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सम्मतियाँ
आपके विविध लेखन के आस्वाद को ठीक तरह से पहली बार जाना। आपने अपने आधारभूत निर्सग-व्यक्तित्व को अपनी सर्जनात्मकता में जितने सहज रूप में अभिव्यक्त किया है वह स्पृहणीय है। प्राय: तो अधिकांश लेखकों की सर्जनात्मकता पर शहरातीपन तथा आधुनिकता का इतना ज्यादा रंग-रोगन चढ़ा मिलता है कि खोदने पर भी आदमी कहीं नहीं मिलता। इसके अलावा लेखन को कहन के स्तर पर खड़ा कर देने से व्यक्तियों, स्थितियों और परिवेश का खांटीपन ऐसी विश्वसनीय सुगन्ध देता है कि रचना प्रतिसृष्टि न रहकरस्वयं सृष्टि बन जाती है। सच, पढ़कर आपसे कुछ अधिक ही आत्मीयता अनुभव होती है।- नरेश मेहता ज़मीन, विरासत और परम्परागत मूल्यबोध से लगाव के मामले में गोविन्द मिश्र में बहुत कुछ ऐसा है जो जैनेन्द्र, अज्ञेय या निर्मल वर्मा की जगह प्रेमचन्द की याद ज्यादा दिलाता है क्योंकि गोविन्द जिस दक्षता से मनोजगत, वैसे ही ज़मीन में उपस्थित को भी कहानियों में बाँधते हैं। गोविन्द मिश्र का लिखना जो आज भी जारी है, और वह भी बड़ी संभावनाओं की झलक देता हुआ, इसका बहुत कुछ कारण शायद यही है कि कलावाद और वस्तुवाद दोनों के खतरों से वे बचे रह सके हैं और इसमें, शायद, सबसे बड़ा हिस्सा उनकी संवेदना की उस बनावट का ही है जिसके बारे में यह कहने का जोखिम फिर मोल लेने में कोई हर्ज नहीं कि प्रेमचन्द याद आते हैं। -शैलेश मटियानी आप समर्थ कृतिकार हैं-यह निश्चित है। आपके पास अनुभूति है, भाषा है और ईश्वर कृपा से उससे प्राप्त दृष्टि है। उपन्याय 'तुम्हारी रोशनी में', सुंदर है--अज्ञेय और जैनेन्द्र को पढ़ना चाहिए। आप जो चाहते हैं, कह लेते हैं - मिट्टी के मिसिर बाबा हैं आप - चरण छूता हूँ। ईश्वर खूब लम्बी उमर दे और तपते रहने का सामर्थ्य। इतने विविध माध्यमों में एक के बाद एक आपकी रचनाएं पढ़कर मैं आश्वस्त हुआ-इस अंधेरे में भी आप रहेंगे-दिखेंगे लोगों को। -डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल आपकी सारी किताबें पढ़ डालीं। आपका स्वर, शैली, थीम सब कुछ इतना अलग है कि अपने समकालीन कथाकारों में आप को अलग से पहचाना जा सकता है। मेरे विचारमें यह स्वयं में ही एक विशिष्ट उपलब्धि है। मुझे पूरी आशाहै कि आपकी साहित्य-साधना आपको अमर करेगी।-रवीन्द्र नाथ त्यागी आप मुझे बेहद अच्छे लगे, ऐसा लिखूँ तो आपको असुविधा तो नहीं लगेगी? हाँ सचमुच। जिसे अपना अभिन्नतम कोना पूरे आश्वस्ति-भाव से अर्पित किया जा सके ऐसा। लेखक के रूप में तो आप पहले से ही अच्छे लगते थे। व्यक्ति रूप में जिस अल्हड़ मस्ती और बेबाक़ी के साथ आपको पाया, जैसे एक उपलब्धि लगे। आपकी कुछेक चुनिंदा कहानियों को मैंने डूब-डूब कर पढ़ा है और इस हद तक उद्वेलित हुई हूँ कि फिर सामान्य होने में कुछ समय लग गया। एक अजीब किस्म की बौनापन की अनुभूति ने जैसे मुझ को दबाया। और साथ ही साथ यह अहसास भी गहरायाकि लेखन हो तो ऐसा हो। आपके लेखन केलिये क्या लिखूं? ... एक आस्था सी जगाता है। किसी भी प्रकारके पूर्वाग्रह से मुक्त एक किस्म का रस-आनन्द देता लेखन। - मधु कांकरिया संदर्भ -''लाल पीली जमीन'' रचना अच्छी लगी, कहीं-कहीं बहुत अच्छी लगी। अच्छी के अतिरिक्त लगी। सशक्त मुझे कहना पड़ता है, इस कारण कि मेरे अपने मतमंतव्य मुझसे छिन गये, स्थगित हो गये और ऐसा लगा कि जो पात्र, चरित्र हैं उनके साथमेरा इतना तादात्म्य हो गया है कि मैं स्वयं अपने-अपने अभिमतों से मुक्त हो गया हूँ। ''लाल-पीली जमीन'' न स्थानाबध्द है, न समयाबध्द। यह रचना की विशेषता है। मुझे यह संतोष हुआ कि जिन पात्रों, प्रसंगों और घटनाओं को लेखक ले रहा है, पात्रों का जो कार्यकलाप है उसके पीछे क्या मार्मिक कारण-जगतहै उसकी खोज लेखक की निरंतर रहीहै। अपने को औरों में खोजनेकी वृत्तिा जो 'लाल पीली ज़मीन' की औपन्यासिक दृष्टि है ... वह मुझे विश्वसनीय प्रतीत होती है ... अपने को अपने में ही खोजने से अधिक अपने को शेष में, सब मेंऔर समष्टि में खोजने की वृत्ति -- ऐसे कि हम विस्तार में जा रहे हैं। - जैनेन्द्र कुमार मुझे पढ़ने में रूचिकर लगा और सिर्फ पाठक की दृष्टि सेकहूँ तो सफल, और एक स्थायी प्रभाव छोड़ देने वाला उपन्यास था। उसके कई चरित्र, कई घटनाएँ मुझे याद हैं और उनकी याद रहेगी। आंचलिकता उसमें है तो केवल भाषिक परिवेश तक सीमित है। बाकी सारी परिस्थितियाँ गांव-देहात, छोटे कस्बों, बड़े कस्बों और शहर की हैं। उपन्यास की भाषा ने मुझे बहुत आकृष्ट किया। इस उपन्यास ने बहुत से ऐसे शब्द हिन्दी को दिये हैं, जो ज्यादा आसानी से आज की साधु हिन्दी ग्रहण कर सकती है। भाषा की दृष्टि से इस उपन्यास की यह महत्तवपूर्ण देन रही। - अज्ञेय यह उपन्यास एक परिवेश की कहानी है, परिवेश ही उसका नायक है, मैं इसे बड़ी अच्छी और सफल कृति मानता हूँ। यह भी मानता हूँ कि इसे आजके जीवन का एक प्रामाणिक दस्तावेज़ कहा जा सकताहै। इसे आंचलिक नहीं कहा जा सकता ... जब मैं पढ़ रहा था तो मुझे ऐसा लग रहा था कि ये सारे दृश्य मैंने देखे हैं और में उनके बीच से गुजरा हूँ, एक अंगुल जीन के लिए लड़ाई कहाँ नहीं होती। एक अच्छी और सफल कृति।- विष्णु प्रभाकर बुंदेलखंड का जन्म से मरण तक कोई ऐसा पहलू नहीं है जो इस उपन्यास में न आया हो और सो भी 'फर्स्ट हैंड'। इस उपन्यास के कई गुण हैं मगर सबसे बड़ा गुण है गोविंद मिश्र के बनयान का अंदाज़ जो बातों को शुरू से अंत तक कहानी बनाये रहता है। यह पुस्तक हमारे उपन्यास साहित्य में एक नक्षत्र की तरह चमकती रहेगी। - भवानीप्रसाद मिश्र उपन्यास की घटनाएँ बहुत सजीव हैं। कोई पात्र स्टाक नहीं जान पड़ता। बराबर एक साफ, सुडौल, विशिष्ट, महीन से महीन रेखाओं से उकेरा व्यक्ति सामने आता है। - निर्मल वर्मा कस्बे, गांव या छोटे शहर में जो चीज़ें फालतू या बेमानी लगती हैं, गोविंद मिश्र ने उन्हीं को विषय बनाया है। आधुनिकता या कहना चाहिए बुध्दि की दीवार को लेखक ने बड़े बेलौस होकर तोड़ा है। गोविंद मिश्र पर किसी उपन्यासकार का प्रभाव नहीं दिखायी पड़ता ... फालतू चीज़ों को सामाजिक संदर्भ देते हुए, नयी योजना देकर बिना अपनीबुध्दि का जामा ओढ़े जिंदगी जैसी है उसको कलाकार के तरीके से सामने रखकर यह उपन्यास हमेें सोचने के लिएबहुत मसाला देता है। गोविंद मिश्र में मुझे बड़े उपन्यासकार की क्षमता दिखायी देती है ... उनमें एक मस्ती है, निर्भयता का तत्व ... जो उपन्यासकार का बहुत बड़ा गुण है जो हमारे यहाँ पहले अमृतलाल नागर में बहुत अच्छे ढंग से आया था और जो भगवती बाबू के कुछ उपन्यासों में भी आया है। कोई चिंता नहीं कि, रूपबंध कहाँ जा रहा है, शिल्प कहाँ जा रहा है, चरित्र अंकन ठीक हो रहा है या नहीं, गोविंद मिश्र कहीं पतंग उड़ा रहे हैं, तीतरबाजी कर रहे हैं ... गुल्ली-डंडा खेल रहे हैं ... नंग-धड़ंग घूम रहे हैं ... यह जो मिट्टी है ... हवा ... धूल ... पूरा का पूरा माहौल उन्होंने इस उपन्यास में पकड़ा है। - डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल मैं गोविंद मिश्रके लेखन का प्रशंसक रहा हूँ। 'लाल-पीली ज़मीन' का परिवेश उनकी पहली रचनाओं से अलग है। मुझे लगा कि यहाँ अपनी पुरानी जिंदगी की यादों को टटोलने की कोशिश है ... प्रारंभिक जीवन की ... जो हमारी सारी मानसिकताओं को निर्धारित करते हैं। शुरू से ही उनकी रचनाओं में एक विशेष प्रकार की तराश हमको मिलती रही है। 'लाल-पीली ज़मीन' में एक और शैली की बजाय एक खास परिवेश के भाषायी रचाव को लाने की भी कोशिश है। यह मुझे बहुत आकर्षक लगा। - नेमिचंद्र जैन उपन्यास मैंने पढ़ना शुरू किया और तीन दिन में लग कर पढ़े बिना छोड़ा नहीं गया। पढ़ चुका तो दो स्मृतिबिम्ब बार-बार दोहराते रहे। एक तो बुन्देलखंड के उस छोटे से कस्बे में पहले अध्याय का वह छोटा लड़का, शाम और सूने घर में से अन्धेरे में वह डूंगर, वह शिला और उसका बढ़ता हुआ अकेलापन और भय। दूसरा बिम्ब था श्रीपत के घर की वह जाड़ों वाली शाम जब आप से पहली भेंट हुई थी, आपकी बेबाक बातें मुझे बहुत अच्छा लगी थीं। आप बेतकल्लुफ दोस्त आदमी लगे थे-ऐसे जो अब कम मिलते हैं। उस दिन आपके लिये स्नेह जन्मा था उपन्यास पढ़कर आदर। दिल्ली में रहकर ऐसा मुखौटा अनिवार्य की लाइन अपना कर भीआपनेअपने जीवन अनुभवों को इतना टटका सुरक्षित रखा है और उन्हें आज की प्रासंगिक तीखी दृष्टि से जांच सकते हैंऔर उन क्रूर जीवन पध्दतियों कोबिना रोमैन्टिसाइज़ किये और बिना मानवीय सज्जनता खोये पुन: इतनी सफल अभिव्यक्ति दे सकते हैं इसके लिये हार्दिक बधाई। एक एक पात्र, एक एक परिस्थिति पाठक पर छाप छोड़ती चलती है और अन्त में हिंसा को पनपाने वाले लेकिन मूलत: स्वाभाविक दृष्टि से रोगी उस अंचल के लिये मन में एक गहरा 'एंग्विश' छूट जाता है। - धर्मवीर भारती संदर्भ: 'तुम्हारी रोशनी में' & मुझे तो 'तुम्हारी रोशनी में' किताब ने पकड़ लिया था। खरी गहरी रचना है। कोई कुछ कहे, मैं सहमत हूँ कि प्रेम पवित्र करता है, वह उठाता है आदमी को। बाहर जितना कर्म दीखता है, मूल्य उसका भीतरा के प्रेम के हिसाब से ही लगना चाहिए। नहीं तो कर्म कोरी चंचलता ही नहीं है? आप उतर रहे हैं घटना की यथार्थता से उनके आशय के संधानमें और मेरी दृष्टि से यह बहुत शुभ है। - जैनेन्द्र कुमार सुवर्णा का चरित्र चित्रण की दृष्टि से भी रोचक है और सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से भी। आज की अमर्यादित नवस्वातंत्र्य-चेतना तथा सांस्कृतिक गुलामी के दोहरे तंग और कसे हुए जाल में जकड़ी उच्च वर्गीय शिक्षित भारतीय नारी का तुमने अच्छा चित्रण किया है। एक जगह तो वह अपनी नारी-प्रकृति के अनुसार एक ही पुरूष के प्रति समर्पित होना चाहती है किन्तु उसकी एक पुरूषवाली चेतना में ही कितने पुरूष समाए हैं कि वह यह निर्णय नहीं कर पाती कि उसे किस पुरूष से क्या चाहिए। अपने मन की सुनहली चाहतों में वह इतनी बिखरी हुई है कि अपनी स्वतंत्रता को न तो वह ठीक तरह से समझ पाती है और न ही उसे मर्यादित कर सकती है। वह पति से दबती है और दूसरी ओर नवस्वातंत्र्य-चेतनावश विद्रोह भी करती है फिर भी करुण और विवश है। तुम्हारी चरित्र-चित्रण की शैली में काव्य की भाषा भी अच्छे रंग भर देती है। - अमृतलाल नागर आपने एक शाश्वत समस्या को नए रूप में प्रस्तुत किया है। प्रकृति का जो प्रतीकों के रूप में इस्तेमाल किया है, वह बहुत अच्छा लगा। कुल मिलाकर एक कुरेदना पैदा कर दी उपन्यास ने।बड़ी कुशलता से आपने सुवर्णा की वेदना को सहेजा है। खुले आकाश में उड़नेवाली वह जानती ही नहीं उसका गंतव्य कहाँ है। कुछ बंधन उसे खींचते हैं, वह सच्ची है उनके प्रति। पति के प्रति समर्पित है पर दासी बनकर नहीं, सहचरी बनकर। पुरूष-प्रधान समाज में जो छूट पुरूष ने अपने लिए ले रखी है, सुवर्णा अपने लिए भी वही चाहती है। वह उनसे सहज भाव से मुक्त होकर मिलना चाहती है जिन्हें वह पसंद करती है। वहाँ भी सजग है वह, सीमा बाँधती है लेकिन प्रश्न है ऐसी स्थितियों में सीमा टिकती है क्या, अनजाने-अनचाहे सब कुछ टूट-फूट जाता है तब?मैं संतुष्ट हुआ पर तृप्त नहीं। होना भी नहींचाहिए था क्योंकि आप शायद आश्वस्त करना भी नहीं चाहते। अतृप्ति ही तो उत्तार को कुरेदती है।- विष्णु प्रभाकर ''तुम्हारी रोशनी में' पुस्तक पढ़ी और बड़े चाव से पढ़ी। सुवर्णा के रूप में आपने आधुनिका नारी केमन की करवटें बहुत बारीकी से पकड़ी हैं। आनंद आया। कथासूत्र अच्छा बाँध रखता है। अनंत, रमेश और सुवर्णा के मन के सूक्ष्म तंतुओं को टटोलने और उकेरने मेंआपकी संवेदनासंपन्न भाषा का भी विशेष योग है। - अमृत राय लगताहै रचना स्वयं मैं एक संपूर्ण विचार-प्रक्रिया रच रही है। अपने दौर की संवेदना के अनुरूप जो काम यशपाल ने 'दिव्या' के जरिए, शरत ने 'शेष प्रश्न' जैनेन्द्र ने 'सुनीता' और 'त्यागपत्र' के माध्यम से किया, बीसवीं सदी के उत्तारार्ध्द की संवेदना को 'तुम्हारी रोशनी में' उपन्यास बड़े ही यथार्थ और रचनात्मक ढंग से उजागर करता है। - बटरोही
मेरा विश्वास है कि उपन्यास
लिखा नहीं गया,
बस लिख गया है। सुवर्णा हिन्दी उपन्यास की एक अविस्मरणीय पात्र साबित होगी। यह पत्र आपको 'तुम्हारी रोशनी में' उपन्यास के सिलसिले में बधाई देने के लिए है। ('लाल-पीली ज़मीन' विशेष पसन्द नहीं पड़ा था।) इस उपन्यास में भाषा और कथ्य दोनों दृष्टियों से आप विशेष सफल हुए हैं। सुवर्णा का चित्र संश्लिष्ट, यथार्थ एवं रोचक बन पड़ा है। बिल्कुल अंत के उपसंहार भाग को छोड़कर पूरा उपन्यास पूर्णतया विश्वसनीय है--हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ उपलब्धि।- डॉ. देवराज पूरी पुस्तक एक बैठक में पढ़ गया हूँ। सुखद है कि आपने 'प्रेम' के विषय को मूल्यों और बहुत हद तक 'आध्यात्मिकता' के साथ जोड़ने की कोशिश की है। आजकल इस भावना का लोप सा होता रहा है। यह 'कन्सैप्ट' ही खत्म सा हो रहा है और ऐसी स्थितियों में दोनों आयामों में जूझती सुवर्णा के माध्यम से दोनों की व्याख्या सुन्दर है। पर अन्त अगर ज्यादा सकारात्मक होता और ज्यादा स्पष्ट तो? सुवर्णा की संघर्षपूर्ण मनस्थिति को एक ठहराव मिल जाता। एक स्पष्ट विचारधारा मिल जाती तो कुछ अधिक सकरात्मक होता। वैसे यह बहुत मामूली बात है और किसी भी लेखक की अपनी मन:स्थिति है। मुझे उपन्यास अच्छा लगा और इसकी बधाई। - प्रियंवद संदर्भ - 'धीर समीरे' मुझे तुम्हारा यह उपन्यास जगह-जगह पर उद्वेलित करता रहा-एक तरह से यात्रा का चिरन्तन प्रवाह उपन्यास की कथा-धारा का 'पौट' तैयार करता जाता है, जिसमें हर पात्र का अतीत धीरे-धीरे हर पड़ाव पर उद्धाटित होता है। तुमने बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से विभिन्न नियतियों के जीवन-सूत्र संयाजित किए हैं, जिसमें भारतीय संस्कृति के बिंब, स्मृति-संकेत और पौराणिक कथाएं सहज रूप से अन्तुर्गुंफित हो जाते हैं ... उनके प्रति तुम्हारा लगाव इतनी गहन संवेदनाके साथ न अन्तर्निहित होता, तो सारी चीज़ काफी अमूर्त और वायवी-सी जान पड़ती, लेकिन तुम इस छद्म, बौध्दिक 'भारतीयता' से बच कर सहज रूप से 'भारतीय (यदि ऐसी कोई चीज़ है!) के टैक्चर' के ताने बाने को रेखांकितकरने में सफल हुए हो। कभी-कभी तुम परर् ईष्या होती है, कि नौकरी और परिवार की व्यस्तताओंके बावजूद तुम बराबर इतनी निष्ठा से लिखते रहते हो-वह भी 'आधुनिक फैशनों' से मुक्त होकर- जो आज के युग में (विशेषकर 'हिन्दी के लेखक 'समाज' में) कम ही लोग कर पाते हैं। -निर्मल वर्मा संदर्भ - 'पाँच ऑंगनों वाला घर' आपकी यह पुस्तक सचमुच बहुत चर्चित है। क्या कथ्य और क्या शिल्प सभी दृष्टियों से यह आपकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। सन्नी चाचा, कमलाबाई, गोवर्ध्दन तो नायक व नायिका से भी आगे निकल गये हैं। -रवीन्द्रनाथ त्यागी हिन्दी में ऐसा कोई उपन्यास मेरे देखने में नहीं आया जिसमें राजनीतिक घटनाओं को बाकायदा नाम लेकर स्पष्टता और यथातथ्यता से प्रस्तुत किया गया हो और एक सधे हुए कलात्मक संयम के साथ उन्हें हमारे सामाजिक पतन के साथ जोड़ा गया हो। निर्भीकता की यह विशिष्टता इस उपन्यास को एक अलग पंक्ति में खड़ा करती है। अन्तत: पाठक केवल अभिभूत ही नहीं होता, अपितु राजनैतिक भ्रष्टता, सांस्कृतिक हृास और मानवीय पतन के बीच छटपटाती नैतिकता और मूल्य निष्टा के प्रति सचेतन और आस्थावान भी बनता है। इस प्रकार यह उपन्यास बहुत बड़े सामाजिक दायित्व की पूर्ति करता है, साथ ही संस्कारशील सुसंस्कृत अभिरूचि को भी बनाये रखता है। - डॉ. राम जी तिवारी
गुज़रे दशकों के संवेदनात्मक
क्षरण के इतिहास को आपने अपनी विशिष्ट किन्तु सहज मार्मिकता से बूंद-बूंद
सहेजा है। यों तो यह तरल संवेदना आपकी रचनाओं में सदैव प्रवाहित रही है
किन्तु पहले ('धीर
समीरे'-'तुम्हारी रोशनी में ...')
की कृतियों में यह ज्यादा विशिष्ट,
गूढ़ चिन्तन और थोड़ी पेचीदगी से भरी,
दर्शन से आप्लावित, कलात्मक
तराश के साथ सामने आयी है, प्रेम के भी अत्यन्त
जटिल, रेशे-दर-रेशे उकेरने वाले विश्लेषण्ा,
चिन्तन। मानसिक खुराक देने की दृष्टि से वह भी इतना ही
महत्वपूर्ण है, लेकिन 'पाँच
ऑंगनों वाला घर' को पढ़कर ऐसा लगा जैसे दुर्गम
घाटियों के बीच टेढ़े-मेढ़े घुमावों के बीच बहती धारा जैसे अनायास निर्बाध झरने
के रूप में फूट पड़ी हो। विश्लेषण यहाँ भी है,
दर्शन भी, लेकिन इतना सहज कि हर कोई समेट ले।
- सूर्यबाला एक अजीब किस्म की इनोसेंस ने मुझे आकर्षित किया, जो गोविन्द मिश्र की कहानियों में मिलता है। हर कहानी में जो 'इन्जर्ड चीज़ होती है, जो आहत होती है, वह --- एक ऐसा व्यक्ति, व्यक्तित्व या उसकी संवेदना है जो -- जिसके बारे में उस व्यक्ति या उसके यथार्थ के बारे में न तो हम अधिक जानते हैं और न ही गोविन्द मिश्र उसके बारे में अधिक कहते हैं, लेकिन आहत होने की जो भावना है, वह जिस संवेदना के साथ आती है, वैसा दूसरे कहानीकारों में बहुत कम दिखायी पड़ता है। - निर्मल वर्मा जब से उपहार अंक (धर्मयुग) प्रकाशित हुआ है, शायद ही कोई शाम ऐसी बीती हो जब घरेलू पार्टियों में, समारोहों में, नाटय प्रदर्शनों में, हाट-बाजार में किसी-न-किसी परिचित ने रोकर उपहार अंक के लिए बधाई देते हुए गोविंद मिश्र की कहानी 'खुद के खिलाफ़' पर विशेष बधाई न दी हो! इस कहानी का जिक्र करते ही उनके चेहरे पर एक आतंक-प्रशंसा का भाव आता है और बदले हुए स्वर में हर व्यक्ति कहता है कि इस कहानी ने उसे झकझोर दिया अंदर तक। उपहार अंक पर जितने भी पाठकों के पत्र आये हैं लगभग 90 प्रतिशत पत्रों में इस कहानी का विशेष उल्लेख है। इन सबकी बधाई एकत्र कर आपको भेज रहा हूँ। नव वर्ष का इससे बेहतर उपहार आपको क्या दे सकता हूँ। - धर्मवीर भारती इस बार की उत्कल यात्रा में 'खाक इतिहास' पढ़ गया। अपनी विशिष्ट भाषा, शैली, मनोवैज्ञानिक चित्रण और मनुष्य के दर्द को स्वर देती ये कहानियाँ मुझे कहीं गहरे छू गयी। विशेष रूप से मैं 'आल्हखंड', 'सडांघ', 'मुझे घर ले चलो', और 'खाक इतिहास' का उल्लेख करना चाहूँगा। कितनी व्यथा, कितनी पीड़ा, कितना दर्द है इन कहानियों में और कितनी निसंगता। आल्हखंड की अंतिम पंक्तियाँ-''भैया, तुम वापिस जाकर उन्हें जरूर ढूँढ़ निकालना और मेरी राम कहानी बताना''--सारी निसंगता के बावजूद कितनी व्यथा-ममता वहन किये है! - विष्णु प्रभाकर 'पगला बाबा' प्रकाशक ने भेज दी थी, पढ़ डाली। शुरू की ही कहानियों में लगा कि कहानी में संवेदनशीलनता जी उठी है। इधर के कथा साहित्य की निर्मम बौथ्ध्दक तटस्थता से कुछ ऊब होने लगी थी, विशेष रूप से इस कारण कि वह तटस्थता भी सहज या निजी नहीं थी, थी प्राय: आरोपित। मुझे 'पगला बाबा', 'एक बूंद उलझी' और 'मायकल लोबो' में बड़ी सूक्ष्म और सुषुप्त मानवीयता की जाग्रत अवस्था के नाटकीय दिग्दर्शन सेबड़ी तृप्ति मिली। आपको हार्दिक बधाई। हृदय से आशीर्वाद कि आप कहानी के क्षेत्र में गुलेरी से जो शुरूआत हुई थी, उसके उत्कर्ष शिखर बनें। - विद्यानिवास मिश्र 'सारिका' का 333वाँ अंक मुझे कल ही मिला। उसमें आपकी 'फाँस' शीर्षक कहानी पढ़कर तबीयत खुश हो गई। इतनी अच्छी, सशक्तऔर मन पर स्थायी प्रभाव डालने वाली हिन्दी-कहानी मैंने बहुत समय के बाद पढ़ी है। मेरी हार्दिक बधाई। - चन्द्रगुप्त विद्यालंकार मेरी और पुष्पा जी की हार्दिक बधाई स्वीकारें। बरसों बरसों बाद हिन्दी में इतनी सशक्त, इतनी झकझोरने वाली कहानी पढ़ी (युध्द)। इधर पिछली बीमारी के बाद किसी भी भावनात्मक स्थिति में हृदय बुरी तरह 'पलपीटेट' करने लगता है। कहानी इतनी हिलाने वाली थी कि कई बार रूक कर सांस को आराम देना पड़ा। पर धन्यवाद आपको कि अन्त में एक नरम स्पर्श देकर आपने सब कुछ सम्हाल लिया। ईश्वर करे ऐसा ही खूब लिखें, लिखते रहें। - धर्मवीर भारती 'युध्द' कहानी पढ़ी। एक यातनादेह कहानी। दो पीड़ा बिंदुओं के बीच 'मैं' को अवस्थित करती हुई। एक 'थौटफुल' दस्तावेज ... पीड़ा की निरंतरता, पीढ़ियों से पीढ़ियों तक। यही कथा के बीच की कथा है।मुझे अच्छी लगी है कहानी। गहरी उदासी में धंस गई है। कहानी में देर तक बने रहने का उपकरण बनी यह उदासी। साधुवाद। - राजी सेठ 'मेरी प्रिय कहानियाँ पढ़ डाली।कहानियों के बारे में मेरे कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं है। गति, भाषा, चित्रात्मकता सब हैं। खासतौर से संग्रह की पहली कहानी 'कचकौंध' की भाषा पढ़ कर आनन्द आया। इसलिए कि आपकी 'प्रिंस हेनरी' पीती सूरत घूमती रही और वह भाषा पढ़ता रहा। एक बात ज़रूर कहूँगा। आपने भूमिका में लिखा है कि एक प्रेम कहानी लिखने की महत्वाकांक्षा अभी तक है!! सचमुच ...। और कोई कहानी 'दर्द' की भी होनी चाहिए। ऐसा 'दर्द' जिसे आदमी अपनी धरोहर बना ले और जब चाहे उसे अपने सीने से लगाकर रो सके। ऐसा दर्द अभी किसी कहानी में नहीं मिला। - प्रियंवद |
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