तो''

उसने मुझे अपने एरिया के बाहर धकेल दियामैं उठकर चलने लगी तो उसने पीछे से आवाज दी,
'' ऐ सुन!'' मैं मुडी

'' सुस्ताना है तो रात को आना
''

मैं हँस दी, मोची भीऔर फिर मैं चल पडी 

                         -आगे                    

    1 . 2 . 3 

                                 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com