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सच्चा सुख बात बीस बरस पहले की है। उन दिनों मैं विवाह के उपरान्त लाला जयचन्द जी के घर के सामने किराये के मकान में रहती थी। एक दिन अचानक सामने के बंगले से किसी के रोने की आवाज आई थी। मैं ने देखा कि एक लडक़ा जो लगभग तीस वर्ष की आयु का था वो अपने पिता जयचन्द जी से बहस कर रहा था और बात बढते बढते इस हद तक पहुँच गई थी कि उसने अपने पिता को जिनकी उम्र लगभग सत्तर के करीब होगी, उन्हें इस बुरी तरह से ढकेला था कि वो गिर पडे थे। उनकी हड्डी टूट गई थी। उसके बाद वहाँ काफी भीड ज़मा हो गई थी। उसकी मां जो रेवा बा के नाम से प्रसिध्द थीं, जोर जोर से रो रहीं थीं और डांट रही थी कि क्या इसीलिये तुझे इतना बडा किया था कि ये दिन देखना पडे? मेरे जीवन में तो यह पहला अनुभव था कि बेटा बाप को मारे। अभी तक सुना तो था लेकिन पहली बार साक्षात अनुभव किया था। मुझे उस लडक़े से घृणा हो रही थी। जयचन्द जी को उठने में परेशानी हो रही थी इसलिये वहां अस्पताल से एम्बुलेन्स बुलाई गई। उनकी तबियत वहां काफी बिगड ग़ई थी। पुलिस ने उनकी रिर्पोट लिखना चाही और पूछा कि यह सब कैसे हुआ तो उन्होंने कहा था कि वे पलंग से गिर पडे थे। उनके साथ गए लोग उन्हें कितना समझाते रहे कि आप सच बता दें, ऐसे दुष्ट लडक़े को तो दण्ड मिलना ही चाहिये लेकिन जयचन्द जी ने पुलिस को अपने बयान में यही कहा कि वे पलंग से गिर पडे थे। गवाह साक्षी थे कि उनकी अपने बेटे से बहस हुई थी, वह जायदाद का बडा हिस्सा मांग रहा था और बात बढने पर उसने उन्हें धकेल दिया। लेकिन जयचन्द जी ने कहा कि ऐसा कुछ भी नहीं है और उनके लडक़े को कोई सजा नहीं मिली। डॉक्टर ने देखा पीठ पर डंडे के मारे हुए कई नीले निशान थे और पैरों की हड्डियों में तीन चार फ्रैक्चर भी थे किन्तु उनकी जिद के आगे डॉक्टर क्या किसी की भी नहीं चली उन्होंने अपना बयान नहीं बदला। अस्पताल में वे छ: महीने रहे और उसके बाद वापस कभी उस घर में लौट कर नहीं गये। मेरी उत्सुकता बढ ग़ई थी कि आखिर वे कहाँ रहने चले गये थे।उस क्षेत्र में उनका बंगला ख्यातिनाम था। जल्दी ही लोगों से उस घटना का पूरा ब्यौरा मुझे आस पास के लोगों से मिल गया। जयचन्द जी का तीन लडक़े और एक लडक़ी का भरापूरा परिवार था। हर समय मेहमानों का तांता लगा रहता। कहते हैं कि वे हीरे के बहुत बडे व्यापारी थे। अपनी जवानी में उन्होंने बहुत कमाया। एक बार कोई व्यक्ति उनके नाम का एक कमरा किसी वृध्दाश्रम में बनवाने के लिये दान मांगने आया था, तब उन्होंने उसे पांच लाख का चन्दा दिया था। उन्होने तब सोचा था कि वृध्द लोग उन्हें हृदय से आर्शीवाद देंगे। एक एक करके तीनों लडक़ों और लडक़ी का विवाह हो गया। तीनों बहुएं मिल जुल कर रहती थीं। सारे त्यौहार वे धूमधाम से मनाया करते थे। घर में बहुओं से रौनक आ गई थी। जयचन्द जी और रेवा बा खुशहाल वृध्दावस्था का आनन्द उठा रहे थे। उन्हें लगता था कि उनकी जीवनभर की तपस्या पूर्ण हुई अब। तीनों बेटे व्यापार में उनका हाथ बंटाते थे। बंग्ला काफी बडा था सबके अपने अपने बेडरूम थे पर खाना एक साथ ही बनता था। एक दिन बडी बहू ने न जाने अपने पति के कान में क्या मंत्र फूंका कि उसने जयचन्द जी से कहा कि वह अलग होना चाहता है। स्वतन्त्र रूप से रहना चाहता है। यानि खाना पीना भी अलग कर लेना चाहता है क्योंकि उसकी पत्नी के ऊपर घर के कामों की जिम्मेदारी अधिक आ गई है, बाकि दोनों बहुए तो मजा लूटती हैं। रेवा बा ने बहुओं को और जयचन्द जी ने बेटों को खूब समझाने का प्रयास किया किन्तु अन्तत: तीनों बहुओं ने अपने अपने रसोईघर अपने अपने हिस्सों में बना लिये। रेवा बा और जयचन्द जी अकेले रह गये। अब पैंसठ की उम्र में उन्हें अपने हाथ से खाना बनाना पडता था। बेटे बहुएं कोई झांकते तक नहीं थे। आस पडौस के लोगों में कानाफूसी होती जब तीनों बहुएं अलग अलग सब्जी खरीदने बाहर आतीं। साथ ही रेवा बा भी अपनी अलग सब्जी खरीदतीं। लोग मुस्कुराते और बातें बनाते। लोगों से यह बात अब छुपी न रह सकी कि वे सब अलग हो गये हैं। एक दिन बडे भाई ने बाकि दोनों भाइयों को पास बुलाकर मीटींग की और तय किया कि अब वक्त आ गया है कि वे पिताजी से व्यापार में अपना हक मांग लें। पर उनका सामना करने की किसी अकेले बेटे में हिम्मत न थी। अंतत: तय हुआ कि तीनों मिल कर यह बात पिताजी से करें। जयचन्द जी ने जब सुना तो उन्हें बडा आघात लगा। उन्होंने फिर समझाया कि आज व्यापार इतना बढा हुआ है कि इसमें जितना पैसा लगाया जाये कम है, फिर बंटवारा होने से तो इस पर बहुत बुरा असर होगा। लेकिन किसी ने भी यह बात नहीं मानी और बंटवारा होकर रहा। जयचन्द जी ने अपने लिये शेष जीवन के लिये आवश्यक पर्याप्त धन रख शेष तीनों बेटों में बांट दिया। व्यापार भी बांट कर उन्हें संभला दिया, घर अपनी पत्नी के नाम कर दिया। रेवा बा ने लडक़ों से कहा कि वे सब जब तक चाहें इस घर में रहें उन्हें आपत्ति नहीं है। दोनों बडे लडक़ों ने अपना अलग अलग मकान खरीद लिया किन्तु छोटा मां के ही साथ रहने लगा। दोनों को लडक़े का सहारा था, मन में संतोष था कि चलो एक लडक़ा तो उनके साथ है। एक दिन बडा लडक़ा उनके घर आया और उसने जयचन्द जी से कहा कि वे मकान भी बेच दें और अपने रहते हुए उस धन के तीन हिस्से कर दें नहीं तो बाद में कहीं यह आलीशान मकान कहीं छोटे को न मिल जाये। वैसे भी उसका व्यापार कुछ ठीक नहीं चल रहा उसे पैसों की जरूरत है। जयचन्द जी ने कहा कि यह असंभव है। छोटा लडक़ा उनके साथ अपने परिवार को लेकर रह रहा है। बची खुची एक यही तो चीज है जिसे वे अपने जीते जी नहीं बेचेंगे। सुबह का समय था, छोटा लडक़ा व्यापार के सिलसिले में घर से बाहर गया हुआ था। तभी यह बडा लडक़ा घर आया था। पहले धीरे धीरे बात करता रहा किन्तु जब उसने देखा कि पिताजी तो अपनी बात से टस से मस नहीं हो रहे तो उनकी पीठ पर उन्हीं की लाठी से जोर से दे मारा। जयचन्द जी वहीं गिर पडे। ईस पर भी उसने उन्हें उठाने की कोशिश नहीं की, बडबडाता हुआ वहीं खडा रहा। रेवा बा उन्हें उठाने में मदद करने आगे आईं। अभी वे पूरी तरह से उठ भी नहीं पाए थे कि उसने उन्हें जोर से धक्का दे दिया। अबकि बार जो वे गिरे उनके उठने की शक्ति जाती रही वे बेहोश हो गये और एम्बुलेन्स में उनको अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में छ: महीनों के दौरान बडा, मंझला लडक़े और दोनों बहुएं बच्चे मिलने आते थे, बडे लडक़े ने एक बार कहा भी, ''पिताजी मुझसे बहुत बडी भूल हो गई, मैं अकेले व्यापार चला न पाने के तनाव में था। मुझे माफ कर दीजिये। आगे से कभी मैं ऐसा व्यवहार नहीं करुंगा।'' पर सम्बन्धों में दरार आ गई। मानो प्रेम के धागे में टूटने के बाद जोडने पर गांठ पड ग़ई थी। नफरत से जयचन्द जी ने मुंह फेर लिया। किन्तु कभी डॉक्टर और पुलिस या किसी के भी सामने कह न सके कि क्या हुआ था? सबसे यही कहते पलंग से गिर पडा था। तन से ज्यादा तो मन पर चोट आई थी। धीरे धीरे वह दिन भी आया जब डॉक्टर ने उन्हें घर जाने की इजाजत दे दी। उन्होंने रेवा बा से कहा कि उनकी एक इच्छा है क्या वे पूरी करेंगी? तब उन्होने कहा कि, '' मेरा जीवन तो आप ही के लिये है। आप के कारण तो मैं माथे में सिन्दूर लगाने की अधिकारिणी हूँ। कह डालिये आपको क्या कहना है?'' '' इस बार मेरी घर जाने की इच्छा नहीं है। यदि मुझे तुम्हारा साथ मिले तो मैं बाकि की जिन्दगी वृध्दाश्रम में गुजारना चाहता हूँ। क्या तुम इसके लिये तैयार हो? '' उन्होंने कहा तो रेवा बा ने सहर्ष अपनी सहमति दे दी। छोटे लडक़े से उन्होंने वचन लिया कि उनकी मृत्यु के बाद अपनी मां का ख्याल रखना। उन्होंने अपनी पत्नी के बाद छोटे के नाम बंगला कर दिया। जयचन्द जी रेवा बा के साथ वृध्दाश्रम आ गये। यहाँ उन्हें नई ही दुनिया देखने को मिली। उन्होंने पाया वहाँ रहने वाले अन्य लोगों के दु:खों के आगे उनका दु:ख तो कुछ भी नहीं। हम लोगों के पास कम से कम पर्याप्त धन तो है कि वे जो चाहें खरीदें, जहां चाहें यात्रा करें और बाकि के दो बच्चे और उनके परिवार के लोग और बेटी कम से कम कभी कभी तो मिलने आते हैं। लेकिन वहाँ जो लोग थे, उन्हें तो जैसे उनके बच्चे घर से निकाल कर भूल गये थेवृध्दाश्रम आने से पहले जिन्होंने अपने माता पिता के भरपेट खाने तक पर पाबन्दी लगाई थी। इस उम्र में भी कमा कर पेट भरना पडा करता था उनको। किसी को अपने लडक़े से शिकायत थी तो किसी को बहू से। वहाँ पर एक रुक्मणी बा थीं उनकी स्थिति काफी खराब थी, उनसे रेवा बा ने पूछा तो वे रो पडीं। उन्होंने बताया वह एम ए तक पढी हैं। उसके चार बेटे हैं, सबकी शादी हो चुकी है। किन्तु घर में सबकी नजर उसी के पैसों पर थी। सारी जिन्दगी हाड तोड मेहनत की थी, शिक्षिका थी तो जो कुछ पैसे बचा पाई वो उसने बैंक में फिक्स करवा कर रख दिये थे। बस एक दिन चारों बच्चों ने उससे यह कह कर कि वह उन्हें ॠण दे दे थोडे ही समय में वे उसे वापस कर देंगे। उसके भोलेपन का फायदा उठाते हुए उससे पैसे तो ले लिये और जो हर महीने ब्याज आता था वह भी हाथ से गया। हालत इतनी खराब हो गई कि उनके खाने पर भी बहुओं ने टोका टोकी शुरु कर दी। कहती थीं कि इस बुढापे में इनको खाने का कितना लालच बढ ग़या है। उन्हें हलुवा बहुत प्रिय था। वह भी सूजी की जगह आटे का, वह भी खाने को तरस गईं। यहाँ वृध्दाश्रम आकर अब शान्ति है। अपनी पेन्शन के पैसों से चाहे समाचार पत्र पढे या कोई किताब खरीदे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पडता है न किसी के आगे हाथ फैलाना पडता है। उस वृध्दाश्रम में एक नियम था। सभी लोगों को सुबह पांच बजे उठ जाना पडता था और फिर नित्यकर्म से निपट कर प्रार्थनासभा में जाना पडता था, जहाँ कभी मुरारी बापू तो कभी आसाराम बापू के प्रवचन सुनने का सुअवसर भी मिलता था। सबसे बडी बात यह थी कि सभी वृध्द लोगों को एक एक जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उन सभी को चाय नाश्ते व खाने के समय साथ रहना होता था। वहाँ लाईब्रेरी भी थी और खेलने के लिये एक छोटा सा मैदान था। जयचन्द जी को अपना बचपन याद आ गया। धीरे धीरे वे पूर्ण स्वस्थ हो गये। अब उन्हें लकडी क़े सहारे की जरूरत नहीं थी। उन्होंने अपने पिछले जीवन को भुला दिया था। रेवा बा भी खुश थीं यहाँ। अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ वे रचपच गईं थीं। वृध्दाश्रम के रूप में उन्हें अमूल्य रत्न हाथ लगा था। सुन्दर उपदेशों के रूप में प्राप्त पारसमणि के स्पर्श पश्चात पिछले जीवन की लौह कालिमा अब अमूल्य कंचन में परिणित होकर जीवन को प्रकाशित कर रही थी। उन दोनों को लगने लगा था कि यहाँ तो उन्हें बहुत पहले आ जाना चाहिये था। घर पर तो वे लोग अपने लिये समय ही नहीं निकाल पाते थे पर यहाँ सारा समय अपने ही लिये था। इस प्रकार वृध्दाश्रम में जयचन्द जी और रेवा बा बहुत ही आनन्दपूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं। कुछ दिन पहले ही मैं उनसे मिलने गई थी, उनसे पूछा कि क्या उनको अपना परिवार याद नहीं आता? कभी उन सबसे मिलने की इच्छा नहीं होती? तो आंखों में आंसू भर रेवा बा ने कहा था - अब यही मेरा परिवार है। इन सबके बीच हमें जो अपनापन मिला है वो खून के रिश्तों से भी बढ क़र है।अब ये ही मेरे अपने हैं। पास बैठे जयचन्द जी मुस्कुरा रहे थे। – जया शुक्ला |
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