मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

रॉन्ग नंबर
     – महाश्वेता देवी
रात का एक बज रहा था कि तीर्थबाबू की नींद टूट गई। देखा टेलिफ़ोन बज रहा है। आधीरात को फ़ोन बजे तो पता नहीं क्यों इतना डर लगता है?
- हेलो! सुनिये……अस्पताल से बोल रहा हूं……आपका पेशेंट अभी-अभी ख़त्म हो गया है, हेलो!
- हमारा पेशेंट? अस्पताल में हमारा कोई पेशेंट नहीं है।
- आपका नंबर? अच्छा रॉन्ग नंबर है! रख दीजिए।
- रॉन्ग नंबर पे फ़ोन क्यों करते हैं, हां? रॉन्ग नंबर पे!
तीर्थबाबू फ़ोन रख देते हैं। डर लगता है उन्हें, बहुत डर।
- अचानक फ़ोन क्यों बजा? इतने रॉन्ग नंबर क्यों आते हैं? सविता ने पूछा।
आज बहुत दिन हुए सविता या तीर्थबाबू, दोनों में से किसी को भी बहुत रात तक नींद नहीं आती है। तीर्थबाबू ठीक रात के बारह बजे नींद की गोली खा लेते हैं। फिर आंख मूंदकर लेटे-लेटे अपने मन को विचारशून्य करने की कोशिश करते हैं।
लेकिन ऐसा किसी तरह नहीं कर पाते हैं तीर्थबाबू। उनकी चेतना और अवचेतन में, चेतना के प्रथम स्तर में और चेतना के अतल स्तर में, सबके बीचोंबीच लंबी-लंबी दीवारें खड़ी हो जाती हैं। दीवारों पे पोस्टर चिपके होते हैं।
दीपंकर की तस्वीर। बचपन का दीपंकर, सिर मुंड़ाया मासूम चेहरा। मैट्रिक पास किया दीपंकर। ग्रैजुयेट दीपंकर। लंबा इकहरा, भावुक और शांत दीपंकर।
दीपंकर! तीर्थबाबू की एकमात्र संतान। संतान, संतान, आख़िर मनुष्य क्यों चाहता है संतान? क्यों प्रेम करता है संतान से? तीर्थबाबू रोज़ यह प्रश्न ख़ुद से करते हैं।
उसके बाद उन्हें नींद आती है। गहरी, लेकिन बेचैनी और आतंक से भरी। सविता शायद तबतक भी नहीं सोती हैं। तभी वह पूछती हैं, ‘किसका फ़ोन था’?
- रॉन्ग नंबर।
- कहां से?
- अस्पताल से।
- अस्पताल से? एजी अगर हमारा फ़ोन हुआ तो?
- पागल मत बनो सबु। तुम तो जानती हो दीपू निरेन के पास है। नीरेन उसे दिल्ली में दाख़िला दिलाने की कोशिश कर रहा है। सब जानते हुए भी पागलपन क्यों करती हो?
- अगर वह नीरेन के पास है तो दीपू चिट्ठी क्यों नहीं लिखता है? नीरेन चिट्ठी क्यों नहीं लिखता है मुझे? तुमलोगों ने क्या सोचा, मैं रोना-धोना करुंगी? दौड़ी जाऊंगी नीरेन के पास?
- सबु परेशान मत हो।
- मुझे तो लगता है दीपू नीरेन के पास नहीं है। नीरेन जानबूझकर मुझे कुछ नहीं बता रहा है।
- चुप करो सबु, रोओ मत। सब ठीक है। तुम तो जानती हो दीपू के भाग जाने का कोई कारण नहीं है।
- तो फिर वो आता क्यों नहीं है?
- सबु, बीमारियों ने तुम्हारी मति मार दी है। समय भी ख़राब है और यह जगह भी, इसलिए वो नहीं आता है।
सविता अब रोना शुरु कर देती है। धीरे-धीरे, सुबक-सुबक के।
रोते-रोते एक समय सविता सो जाती हैं। तीर्थबाबू को नींद आने में वक़्त लगता है। क्या हो गई है देश की हालत? अच्छा! यदि रोगी मर जाए तो ये लोग 2-3 एक्सचेंज का नंबर देने पर 4-7 पे फ़ोन करेंगे? रॉन्ग नंबर पे! जिनका पेशेंट है, क्या होती होगी उनके दिल की हालत?
हो सकता है कुछ भी ना हो। आजकल तो सब कुरुक्षेत्र के अर्जुन हैं, परम असंवेदनशीलता के साथ मृत्यु को ग्रहण कर लेते हैं। लाश बिस्तर पे ही पड़ी रहती है! ख़र्चा बचाने के लिए रिश्तेदार चले जाते हैं और फिर लौट कर नहीं आते। मृत ठंडे गोदाम में पड़ा रहता है। कोई देखने तक नहीं आता है।
तीर्थबाबू को डर लगता है, बस रह-रहकर डर लगता रहता है। जैसे किसी दूसरे कलकत्ता में वास कर रहे हैं, दूसरे पश्चिमबंगाल में। देखने में लगता है वही शहर है। वही मैदान – मॉन्युमेंट – भवानीपुर – अलिपुर – चड़कडांगा का मोड़! वही आषाढ़ के रथ का मेला – चैत्र में कालीघाट में शिवजी के गीत – पौष में बड़ेदिन की आलोकसज्जा।
यह वो शहर नहीं। यह कोई और शहर है। रॉन्ग सिटी। ग़लत ट्रेन पे चढ़ के ग़लत शहर में आ गए हैं तीर्थबाबू।
नहीं तो, सविता को कही सारी सांत्वना भरी बातें भूलकर क्या तीर्थबाबू सोचने लगते, तो फिर दीपंकर चिट्ठी क्यों नहीं लिखता है? नीरेन दीपंकर की कोई ख़बर क्यों नहीं देता है?
क्यों, क्यों मनुष्य क्यों संतान चाहता है, क्यों प्रेम करता है अपने बेटे, बेटियों से? मौत पे मुखाग्नि देने के लिए? रॉन्ग आन्सर। जितने दिन तीर्थबाबू जीवित हैं उतने दिन वह अपनी संतान को अपने साथ चाहते हैं। रहो, तुम मेरे पास, मेरे साथ रहो। मेरी दर्द पीड़ा को सहो, उसमें भाग लो। मेरे साथ एक हो जाना सीखो।
रॉन्ग होप!
शायद कहीं कोई एक्सचेंज है इस शहर में। कहाँ है वो एक्सचेंज? कौन वहां बैठा तीर्थबाबू को सिर्फ़ कहे जा रहा है रॉन्ग नंबर! रॉन्ग सिटी! रॉन्ग होप!
कौन है वह? कहां है वह अदृश्य ऑपरेटर? ऑपरेटर दिखता क्यों नहीं है?
सोचते-सोचते तीर्थबाबू अचानक ही नींद में डूब जाते हैं। ऐसे ही बीतते जाते हैं दिन-रात, सोम से लेकर रविवार, सुबह से लेकर शाम। तीर्थबाबू को रात से बहुत डर लगता है, क्योंकि नींद में उन्हें सिर्फ़ दीवार की क़तारें ही क़तारें दिखती हैं। उन दीवारों पे दीपंकर के चेहरे का चित्र बना होता है। नींद में ही तीर्थबाबू सोचते रहते हैं – तो क्या उन्हें मनोज के पास जाना चाहिए? मनोज उनका दोस्त है, मन के रोगों का डॉक्टर। तीर्थबाबू निश्चित ही बीमार हैं। तुम बीमार हो तीर्थ।
मनोज ने राय दी। तीर्थबाबू का सूखा चेहरा, कातर दृष्टि और बारबार माथे से पसीना पोंछने की कोशिश, वह सब ग़ौर कर रहे थे।
- क्या बिमारी है?
- नर्व की।
- नर्व्स तो मेरे ठीक हैं मनोज!
- तुम्हारी चिंताएं भ्रांतिजनक हैं।
- भ्रांतिजनक!
- तुमने क्या कहा है तुम्हीं सुनो।
मनोज ने टेपरिकॉर्डर चला दिया। मनोज रोगियों की स्वीकारोक्तियों को टेप कर लेते हैं। उसके बाद उसपर विचार करते हैं। राय देते हैं। तीर्थबाबू टेपरिकॉर्डर को देखकर मन ही मन रुपयों का हिसाब कर रहे थे। अब उन्हें एक थका हुआ, धीमा स्वर सुनाई दिया।
- मुझे लगता है यह घर मेरा नहीं है। दस्तक दूं तो कोई दरवाज़ा नहीं खोलेगा, क्योंकि मैं रॉन्ग ऐड्रेस पे आ गया हूं। सड़कों पे चलते हुए मुझे बस यही लगता है कि कलकत्ता अब कलकत्ता में नहीं है। मकान-दुकान-मैदान-मॉन्युमेंट सब किसी दूसरे शहर को पकड़ाकर कलकत्ता ग़ायब हो गया है। यीट्स लगता है यह रॉन्ग सिटी है! कोई ज़रुरत नहीं थी फिर भी ख़ुद को विश्वास दिलाने के लिए उसदिन केवड़ाघाट शमशान गया था। दीवारों पर सब ग़लत-सलत लिखा हुआ पढ़कर ही मैं समझ गया कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं। उसदिन मैंने सपने में देखा………
मनोज ने टेपरिकॉर्डर बंद कर दिया। तीर्थबाबू की ओर देखकर कहा
- क्या सपना देखा था तीर्थ?
- मैं नहीं बता सकता।
- क्या सपना देखा था?
- मुझसे मत पूछो मनोज। मैं वो सपना अक्सर देखता हूं।
- इसलिए ही तो जानना ज़रुरी है।
- नहीं मनोज।
- तुम अस्वस्थ हो तीर्थ। स्वाभाविक है। तुम्हारा अस्वस्थ होना स्वाभाविक है।
- क्यों? मेरा अस्वस्थ होना स्वाभाविक क्यों है?
- तुम्हारा बेटा तो………
- मेरा बेटा क्या?
- घर में नहीं है।
- मनोज, मुझे नहीं पता तुम्हें किसने क्या कहा है। मेरा बेटा दीपंकर अपने कज़न नीरेन के पास लखनऊ में है। वहां से पढ़ने दिल्ली जाएगा।
- गॉड।
मनोज ने बहुत पीड़ा और दु;ख से कहा। एक गहरी सांस ली उन्होंने। उनलोगों के समय में तीर्थ सबसे ठंडे दिमाग़ का अच्छा लड़का हुआ करता था। वह ऐसा हो गया?
- गॉड! मनोज ने घिसटते हुए किसी दवाई का नाम लिखा। फिर उस
काग़ज़ को फाड़ दिया और एक दवाई की शीशी तीर्थबाबू को दी। कहा-
- रात को इसे खाना तीर्थ। नींद आ जाएगी।
- अच्छा दो।
तीर्थबाबू ने दवाई की शीशी ले ली और चलने लगे। मनोज उन्हें
दरवाज़े तक छोड़ने आए। कहा-
- बोस तो फिर तुम्हारे पास नहीं गया न?
- नहीं, क्यों?
- मैंने उसे मना किया है।
- तुमने क्या सोचा, आने पर क्या मैं उसे घर में घुसने दूंगा? सविता
को सारी ऊलजुलूल बातें कह कर चला जाता है। तीर्थबाबू निकल पड़े, अभी शाम थी।
या कि सुबह? सड़क पे क़तारों में लोग हैं।
या कि जनशून्य पथ है?
निर्जन पथ – मेघावृत्त रजनी……झड़-झंझा – जयसिंह छुरी पे धार दे रहे हैं। रवीन्द्रनाथ की किताब का यह वर्णन तीर्थबाबू को बहुत पसंद था।
दीपंकर के ‘राजर्षि’ पाठ में था।
तीर्थबाबू को एहसास हुआ कि उनकी आंखों से टप-टप आंसू गिर रहे हैं।
संतान इतने घातक होते हैं, घातक हैं वे। पिता-माता की नियत हत्या करते हैं। तीर्थबाबू बड़े जतन से दवाई की शीशी को लेकर जाने लगे। जैसे ऑलिम्पिक की पवित्र मशाल लेकर जा रहे हों।
आज रात सोए-सोए तीर्थबाबू ने फिर वही सपना देखा। देखा चौरंगी रोड के दोनों तरफ़ लाखों लोग खड़े हुए हैं। सब स्थिर हैं। सड़क के दोनों ओर बड़ी-बड़ी सफ़ेद चमकती रोशनी है। सड़क के बीचोंबीच ख़ून पड़ा है। वहां खुले बालों में एक प्रौढ़ रमणी खड़ी है, वह अपने सीने पे हाथ मारती हुई प्रवीर! प्रवीर! प्रवीर! कहती हुई विलाप कर रही है। उस औरत को देखते ही तीर्थबाबू समझ गए वह पुराणों की ‘जना’ है।
दूर – दूर – भीषण बीहड़ में
मरुभूमि – दूरस्थ शमशान में –
यहां नहीं है तुम्हारा स्थान।
दुर्गम जंगलों में, तुषार के बीच,
चल पर्वत शिखर पे चल।
चल पाप राज्य को त्याग
पति है तेरा पुत्रघाती सखा अराति का।
चल पुत्र – शोकातुरा –
उस औरत की चीख़ें आकाश चीर रही थीं। उसी समय – ड्रॉप डालो। घंटा बजाओ! कहकर न जाने कौन चिल्लाने लगे। किसीने कहा, यह महेश्वरीपुर नहीं है। चले जाओ।
उसी वक़्त तीर्थबाबू कहने को थे – शी इज़ इन दी रॉन्ग सिटी! लेकिन घंटा बजना शुरु हो गया।
घंटी बज रही थी। फ़ोन बज रहा था।
तीर्थबाबू उठकर बैठ गए। लोग क्यों टेलिफ़ोन रखते हैं? भाड़ा देने में जीभ लटक जाती है, सांस चढ़ने लगती है?
तीर्थबाबू ने रिसीवर उठाया।
- 4-7-9?
बिल्कुल यही नंबर तीर्थबाबू के सामने रखे टेलिफ़ोन पर लिखा था। तीर्थबाबू ने कहा, नो।
- यह तीर्थंकर चैटर्जी का घर नहीं है?
- नो।
- तीर्थबाबू मैं! बोस। हां, उसदिन जो कह रहा था। दूर रेललाइन के पास वाली बॉडी, दीपंकर की थी। डाइड ऑफ़ इन्ज्युरीज़। आप तो आए नहीं। बॉडी हैज़ बीन क्रिमेटेड। हेलो। सुन रहे हैं।
- नहीं।
- यह तीर्थंकर चैटर्जी का घर नहीं है?
- नहीं।
- यह 4-7-9 नहीं है?
- नो, रॉन्ग नंबर।
तीर्थबाबू ने फ़ोन रख दिया। क्या सोचकर उन्होंने रिसीवर ही
उतारकर रख दिया। फिर बिस्तर पे लौट गए। उस सपने को फिर से देखना है। जैसे भी हो एकबार फिर से देखना है। सपना देखने पर ही वह जान पाएंगे उन्मादिनी ‘जना’ किस तरह रॉन्ग सिटी से भागी थी। सपने छोड़कर आज तीर्थबाबू के हाथ में कुछ नहीं है। जागी अवस्था में कलकत्ते की सड़कों पे घूमने पर, निकलने का एक भी रास्ता नहीं देख पाते हैं तीर्थबाबू। अब उन्हें ‘जना’ के पीछे-पीछे जाना होगा। प्रवीर की मौत के बाद प्रवीर के बाप से लेकर सब, जब घातकों के साथ विजयोत्सव मना रहे थे, ‘जना’ अकेली भाग गई थी।
तीर्थबाबू सो गए।

हम महाश्वेता जी को एक ऐक्टिविस्ट लेखिका के रूप में जानते हैं। वह वामपंथी धारा की थीं एवं उन्होंने पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्य प्रदेश और छ्त्तीसगढ़ के आदिवासियों के अधिकारों और सशक्तिकरण के लिए बहुत काम किया। उनकी अधिकांश कहानियां आदिवासियों के उत्पीड़न, प्रतिवाद, प्रशासन से प्रत्यक्ष टकराव, प्रतिशोध, नक्सल आंदोलन पर आधारित हैं। यह कहानी कुछ अलग है। कलकत्ता शहर की पृष्ठभूमि में लिखी यह कहानी एक पिता की पीड़ा और भटकाव की मार्मिक कहानी है…………। जिस तरह उन्होंने एक इतनी छोटी कहानी को पॉराणिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक संदर्भों के माध्यम से अनफ़ोल्ड किया, उसे पुष्ट और समृद्ध किया है। यह परिचय है एक ऊंचे क़द के, अच्छे साहित्यकार का।
महाश्वेता देवी नक्सल्बाड़ी आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से, बहुत गहराई से जुड़ी हुई थीं। इस आंदोलन में बहुत लोग मारे गए थे। ख़ासकर तरोताज़ा ब्रिलियंट युवक, कम उम्र के लड़के, जो नए तरीक़े से देश का गठन करने के लिए इस आंदोलन में कूद पड़े थे, जिनका राष्ट्र ने दमन किया, जिन्हें पुलिस ने मार दिया। नतीजा यह कि बहुत माता-पिताओं को संतान खो देने के शोक से गुज़रना पड़ा। इस कहानी में एक ऐसे ही माता-पिता थे। लेकिन इस कहानी की एक और विषय वस्तु है, वो कि, आंदोलन ख़त्म हो जाते हैं, संतानें खो जाती हैं। संतान को खोने का यह दर्द टेम्पोरैरिली चला भी जाए लेकिन वो दर्द किसी दूसरी तरह से हमेशा जकड़े रहता है। यह सिर्फ़ व्यक्तिगत क्षति नहीं है बल्कि जिस देश के लिए, शहर के लिए, जिस शहर में उनका बेटा बड़ा हुआ है और जिस शहर ने उसे मार दिया है, वो पूरा शहर ही उस पिता के लिए एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है। इसलिए वो पिता ख़ुद को उस शहर से मिला नहीं पाता है, उन्हें ठीक से नींद नहीं आती है। वो नींद में सपना देखते रहते हैं, वो सपना है या दुस्वप्न यह हम नहीं जानते, जिस शहर में मनुष्य के जीवन का इतना कम दाम है कि मार देने के बाद भी मृतदेह को सम्मान नहीं मिलता है, वह केवल एक लाश रह जाती है जिसे लाश-घर में भी जगह नहीं मिलती, गोदाम में पड़ी रहती है।

लेखिका महाभारत के अश्वमेध पर्व के पौराणिक रेफ़ेरेंस से इसे मिलाती हैं, जहां अर्जुन महेश्वरीपुर के युवराज प्रवीर की हत्या कर देते हैं, क्योंकि प्रवीर उनके घोड़े को रोक देता है। महाभारत के अश्वमेध पर्व में यह कथा आती है। युवराज प्रवीर को मार देने से महेश्वरीपुर की राजरानि जना विक्षिप्त हो उठती हैं और राजा नीलध्वज से फिर से युद्ध कर प्रवीर के मृत्यु का प्रतिशोध लेने को कहती हैं, लेकिन नीलध्वज ऐसा नहीं करते बल्कि अर्जुन के साथ संधि कर लेते हैं। क्रोध, अपमान और शोक में रानी जना नीलध्वज और अर्जुन को पत्र लिखकर, जाह्नवी नदी में अपने प्राणों का विसर्जन कर देती हैं। अर्जुन के प्रवीर को युद्ध में परास्त करने से ही चलता, क्योंकि प्रवीर व्यक्तिगत रूप से उनका शत्रु नहीं था। लेकिन उन्होंने उसकी हत्या की जिसका उन्हें कोई अनुताप, ग्लानि नहीं था। वीरता के दर्प में वह प्रवीर को मारकर चले जाते हैं। यह प्रवीर वो लोग हैं जो साहस दिखाते हैं, इसी तरह यहां भी प्रवीर जैसों को मार दिया जाता है, चाहे राष्ट्र दमन करे, चाहे पुलिस उन्हें मार दे। पुलिस का इनसब नौजवानों से कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं, वह नौकरी के लिए अपने ही देश, अपने ही समाज के लोगों का ख़ून करते हैं। यह सारी चीज़ें ट्रिगर होती हैं एक रॉन्ग नंबर से। यह रॉन्ग नंबर सिर्फ़ रॉन्ग नंबर नहीं है, इसमें एक भूल शहर, भूल जीवन है। किसी नौजवान का ख़ून हो जाना असल में भूल है, पिता का दर्द जो उन्हें नहीं मिलना चाहिए था, वह एक भूल है। वो शहर जिसे उनके प्रति अनुभूतिशील होना चाहिए था, लेकिन नहीं है, वो भूल है। एक शहर जो उत्सवों और विकारों के साथ अपनी लय में चलता जाता है। लोग मरते रहें या मारे जाते रहें इससे उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। इन तमाम भूलों को कथाकार एक रॉन्ग नंबर, रॉन्ग सिटी, रॉन्ग होप के माध्यम से बताती हैं। एक बात यहां कहना चाहती हूं, जब कोई कहानी लिखता है तो वो सिर्फ़ वर्णना नहीं होती है, सिर्फ़ वर्णना हो तो एक अच्छा जर्नलिस्टिक पीस बन सकता है। कहानी कहां अलग होती है – महाश्वेता जी ने यहां सिर्फ़ एक पिता के दुख का वर्णन नहीं किया है, शहर में एक बेटे के मरने का वर्णन मात्र नहीं है। जिस तरह वह देश के इतिहास को पुराण के माध्यम से पकड़ना चाहती हैं, उसी तरह देश के इतिहास को किस तरह साहित्य में लाना है वह यह भी बख़ूबी करती हैं। अर्जुन एक पौराणिक रेफ़ेरेंस है जो हमारे कलेक्टिव मेमोरी की हिस्ट्री में हैं, दूसरे चरित्र हैं युवराज प्रवीर और रानी जना। अर्जुन के अहंकार, प्रवीर का साहस और जना के विद्रोह के माध्यम से उन्होंने कहानी को कहा है। चुंकि कहानी साहित्य का अंश है, इसलिए वह इसमें लिटेरेरी रेफ़ेरेंसेस भी लाती हैं जिससे कहानी और भी समृद्ध होती है। महाभारत की रानी जना का जो उन्होंने रेफ़ेरेंस दिया है, माइकेल मधुसूदन दत्त के वीरांगना काव्य में जना के उस पत्र का उल्लेख है। साथ ही प्रवीर से मेल खाते ऐतिहासिक विद्रोही चरित्र जयसिंह को सीधा-सीधा न लाकर उसे रवीन्द्रनाथ के किताब ‘राजर्षि’ के माध्यम से प्रस्तुत किया। जैसा की महाश्वेता देवी की अमोमन कहानियों में फ़ेमिनिस्ट ऐंगल बहुत स्ट्रॉंग होता है। सारी नारी पात्र बहुत ही सशक्त होती है, उसी तरह इस कहानी में भी जना के माध्यम से उन्होंने उन माताओं की बात कही है जो अन्याय का प्रतिवाद करती हैं।

अमृता बेरा :- जन्म कोलकाता में। दिल्ली में निवास। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेज़ी तीनों भाषाओं में परस्पर अनुवाद एवं स्वतंत्र लेखन।
अनुवाद कार्य - हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनूदित कविताओं व ग़ज़लों का संग्रह, “लाईट थ्रु अ लेबेरिंथ” वर्ष 2009 में कोलकाता के “राईटर्स वर्कशॉप” से प्रकाशित। वर्ष 2011 से अब तक साहित्यिक पत्रिका “हंस” में बांग्लादेशी लेखिका, तसलीमा नसरीन के बांग्ला लेखों का हिंदी अनुवाद नियमित रूप से प्रकाशित। तसलीमा नसरीन की आत्मकथा का सातवां खंड, “निर्वासन” का हिंदी अनुवाद, 2013 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित। पश्चिम बंगाल का उल्लेखनिय बंकिम पुरस्कार प्राप्त बांग्ला उपन्यास, “दोज़ख़नामा” का हिंदी अनुवाद, हार्पर कॉलिंस से वर्ष 2015 में प्रकाशित। टाइम्स ग्रुप द्वारा इस उपन्यास को वर्ष 2015 का श्रेष्ठ हिंदी अनुवाद चयनित किया गया। 2016 में “शब्दों के संग रुबरु” द्विभाषिय (बांग्ला एवं हिंदी) कविता संग्रह, लोकमित्र से प्रकाशित। 2018 में “दुनिया इन दिनों” पत्रिका के बांग्ला विशेषांक का संपादन। 2019 में “लोटसफ़ीट पब्लिकेशन-यूके व दिल्ली” से बांग्ला से अंग्रेज़ी में अनूदित कविता संग्रह “लाईफ़ अमेज़ेज़ सीम्स टू बी इन एक्सेस” प्रकाशित। 2020 में जिमनास्ट दीपा कर्मकार के संस्मराणत्मक वृतांत ‘द स्मॉल वंडर’ का बांग्ला अनुवाद फ़िंगरप्रिंट्स, प्रकाश बुक्स से प्रकाशित। दलित लेखक मनोरंजन व्यापारी का उपन्यास “चंडाल जीवन” अमेज़ॉन वेस्ट्लैंड से शीघ्र प्रकाश्य।
वर्ष 2012 में अनुवाद कार्य के लिए “डॉ अंजना सहजवाला” सम्मान व वर्ष 2017 में
“दोज़ख़नामा” के अनुवाद के लिये कमला गोइन्का फाउण्डेशन द्वारा “श्री प्रभात रंजन सरकार स्मृति पुरस्कार”।

Top    

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com