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ब्रेनफीवर
वह
वह
रसोई से बाहर निकली, आखिरी काम समेट, पल्लू से चेहरे का पसीना पोंछती। घर
से लगे उसके पति के दफ्तरनुमा कमरे में आ गई। उसकी दुर्बल, छोटी देह संकोच
उत्सर्जित कर रही थी। बड़ी-बड़ी आँखों में तरलता और नाक पर दृढ़ता थी। होंठ
सदा की तरह मुस्कुराते हुए भी उदास थे। उसने मेरे आगे पानी की बॉटल सरका
दी। वह मुझे गौर से देखने लगी, क्या देख सकी वह? फाईलों में डूबा तटस्थ
चेहरा? मेरे हाथ में सिगरेट, भृकुटि पर तनाव सा था, मगर उसे ताकते देख
मैंने वह तनाव तहा कर बगल रख दिया और कोशिश कर मुस्कुराई। मेरी उंगलियों
में फंसी सिगरेट फुरसत की तलाश में सुलग रही थी, मैं उसे करीब बैठता देख
बुझाने लगी। मैं शायद जान रही थी आज उसके मेरे पास आने का सबब। उसके सवालों
के मज़मून। मेरा दिल ने एकाध धड़कन छोड़ दी। मैं जानती थी उन सवालों के
जवाब में मेरे पास मौन के तीन डॉट्स के अलावा कुछ नहीं था। कोई भूली हुई
हिदायत याद आई तो मैंने होंठों पर टाँकें लगा लिए।
रहने दो मत बुझाओ, आज भली लग रही है यह महक़।
.........
एक बात कहूं?
.........
तुम मेरे पति का अतीत न होतीं तो मेरी बेस्ट फ्रेंड हो सकती थीं। मुझे तुम
अच्छी लगती हो।
............
अच्छा ही हुआ, जो तुम दोनों ने अपने रिश्ते का एक सिरा छोड़ दिया। सलाह -
मशविरों के बहाने।
........
मैं डिस्टर्ब तो नहीं कर रही न? कर रही होऊं तो बता दो।
........
उठो मत, आराम से बैठो। अच्छा यहां सोफे पर आ जाओ। मैंने कॉफी लाने को बोला
है रामेश्वर को।
.........
तुम्हें हैरानी होती है? ...... किस बात पर?
.......
यही कि मैंने कभी तुमसे खुल कर बात क्यों नहीं की? सच पूछो तो शादी के
दूसरे दिन से ही चाहती थी। मेरे पास तुम्हारा फोन नंबर और पता भी था।
........
पता नहीं फुरसत खोजती रही। अपनी? नहीं। इनकी भी नहीं। हाँ तुम्हारी। मुझे
तुम हरदम जल्दबाज़ी में दिखीं, बहुत व्यस्त हो मानो।
.......
अच्छा संयोग है, पहली बार है कि ये घर पर नहीं और तुम हो। फाईलों का ढेर है
। कोई एमरजेंसी थी क्या! ओ हां मार्च का आखिरी सप्ताह जो है।
.......
ये होते हैं तो हर साल मार्च के इन दिनों रोक लेते हैं तुम्हें। आज मेरे
कहने से यहीं रुक जाओ। होता रहेगा इनके फाइनेन्सेज़ का काला - सफेद। आज
तुम्हारे मेरे हिसाब का दिन है।
........
डरो मत। मुझसे कोई नहीं डरता। न ये, न बच्चे। अच्छा बताओ , क्या मैं देखने
में बहुत बेचारी लगने लगी हूँ? बाहर से। दबी - कुचली?
........
नहीं! फिर मुझे ऐसा क्यों लगता रहता है। तुम कुछ बोल ही नहीं रहीं गरदन
हिला रही हो। चश्मा उतारो न कि मैं ठीक से देख सकूं, तुम्हारी आँखें।
........
तुम इनसे इतनी अंतरंग कि ये तुम्हें सबकुछ काला सफेद बताते हैं। तुमसे सलाह
लेते हैं। बच्चों के एडमिशन तक की। तो मुझसे क्यों हिचक? तुम नहीं जानतीं
कि आज के दिन की कल्पना में मैं कितनी रातें सोई नहीं। पैंतरे बदल - बदल कर
कैसी कैसी बातें पूछीं हैं तुमसे। कस कर सुनाया है तुम्हें। अपनी ज़िंदगी
की सारी मुसीबतों की जड़ माना तुम्हें पर आज तुम अकेले सामने हो तो मुझे मन
ही नहीं कर रहा कुछ कड़वा बोलने का। बल्कि तुम पर दया आ रही है।
..........
नहीं ! उन अर्थों में नहीं। तुम मजबूत दिखती हो, मेरी तरह नहीं कि.... पर
कोई किसी के लिए अनमैरिड छूट जाए! तो....
......
हाँ हाँ! जानती हूं ये बता चुके हैं कि तुमने उन्हें कहा था कि “' सिंगल
होना तुम्हारा , तुम्हारी पर्सनल चॉइस है। ' बस यहीं ग़लती कर दी तुमने
उनको बरी कर के। हम औरतें भी न......अब तुम्हारे 'सिंगल' छूट जाने के अपराध
बोध से मुक्त हैं वे, तुम्हें अकेला छोड़ मुझसे शादी करने के।
...........
मेरी ही सोचो। शादी के तीसरे ही दिन, इनकी अलमारी में एकदम सामने तुम्हारे
सब फोटो, तुम्हारे इनके फोटो, चिट्ठियाँ ऐसे रखे थे कि कोई बच्चा भी छुए तो
मिल जाएं। और क्या नहीं था उनमें। सात साल का भरा पूरा रिश्ता, अंतरंगताएं
हर तरह की।
.......
निगाह मत झुकाओ। जिसे झुकानी थी वह सर ताने खड़ा रहा। हमने पूछा था - फिर
मुझसे शादी क्यों? एक लंबे वाक्य में इन्होंने आँखों में आँखें डाल हमसे
मनवा लिया । पता नहीं शब्द क्या थे, पर हम मान गए थे कि भई जो गुज़रा उस पर
हमारा क्या बस। माज़ी - माज़ी कहते रहे। वही सारे शब्द जो तुम्हारे लैटर्स
में होते थे। हमारी उर्दू तो ...बस हम सब भूल रम गए ज़िंदगी में।
........
तीन साल ही हुए थे न? जब तुम लौटीं शहर में। बेटी स्कूल जाने लगी थी। बेटा
होने को था। हम धूप में बैठे आँवला कुतर रहे थे। कि तुमने स्कूटी रोकी।
मेरी रीढ़ पर जैसे किसी ने बर्फ फेर दी। तुम्हें अंदाज़ नहीं था कि जाने
था? पर हम तुम्हें पहचान गए थे।
.......
"मुझे वेद ने बुलाया है।" मन किया लौटा दें उलटे पैरों। कोई वेद वगैरह नहीं
यहाँ यहाँ वी पी मेहता रहते हैं। तुम मुझसे उम्र में कुछ कम, गोरी और लंबीं
थीं स्मार्ट। मैं आठवें महीने की प्रेग्नेंट। सारा आत्मविश्वास धराशायी।
.....
तुम हल्का सा डरी तो हुई थी। डरी मैं भी हुई थी। पर मैंने तुम्हें बिठलाया।
भीतर इनको आड़े हाथों लिया, चीज़ें पटकीं। इन्होंने मेरा हाथ मरोड़ दिया था
पहली बार। मैं बहुत रोई और बाहर नहीं आई। तुम दोनों दफ्तर वाले कमरे में
चले गए। मैंने नौकर को हिदायत दी वहीं बने रहने की। वह कमबख्त लौट आता था।
.........
हाँ जानती हूं, तुम जल्दी ही लौट गईं। यह भी जानती हूं तुम लोग बाहर मिलने
लगे। तुम मुझसे किसी पार्टी वगैरह में या पब्लिकली रू ब रू होतीं तो
तुम्हारा चेहरा इनके लिए कठोर हो जाता। इनसे क़तरा कर निकलतीं या बहुत
औपचारिक बात करतीं। मुझे वह सब अभिनय लगता था कि कैसे कोई इतना करीब होकर
इतना ढोंग कर सकता है? ये कुछ ज्यादा एहतियात बरतना है।
..........
तुम्हें हमारे जीवन में ऑफिशियली प्रवेश मिल गया। तुम्हारा सी ए होना काम
आया। 'वह समझती है चीज़ों को, मेरे बिज़नेस को, किसी बाहरी को मैं अपना
काला - पीला नहीं दिखा सकता। तुम जानती हो कितने बड़े घाटे से उबरा हूं। '
आजकल गवर्नमेंट स्ट्रिक्ट भी ..."
......
एक और कॉफी? चाहो तो सिगरेट सुलगा लो। ड्रिंक का मन हो तो बताओ! चलो
तुम्हारा मन, अकेले तो ये भी नहीं पीते, तुम या कोई........ तुम्हारा ये
क्विल्टेड कोट बहुत सुंदर है। जानती हूं कहां से ख़रीदा गया। चौंको मत। हम
बीवियाँ बहुत कुछ जानती है अपने पतियों के बारे में। वॉशिंग मशीन में कपड़े
धोना एक दर्शन है। जेबें तलाशते बहुत कुछ सत्य हाथ लगते चलते हैं ।
.......
यूं सांस मत छोड़ो। बुरा लग रहा है चुप हो जाती हूं। पर अब तक तो चुप ही थी
न। पर नीरजा, मेरा दम घुटने की कग़ार पर है। बोल लेने दो। मैं भीतर से
डिप्रेस हो रही हूं। तुम खुदको दोषी मत मानो। वो तो मैं ही थी न कि तुम
दोनों के बीच चली आई। अब तो हमारी ही शादी को सतरह साल बीत गए।
.........
तुम समझ रही हो न मुझे।
..........
हाँ जानती थी तुम समझोगी। मुझे पता था बहुत सेंसीबल हो, बहुत। तुम जानती हो
न मैं पढ़ी लिखी हूं। कैमिस्ट्री में एम एस सी। पी एच डी में एनरॉल हो चुकी
थी। मैं लेक्चरर बनना चाहती थी। इन्होंने वादा किया था मेरे पेरेंट्स से ये
मुझे रोकेंगे नहीं किसी बात से। पर बिज़नेस और नौकरी दो अलग चीजें हैं।
इनके टूर्स और व्यस्तताएँ, मैं बच्चों को पालती रह गई। फिर बच्चे बड़े हुए
तो मैंने देखा दुनिया बदल गई । मैं आउट डेटेड हो गई। तुमने न सही इनके एक
मित्र ने और मेरी भाभी के भाई ने मुझे कई बार मेरे भीतर सो चुकी 'सोना' को
जगाने की कोशिश की। लेकिन मेरे भीतर घुन लग चुके थे गृहस्थी के।
.....
ऐसे आश्चर्य से मत देखो। आज खुली हूं तो झूठ नहीं बोलूंगी । मन में आई बदले
की भावना भी। कि कुछ करूं न करूं इनको इनसिक्योर कर दूं! पर हम जैसे ओल्ड
फैशन्ड प्यूरिटान लोग ऐसी सोच की ग्लानि से मर जाते हैं। मगर लोग सब कुछ
करते हुए ग्लानि का एक छींटा तक खुद पर नहीं मारते।
.............
गलत मत समझो, तुम्हें नहीं कह रही। ये पूरी दुनिया ही ऐसे लोगों की बनती जा
रही है। हम ऐसे कहीं पीछे छूट रहे हैं।
सॉरी गला भर्रा गया। तुम तो देखतीं थीं न मुझे। तुमने क्यों नहीं चेताया कि
' बाहर दुनिया बदल रही है तेजी से बदलिए सोनाली जी। हाँ यह पूछना भूल गई
मैं! सोच रही थी कुछ छूट रहा है पूछने से। तुम्हारे मम्मी पापा कुछ नहीं
कहते तुमसे ? कि एक मैरिड आदमी तुम्हारे पास क्यूं आता है? इस दो बच्चों के
पिता के लिए ज़िंदगी ज़ाया क्यूं करना? ये कहते हैं कि अब तुममें - उनमें
एक प्लैटॉनिक लगाव रह गया है तो फिर तो वजह बचती ही नहीं अनमैरिड रहने की।
देह की ज़रूरत, समाज की ज़रूरत....
..........
इतनी उलझन क्यों हुई तुम्हें। सीधा सा सवाल है यह तो। या तो तुम मेरी मंशा
नहीं समझ पा रही हो या शायद मैं ही नहीं समझ पा रही होऊं तुम्हें। देखो,
मैं सीधी लाईनें समझती हूं रिश्तों की। घुमाव देखे नहीं। मैं सात भाइयों की
इकलौती बहन कर्मवती की तरह सतीत्व निभाए चली जा रही थी। वे मुझे तुम में
बदल सकते नहीं थे। मैं नहीं चाहती थी हमारे घर में शराब परोसी जाए, पहले
मेरे मन का हुआ। जब ये रातों रात घर ही नहीं लौटते तो मेरा मन दुखता। मैंने
अलाउ कर दिया। ये चाहते मैं तुम्हारी तरह स्लीवलैस ब्लाउज़ पहन देर रात की
पार्टियों में रौनक़ बन कर जमी रहूं। ड्रिंक करूं तो वह मेरे लिए मुश्किल
था। मेरा ड्रेसिंग सेंस मेरा अपना है। कोई थोपे क्यों? मुझे शामें अपने
बच्चों के साथ बिताना पसंद है।
..........
तुम तो पीती हो न। रेड वाइन.... वोद्क एंड फ्रेश लाईम विद सोडा। मैं नहीं
सीख सकी। मुझे नहीं लगता कि यह कोई स्टेटस कोशेंट है।
............
हैरानी की क्या बात कितनी बार रामेश्वर ने तुम्हारा पैग मेरे सामने बनाया
है। सलाद और उबली मूंगफली और कॉर्न के साथ। तुम क्या इनकी कौनसी महिला
मित्र और महिला क्लाइंट क्या लेती है मैं जानती हूं।
..............
यह तुम सोचती थी कि मैं नहीं जानती कुछ। क्योंकि मैं यह भी जानती हूं कि
तुम स्वाभिमानी हो। यह जान लेती कि हमारे घर तुम्हारी वजह से झगड़ा होता है
तो तुम नहीं लौटतीं। मुझे याद है मैंने तुम्हें एक बार फोन पर कहा था - ये
तो समझते नहीं तुम तो समझती हो। मैं जब मायके होती हूं घर मत आया करो।
क्योंकि क्या है नीरजा, स्त्रियां तो कामना पर संयम रख लेती है पर पुरुष!
मैं जितना जानती हूं इन्हें, एकांत पाकर बहके तो होंगे ही।
..............
जाने दो यह टॉपिक। तुम बुरा मान रही हो ।
.........,
तुम उसके पूरे डेढ़ साल दिखीं नहीं। खाली मेरे कह से तो तुमने न आने का
फैसला नहीं लिया होगा कुछ और भी बात रही होगी। ये बहुत परेशान रहे,
फाइनेन्शियल मसलों को लेकर, कितने एम्पलॉइज़ भागे उस साल इनके टैम्परामेंट
से। अचानक ढेर सारी महिलाएं मशरूमों की तरह इनके आस पास उग आईं। मैं तंग आ
गई।
.........
तब मैंने एक रोज़ इनसे कहा, नीरजा को मना लो। जब इतनी सारी महिलाओं को झेल
रही हूं, तो नीरजा ही बेचारी ......फिर वह तो तुम्हारा काम संभालती है। तुम
बोर तो नहीं हो रहीं न। बेटा बड़ा हो रहा है। मैं चाहती हूं ये थोड़ा
संजीदा हो जाएं । एक उम्र तक महिलाओं में पॉपुलर होना पुरुष को आत्मविश्वास
देता है, पर एक उम्र बाद ज़लालत।
............!
केवल तुम थीं मेरा दुख और खीज तुम तक सीमित रही। जब संख्या बढ़ गई तो मुझे
समझ ही न आए कहां तक निगाह रखूं। हर दिशा में एक। ये कहते यह तुम्हारा भरम
है। तुम पैरानॉइक हो। सायकियाट्रिस्ट को दिखाओ।
सच कहो नीरजा क्या ये मेरे भरम हैं? क्या तुम्हें नहीं दिखती छायाएं?
.............
तुम चुप क्यों हो? उत्तर तो दे ही सकती हो। बुरा मान गईं? क्या सच ही मैं
मानसिक हताशा के दौर में हूं? मुझे भ्रम होते हैं? क्या सच मुझे
सायकियाट्रिस्ट को दिखाना चाहिए?
..........
इनसे मत कहना कि आज मैंने तुम्हें यह सब कहा। नहीं कहोगी न।
.............
लो मैंने तुम्हें उदास और असहज कर दिया। पौंछ लो आँखें।
..........
आई होप, मैंने तुम्हें नाराज़ नहीं किया। लेकिन मेरी बातों पर गौर तो करो।
जो हमारे बीच घटा, तुम उससे इनकार तो कर ही नहीं सकतीं। और ईश्वर जो तय
करता है वह अकारण नहीं होता ..... होगा कोई....कनेक्शन...
.......
जा रही हो? लेकिन क्यों? " वह चकित भाव से बोली।
........
" पिछली मार्च के अंतिम सप्ताह मुझे याद है तुम यहीं सैटी पर सो गईं थीं।
आज क्यों, जब मैं बात करना चाहती हूं। तुम्हें सुनना चाहती हूं। अगर तुम इस
वक्त चली गईं तो, फिर हम इस तरह कभी.....नहीं . मेरे मन में जमा
संशय......."
************************
मैं
“सोनाली! तुम एकदम साफ सुनना चाहती हो तो.... सुनो! “ मैं कोई ऐसी बात
सोचने लगी जो इसे झुलसाकर रख दे……..लेकिन ऐसी कोई बात सूझी ही नहीं। कुछ
होता तो यह यहीं झुलस जाती। यह महिला मूर्ख तो नहीं ही है। इससे कुछ छिपा
भी नहीं। मैंने उसकी आँखों में देखा, उसकी व्यंग्य भरी मुस्कुराहट से फिर
खुद ही घायल होकर मुंह फेर लिया। कितना व्यंग्य, कितना ठंडा रोष। मेरे मन
में भय सर उठाने लगा। मैं वहां से खिसकना चाहती थी। फ़ाइलों को बंद कर,
काग़ज़ों को पिनअप कर, उनपर पेपरवेट रख मैंने अपना हैंडबैग उठा लिया।
मौन चतुराई का यंत्र है। शिष्टाचार के नाते ऐसी मुद्रा बनाए रखना कि मैं
उसकी बातों को गहरी तवज्जोह दे रही हूं , मुझे अहसास था कि कठिन काम है।
पीला बल्ब हमारी पीठ पर चमक रहा था और हमारी परछाइयाँ आगे की तरफ फेंक रहा
था। जो मिलकर एक होकर एक बड़ी स्याह बनती बिगड़ती भालूनुमा आकृति में बदल
गया था। इतनी देर से अपने आपको चुप रहकर संभाले रखने का प्रयत्न खटाई में
पड़ता नजर आ रहा था। आखिर यह औरत चाहती क्या है मुझसे? इसके दिमाग़ का कोई
पुर्ज़ा ढीला है क्या! मन किया कि कहूं
“गो टू हैल विद योर संशय।“ उसने मेरा हाथ पकड़ नीचे की और खींचते हुए पास
बिठा लिया। खिड़की के बाहर गुलमोहर की टहनियाँ सरसराईं। वह हल्का हँसी
विजित भाव से, मुझे पराजय स्वीकार नहीं हुई। उसकी सारी बातें फूंक कर उड़ा
देने की नहीं थीं। उसके सवाल मेरे वजूद में आ चुभे गोखरू थे। जिनको एक एक
कर सावधानी से मुझे निकालना था। मर्डर मर्डर चिल्ला कर इसने मुझे मर्डरर
करार कर दिया था। उनका उत्तर लाजमी था। शुरुआती सवाल ही साला कितना ग़लत।
कितना बेवक़ूफ़ाना ।
"तुम मेरे पति का अतीत न होतीं तो तुम मेरी बेस्ट फ्रेंड हो सकती थीं।"
पता नहीं मैंने चुप रह कर उसे और हालात को साधा कि नहीं, लेकिन मैं बेचैन
होकर लौटना नहीं चाहती हूं। मैं भागना नहीं चाहती इन बातों से। यह सीधी
दिखने वाली महिला कितनी आसानी से जटिल बात कह गई कि मैंने अपने 'सिंगल'
रहने को अपनी चॉइस बता कर उसे उसके अपराधबोध से बरी कर के ठीक नहीं किया।
सच ही तो है। ... वह तो मगन है, दोनों जहान में पैर टिकाए। कितनी बेवकूफ़
हूँ न मैं। वह मेरा क्लाइंट नहीं, मेरा पूर्वप्रेमी है, और मैं लगभग मुफ्त
में, उसके आर्थिक मसले देखती आ रही हूँ। जैसे इसी के लिए मैंने सी.ए. किया
था।
मैं उस सादा सी महिला के आगे ज़बान सिले क्यों बैठी रही हूं? कौन कहता है
यह बेचारी लगती है? जिद तो देखो इसकी तीखी नाक पर टिकी है। जब मिलती हैं
इसकी बड़ी आँखें मारक सवाल करती हैं। यह समझना कितना ग़लत है कि सतरह साल
में अब तक उसने मुझसे कुछ नहीं पूछा। अपनी बेचारगी दिखा कर बेवजह ........
मुझे ग्लानि से भरने की लगातार कोशिश ..... अब इसके सवालों पर यूं चुप नहीं
रह जाना चाहिए। मगर कुछ तो एकदम बेहूदा सवाल हैं, जिनका उत्तर भला क्या हो?
मसलन क्विल्टेड कोट! ऐसे बात कर रही हैं जैसे मैं एकदम एल्कॉहलिक होऊं।
ग्लानि, विद्रूप, इसके पति पर क्रोध, आत्मदया, इस पर दया, पश्चाताप, उठ कर
हर बात का कटु जवाब देने की उत्कंठा, ईर्ष्या, रोना, क्या- क्या और
कितने-कितने भाव मिलकर मन को अवरुद्ध कर रहे थे। एक मन लोहा लेना चाहता था
दूसरा मन भाग जाना चाहता था।
अपनी सफाई पेश करना मुझे हमेशा नाग़वार गुज़रता है। कौन करेगा यहाँ फैसला?
किसने छोड़ा किसे? किसने पकड़ा कब! कैसी सूली है यह? उनके कहे शब्द भुनगे
नहीं थे कि मर कर झुंड बनाकर मन के उजालेदार कोने पर मिलते। वे बिच्छु भी
नहीं थे कि जिनके डंक उठाए सर मैं सैंडिल के नीचे कुचल कर चल देती। वो तो
दिमाग़ के बरगद की डालों में आ बैठी ‘ब्रेन फीवर बर्ड‘ का लगातार दोहराया
जाता तीखा सवाल था ।
“ ब्रेन फीवर .... ब्रेन फीवर " यह ब्रेन फीवर ही तो है।
“आखिर आप मुझसे चाहती क्या हैं!! “ मैं दुख और खीज से लगभग चीख पड़ी।
.................
“खुद को इतना बेचारा साबित करके क्या हासिल होगा? नहीं दिखतीं आप बाहर से
कहीं बेचारी। न दबी - कुचली। यह वहम है कि ओढ़ा हुआ नक़ाब है आपका।“
..............
“जब तमाम ख़त आपने पढ़ डाले तो बचा क्या कहने को। पर फिर भी मैं तीन साल
बाद जब लौटी तो मैं किसी वेद की कमसिन प्रेमिका नहीं थी। मैं प्रोफेशनल ढंग
से ही आई थी कि शहर में काम शुरू करना है। वो अलग बात है कि वेद ने मुझसे
काम लिया, मगर ठीक से पे नहीं किया कभी। कभी मेरे बिल्स नहीं चुकाए।
थैंक्यू और अपनी आँखों की चमक के अलावा। वह चिंता करता, सलाह देता, लोगों
से मिलवाता, काम दिलवाता रहा। लेकिन हमने एक दूसरे पर अधिकार छोड़ दिये थे।
..............
“ आपको नेमत मिली लोरियाँ गाने की, पालने झुलाने की, उस नूर को जज़्ब करने
की।
आप कहती हैं न आप आठ महीने की प्रेग्नेंट थीं और मुझे देख कर आपका
आत्मविश्वास धराशायी हो गया। झूठ ! आपने देखा था मेरा चेहर को? आप को आँवला
चुभलाते देख, चेहरा ही नहीं मेरी कोख भी कहीं कुम्हला गई थी। आपका दमकता
नूर देख मेरे होंठ खुश्क़ हो गए थे और कोई सितारा सा कहीं डूब गया था।
...........
"आप कहती हैं मैंने वेद को मुझे छोड़ देने के अपराधबोध से बरी किया था।
नहीं! मैंने आपको बरी किया था। क्योंकि वह कहता था कि आप हरदम कहती हैं कि
- मेरी वजह से उस लड़की की ज़िंदगी ....... "
मैंने चेहरा घुमा कर उसके चेहरे को देखा। वह अपनी कोहनी को घुटने पर रखे
मुझ पर नज़र जमाए थी।
" आप ऐसे ख़्याल मन से निकाल दीजिए कि आप की वजह से मैं..... कि मेरी वजह
से आप । सब अपनी-अपनी ज़िंदगियों के लिए जवाबदेह हैं। कोई किसी से न कुछ
छीनता है न छीनने देता है। हर बीवी को एक घर चाहिए होता है ज़िंदगी और
बच्चों के लिए। और हर शौहर को भी घर चाहिए होता है घर लौटने के लिए। एक बार
उस कोज़ी, आरामदायक समझौते में घुस कर कौन बाहर निकला है? कम से कम भारतीय
पति-पत्नी तो कभी नहीं।
.............
" आपने अपने पति को हर स्थिति में स्वीकार करने का निर्णय लिया। आप उनकी
नजर में "मीन" साबित हुए बिना मुझसे निज़ात चाहती रहीं। और वे आपकी इस महान
उदारता को सहमति मानते रहे। और मैं ? मैं नए किसी व्यक्ति में खुद को
इनवेस्ट करने से डरती थी। सो वेद की प्रेंजेंस भली लगी, मानो पुरानी
सेविंग्स का इंटरेस्ट खाने की सोचती रही होऊं। "
...........
" मुझे भला लगा कि आज आपने मेरी बात सुनने की उत्सुकता प्रकट की। आपके मन
की बात तो लगभग मैं जानती ही थी। आप जो सोचती हैं न शराब, मॉडर्न कपड़े उन
सबसे व्यक्तित्व नहीं बनता, न ये जुड़ाव के बायस हैं। मैं शराब रोज़ नहीं
पीती। हां सिगरेट की लत है मुझे। मैं जानती हूं ये फ़ैक्टर न होते तो भी
कोई फर्क नहीं पड़ना था। मैं भीतर से बहुत ही दब्बू हूं। वेद में सुरक्षित
गार्जियन ही दिखता है मुझे। हमारी अंतरंगताएं सच ही अब बिन मिले, बिन कहे,
बिन साथ रहने की हैं। जिनको पता नहीं आप समझेंगी कि नहीं। "
.............
हाँ देह की ज़रूरत होती है, तो उसके लिए किसी स्थाई पुंछल्ले की ज़रूरत
नहीं, जब तक मन न मिले। देह की वो कुछ ज़रूरतें अकेले होकर भी पूरी हो जाती
हैं। एक हद तक सिंगल रहना मेरी आदत हो गई है। फिर भी मिला कोई इस जटिल मन
को समझने वाला पुरुष तो मुझे गुरेज़ न होगा साथ चलने में।
..........
आप मुस्कुराती हैं तो राहत मिलती है। दोस्ताना लगता है। हाँ यह सच है कि
आपके कहने से बुरा न लगा था। हम बाहर मिल रहे थे। लेकिन बुरा यह लगा अपनी
कनविनियंस से आपके पति वेद, दोनों दुनियाओं का सुख चाहने लगे थे। वे कहीं
दोस्तों के बीच जाने-अनजाने स्वीकारने लगे थे कि मैं कोई समानांतर चलती…...
न सही मिस्ट्रेस मगर मिस्ट्रेसनुमा दोस्त हूँ। तो सुनिये......एक क्लोज़
गेट टू गेदर में मुझे उनकी यह ग़लतफहमी सरेआम दूर करनी पड़ी थी। हुआ ये था
कि एक हैरिटेज होटल में उनके पुराने क्लाइंट और दोस्त ने ऑफिशियल दावत रखी
थी। कुछ कॉमन फ्रेंड्स थे वहाँ, मेरे और वेद के। सब के सामने बहुत अधिकार
से वेद ने मेरे कंधों पर हाथ रख कर कहा था – माय लव! हमारे होस्ट की वाईफ
मेरे दूर के रिश्ते की मासी हैं। मुझे बहुत नागवार गुज़रा।
“ सॉरी सर! बीहेव योरसैल्फ! लगता है, आपके ड्रिंक्स ज़्यादा हो गए।“ मैंने
ज़ोर से कंधा झटक दिया था।“ वेद बुरी तरह आहत हुए और हम दूर हो गए। "
.............
उस बीच क्या न गुज़रा। पहले पापा गुज़र गए। मैंने अपना नया दफ्तर खोला और
झौंक डाला खुद को। सब ठीक चल रहा था कि माँ को एक दिल के दौरे के साथ
पैरालिसिस। इकलौते होने का दुख पहली बार साला। मुझे उन दिनों में एक दिन
बड़ी शिद्दत वेद की ज़रूरत महसूस हुई। मेरी हैरानी के लिए ही वह दृश्य बना
था मानो। वेद खुद मेरे दफ्तर के नीचे मेरा पता पूछते दिखे। मैं दौड़कर
सीढ़ी उतरी.......
..........,...
सॉरी! मगर वे कठिन दिन थे और मां के ठीक होने में वेद ने मेरा बहुत साथ
दिया। जब कई रातें मैं जागते हलकान होती तो वे मुझे घर भेज कर अस्पताल में
रुकते।
............
आपको किसी सायकियाट्रिस्ट की ज़रूरत नहीं। वे छायाएं ही हैं, कभी - कभी
मुझे भी दिखती हैं। मगर उन छायाओं का होना बेमानी है। सोनाली कुछ प्रोफ़ेशन
होते ही ऐसे हैं। जहां आपके इर्द-गिर्द महिलाओं की भीड़ रहती ही है।
...........
मेरी क़ैफियत एक लम्हा न चल सकी। उसके चेहरे पर एक तनाव आया फिर बुझ गया।
उसने मुझे कंधों से पकड़ रखा था। मुझे हरारत महसूस हो रही थी। सर भी दुख
रहा था। वह सिर सहलाने लगी। फाल्गुनी सुबहें मीठी और नशीली न होतीं तो सुबह
सुबह नींद न लगती और यों ही अपने ऑफिस को निकल जाती मैं। तीन घंटों की नींद
ने मुझे ताज़ादम कर दिया। सुबह नौ बजे उठी तो वे गीले बाल लिए, गुलाबी
दुपट्टा लहरातीं, मुस्कुराती हुई कॉफी लिए खड़ी थीं।
..............
“ न सही बेस्टफ्रेंड.......शुभचिंतक तो हैं ही आप मेरी।“ मैंने कहा तो वो
खिलखिला कर हंस दीं।
शब्दों से फाँसे निकलती हैं कि नहीं मुझे नहीं पता लेकिन उस पल मेरे मन को
एक राहत थी।
* ब्रेन फीवर बर्ड – पपीहा ( हॉक कुक्कू)
- मनीषा कुलश्रेष्ठ
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