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धागे
''
सुनो परसों रात तुम क्या कर
रही थीं? उन दिनों मैं और मीनू स्कूल के हॉस्टल में रहा करते थे। कमरे में बत्ती जला कर सोने की सख्त मनाही थी। अंधेरे में डर के मारे मेरी देह के पोर पोर से पसीना छूटने लगता था और मैं सबकी आंख बचाकर चोरी - चुपके बत्ती जला लेती थी। डिनर के दो घण्टे बाद जब कभी मैट्रन कमरों का राउण्ड लगाने आती, तो मेरा दिल रह रह कर दहल जाता। मैं आंखें मूंद कर प्रार्थना करती रहती। किन्तु मैट्रन की आंखें चील की तरह तेज थीं। उन्हें धोखा देना आसान नहीं था। वह बडबडाते हुए मेरे कमरे में आतीं और बत्ती बुझा जातीं। किन्तु जब वह मेरे कमरे से जाने लगतीं तो मैं कांपते हाथों से उनकी स्कर्ट पकड लेती, '' प्लीज मैट्रन! '' वह हत्बुध्दि सी मेरी ओर देखने लगतीं और झिडक़ने लगतीं, '' क्या बात है, यह क्या बचपना है?'' वह कहतीं, किन्तु मैं उनकी स्कर्ट पकडे रहती और सिसकते हुए बार बार कहती, '' प्लीज मैट्रन,प्लीज - प्लीज '' सारे हॉस्टल में यही बात फैल गयी थी। ऊंची क्लास की लडक़ियां या मीनू की सहेलियां जब भी मुझे देखतीं, हंसते हुए बार - बार कहतीं,'' प्लीज मैट्रन,प्लीज - प्लीज ,प्लीज ''
''
मीनू शिमला याद आता है
न जाने कितने बरस बीत गये?''
मैं ने कहा।
मीनू कुर्सी से उठकर मेरे
पास - बहुत
पास आ गई।
उसने मेरे गले में
अपने दोनों हाथ डाल दिये।
उसकी आंखों में
अजीब सा विस्मय है।
मुझे भ्रम होता है
कि वह मेरे और केशी के बारे में सब कुछ जानती है वे बातें जो सिर्फ मेरी
हैं, जिन्हें
मैं अपने से भी छिपा कर रखती हूं।
किन्तु वह कभी
मुझसे कहेगी नहीं वह बडी बहन है,
इसलिये वह मार्टर है।
वह हमेशा मुझे अपने
से बहुत छोटा समझती रहेगी।
कमरे में सन्नाटा खिंचा
रहा।
न जाने हम दोनों कितनी देर
तक ऐसे ही बैठे रहे। मीनू कुछ बोली नहीं, चुपचाप अपनी ऊंगलियों को मेरे बालों में उलझाती रही। उसकी आंखे बहुत उदास हैं। वह मुझसे बडी है, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि मैं उससे छोटी हूं। लगता है, जैसे दिन बीतते जाते हैं और वह वहीं - एक ही स्थान पर - खडी रही है, जहां वह बरसों पहले थी। फिर भी उसके सामने मैं अपने को हमेशा ही बहुत हीन पाती हूं। लगता है वह सब कुछ है, मैं उसके सामने कुछ भी नहीं। यह उसका बडप्पन नहीं वह होता तो कुछ भी मुश्किल नहीं था; तब मैं उससे लड लेती; उसे दोष देकर छुटकारा पा लेती। लगता है, जैसे वह कहीं बहुत ऊंची दीवार पर बैठी है और मैं उसे सिर उठाकर विस्मित आंखों से देख रही हूं।
''
रूनी बहुत देर हो गयी,
तुम कपडे नहीं बदलोगी?''
मीनू उठ खडी हुई। मैं ने आज तक केशी को फुल स्लीव का पुलोवर पहने नहीं देखा। पता नहीं उस पर कैसा लगेगा? मीनू ड्राईंगरूम में चली गई। मैं कुछ देर तक उस कमरे में अकेली बैठी रहती हूं। सब ओर सन्नाटा है। केवल किचन से प्यालों और प्लेटों की हल्की खनखनाहट सुनाई दे जाती है। दरवाजे क़ी जाली पर फीकी सी चांदनी उतर आई है।
खिडक़ी के परे बरामदा है,
लाल बजरी की सडक़ है।
उसके पीछे मोटर रोड
को लांघ कर पहाडी आती
है, जिसके
टीले लॉन से दिखाई देते हैं और लॉन में पत्तियां हैं,
हवा में सरसराती घास है हम उस क्षण भूल गये कि इन बरसों के दौरान ढेर सी उम्र हम पर लद गयी है कि बरसों पहले उसका विवाह हुआ था और मैं एक बच्चे की मां हूं। हम दरवाजे पर खडे ख़डे देर तक एक दूसरे को वे बातें याद दिलाते रहे, जो हम दोनों को मालूम थीं, जिन्हें हमने कितनी बार दुहराया था, किन्तु हर बार यही लगता था कि हम उन्हें भूल गये हों, हर बार उन्हैं दुबारा याद करने का बहाना सा करते थे।
''
कल तुम्हारा ऑफ डे है
हम लोग पहाडी पर जायें तो कैसा रहे?'' पिछला साल एक ठण्डी, बर्फीली सी झुरझुरी मेरी पीठ पर सिमट आई वह सितम्बर का महीना था, मैं शैल को लेकर दिल्ली आई थी। सब कुछ पीछे छोड आई थी, अपना घर बार अपनी गृहस्थी। सबने यही समझा था कि मैं कुछ दिनों के लिये रहने आई हूं। कुछ दिन रहूंगी और फिर वापस चली जाऊंगी। यही सितम्बर का महीना था हम पहाडी पर पिकनिक के लिये गये थे बेर की झाडियों के पीछे मैं ने साहस बटोर कर मीनू से पहली बार बात कही थी, जो इतने दिनों से मैं अपने में छिपाती चली आ रही थी। मीनू ने समझा था मैं हंसी कर रही हूं, किन्तु अगले पल जब उसने मेरे चेहरे को देखा तो वह चुप रही थी, कुछ भी नहीं बोली थी एकदम फटी फटी आंखों से मुझे निहारती रही थी कल उस बात को बीते एक साल हो जायेगा। कल हम फिर पिकनिक के लिये जायेंगे। गेस्टरूम की बत्ती जली है। मैं दरवाजे के पास जाकर ठिठक जाती हूं। पीछे देखती हूं। फाटक के पास चांदनी में मेरी छाया लॉन के आर पार खिंच गई है। लगता है, रात सफेद है, बंगले की छत, दूर पहाडी क़े टीले, घस पर एक दूसरे को काटती छायाएं सब कुछ सफेद हैं। घास के तिनके अलग अलग नहीं दीखते एक हरा सा धब्बा बन कर पेडों के नीचे वे एक दूसरे के संग मिल गये हैं। यहां से उस कमरे का कोना दीखता है, जिसमें मीनू और केशी सोते हैं कोना भी नहीं, केवल दीवार का एक टुकडा - जो झाडियों से जरा दूर है लेकिन लगता है जैसे झाडियां अंधेरे के संग संग दीवार के पास तक खिसक आई हैं। एक क्षण के लिये भ्रम होता है कि मैं भूल से यहां आ गई हूं, कि यह मीनू का बंगला नहीं है, वह लॉन नहीं है, जिसके कोने कोने से मैं परिचित हूं। जब कभी कोई पक्षी झाडियों से बाहर निकल कर उडता है, उसके डैनों की छाया घूमते हुए लहू की तरह चांदनी पर फिसलने लगती है। कमरे में दबे पांवों से आई। मेरे पलंग के पास शैल का बिस्तर लगा था। चप्पल उतार कर मैं धीरे से उसके पास बैठ गई। देर तक उसकी मुंदी आंखों को देखती रही एक बार उसने आंखें खोलकर मुझे देखा था केवल निमिष भर के लिये - किन्तु नींद ने दूसरे ही क्षण उसकी पलकों को अपने में ओढ लिया था। बत्ती बुझा कर मैं अपने बिस्तर पर लेट गयी। चांदनी इतनी साफ है कि बुक केस पर रखी केशी की किताब का टाइटल भी अंधेरे में चमक रहा है टाइम, स्पेस एण्ड आर्किटैक्चर। बाहर की खुली खिडक़ी पर शैल के झूले की रस्सी टंगी है। उसकी छाया खिडक़ी की जाली पर तिरछी रेखाओं सी पड रही है। जब हवा का झौंका आता है, तो ये रेखाएं मानो डरकर कांपती हुई एक दूसरे से सट जाती हैं। न जाने क्यों मेरा दिल तेजी से धडक़ने लगता है। शायद मेरा भ्रम रहा होगा और मैं सांस रोके लेटी रहती हूं। कमरे की चुप्पी में एक अजीब सी गरमाहट है जैसे कोई चीज दीवारों से रिस रिस कर बहती हुई मेरे पलंग के इर्द गिर्द जमा हो गयी हो। लगता है जैसे पास लेटी शैल की सांस मेरे पास आते आते भटक जाती है और मैं उसे सुन नहीं पाती। सुनती हूं कुछ देर ठहरकर, कुछ निस्तब्ध पलों के बीच जाने के बाद दुबारा सुनती हूं। न, पहला भ्रम महज भ्रम नहीं था। बीच के गलियारे में धीमी सी आहट हुई है। कुछ देर तक सन्नाटा रहता है। कई मिनट इसी तरह अनिश्चित प्रतीक्षा में बीत जाते हैं। बाहर का दरवाजा हवा चलने से कभी खुल जाता है, कभी बन्द हो जाता है। जब खुलता है तो गलियारे में धूल से सनी पत्तियां दीवार से चिपटी हुई तितलियों की तरह उडने लगती हैं। गलियारे के सामने लाइब्रेरी की बत्ती जली है।खूंटी से मीनू की शॉल उतार कर मैं ने ओढ ली। बाहर आई नंगे पांव। लाइब्रेरी का दरवाजा खुला था। टेबललैम्प के हरे शेड के पीछे केशी का चेहरा छिप गया है सोफा पर केवल उसकी टांगे दिखाई देती हैं। सामने तिपाई पर कोन्याक की बोतल और खाली गिलास पडे हैं उनकी छाया हू ब हू वैसी ही स्टिल लाइफ की तरह दीवार पर खिंच आई है। बिलकुल चुप, बिलकुल स्थिर।
''
तुम अभी सोई नहीं?''
''
मैं तुम्हारे कमरे तक आया था
-
फिर सोचा,
शायद तुम सो गई हो।''
लिफाफे पर जो हस्तलिपी है,
उसे पहचानती
हूँ।
उसे देखकर जिस व्यक्ति का
चेहरा आंखों के सामने घूम जाता है,
उसे पहचानती
हूँ।
क्या मैं कभी अपने अतीत से
छुटकारा नहीं पा सकूंगी वह हमेशा छाया की तरह पीछे आता रहेगा?
वह सोफा से उठ खडा हुआ।
मैं अपनी कुर्सी से
चिपकी बैठी रहती हूँ।
मुझे लगता है,
मैं रात भर इसी कुर्सी पर बैठी रहूंगी,
रात भर केशी खिडक़ी के पास खडा रहेगा।
''
सुना है,
तुम कुछ नये रिकॉर्ड
लाए हो?'' कुछ देर तक हम चुप बैठे रहे। मुझे लगा हम दोनों किसी छोटे से स्टेशन के वेटिंग रूम में बैठे हैं। दोनों चुपचाप अपनी अपनी ट्रेनों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु बीच के इन लम्हों को हम अच्छी तरह गुजार देना चाहते हैं ताकि बाद में हम दोनों में से किसी को एक दूसरे के प्रति कोई गिला, कोई शिकायत न रहे।
''
यू वोन्ट माइन्ड रूनी विल यू?''
किन्तु उसने मेरे
उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। मैं ने चुपचाप सिर हिला दिया।
''
आज शाम मैं ने तुम्हें खिडक़ी
से देखा था।''
उसने कहा। केशी ने अपने गिलास में कुछ और कोन्याक ढाल ली, हालांकि अभी गिलास खाली नहीं हुआ था। वह मेरी ओर नहीं देख रहा वह खिडक़ी के बाहर देख रहा है, मानों मैं अब भी कमरे में न होकर अंधेरे लॉन में बैठी हूँ।''
''
इन गर्मियों में शायद हम
शिमला जायेंगे।''
''
केशी,
एक बात पूछूँ?
''
केशी ने धीरे से गिलास
उठाया।
गिलास के कांच और उंगलियों
के बीच रोशनी का धब्बा कोन्याक पर धीरे धीरे तिर रहा है। वह पी नहीं रहा और मैं चुप बैठी हूँ और मुझे लगा कि मुझे कुरसी से उठ जाना चाहिये और अपने कमरे में चला जाना चाहिये, फिर भी मैं बैठी रही और मैं कुछ भी नहीं सोच रही थी - और मुझे जरा अजीब लगा था कि मीनू अपने कमरे में सो रही है और इतनी रात गये मैं केशी के कमरे में बैठी हूँ और दूसरे कमरे में शैल है जो कल मुझे अपने बिस्तर के पास देख हैरान हो जायेगी और मुझे धीरे धीरे बहुत देर तक ढेर सी खुशी हो रही है कि कल शाम को मैं वापस अपने हॉस्टल लौट जाऊंगी वहां मिसेज हैरी हैं, मेरा अकेला कमरा है निखिल है ये सब इस बंगले की परिधि से बाहर हैं, केशी के ग्रामोफोन से, ग्रामोफोन पर रखे लिफाफे से बाहर हैं वे मेरा अतीत नहीं जानते, और मुझसे कभी कोई ऐसा प्रश्न नहीं पूछते, जिसका कोई उत्तर नहीं है मेरे पास नहीं है। निखिल केशी से कितना अलग है! निखिल का सम्बन्ध बहुत सी चीजों से है यदि हम उन्हें समझ लें तो निखिल को जानना सहज है। केशी निखिल नहीं है - उसके डिजाइन, उसके रिकॉर्ड, सब उससे अलग हैं; उसे समझने के लिये केवल उसके पास ही जाया जा सकता है, और वह चुप है।
मैं ने एक बार केशी से
पूछा था कि वह आर्किटैक्ट है,
उसे क्लासिकल म्यूजिक़ से इतना लगाव कैसे उत्पन्न हो गया?
मैं ने उसकी आंखों में वह
अजीब सी दूरी देखी थी,
जो उस बूढे अंग्रेज की आंखों में थी,
जिसने हमें सिमिट्री के भीतर जाने से रोक लिया था।
तब मैं बहुत छोटी
थी।
एक शाम अपने नौकर के संग
सैर करती हुई शिमले में संजौली की सिमिट्री तक चली गई थी।
चारों तरफ पहाडियां
थीं, बडे बडे
पत्थरों के बीच उगती लम्बी घास थी।
हम कब्रों को देखना
चाहते थे,
लेकिन सिमिट्री का फाटक बन्द था।
कुछ देर बाद एक
बूढा अंग्रेज हमारे पास आया था।
उसने हमसे पूछा था
कि हम वहां -
सिमिट्री के सामने - क्यों खडे हैं।
'' इसका फाटक
क्यों बन्द है?'' मैं ने पूछा था। आज बरसों बाद भी मैं उस बात को भूली नहीं हूं आज भी जब कभी केशी स्पेस की बात करता है, तो उसकी आंखों में वही आलंघ्य, अपरिचित दूरी का सा भाव घिर आता है, जो बरसों पहले मैं ने उस अंग्रेज की आंखों में देखा था और मुझे लगता है कि सामने बन्द फाटक है, जो कभी कोई नहीं खोलेगा, कब्रें हैं , पहाडी हवा है, और पत्थरों के बीच लम्बी घास है, जो हवा में कांपती है, धीरे से मेरे कानों में कह रही है - '' लेट द डेड लाइ इन पीस गलियारा पार करके मैं अपने कमरे में लौट आई थी अपने बिस्तर पर लेटी रही थी। न जाने कितने मिनट गुज़र गये। देर तक लॉन में झिंगुरों का स्वर सुनाई देता रहा। परदे के रिंग चांदनी में बडे बडे छल्लों से चमक रहे हैं, और जब हवा चलती है तो धीरे से खनखना उठते हैं। केशी के कमरे की बत्ती का आलोक अधखुले दरवाज़े से निकल कर मेरे संग संग भीतर चला आया है। बंगले के परे लॉन के परे पहाडी मौन का है इस समय भी वहां चांदनी फैली होगी ह्न झाडियों पर, पुराने पत्थरों पर कोई नहीं जानेगा कि कहां टीलों और सदियों पुरानी चट्टानों के बीच एक बेर की झाडी है पिछले साल उस झाडी क़े पीछे मैं ने मीनू से कुछ कहा था, वे शब्द आज भी कहीं कच्चे बेरों के संग पडे होंगे। आधी रात को सहसा मेरी आंख खुल गयी थी। शायद खिडक़ी के सामने झूले की रस्सी की परछांई को देखकर मैं डर गयी थी। रजाई उठाने के लिये मैं ने अपना हाथ आगे बढाया था क्षण भर के लिये मेरे हाथ कमरे के अंधेरे में फैले रहे थे। मैं एकाएक आतंकित सी हो उठी थी; मुझे लगा था जैसे मेरी टांगे एकदम बर्फ सी ठण्डी हो गयी हैं। मैं ने शैल के बिस्तर की ओर देखा वह सो रही थी, उसका आधा चेहरा कम्बल में छिपा था, आधे चेहरे पर फीकी सी चांदनी सरक आई थी। मैं बिस्तर से उतर कर कमरे की देहरी तक चली आई गलियारे में निपट अंधेरा था। लायब्रेरी की बत्ती गुल हो गई थी, लेकिन दरवाज़ा खुला था मैं देहरी पर खडी रही। एक आवाज है आवाज भी नहीं, केवल एक प्रवाह है, जो टूट रहा है, जितना टूट रहा है, उतना ही ऊपर उठ रहा है हवा से भी पतली एक चमकीली झांई धीमे, बहुत धीमेएक उखडी, बहकी हुई सांस की मानिन्द मेरे पास चली आती है। चली आती है, और उसे कोई नहीं रोकता, जैसे वह अपना दबाव खुद है। खुद अपने दबाव के नीचे खिंच रही है। लगता है जैसे हवा स्वयं एक घूमते हुए घेरे के बीच आ गई हो भूल से फंस गई हो और उडने के लिये, उस घेरे से मुक्ति पाने के लिये अपने पंख फडफ़डा रही हो। '' केशी।'' मैं ने धीरे से कहा - '' केशी '' - मैं अंधेरे में खडी रही- देहरी पर। मुझे लगता है जैसे मेरे भीतर बादल का एक श्यामल टुकडा आ समाया है - वह बूंद बूंद टपक रहा है। मैं उसके नीचे खडी हूं और भीग रही हूं देर तक खडी भीग रही हूँ! शायद कोई लांग - प्लेयिंग रिकॉर्ड रहा होगा - क्योंकि जब तक मैं सो नहीं गई वह बजता रहा था। आज केशी नये रिकॉर्ड लाया है - जब तक वह सब नहीं बजा लेगा - तब तक उसे शान्ति नहीं मिलेगी। मैं करवट बदल कर लेट जाती हूँ - मैं ने अपना एक हाथ शैल के तकिये के नीचे रख दिया और मैं धीरे धीरे उसके पास खिसक आती हूँ। मैं चाहती हूँ कि उसकी देह की गरमाई अपने में खींच लूं। चांदनी का एक चौकोर, बित्ते भर का टुकडा केशी की किताब पर पड रहा है स्पेस, टाइम एण्ड आर्किटैक्चर । मैं देर तक उस टाइटल को देखती रहती हूँ। फिर पलकें झुक जाती हैं सोने के पहले केवल एक धुंधला सा विचार बह आता है कल हम सब पिकनिक करने पहाडी पर जायेंगे
निर्मल वर्मा |
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