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बेघर आंखें
भयभीत आंखें! सहमा हुआ चेहरा! शब्दों से बेखबर! वह रसोई के दरवाजे पर आ खडी हुई है। उसका कोई न कोई नाम तो अवश्य होगा। इस परेशानी के वातावरण में भी वह क्या सोचने बैठ गया है। पुरुषोत्तम नायर वही नाटक दोहरा रहा है जो कि वह पिछले वर्ष भर से करता रहा है। ''
मैं आपका घर ले के भागने वाला
नहीं जी हमारे साथ कब्बी बी ऐसा नहीं हुआ जी कि अपुन के साथ कोई झोंपड
पट्टी वाले की माफिक बात करे।'' क्या क्या सपने दिखा कर
बम्बई लाया होगा।
मायावी नगरी बम्बई...पहले
ही दिन उसे क्या क्या जलवे दिखा रही है।
वह शायद थोडी ही
देर पहले नहा कर गुसलखाने से बाहर निकली है।
उसके बाल गीले हैं
उसने एक प्यारा सा छोटा सा कुत्ता गोद में उठा रखा है।
सूरी साहब की घुडक़ी
सुन कर कुत्ते को महसूस हुआ कि उस पर दबाव थोडा बढ ग़या है वह घबरा कर अपनी
मालकिन की ओर देखने लगा है।
मालकिन हिन्दी न
जानते हुए भी घटनाक्रम को समझने का प्रयास कर रही है। ''
ठॉव हायका तुला,
पाटिल मणयातल मला।'' मैं घबरा कर महेश को अलग
करने का प्रयास करता
हूँ। महेश मुझ पर
नाराज होने का नाटक करता है, ''
भाई साब, अब्बी बीच में नहीं
बोलने का।
मां कसम,
इसने अगर अब्बी का अब्बी फ्लैट खाली नहीं किया तो इसका
सारा सामान चौथे माले से नीचे फेंक दूंगा।''
नायर ने ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी।
उसके दिमाग में तो
यही योजना उडान भर रही थी कि किस प्रकार फ्लैट को हडप लिया जाये।
फ्लैट का मालिक तो
लन्दन में रहता है,
भला उसके पास समय
कहाँ
कि बम्बई आकर लफडे में पडे।
उसे पूरी पूरी
उम्मीद थी कि वह फ्लैट हथिया लेगा।
किन्तु यहां तो
पूरा मामला ही पलट गया था। '' शुक्ला जी, हमको आपके घर में रहने का भी नहीं जी। सच बोलेगा तो, इस घर में कोई है जी, कोई रहता है बहुत तंग करता है जी। हमने कितनी पूजा करवाई जी, मगर कोई फायदा नहीं...रात को जब बेडरूम में सोता जी तो जैसे कोई मेरा गला दबाता जी। हमको ईदर रहने का कोई शौक नहीं जी। इस घर में भूत जी।'' नायर ने बेडरूम की तरफ इशारा करते हुए कहा। ''
अरे नायर,
जब तुम उस भूत के पति
को इतना परेशान करोगे,
तो वो भूत तुमको छोडेग़ा क्या?
'' ना जाने यह बात
अचानक मेरे मुंह से कैसे निकल गई। लेकिन उसके बाद एक पल भी मेरा व्यक्तित्व
वहां मौजूद नहीं रह पाया। रसोई के दरवाजे के निकट भीगी बिल्ली की गोद में
डरा सहमा कुत्ता मुझे परेशान करने लगा। मैं परेशान,
अपनी यादों के ताजमहल से दूर लंदन में बैठा।
वहां की सर्दी में
भी पसीना आ गया।
अगर उसने अठ्ठारह
बाई दस के कमरे में छ: बाई छ: का मन्दिर खडा कर दिया तो मेरा लिविंग रूम लग
कैसा रहा होगा?
लेकिन मन्दिर तो मैं ने रसोई में बनवा रखा था,
एक छोटा सा लकडी क़ा मंदिर जनार्दन से बनवाया था।
उसमें शंकर भगवान
से लेकर ईसा मसीह तक को प्रतिष्ठित कर रखा था।
फिर नायर को इतना
बडा ढांचा लिविंग रूम में बनवाने की क्या जरूरत आन पडी थी? और मैं सूरी साहब को खिसका हुआ माना करता था। चन्द्रकान्त मेरे कहे अनुसार नायर से पैसे तो वसूलता रहा लेकिन उसे मेरे बैंक के खाते में न डाल कर अपने खाते में जमा करवाता रहा। मैं जब भी लन्दन से फोन करके पूछता, तो जवाब मिलता, '' चिन्ता नको, भाई साहिब भाडा मैं ले आया था।'' झूठ भी तो नहीं बोलता था।
किराया तो ले आता
था, लेकिन खा
जाता था।
बंबई के प्रति मेरे सारे भ्रम उसने तोड दिये थे।
मैं तो घर किराये
पर देना ही नहीं चाहता था,
बस चन्द्रकान्त ने ही फंसा दिया था।
'' भाई साहब
आप भी कमाल करते हैं।
सुना नहीं खाली घर
भूत का वास।
घर खाली रखेंगे तो दीवारें
तक खराब हो जायेंगी।
किराये पर दे देते हैं।
भाडा हर महीने मैं
कलैक्ट करता रहूंगा और आपके बैंक में जमा करवाता रहूंगा।
कम से कम सोसायटी
का तो खर्चा निकलता रहेगा।'' आज तो आलोक भी यही कह रहा
है, '' आप भी
कमाल करते हैं।
मुझे क्यों नहीं
सौंपी यह जिम्मेदारी।मुझसे
कहा होता तो कम से कम यह दिन नहीं देखना पडता।''
आलोक चन्द्रकान्त नहीं बन जायेगा,
यह भी तो विश्वास की ही बात है न।
इस मामले में
विश्वास तो करना ही पडता है।
किन्तु विश्वास
निभाया तो सूरी साहब ने।
छडे छांट अकेले
रहते हैं।
मजाल है किसी का अहसान रख
लें।
रिटायर्ड जीवन बिता रहे
हैं।
घर में बस एक नौकरानी है।
किसी के जीवन में
दखल नहीं देते।
अपने काम से काम रखते हैं।
आंख कान खुले रखते
हैं।
सब कुछ जानते हुए भी मस्त
मौला बने रहते हैं।उनके
साथ पहली मुलाकात की यादें बहुत कडवी हैं।
न जाने कब वे मित्र
अन्तत: घर के सदस्य ही बन गये।
चांदनी की बीमारी
में अस्पताल ले जाने से भी पीछे नहीं हटते थे।
सही आन बान वाले
ठेठ पंजाबी।
दिल के राजा।
उनकी कडवी बातों
में भी एक सच्चाई होती है।
उनका भी यही कहना
था कि जब बम्बई छोड क़र लन्दन बसने जा रहे हो तो घर बेच कर जाओ।
उस समय मुझे सूरी
साहब पर संदेह हुआ था।
क्योंकि फ्लैटों की
दलाली ही तो उनकी आय का मुख्य स्त्रोत है।
शायद दलाली बनाने
के चक्कर में हैं।
उस समय चन्द्रकान्त
बहुत अपना लग रहा था।
उसका मीठा अपनापन
सूरी साहब के कडवे सच्चे अपनेपन पर विजयी हो गया।
और पुरुषोत्तम नायर
आ बैठा मेरे घर, ''
जी, मेरी वाईफ है,
दो बच्चे हैं।
फिल्मों के लिये
एक्स्ट्रा सप्लाई करने की एजेंसी है मेरी।'' – आगे पढें |
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