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जो बीत गया, वो बीत गया...

प्रिया उस कमरे में अकेली बैठी थी, पंखा चल रहा था लेकिन उमस फिर भी महसूस हो रही थी। यह अनुपमा का घर या क्वार्टर था, पर क्वार्टर भी तो घर ही होता है...लेकिन प्रिया को वहाँ अकेले बैठना बहुत बेचैन कर रहा था। अनुपमा अनाथाश्रम में मदर (माँ) के पद पर नियुक्त थी और सभी कमरों का निरीक्षण करने गई हुई थी। यहाँ वह 40 बच्चों को अपना प्यार बाँटती थी...लेकिन प्यार की मिसाल तो चंद्रेश ने दी थी।

चंद्रेश...अनुपमा का पति, पति या पूर्व पति, ऐक्स हसबैंड...आज सुबह चंद्रेश का सोशल मीडिया पर मैसेज पढ़ा था, उसकी नियुक्ति राजस्थान में हुई थी और वो वहाँ जा रहा था। प्रिया समझ नहीं पा रही थी कि चंद्रेश को फ़ोन लगाए या अनुपमा को। फिर कुछ तय कर वह अनुपमा से मिलने आ गई। प्रिया यह सब सोच ही रही थी कि अनुपमा आ गई। प्रिया को देखते ही अनुपमा बोल पड़ी- आज सूरज इधर कैसे निकल आया?
प्रिया ने जवाब दिया- चंद्रेश राजस्थान जा रहा है, तुम्हें पता चला क्या?
अनुपमा- हाँ, सोशल मीडिया पर उसका स्टेटस देखा। उससे अलग हुई हूँ पर उसे ब्लॉक थोड़े किया है। और ब्लॉक कर दूँ तो तू है न जानकारी देने के लिए। वह आर्मी में है तो उसकी पोस्टिंग पूरे देश में कहीं भी हो सकती है, उसमें हैरानी की क्या बात है?
प्रिया- तुम्हें नहीं लगता, एक बार चंद्रेश से मिलना चाहिए, एक बार ठीक से विदाई देनी चाहिए, पता नहीं फिर वह कभी इस शहर में आए या न भी आए।
अनुपमा- जो बीत गया, वो बीत गया...पास्ट की एनर्जी में कब तक रहना? उसकी और मेरी सोच कहने को अलग भी थी, कहने को एक जैसी ही। वह देश के लिए कुछ करना चाहता था, मैं समाज के लिए। उसने आर्मी को चुना, मैंने अनाथाश्रम को। जब प्यार विस्तार लेता है तो निजी प्रेम गौण हो जाता है।
प्रिया- पर तुम दोनों साथ रहकर भी देशप्रेम और अनाथ बच्चों के साथ ममता दिखा सकते थे। यहाँ नौकरी न कर स्वयंसेविका की तरह भी आ-जा सकती थी। उसके लिए तलाक लेने की क्या ज़रूरत थी।
अनुपमा- मदर की पोस्ट की ये दो शर्तें थीं, एक तो खुद के बच्चे न हों, दूसरा विवाह का बंधन न हो। चंद्रेश से मैंने जो माँगा उसने हर बार मुझे दिया, तलाक माँग लिया तो वह भी दे दिया...


इन दोनों में वैराग्य के ये कैसे संस्कार थे, जो इन्होंने अभ्यास से बढ़ा लिए थे। पति-पत्नी के सामाजिक संबंध होते हैं,लेकिन इन्होंने समाज के बंधनों को समाज के हित में ही छोड़ दिया था। दोनों ने उस दिन सबके सामने अलग होने का निर्णय लेते हुए कहा था ‘विलासिता जीवन का उद्देश्य नहीं है’। उस दिन अनुपमा ने अपने घर पर छोटी-सी गैट-टुगेदर की पार्टी रखी थी। बिल्कुल करीबी लोगों को पार्टी का न्यौता था। अनुपमा और चंद्रेश इस तरह की पार्टियाँ देते रहते थे। उससे पहले भी कई बार प्रिया, अनुपमा के यहाँ जा चुकी थी। तब भी जब अनुपमा माँ बनने वाली थी। चंद्रेश ने सीना तानकर कहा था - आर्मी कल्चर में ‘बेबी शॉवर पार्टी’ देना आम बात है...प्रिया ने भी तपाक से उत्तर दिया था- हम सिविलियन भी देते हैं, उसे ‘गोद भराई’ कहते हैं। इस बात पर सारे मेहमान हँस पड़े थे। अनुपमा जुड़वाँ बच्चों की माँ बनने वाली थी। पार्टी में सबने खूब इन्जॉय किया। अनुपमा भी बड़ी खुश नज़र आ रही थी, लेकिन दूसरे ही दिन अनुपमा को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था और सातवें महीने में ही प्रिमोच्योर जन्मे दोनों बच्चे चल बसे थे।

उसके बाद की इस पार्टी में भी सब थोड़े अंदेशे के साथ ही आए थे और इन पति-पत्नी ने पार्टी खत्म होते न होते यह धमाका दे दिया था। अनुपमा अपने जीवन में हमेशा लीड लेती रही थी। इस ख़बर से प्रिया समझ नहीं पा रही थी कि दोनों के बीच आखिर ऐसा क्या हुआ, जो वे अलग होने के निर्णय पर पहुँचे। जबकि अनुपमा ही प्रिया से कहा करती थी - पुरुष को प्यास लगती है तो वह कुएँ के पास आता है, औरत को प्यास नहीं लगती क्या? मुझे प्यास लगती है तो मैं भी इज़हार करती हूँ। केवल चंद्रेश की इच्छा ही तो सब नहीं न।

प्रिया मन ही मन यही सोच रही थी कि चंद्रेश ने हमेशा अनुपमा की इच्छा का ख़्याल रखा था। वरना स्त्री की प्यास की अनुभूति कौन समझता है! उसने अनुपमा से बात न करते हुए पार्टी में कोने में अकेले ड्रिंक्स लेते चंद्रेश से ही पूछा था कि वे दोनों अलग क्यों हो रहे हैं? चंद्रेश ने कहा- अनुपमा ने जब जो माँगा, उसे दिया...आज उसने तलाक माँग लिया, वह भी दे दिया। प्यार केवल लेना नहीं होता। प्यार मतलब देना होता है। अनुपमा को घर-संसार के बंधन में नहीं अब नहीं बँधना, उसे नहीं बँधना तो मैं उसे बाँधने वाला कौन?
पर जाने कौन किसे मुक्त कर रहा था और आज चंद्रेश की पोस्ट से प्रिया कई प्रश्नों को लेकर अनुपमा के सामने थी। अनुपमा शांत बैठी थी। असहजता को तोड़ते हुए अनुपमा ने ही कहना शुरू किया...जब मैं बहुत छोटी थी न, दो-ढाई साल की...खूब तेज़ बारिश हुई थी...नदी में उफ़ान आ गया था। गाँव के नदी तट पर माँ मुझे लेकर गई थी। माँ को पता भी नहीं चला कि कब मैं उफ़ान में बह गई। बहुत दूर बह गई तब माँ की नज़र गई थी और वह भी बहते पानी में कूद पड़ी थी। तब पहली बार मरते-मरते बची थी। फिर तुम्हें पता ही है कॉलेज टाइम में मेरे साथ कितनी बड़ी सड़क दुर्घटना हो गई थी। तब भी ऐसे ही मरते-मरते बची थी। चालीस दिन अस्पताल में थी। दोनों बच्चे चले गए...तब तीसरी बार जान पर बन आई थी। हर बार मौत से उबरी हूँ...तो ज़िंदगी के प्रति आसक्ति ही नहीं रही। मेरे दो बच्चे गए पर अब इन चालीस बच्चों की माँ हूँ। हम कब तक खुद के लिए प्यार की तलाश करते रहेंगे...प्यार तो दूसरों पर लुटाना चाहिए।

प्रिया- कमाल है तुम अभी तीस साल की भी नहीं हुई हो और दूसरों के दर्द से विचलित होती हो।
अनुपमा- हाँ, यहाँ सबसे कम उम्र की माँ मैं ही हूँ। सहज हूँ तभी समाज के लिए कंट्रीब्यूट कर पा रही हूँ। चंद्रेश और मैं, हम दोनों मिले थे, दोनों को अच्छा लगा था इसलिए अनंत आनंद की यात्रा में निकले थे लेकिन बाद में इस शरीर में ही रस नहीं रहा...मेरी प्यास शरीर की प्यास से अधिक थी। हम दोनों के रिश्ते में सूखापन आ गया था...इस सूखेपन को कब तक झेलती?
प्रिया- मैं सोच ही नहीं सकती कि तुम्हारे रिश्ते में भी सूखापन आ सकता है, तुम तो रस से भरी थी। तुम्हारी फैंटसी सुन-सुनकर ही मुझे हँसी आती थी।
अनुपमा- हाँ न, वो फैंटसी थी, सच उससे बहुत कठोर होता है। सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध होने की यात्रा केवल पुरुष ही नहीं करता, स्त्री भी कर सकती है। गौतम बुद्ध बनकर जब वे लौटे थे तो यशोधरा ने उन्हें पति मानने से इनकार कर दिया था न...मैंने भी जब अपने भीतर के प्रकाश को जाना तो फिर से पत्नी नहीं बन सकी...केवल समाज को दिखाने के लिए साथ रहना था क्या? चंद्रेश ने इसे स्वीकार किया...यह उसका प्यार है। I will do what I feel like it...
प्रिया भी इस बात को समझ गई थी...प्यार की स्वतंत्रता को मुबारक कह वह लौट रही थी...

-स्वरांगी साने
 

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