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छुटकारा
इतना
मान! सुरेखा ने घूंघट में से आंखें तरेर कर देखा था।
झीने घूंघट में से उसकी नजर छन्नो ने भांप ली।
वह मझोले कद की हृष्ट - पुष्ट स्त्री पान चबाती हुई उमेश की
ओर मुस्काई थी।
अपनी छींटदार उजली सी धोती के आंचल को होंठों पर ढकती हुई
बोली, ''
भइया, बहू जी!''
सुरेखा
अम्मा जी के व्यवहार से तमतमा गयी और बोली
- ''
बच्चा क्या जाने? '' सुरेखा के सामने छन्नो का सारा इतिहास खुला पडा है। उमेश बताते हैं - विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की डिग्री लेने के बाद दो बरस कठिन गुजरे। जिस दिन उनका भाग्य खुला, उस दिन सबेरे - सबेरे छन्नो अपनी डलिया झाडू क़े साथ सामने पडी थी। हमारी गली के पंडित डंबर प्रसाद कहा करते हैं कि यह बात शतिद्दया है कि मेहतरानी के प्रात: दर्शन शुभ होते हैं। सच में ही उमेश को उस दिन सेनेटरी इंसपेक्टर की पोस्ट मिली थी। उमेश उत्साह में आकर कहते हैं - मैं ने अपने आत्मीयों, देवताओं के साथ छन्नो का नाम भी शामिल कर लिया था जिनके आर्शिवाद, कृपा और दर्शन में चमत्कार है। अम्मा जी बताया करती है- छन्नो का इस गली में आना - जाना आज से नहीं, वह तब से संडास कमा रही है जब वह महज चौदह साल की थी।छन्नो की सास जब गुजरी तो बेटा मिस्सी अठारह का था। ब्याह हुआ न था सो अकेला था। पेट के लिये चार रोटी चूल्हे पर सेंकना उसके लिये कोई मुश्किल बात न थी। पर सीता गली के घर? मेहतर बस्ती की औरतों ने लडक़े को समझाया कि वह यह धंधा नहीं कर पाएगा। संडास कमाने में जनानियां माहिर होती हैं। मिस्सी ने सबकी बात सुनी पर की अपने मन की। मां की सीता गली भला वह इन औरतों के हाथ बेच दे! नहीं। उसने अपना ब्याह करने की ठानी और एक महीने के भीतर अपने मामा की मदद से छन्नो को ब्याह लाया। ये ही अम्मा जी सुनाया करती थीं - चौदह साल की दुल्हन रेश्मी घाघरा - पोल्का पहने और पीली ओढनी में लिपटी हुई जब गली में घुसी तो कंचा गोली खेलते बच्चे खेल बन्द करके अपने घरों में भागे। खबर ऐसे दी कि गली जाग उठी। सच में पान से पतली फूल से हल्की गुडिया सी लडक़ी हाथों में चांदी के दस्तबंद, बांहों में बाजूबन्द और गले में गुलूबन्द से सजी परी - सी लग रही थी। अपने मेहतर की बहू, घर की मालकिनें धान - फूल, गुड - बताशे थाली में सजाने लगीं। छन्नो जिसकी चौखट पर शीश टेकने जाती वही उसका आंचल भर देती। सामान
इतना हो गया कि छन्नो के आंचल में समाये नहीं।
मिस्सी ने गली में चादर बिछा दी।
फिर क्या था मनों गेहूं,
पसेरियों गुड,
सेरों बताशे जमा हो गये।
चूडी,
बिन्दी, बिछिया,
चुटीला से लेकर चांदी की तोडियां
तक।
ओढनी के भीतर छन्नो की आंखें झुकी हुई थीं।
वह बार बार चौखटों पर सिर टेकती।
बडी बूढियों ने ऊंची आवाज में रोका
-
बेटी बस कर।
कमर रह जायेगी। वह दिन है और आज का दिन, छन्नो ने सीतागली को अपनी ओढनी की तरह उजला रखा है। ईंटों के खरंजे वाली ये गली जब लाल रंगत में दमकती है तो यहां से गुजरने वाले डाह से देखते हैं। रामघाट रोड से शुरु होने वाली गली विष्णुपुर बजरिया में जा खुलती है। एक और दो मंजिल वाले कच्चे - पक्के घर इस आठ फीट चौडी ग़ली के आजू - बाजू ऐसे खडे हैं, जैस गले मिलना चाहते हों। सीवर लाइन की व्यवस्था न होने के कारण फ्लश सिस्टम नहीं है। इतनी संकरी गली में सेप्टिक टैंक बनना भी मुमकिन नहीं। कारीगरों की राय है कि गली में फिर बदबू के कारण रुका नहीं जायेगा। अत: देसी संडासों की सम्पदा बहाल है। जो छन्नो की अपनी संपत्ति है। डलिया, खपरा और झाडू क़े जरिये वह हर ओर से इन्हें निखार - पखार कर रखती है। नई मेहतरानी लडक़ी जब संडास कमाने का काम शुरु करती है तो छन्नो के पास पूर्व प्रशिक्षण को जरूर आती है। खपरा और झाडू क़े मेल से संडास के भीतर से इस तरह से मैला खींचना है कि कहीं एक रेशा न चिपका रह जाये।और फिर राख बिछी डलिया पर किस कौशल से छन्नो रखती है कि एक बूंद भी टपके नहीं। मेहतरानियां देखती रह जाती हैं। छन्नो की बांहों की ताकत कि पुख्ता कमर का जोर। सारी गंदगी झाडू क़े सहारे नालियों में खींचती हुई बडी नाली तक ऐसे पहुंचा देती है, जैसे नाली के बीच में कहीं सकिंग पंप लगा हो। सवेरे से मुंह नाक पर बंधा आंचल दोपहर तक खुल जाता है। वह एक नजर मुग्ध हुई देखती है - गली चमाचम है। कोई देख ले तो पहले सकुचा जायेगी फिर पान रचे होंठों से हंसेगी और नखरे के साथ कहेगी - ऐसे ही नहीं रहती सीता गली बनी संवरी, हर महीने झाडू - ख़परा और डलिया बदलती हूं। मैल से मैल कटता है कहीं? अम्मा जी कहती थीं - सीतागली के माथे छन्नो मढ ग़यी कि छन्नो के गले सीतागली पड ग़यी। छुट्टी - नागा का नाम भी तो नहीं लेती। हमें याद नहीं कि छन्नो ने गली को कभी गंदा मैला छोड क़र एक दिन अपने घर बिताया हो। हारी - बीमारी, रोग - क्लेश या तो उसके जीवन में आये नहीं या उसने बताये नहीं। बस एक बार पंद्रह दिन के लिये दूसरी मेहतरानी काम करने आनप लगी थी। घरों के मर्दों ने पूछा - छन्नो कहां है? बताया गया कि उसके यहां बेटी पैदा हुई है। बच्ची का जन्म हुआ और घर - घर कुर्ता - टोपी सिले जाने लगे। झुनझुने और चांदी के ताबीज आये। काले धागों से कोंधनी बटी गयी। स्वेटर मोजे जमा हुए। अम्मा ने जिद करके निवाड क़ा पालना मंगाया। वे गली की औरतों के मुकाबले कुछ विशेष देना चाहती थीं। पंडित जी के घर से लड्डू आये और मुंशी जी ने फल दिये। पेशकारनी ने थोडी सी मेवा बांध दी। राजपाल सिंह के घर से आधा किलो घी आया। ऐसा ही तमाम सामान दो स्कूटरों पर लादा गया। उमेश और राजपाल सिंह स्कूटरों पर मेहतर बस्ती गये थे। चलते समय अम्मा ने कहा था - छन्नो बहू बन कर आयी थी गली में, आज तुम बहन मान कर छोछक लिये जा रहे हो। सामान से लदे - फदे बस्ती पहुंचे तो वहां के लोग चकाचौंध हो गये। झटपट दो खाटें बिछा दी गयीं। खाटों पर बैठने की फुरसत किसे थी? सारा सामान छन्नो के बसेरे में रखवा दिया। उसकी बस्ती में लोग आयें और वह न मिले? छन्नो अपनी नवजात बेटी को लेकर चली आयी। रंगत एकदम सफेद हो गयी थी। बदन भी कमजोर सा। शरमा रही थी कि बोल नहीं पा रही थी। बस बांहों सधी बेटी को आगे कर दिया। कुलबुलाता हुआ गुलाबी सा फूल! उमेश और राजपाल सिंह की आंखें चमक उठीं। तभी पंडित डम्बर प्रसाद का संदेशा भी दे डाला - छन्नो, पंडित जी ने पत्रा में से इस बेटी का नाम सोधा है राजरानी। छन्नो ने राजरानी को रज्जो कहकर पुकारा। उसकी अपनी जिन्दगी में अपना ब्याह और बेटी का जन्म दोनों मुबारक मौके थे। एक बार वह गम के भीषण दरिया से भी गुजरी थी। मिस्सी पलटन में सफाई कर्मचारी था। घुसपैठ क्षेत्र में डयूटी लग गई। एक दिन उसके गायब होने की खबर मिली तो छन्नो का दुख गली बर में फैल गया और जब उसकी मौत की शिनाख्त हुई तो सीतागली शोक में डूब गयी। हर घर से एक एक सदस्य छन्नो के पास पहुंचा। औरतें तो पास खडी होकर बाकायदा रोईं। साथ ही कुछ रूपए, कुछ अनाज और कुछ कपडे सां5वना रूप में उसे दिये और आगे के लिये हौसला बंधाया। कामगर स्त्री, मेहनत मशक्कत के चलते शोक से जल्दी उबर आई। आंसुओं की जगह पसीने ने ले ली।
सच में
ही लोगों को मिर्जा जी से यही आशा थी कि वे एक बात में ही छन्नो का घर घूरा
कर देंगे।
शेर - गज़ल कहने वाले मिर्जा जी पेंशनयाफ्ता पटवारी हैं।
पतली - पतली कमर वाले तीन चार लोगों को शेरो शायरी की
दीक्षा देते हैं।
दोपहर भर बैठक में किवाड बन्द रखते हैं।
मिर्जा जी की पीठ के ठीक पीछे बैठे बालूशाही वार्ष्णेय ने
जोर
से बोला
- ''
मुकर्रर।''
अब यह दीगर बात है कि मिर्जा जी और बालूशाही वार्ष्णेय
की जानलेवा अदावत चल रही है,
क्योंकि बालूशाही का परिवार तीन पुश्तों से मिर्जा के घर की
ऊपरी मंजिल में किरायेदार होकर भी बेकिराये काबिज है।
परन्तु यह बात निपटेगी कचहरी में।
आज तो सीतागली के निवासियों के संगठन की बात है।
सो बालूशाही ने आगे जोडा,
'' लडक़े तो लडक़े,
ये सरकशों की खाला
बूढों
तक
का ईमान डिगा दें और इनके मर्द इसी बात पर ऊंची जाति की टांग खीचें।
बडा संगीन मामला है साहब।'' लोगों
के बीच से पहलवान राजपाल सिंह बोले
- ''
वाह जी वाह! तुम क्यों मकान बेचोगे? आने दो साली
को, मजा चखा देंगे।
अपनी औकात भूल गयी।'' राजपाल
सिंह के दिमाग में एक बात और आई,
उन्होंने सभा के सदस्यों से पूछा, ''
इतने रुपये उसके पास आये कहां से?
माना कि घर कच्चा - पक्का और अत्यन्त
छोटा है पर पच्चीस तीस हजार से कम तो गया होगा।
किस यार से ले आई रकम?''
सारी
बातें छन्नो के खिलाफ थीं।
गली में जहरीली हवा के थपेडे
आ
रहे
थे।
उमेश का मन आहत सा हो उठा।
क्या हो गया अगर घर खरीद लिया तो?
आजकल इतना भेदभाव कहां चलता है?
उनके अपने दफ्तर का माहौल कैसा है,
साहब वाल्मीकी हैं,
फिर भी सब झुक कर सलाम करते हैं।
उसके झूठे गिलास उठाते हैं।
पहले थोडा अजीब सा लगता था लेकिन अब।
यह माना कि वह दफ्तर है और यह गली।
छन्नो के ऊपर भी आश्चर्य होता होता है,
ब्राह्मण बनियों और कायस्थ ठाकुरों की इस गली में आने
से पहले एक बार भी नहीं सोचा कि यहां बसने की इजाजत उसे कौन देगा?
हद है हिम्मत की।
उमेश को इतना तो पता था कि पच्चीस हजार उसे पति के फण्ड से
मिले हैं।
अब इतने दिनों बाद।
कागजात वह उमेश को ही दिखाया करती थी।
यह बात वे सभा में कह सकते थे,
मगर नहीं कही।
यह भी नहीं बोल पााये कि उस पैसे को वह ऐसी चीज में खर्च
करना चाहती थी जो उसकी बेटी की शिक्षा और सुरक्षा का साधन बने।
कैसे कहते?
उस बैठक में तो लोगों के तेवर
इतने चढे हुए थे कि कोई बात पर गौर न करता और करता भी तो उमेश को छन्नो का
हिमायती बता कर मीटिंग से उठा देता।
आगे होने वाली बातों से वे अनभिज्ञ रह जाते।
सभा समाप्त हुई तो यह बात पक्के तौर पर समझ आ गयी कि अब लोग
छन्नो की जिन्दगी के बारे में नहीं,
तबाही पर विमर्श करना चाहते हैं।
आगे क्या अनहोनी हो! रात हो गयी थी। गली में अंधेरा था। उमेश जूते कसने के बाद टॉर्च मांगने लगे। बोले, '' गली के लट्ठों के बल्ब टूट गये हैं। रोशनी थोडी ही सही, टॉर्च से रास्ता तो सूझेगा। कुसुमी की अम्मा वाले घर के आगे बल्ब जल रहा था। उमेश ने हाथ की टॉर्च ऑफ कर दी। सामने देखा दो रिक्शे चले आ रहे हैं। अच्छी तरह पहचान लिया, अगले रिक्शे पर लदे सामान के साथ छन्नो बैठी है और पिछले में कन्धे पर बैग सा लटकाये, थोडा सा सामान लिये छन्नो की सोलह वर्षीया बेटी रज्जो चली आ रही है। पिछला रिक्शा आगे वाले को जल्दी चलने के लिये घण्टी दे रहा है। उल्टे लौट लिये उमेश। अब आगे जाकर उसे रोकने का कोई मतलब न था, गली तक आकर वह लौटेंगी, इस बात पर भरोसा न था। हां,
लौटते समय लगा कि उमेस के भीतर पंडित डम्बर प्रसाद,
रामनाथ र्मिज़ा, मुंशी जी,
राजपाल सिंह और पेशकार की आवाजें उठ रही हैं -
उन
आवाजों
को
दबाते हुए वे घर की ओर चले जा रहे हैं तो वो लोग लताडने पर उतर आये।
साले तुम तो आजकल उस भंगी की मातहती में भंगी हुए जा रहे हो,
जो तुम्हारी नौकरी का
ताल्लुकेदार है।
तरक्की प्रमोशन के लालची मुंह सिल कर गली को गलीज कराने पर
तुल गये।
कर रहे हो समाज का कल्याण! सब ढोंग,
स्वार्थ।
जिस गली
में उमेश और छन्नो खडे थे वहां बहुत आवाजाही न थी,
फिर भी उमेश चौकन्ने थे।
छन्नो के चेहरे पर तैश था।
उमेश बोले,
'' जो कहना हो धीरे कहना कि हम
लोगों पर किसी का ध्यान न जाये।
गली का माहौल भडक़ा हुआ है।'' मिर्जा
जी आज हमारी हरमजदगी उघाड रहे हैं।
भूल रहे हैं चार - पांच महीने पहले बीमार हुए थे।
अकेले घर में हगासे - मुतासे पडे रहते थे।
जब कोई न आया तो खाट के ढिंग ढिंग गू के छत्ते जमा कर लिये।
उस दिन ऐसा मन अकुलाया कि भगवान से अरज करी कि तू हमारे
पांवों में पहिये लगा देता तो यह बूढा मैले में तो न गिंजता रहता।
फिर दो दिन हम अपनी बस्ती नहीं गये।
मिर्जा जी हगें और हम उठावें।
घर में बदबू की रमक जो छोडी हो। रज्जो
नादान आते आते याद लगवाती रही थी
-
अम्मा, मरी डुकरिया के
लत्ता मत लाना।
हमें डर लगता है।
मैं ने कहा
-
लडक़ी, तू मालिकों के बालकों की तरह डरने की बात
करेगी तो गली के घर कैसे कमायेगी? वह बोली
- नहीं कमाने हमें तेरी
गली के घर।
गू - मूतों में सनी लिसडी तू ही रह।
हमें तो डलिया छूते बास आती है।
स्कूल में सब हंसी उडाते हैं। दिल
तोडना! छन्नो इस मामले में बडी क़मजोर
निकली,
दिल नहीं तोड पाती।
पेशकार का दिल,
पेशकारनी का दिल गली में जोरों
की चर्चा फैली थी कि पेशकार के बेटे के कनछेदन में छन्नो पेशकारनी ने नाचने
- गाने बुलाई थी।
बडी - बूढियों का मानना है कि हिजडा,
मेहतरानी और कुम्हार,
नाइयों की असीसें बच्चे को बुरी नजरों
से बचाती हैं।
उस दिम मेहतरानियों की जमात सीतागली में आ जुडी थी।
गली घेर ली।
आवा जाई बन्द हो गयी।
ऐसा नाच हुआ कि झनकार आसमान तक गयी।
ढोलक की थाप हवा में गूंजने लगी।
छन्नो चुनरी छाप लाल साडी पहनकर बांहें लहराती हुई नाच रही
थी - सर्दी
का मौसम,
जाडे भरे दिन।
पेशकार साहब का जवान जिस्म शेरवानी में और जुल्फोंदार सिर
काली टोपी में,
नाच देख कर मुग्ध हो गये।
छन्नो उन्हीं की सरकश जवानी की दाद दे रही है।
टोपी में छिपी जुल्फों से घायल है।
शाम से रात तक गीत की कडी उनके होठों पर थिरकती रही। कच्चे घरों से घिरे चौक में स्वादों के सोते फूटे थे। साग - रायतों के कुल्हड। पूरी कचौरियां, बंधी पत्तलों में से उठती जायकेदार खुश्बू, शकोरों में दही बूरा। लड्डुओं का झावा अलग। मेहतरों की किस्मत! छन्नो की देह चिडिया जैसी हल्की हो गयी। लगा कि पंख भी निकल आये। उडने को जी चाह रहा था। छत्तीस व्यंजन, छप्पन भोग लेकर फरिश्ता उतरा है। छन्नो को देख रहा है। वह भी देवता को निहार रही है। देवता की आंखों से उठती चाह! छन्नो सकपका गयी। नजरों में न्यौता, उसने आंखें फेर लीं। मगर दया - कृपा का बोझ एक दिन
एकान्त में बांहों में भर ली छन्नो।
अहसान से दबी थी कि अपने ही अन्दर झुकी हुई?
जो उसे छूने से बचते हैं,
उनमें से ही कोई उसकी देह से लिपटना
चाहता है।
अरज पर उतर आया।
अब छन्नो क्या करे?
दिल तोड दे या निहाल कर दे? रात होती, सबेरा निकलता। छन्नो कश्मकश के हिंडोले पर सवार थी कभी पेशकार को दुत्कार देती, कभी गले लगा लेती। कभी दोनों ही बातें गलत लगतीं। कभी दोनों सही। बातचीत और सोचने - समझने में कितना समय बीत गया। पता ही न लगा। छन्नो ने ही ध्यान तोडा, '' उमेस भैया, काम का टैम है। दोपहर को घर आऊंगी।'' पंडित
डंबरप्रसाद का दरवाजा अब तक न खुला था।
छन्नो कुछ देर बन्द
किवाडों
पर खडी रही।
समझ भी गयी कि द्वार उसके ऊपर ही बन्द किया गया है।
उमेश ने ऐसा ही इशारा तो किया था।
चलो चार छ: दिन में गुस्सा थूक देंगे।छन्नो
संडास के पीछे वाली गैलरी से घुसी और मैला समेट कर डलिया में भर लिया।
घडे में पानी भरा था,
उसी से पाखाना धो डाला।
पांच दस मिनट तक खडी देखती रही,
कोई निकले शायद,
मगर घर तो सुन्न हो गया हो जैसे।
कहां पंडित जी अब तक नहा धो कर जोर जोर से मंत्र पढते हुए
पूजा कर रहे होते थे।
मिर्जा
जी के छज्जे के ऊपर उनका पतली कमर वाला चेला ठठाकर हंस पडा।
रज्जो आगबबूला हो गयी,
'' आजा नीचे,
तुझे मजा चखा दूं।
हरामी खसिया।'' तभी
बाहर से मुनादी जैसा शोर आया,
'' रंडी आ गयी है।
बहन की लौंडी बनती है सीता।
हम भी इन भंगिनों से निपट लेंगे।
सालियों की टांग पर टांग रख कर चीर देंगे।'' |
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