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लाईफ स्टाइल
टैक्सी तेजी से आगरा की ओर दौड रही थी और मेरा मन विदेशी दंपत्ति के प्रति
अजीब - सी वितृष्णा से भरता जा रहा था।
मैं मन
ही मन उस क्षण को कोस रहा था,
जब मैं ने इस दंपत्ति को टूंडला से आगरा अपने साथ
टैक्सी में ले चलने का प्रस्ताव किया था।
लेकिन
अब तो अपने ही दिये वचन का सम्मान करना था
-
देश की
प्रतिष्ठा का सवाल जो था। कोई
छ: फुट से अधिक की निकलती हुई लम्बाई थी मिस्टर जॉनसन की,
जबकि मिसेज एलेन की लम्बाई पति की तुलना में काफी कम
कोई सवा पांच फुट के लगभग की थी इस कद के हिसाब से यह जोडी बेमेल लग रही थी।
लेकिन
यदि पति - पत्नी के मन मिल रहे हों तो बाकी सारी विषमताएं बेमानी हो जाती
हैं
-
यह बात
दुनिया के हर कोने में लगभग एक जैसी देखी जा सकती है।
दोनों का रंग पके सेब की सी ललाई लिये हुए गोरा था।
जॉनसन
की उम्र 42 -
43 के बीच की सी लग रही थी तो एलेन की 40
से कम की नहीं रही होगी।
जीन्स
और टी शर्ट में दोनों के शरीर का गठीलापन उजागर था।
गोमती एक्सप्रेस की ए सी चेयरकार में यह दंपत्ति उल्टी तरफ से घुसा था जबकि
उनका सीट न 4
व 5 था।
एयर -
बैगनुमा बडे थैले में जरूरी सामान की किट दोनों की पीठ पर थी।
ट्रेन
के लखनऊ से रवाना होने के कुछ ही मिनट पहले दोनों इस डिब्बे को तलाश सके थे।
ट्रेन
के प्लेटफाम पर रेंगना शुरु करने तक दोनों अपनी - अपनी सीटों पर नम्बर
खोजकर कर आश्वस्त हो चुके थे।
लेकिन
अगले ही पल उनके चेहरों पर असुविधा की लकीरें उभरने लगी थीं।
दोनों की सीटों के नम्बर क्रम से होने के बावजूद सीटों में एक पंक्ति का
अन्तर था।
यानी
4
न की सीट के ठीक सामने वाली पंक्ति में 5
न की सीट थी।
यूं तो
पूरे कूपे में सीटों की व्यवस्था दो - दो लोगों में
3 - 3
की थी, लेकिन गैलरी के गेट
के कारण पहली पंक्ति में दो ही दो सीटें थीं।
विदेश यात्रा क्या,
स्वदेश - यात्रा पर भी निकले किसी दंपत्ति के लिये
सीटों की यह दूरी असुविधा और झुंझलाहट का कारण हो सकती है।
अपनी
सीट न 3
पर बैठे - बैठे ही मैं ने विदेशी दंपत्ति की परेशानी का
अनुमान लगाया।
यात्रा
में अकेला होने के कारण इन दंपत्ति की गतिविधियां मेरे लिये समय काटने का
अच्छा बहाना बन गई थीं।
हो
सकता है उन्होंने देर से आरक्षण कराया हो या कंप्यूटर की गलती से ऐसा हो
गया हो।
भला,
मशीन को किसी के भावनात्मक लगाव से क्या?
वह क्या समझे पति - पत्नी के इस रिश्ते को,
जहां कभी कभी हवा की दीवार भी बाधक लगती है! संस्कार व
संस्कृतियों की बात अलग है, अन्यथा आदमी और उसकी
मूल भावनाएं तो एक ही हैं
-
चाहे
वह भारत हो या कनाडा।
कूपे में घुसते ही विदेशी दंपत्ति देशी यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र
बिन्दु बन गया था।
इसके
पीछे देशी यात्रियों के मन में बसा पाश्चात्य मोह भी हो सकता है और किसी
विजातीय के प्रति सहज आकर्षण भी।
दोनों
की लम्बाई का विशेष अन्तर,
उनका विशिष्ट पहनावा,
बेफिक्री के साथ लपेटा गया ऐलन का जूडा तथा उनकी आपसी बातचीत
-
सभी पर
यात्रियों की नजरें थीं।
लेकिन
दोनों इस सबसे पूरी तरह तटस्थ,
सीटों की विषमता को लेकर लगातार असहजता की स्थिति में
थे।
महिला यात्रियों की विशेष रुचि एलेन में थी
-
ये
विदेशी मेमें बस देखने में ही गोरी होती हैं,
उनकी जवानी - बुढापे का पता ही नहीं चलता।''
पडौस
की सीट
पर बैठी एक फैशनेबल सांवली महिला का एलेन के गोरेपन के प्रति इर्ष्यालू
स्वर था। अब
तक पुरुष ने अपना बैग उतार कर कैरियर में फंसा दिया था।
महिला
अपने बैग को गलियारे में पैरों के बीच रख कर पशोपेश की स्थिति में खडी थी।
तभी
मुझे लगा कि शायद मैं उनकी मदद कर सकता
हूं-
ट्रेन अपनी रफ्तार पर थी।
मैं ने
बैग से कुछ पत्रिकाएं निकालीं और उनमें ही खोने का प्रयास करने लगा।
विदेशी
दंपत्ति के पीछे की ओर हो जाने के कारण उनकी गतिविधियों को निहारने का अवसर
अब नहीं था।
इस बीच
दंपत्ति से पूछ कर मैं ने यह जान लिया था कि वे दोनों आगरा होते हुए जयपुर
जायेंगे।
टूण्डला से आगरा तक टैक्सी में साथ ले चलने का मेरा प्रस्ताव पाकर वे अपने
को निश्चिन्त महसूस कर रहे थे।
लखनऊ की मेरी यह यात्रा पत्नी के इलाज के सिलसिले में थी।
शादी
के 7
वर्षों बाद भी पत्नी का मां न बन पाना हम दोनों के लिये
चिन्ता का स्वाभाविक विषय था।
लेकिन
उससे भी ज्यादा मेरे घरवालों,
ससुराल वालों की ही नहीं आस -
पडौस
व
मोहल्ले की औरतों तथा मित्रों की पत्नियों की चिन्ता का कारण था।
अवसर
कोई भी हो,
बातचीत में महिलाएं प्राय: ऐसी सहानुभूति दिखातीं कि
पत्नी जल - बुझ जातीं।
उधर
तमाम सारी जांच पडताल में कोई बात न निकल पाने की बार - बार व्याख्या के
बावज़ूद लोगों को शक तो था ही कि कहीं कुछ न कुछ कारण है जरूर।
हम
दोनों ने तो अपने मन को मना लिया था,
लेकिन शुभचिन्तक थे कि एक बेटी ही हो जाती तो बांझ
कहलाने का ठप्पा तो मिट जाता जैसे न जाने कितने जुमलों से हमें कुरेद -
कुरेद कर स्वयं को संतुष्ट करने से बाज नहीं आते थे।
इन
सारी स्थितियों से ऊब कर पत्नी ने अपने को आत्मकेन्द्रित बना लिया था।
वे पास
-
पडौस
में भी
बहुत जरूरी होने पर ही जाती थी। इधर
लखनऊ से डॉ बनर्जी का होम्योपैथी का इलाज चल रहा था।
उनके
इलाज से बहुत - सी बांझ कोखें हरी - भरी हो गयी थीं।
डॉ
बनर्जी की यह ख्याति ही मुझे भी खींच ले गयी थी।
पहली
बार तो उन्होंने हम पति - पत्नी दोनों से घन्टों लम्बी पूछताछ की थी।
लेकिन
अब मैं स्वयं ही जाकर,
हालचाल बता कर दवा ले आता था।
टूण्डला में ट्रेन समय से पहुंची।
आगरा
की तरफ जाने वाले यात्रियों को ट्रेन यहां से छोड देनी पडती है।
आगरा
के लिये रेलवे ट्रैक होने के बावजूद आगे की यात्रा सडक़ मार्ग से करनी पडती
है।
कुछ को
खचाखच भरी बसों की भीड में,
कुछ को दुर्घटना का न्यौता देती जीपों में तो कुछ को
मंहगी टैक्सियों में।
पर्यटन
के नक्शे पर आगरा के महत्त्व को देखते हुए भी व्यवस्थापकों ने यात्रियों की
सुविधा के बारे में शायद ही कभी सोचा हो! आगरा - मथुरा होकर भी दिल्ली की
दूरी लगभग उतनी ही है,
जितनी अलीगढ होकर।
लेकिन
आगरा रूट पर एक - दो गाडी से ज्यादा कभी चली नहीं और अलीगढ रूट पर दर्जनों
गाडियां हैं।
डेढ सौ
वर्षों के रेलवे के इतिहास में इस तरह की विसंगतियां भरी पडी हैं।
जब भी
टूण्डला उतर कर आगरा जाना होता है,
यह विसंगति मन को परेशान अवश्य करती है।
प्लेटफार्म पर उतर कर मैं अपना सूटकेस ले चलने के लिये कुली तलाश कर ही रहा
था कि दोनों विदेशी अपनी अपनी पीठ पर भारी - भरकम किट लादे दिखाई पड ग़ये।
उनकी
देखा देखी मैं ने भी अपना सूटकेस उठा लिया।
मेरे
अगल - बगल कई ऐसे रईस चल रहे थे जिनका दो - दो,
तीन - तीन किलो का ब्रीफकेस कुलियों के सर पर था।
कदाचित् यह उनकी शानो - शौकत के प्रदर्सन का एक तरीका भी होता है।
यह
हिन्दुस्तानी समाज की विडम्बना ही है कि जो बोझ हमें खुद उठाना चाहिये,
जो जिम्मेदारी हमें खुद वहन करनी चाहिये,
उसे भी हम नहीं उठाते हैं।
ऐसे
में दूसरों का दायित्व वहन करने,
दूसरों के साथ हाथ बंटाने की प्रवृत्ति धीरे - धीरे
खत्म होती जा रही है।
हम एक
नितान्त आत्मकेन्दित समाज में तब्दील होते जा रहे हैं,
जो कुछ कुछ पशु समाज जैसा है
-
जहां
अपना पेट महत्वपूर्ण होता है,
अपना जीवन ही कीमती होता है।
स्टेशन के ऊंचे जीने से चढक़र प्लेफार्म पार करते हुए पुल के ऊपर भिखारी
कुछ दे जाव बाबू! भूखे को एक रुपैय्याऽऽ,
लंगडे क़ो आठ आना! की रट लगा रहे थे।
लेकिन
ज्यादातर यात्री उनकी ओर से उदासीन थे।
एकाध
बुजुर्ग महिलाएं जो या तो मथुरा जाने के रास्ते में थीं या किसी तीर्थस्थान
से लौटी लग रही थीं,
वे ही अपने बटुए से छोटा से छोटा सिक्का टटोलने के लिये
उनके पास रुक रही थीं।
स्टेशन का जीना उतरते ही टैक्सी ड्राइवरों की हमें बैठाने की होड लग गई।
आखिर
एक टैक्सी की पिछली तीनों सीटों पर हमने कब्जा जमा लिया।जल्दी
ही आगे की दो सवारियां इकट्ठी करके टैक्सी चल पडी।
टूण्डला से आगरा की दूरी मात्र
24 - 25
किलोमीटर है, लेकिन इतनी सी
दूरी के लिये यात्रियों से पचास रूपए वसूले जाते हैं।
विदेशी
जॉनसन ने बताया कि वे दोनों भारत के कुछ महत्वपूर्ण शहरों की जीवन -
पध्दत्ति और संस्कृति का अध्ययन करने निकले हैं।
वे
वाराणसी से लौट रहे थे तथा उनका अगला पडाव जयपुर था।
दिल्ली
की यात्रा उनके कार्यक्रम में शामिल नहीं थी।
क्योंकि उनके शब्दों में वह वेरी बिग एण्ड पॉपुलर्स सिटी है,
जिसकी यात्रा वे काफी पहले कर चुके हैं।
टैक्सी ड्राइवर व साथ की अन्य दो सवारियां हम लोगों की बातचीत से पूरी तरह
बेखबर थीं।
आसमान
में सूरज ऊपर चढने के साथ साथ लगातार गर्म होता जा रहा था।
आधे से
ज्यादा रास्ता तय हो चुका था,
सिर्फ 15 - 20 मिनट की
यात्रा शेष रह गई थी।लेकिन
तभी ड्राइवर ने गाडी एक किनारे से लगाते हुए रोक दी। अब
तक जॉनसन और एलेन भी जिज्ञासु हो चुके थे।
वे भी
ट्रैफिक - जाम के इस रहस्यवाद से परिचित होना चाह रहे थे।
मैं ने
जब उन्हें सारे घटनाक्रम की जानकारी दी तो हैरत के साथ मि जॉनसन बोले
-
'' समवन डाइड इन एक्सीडेन्ट एट नाइट एण्ड द बॉडी इज
स्टिल लाइंग ऑन द रोड! वेयर वाज योर पुलिस?'' (
कोई आदमी रात में
अचानक मेरे दिमाग में एक बात कौंधी और मैं ने तय किया कि जॉनसन दंपत्ति को
ले चलकर पत्नी से मिलवाता हूं।
पत्नी,
जो सन्तान न पैदा करने के कारण अपने जीवन को निरर्थक ही
मान बैठी है, इन लोगों से मिलकर शायद अपनी
दुनिया से बाहर आने की सोच सके।
मौहल्ले में टैक्सी रुकी तो मेरे साथ विदेशी गोरे दंपत्ति को उतरते देख
मौहल्लेवालों की निगाहें हम पर गड सी गईं।
यूं तो
आगरा में विदेशी सैलानियों की इतनी आदमरफ्त रहती है कि वे अजूबा नहीं लगते,
लेकिन इस तरह स्थानीय घरों में उनका आना - जाना प्राय:
नहीं ही होता।
जल्दी
ही मैं दोनों को अन्दर ले गया ताकि अनावश्यक भीड - भाड से उन्हें बचाया जा
सके।
फिर भी
कुछ शैतान बच्चे तो घर में घुस ही गये। एक
शैतान बच्चा जॉनसन के पास खडे होते हुए बोला
- ''
आप तो बहोऽत लम्बे हैं,
शुतुरमुर्ग जैसे।''
मैं ने उस बच्चे को डांट दिया।
औपचारिक परिचय के बाद पत्नी जल्दी ही पानी की ट्रे ले आईं,
साथ ही बरफी के कुछ पीस और बिस्किट्स भी। ''
जॉनसन
दंपत्ति का कहना है कि उनके पास बच्चों के लिये समय नहीं है और हम हैं कि
बच्चों के गम में पागल बने रहते हैं।''
दंपत्ति के आतिथ्य सत्कार के बाद मैं ने पत्नी से कहा।
जॉनसन की इस बात पर हम पति - पत्नी ठगे से रह गये।
जब तक
हम उनके इस विचार से अपने आपको बाहर निकाल पाते,
दोनों अपना सामान समेट कर जाने के लिये तैयार हो गये।
चौराहे से एक ऑटो बुलाकर उसमें जॉनसन दंपत्ति को विदा करते हुए मन के भीतर
से वह अवसाद पूरी तरह से धुल गया था जो टैक्सी में
''
वी हैव नो टाइम'' का संवाद
सुनने के बाद से घनीभूत होता गया था।
पत्नी
का भी निरर्थकता बोध गायब होता लग रहा था।
घर का
जीना चढने से पूर्व उन्होंने अप्रत्याशित रूप से,
पास खडे
पडौसी
के
छोटे बच्चे को पुचकारते हुए अपनी गोदी में समेट लिया था और ऐसा वो वर्षों
बाद कर रही थीं।
कमलेश भट्ट कमल |
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