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न किन्नी न....

मौसी आतीं तो घर रोशनी और रौनक से भर जाता। हम छज्जे-छज्जे चहकते फिरते, सबसे कहते, हमारी मौसी आ रही हैं। बिजनौर वाली मौसी। हमारे मौसा जी शक्कर की मिल में मैनेजर हैं। उनके पास मिल की जीप है, उनके घर में बहुत सारे नौकर हैं, दो कुत्ते हैं और एक खरगोश भी, उनके दो बच्चे हैं-गगन और रोजी। गगन के पास बंदूक है- चिड़िया मारने की। रोजी के पास बुलबुल तरंग है। मास्टर आते हैं, उसे सिखाने को।
मौसी खूब चिट्टी हैं, मां जैसी धूमिल-धूमिल-सी नहीं और खूब हंसती-खिलखिलाती चुस्त-दुरूस्त सी रहती हैं, मां जैसी सुस्त-सुस्त-सी नहीं।

रोजी को लेकर स्कूल जाती हूं तो मेरा रूतबा बढ़ जाता है, सारी सहेलियां लट्टू हो जाती हैं उसकी स्कर्टों, सैंडिलों और नई-नई डिजाइन की क्लिपों पर, कैसी तो थोड़ी-थोड़ी इंगलिश मिलाकर चुटर-पुटर-सी बोलती है, और आंखें गोल-गोल-सी घुमाती बेफिक्र, बिंदास, चहकती रहती है।

जब तक मौसी रहती हैं, गगन और रोजी सारा घर सिर पर उठाए रहते हैं, अब इतने बड़े हो जाने पर भी, गगन रोजी के बाल खींचकर या चुटकी काटकर भागता रहता है। रोजी चीखती हुई उसे दौड़ाती रहती है और मौसी अंदर-अंदर मगन होती हुई, ऊपर-ऊपर खीजकर लाड़ से डांटती हैं-
‘अरे शरम करो, शैतानो! इन बच्चों को देखकर भी तुम्हें अकल नहीं आती। कैसे सीधे, बिना मुंह के-से हैं! जरा देखो किन्नी को अभी कॉलेज से आए दस मिनट भी नहीं हुए और देखते-देखते फटाफट तुम लोगों की बिखेरी चीजें संभाल दीं, कपड़े तहा लिए और उधर चाय भी चढ़ा दी। ला तो बेटा, एक प्याला, जरा सुस्ती दूर हो।’ फिर चाय का घूंट भरती हुई अम्मा से कहतीं, ‘दीदी’! इस बार मैं सचमुच रोजिया को यही छोड़ जाऊंगी तुम्हारे पास, और किरण को अपने साथ ले जाऊंगी बिजनौर।’

और खुद ही अपने मजाक पर खुलकर हंस पड़तीं। यूं अपने आप में सचमुच इससे बड़ा मजाक दूसरा नहीं हो सकता था और मौसी की तो वैसे भी आदत थी, खूब चटपटी बातें करना और अपनी बात खत्म होने से पहले ही जोर से हंस पड़ना।

रंग तो करीब-करीब एक-सा ही था दोनों बहनों का, लेकिन अम्मा दुबली फीकी-फीकी-सी लगतीं जैसे ऊपर एक झाईं-सी पड़ी हो, अभी नहीं, बाबूजी थे, तब भी। दूसरी तरफ मौसी एकदम ठसी, चकरी-सी, ऊपर से नीचे तक जैसे रंग-रोगन पॉलिश से दमकती हुई और चेहरे पर तो खासकर हमेशा एक पूर्ण परितृप्ति भरी लुनाई फैली रहती थी। अम्मा से बस, पांच साल छोटी, पर देखने में तो एकदम बेटी ही लगतीं।

आज भी, मैं मेज पर तार देखते ही किलक उठी....
‘मौसी आ रही हैं?... कब आया तार? रोजी, गगन भी आ रहे हैं या नहीं?’
‘दोनों सफेद धारी वाली नीली चादरें धोकर फैला दूं।’
‘बांस वाले किताबों के रैक पर अटी धूल साफ कर दूं!’
‘कोने वाली मेज की आधी प्लाई उखड़ गई है-ठहरो, यह फटी वाली हैंडलूम की चादर काटकर इस पर का मेजपोश सिले देती हूं।’
‘रसोई की अलमारियों पर अखबार बिछा दूं।’
‘गुसलखाने की मोरी रगड़कर धो दूं।’
और साड़ी का फेंटा कसकर तुरंत-फुरत मोर्चे पर जुट गई क्योंकि भाभी तो अपने तीनों बच्चों की फ्रॉकों और पैंटों की उधड़ी सिलाई ही दुरूस्त करने भर को होतीं और अम्मा रसोई के डिब्बों में हाथ डाल-डालकर आधा किलो डालडा, एक किलो चीनी, सूजी, मैदा और चाय-मसालों की लिस्ट बनाने में।

दो-तीन दिनों में घर धो-रगड़कर साफ हो जाता, गुसलखाने में फिनाइल की बोतल रख दी जाती और भइया आधे दिन की छुट्टी लेकर स्टेशन पहुंच जाते।

आधे-पौने घंटे के अंदर ही चमचमाते सूटकेसों और रंग-बिरंगे बैगों, टेकरियों से लदी-फंदी मौसी आ जातीं। सारा घर आवाजों से चहचहा उठता। मौसी हम सबको बारी-बारी बांहों में भरतीं। भाभी के तीनों बच्चों को चिपटा-चिपटाकर प्यार करतीं और भाभी को, पांव छूने के लिए झुकने के साथ उठाकर बलैया लेने लगतीं।
भाभी हुलसती हुई जल्दी से रंगदार चाय, मठरी, सेव सजा देतीं और हमारी तंग अंधेरी कोठरियों से हंसी के झरने फूट पड़ते।

अब इसके बाद हम सबों का चिरप्रतीक्षित क्षण आता। मौसी सामान से ही नहीं सौगातों से भी लदी-फंदी आतीं। सबको अंदर ही अंदर इस बात की कितनी खलबली रहती है- यह मौसी भी खूब अच्छी तरह समझती थीं, इसलिए झटपट सूटकेस खोलकर सोत्साह जादुई पिटारा-सी एक के बाद एक चीजें निकालने लगतीं।
‘किन्नी! इधर आ, ये देखा ये रोजी ने तेरे लिए टॉप्स और मैचिंग लॉकेट भेजे हैं और ये चार रूमाल। बहू! यह तुम्हारे लिए पर्स है और ये मिंटू-चिंटू के लिए हेयर-बैंड और क्लिपें.... गुड्डू के लिए ये रंगीन पेंसिलों का सेट गगन ने भेजा है।’

लेकिन ये सब तो औपचारिक सौगातें होतीं। असली सौगातें तो इसके बाद निकलतीं मौसी के होल्डाल से तीन-तीन चार-चार जोड़ी पुरानी चप्पलें, सैंडिलें- ‘ये वाली मुझे पंजे पे कसे-सी है, ये रोजी ने खरीदी तो बड़े चाव से लेकिन अब मन भिटक गया उसका- जानती तो हो, मूडी नंबर एक। ये वाली पे बस तू दो कीलें ठुकवा लेना। और इस वाली पे इसी रंग की सिलाई करवा लेना, किसी अच्छे मोची से। किन्नी! मेरी इस नई-सी साड़ी पे रोजी रानी खोंच लगा आई ठीक सामने नीचे की तरफ, तू उलटी करके पहनेगी न तो बिलकुल पता नहीं चलेगा। और यह इन दोनों की बस, पिं्रट जरा हलकी हो आई है,.... इस मेरे बैग का हैंडल निकल गया है, बस... अमर! जरा ये बुशर्ट देख तो, मिल की वर्कशाप का राउंड लेते समय यह छींटा पड़ गया गंदे तेल का-मैंने कहा, लिए चलती हूं, अमर जरा फिट करवा के पहन डालेगा। तेरा तो रंग भी गोरा है, फबेगी तुझ पर।
‘इसी तरह-ये रोजी की नाइटी, ये स्वेटरों के बचे-खुचे ऊन.... मैंने सोचा, बहू गणी है- काट-छांटकर चिंटू-नीटू की फ्रॉक बना देगी और थोड़ा और ऊन मिलाकर रंग-बिरंगा प्यारा-सा स्वेटर बन जाएगा। खूब खिलेगा इन पर.... और हां, ये स्टील की दो छोटी प्लेटें और कटोरियां भी.... दीवाली पर आई थीं न मिल में बंटने के लिए.... मैंने चुपके से चार रख लिए.... इन्हें कहां होश-हवास कि कितने आए, कितने गए। सारे दिन मिल भर के ही होते हैं।’

हां, मौसा जी को तो पूरे होशोहवास में बस, दो बार देखा था-शायद बाबूजी की मौत पर-शायद भइया की शादी में। इससे कम जरूरी मौकों पर वे कभी पहुंच ही न पाए। दोनों बार एक प्लेन से आए और दूसरे प्लेन से वापस। जितनी देर रहे भी, न सामने जाने की हिम्मत, न बात करने का धड़का-सिर्फ सिर झुकाए।
‘मौसा जी! नाश्ता लग गया।’
या फिर
‘मौसा जी! बाथरूम खाली है।’
मौसा जी बहुत कम बोलते। जितना बोलते उसके भी शब्द-शब्द बड़प्पन और मातबरी के फ्रेम में जड़े-से होते। कभी हलके-से मुस्कराकर पढ़ाई-लिखाई के बारे में एकाध शब्द पूछ लेते तो हम सिर-पांव तक निहाल हो जाते।

लेकिन असली चौकड़ी तो हमारी मौसी के साथ ही जमती। हर आधे घंटे पर चाय की तलब और भाप छोड़ते प्यालों के साथ मौसी सारे समय कहां-कहां के हंसी-लतीफे छोड़ती जातीं। मौसा जी के गुमाश्तों, कारकुनों से लेकर अपने शहर के एस.पी., डी.एम. की नकनकाती बीवियों तक के किस्सों की फुलझड़ियां।

नए से नए फैशन तक की बातें बड़े चाव से सुनतीं-सुनातीं और रस लेतीं। असल में रूतबा मौसा जी का बड़ा था लेकिन शहर हमारा। और मिले-फैक्टरियां तो वैसे भी शहरी आबादी से मीलों दूर, स्कूल-कॉलेज भी उतने अच्छे नहीं जितने हमारे शहर के, तो फैशन की नई से नई जानकारी मुझसे ही लेतीं। यहां तक कि हाथों में प्लास्टिक के सादे इकरंगे कंगन या कानों में सिर्फ एक नन्हा कल्पर का मोती देखते ही-
‘अरे किन्नी, देखूं तो जरा तेरे कंगन, लाख के होंगे। नहीं? सादे प्लास्टिक के? और जरा कानों के टॉप्स तो दिखा? यहीं के चौक से खरीदे? असल में तेरी पसंद बहुत बढ़िया है। जानती है- क्या तुझे सूट करेगा। चल, जरा आज बाजार ले चल.... दो-चार पेयर रोजी के लिए खरीदवा दे।’

मैं, मौसी के ना-ना कहने पर भी, फौरन कानों से बुंदे निकाल रोजी के लिए पैक कर देती। फिर बाजार ले जाकर, मौसी और जो-जो चाहतीं, खरीदवा देती। मौसी हर चीज से पहले मेरी सलाह लेतीं कि फलां चीज उन पर, रोजी पर खिलेगी या नहीं? उन्हें मेरी पसंद पर पूरा भरोसा था। मेरी पसंद की हमेशा दाद देतीं। मुझसे पसंद करवाकर ढेर सारे टॉप्स, पेंडेंट अंगूठियां ले जातीं और उनमें से बहुत सी डिजाइनें सुनारों को दिखाकर सच्चे मोती, सोने में गढ़वा लेतीं।

अगली बार जब आतीं तो मुझे दिखाकर पूछतीं, ‘देख किन्नी! कैसे लगे ये? इमीटेशन में तो काली पड़ जाएंगी न!’
मेरे मुंह से बेसाख्ता वाह निकल जाती मौसी की परखी दृष्टि पर! इतनी उमर होने पर भी मौसी में हमेशा नई उमरवालियों-सी उमंग और उत्साह छलकता रहता।
आजकल जरूर मौसी को एक फिक्र-सी हो गई है- रोजी के मुटापे की। जब-तब टोकती रहती हैं उसे।
‘ठूंसे चली जा रही है गपागप भाभी के बनाए पकौड़े-मालपुए। जरा शीशे में नजर डाली है खुद पर। कैसी खुद भी फूलकर पकौड़े, मालपुए-सी हुई जा रही है। किन्नी! तू ही समझा न जरा इसे।’
लेकिन रोजी उसी बेफिक्री से एक और पुआ चुभलाती हुई खिलखिला देती-
‘साफ-साफ कहो न मम्मी, तुम्हें मेरी शादी की फिक्र ही सताए जा रही है न! अरे तुम बेकार घबराती हो। देखना, सब दौड़ते हुए शादी करेंगे। असल में आजकल सबसे बड़ी चीज है सुरक्षा। और मेरे शक्तिशाली साये में कोई भी पति, भयरहित निर्द्वंद्व जीवन जी सकता है, समझीं? मजाल है जो कोई उसकी ओर आंख उठाकर भी देखे। अरे, वो क्या, उसका बॉस भी मुझे देखकर दुम हिलाएगा। लाओ भाभी, एक और मालपुआ इसी बात पर।’

अम्मा धीमे से हंसती हुई समझातीं, ‘कहां मोटी है बेचारी! जरा दुहरा शरीर है, बस! तू बेकार इसके पीछे पड़ी रहती है। लड़के-बच्चे ऐसे ही अच्छे लगते हैं और नहीं तो क्या इस किन्नी-सी सींक-सलाई। मैं तो इस मुटवाने की कोशिश में हार मान चुकी हूं।’

सचमुच मैं रोजी से तीन साल बड़ी थी और बेहद दुबली, इतनी कि रोजी की शलवारें, कुरते सब तीन-तीन चार-चार सिलाइयों के बाद ही मुझे फिट आते। अपने तई मैं उन्हें पूरी तरह काट-छांटकर नया-सा कर डालती। फिर भी कॉलेज में लड़कियां देखते ही ठिठोली करतीं-‘रोजी ब्रांड?’ और मैं शरमाकर हंस देती।
मां को क्या कहूं, खुद मेरी भी तो यही हालत है। बहुत जोर से हंस-खिलखिला सकती ही नहीं। अपनी बात पूरे वजन और आत्मविश्वास से सबके बीच में कह सकती ही नहीं। इसलिए सही बात भी सुनने वाले के साथ-साथ, खुद अपने आप को भी कच्ची, अधूरी, अनिश्चित-सी लगती है, जबकि रोजी और मौसी एकदम घिसी-पिटी कहावतों और जुमलों को भी इतनी ठसक के साथ पेश करती हैं कि सुनने वाला फौरन उनकी गिरफ्त में आ जाता है।

इसी तरह अपने शादी-ब्याह या गुण-शऊर की बात चलने पर भी, लाख कोशिशों के बावजूद, पलकें जैसे मारे घबराहट और संकोच के यहां-वहां छिपने की ठौर तलाशने लगती हैं, लेकिन वहीं रोजी अपने लिए ऐसी कोई बात सुनते ही गोल-गोल आंखें चमकाती, ठठाकर हंस पड़ती है। और उसे आंखें तरेरकर बरजती हुई मौसी भी उसी ठहाके में शामिल हो जाती हैं।

मौसी के जाते ही वे ठहाके थम जाते हैं। घर वापस श्मशान-सी खामोशी में सांय-सांय कर उठता है। मां, फैली-बिखरी चीजें समेटने लगती हैं। भाभी दो-तीन या चार दिनों की थकान उतारने खाट पर पसर जाती हैं और भाई मौसी की लाई ढीली कमीजों, पतलूनों की फिटिंग कराने के लिए पैसे मांगते हुए मां से हुज्जत करने लगते हैं। सबको मालूम है, उन पैसों में से काट-कपटकर रूमाल या तौलिए में लपेटी एक-दो बोतलें आएंगी। उनके बूते पर बैठक में भाई जैसे ही भाई के खस्ताहाल दोस्तों का जमावड़ा जुटेगा, जश्न मनेगा और एक तीखी मिठास के तहत कई सुस्त-से हाथ किसी तरह हवा में लहराकर गिरते हुए एक से एक हवाई योजनाएं बनाएंगे-हलके सुरूर के ंपंखों पर उड़ते हुए। कभी किसी साबुन की एजेंसी, कभी स्कूटर मरम्मत का गैरेज, कभी दर्दनाशक गोलियां या दंत-मंजन बनाने के नुस्खे की तजवीज या ऐसा ही कुछ और....
ऐसे मौकों पर किताबें उठाकर मैं सीधा कटरे वाली चाची के पास पहुंच जाती और चाची बिना सिर उठाए, सब्जी का रसा अंदाजती या परांठे उतारती-उतारती ही कह देतीं, ‘कौन? किन्नी! चली जा, खाली है बैठक।’
चाचा का तो टाइम ही आठ से आठ है। इसीलिए आज चाची से पूछा भी नहीं, सिर्फ इत्तिला दे दी।
‘चाची! जाती हूं, बैठक में पढ़ने।’
कि चाची जल्दी से अंगीठी छोड़ आई, ‘किन्नी! बैठक तो खाली नहीं।’ वे फुसफुसाई-सी।
‘अरे वाह! चाचा आज छुट्टी मार बैठे?’
‘नहीं, मेरा भांजा आया हुआ है, रिश्ते का।’
मेरी आवाज दयनीय हो उठी, ‘फिर क्या करूं, चाची! मेरा तो कल पॉलिटिक्स का परचा है।’
‘क्या करूं?’ चाची खुद असमंजस में थीं, ‘वह भी पढ़ने ही आया है। आज ही नहीं, कुछ महीनों तक के लिए-दंगों की वजह से लड़कों का पूरा होस्टल खाली करा लिया गया है। मटरगश्ती करने वालों को तो मांगी मुराद मिली, लेकिन ये बेचारे पढ़ने वालों को...’
‘क्या हुआ, बुआ?’ दंगों का मारा खुद भी आन खड़ा हुआ, ‘कोई परेशानी है?’
चाची जल्दी से बोलीं, ‘परेशानी नहीं, यह किन्नी है।’ सुधारा, ‘किरन
....और किन्नी, यह आकाश है।’
उसने सुधारा, ‘कुशा! पढ़ने आई हैं आप?’
‘जी.... लेकिन।’
‘तो जाइए, पढ़िए न।’
‘और आप... आपको भी तो पढ़ना है।’
‘हां-हां, मैं भी पढूंगा।’
‘जी?’ मैं चौंकी।
‘जी हां, उधर दुछत्ती पर।’ और मेरी लमहे पहले की घबराहट का मजा लेता हुआ हंस दिया।
‘नहीं-नहीं, आप पढ़िए।’
‘आप भी।’
अबके चाची खिलखिलाईं, ‘अब ‘आप’ और ‘आप’ के फेर में मेरे परांठे जले जा रहे हैं।’
चाची के जाते ही दोनों अपनी अपनी जगह चले गए पढ़ने।
और मैं ठीक समय पर पढ़ाई खत्म कर, सीधी गरद, सधी चाल घर आ गई-बगैर किसी तरफ ताके-झांके। मुझे सचमुच खबर नहीं थी कि मैं अपने आंचल में कस्तूरी का एक छोटा सा टुकड़ा बांधे चली आई हूं।
चौथे दिन कॉलेज से लौटते हुए यूं ही चाची दिख गईं।
‘सुन किन्नी!’
‘हां चाची!’
‘कौन सी क्लास में है तू?’
‘चाची!’ मैंने चिढ़ाया, ‘अब इसके बाद मेरा नाम भी पूछोगी क्या?’
चाची सच की झेंपी, नहीं रे, यूं ही, मेरा मतलब है बी.ए. प्रीवियस या फाइनल?’
‘क्यों? कहीं नौकरी लगवा रही हो मेरी?’
‘अरे भई, कल यूं ही तेरी बात चलने पर कुशा पूछता था तो मुझे बड़ी कोफ्त आई कि मुझे इतना भी नहीं मालूम।’
‘अच्छा! तो वो नौकरी लगवा रहे हैं?’
‘अरे, नहीं। वो बेचारा तो खुद ही दूध का जला है।’
‘च-च्च... तो गलती तुम्हारी, इतना खौलता दूध काहे को पिलाया? मारे लाड़ के, ऐं?’
यह क्या मेरे अंदर छुपी कस्तूरी ही परिहास के तमाम रंगों में छिटकी पड़ रही थी!
लेकिन चाची का ध्यान मेरे परिहास में चुटकी भर भी नहीं था। उसी अवसाद और आक्रोश में एक साथ डूबी-सी बोलीं, ‘कुशा की सात सौ की स्कॉलरशिप का मामला विश्वविद्यालय के फाटक पर रिक्शा खींचने या जूते गांठने।’
‘ओह!’ मैं तो ऊलजलूल वाचालता पर सचमुच लज्जित थी। ‘रिसर्च में खर्च भी तो काफी आता है।’
‘खाली रिसर्च भर नहीं न, समूची घर-गृहस्थी-मां-बहनों की पूरी-पूरी जिम्मेदारी.... दो ही साल पहले पिता नहीं रहे न इसके....’
उस शाम सूरज के साथ एक सिंदूरी अवसाद घुलते-घुलते डूब रहा था और डूबने के बाद निस्तब्धता एक उदास सहेली-सी लगी थी।
उस कस्तूरी से एक कुतूहल की खुशबू उड़ी थी- क्या बातें हुई होंगी मुझे लेकर? कैसे चर्चा चली होगी मेरी? क्या कहा होगा चाची ने और कैसे पूछा होगा और किसी ने? मुझे ‘किन्नी’ कहा गया होगा या किरन?
अब चिलचिलाती धूप में कॉलेज से जल्दी-जल्दी घर की ओर बढ़ते कदम अनायास चाची के घर के सामने से गुजरते हुए ठहरने-से लगते। आहिस्ते, बहुत आहिस्ते-आहिस्ते, थकान का छल-खुद अपने आप से!
‘अरे किन्नी! कहां भागी जाती है? बैठ चाय पी मेरे साथ।’
‘लेकिन मुझे तो भूख भी लगी है, चाची!’
‘मुझे भी।’ आंचल से बंधी कस्तूरी की गांठ जैसे खुलकर बिखर पड़ी। बरूनियों की आड़ में दुबकी-सी मैं मुस्कराई।
‘भला! दो अनखातों को एक साथ भूख तो लगी-सुबह के पराठे रखे हैं, वही लाती हूं.... चलेगा कि बनाऊं कुछ?’
‘चलेगा।’ दो आवाजें एक साथ सिहरकर उलझ लीं। फिर जल्दी से संभलकर अलग-अलग हो लीं।
‘बस, मैं तो चला।’
‘अरे, क्या हुआ? तू अपने अंदर कोई अलार्म घड़ी फिट किए रहता है क्या जो खाते-पीते भी घन्न से बजकर चौकन्ना कर देती है तुझे?’
‘नहीं बुआ, यह किताब एक दोस्त से लाया था, उसे आज शाम लाइब्रेरी में लौटानी है।’
‘सुनिए... आपकी लाइब्रेरी में पॉलिटिक्स की एक दो किताबें मिल सकती है?’
‘होनी तो चाहिए क्योंकि आजकल बिना पॉलिटिक्स पढ़े कोई साइंटिस्ट सरवाइव कर ही नहीं सकता।’
‘छोड़िए, आप नहीं समझेंगे।’ मैं आहत-सी हुई।
‘नहीं, शायद आप...’ वह फीकी हंसी हंसा।
‘असल में मेरे कॉलेज में सिर्फ दो किताबें हैं, जो दोनों लेक्चरर्स के लिए बारी-बारी रिजर्व रहती हैं।’
‘आप दोनों किताबों का नाम लिखकर दे दीजिएगा। मैं तो नहीं, मेरा दोस्त जाता है आर्ट्स सेक्शन की लाइब्रेरी में।’
नाम लिखकर चार दिन किताबों में दबाए रही। दो-तीन बार कटरेवाली चाची के दरवाजे तक कदम आहिस्ता हो-होकर जिद में आकर, एकदम तेज कर दिए और घर लौट आई। नहीं, यह हद दरजे का छिछोरापन लगता है- एकदम हर दूसरे-तीसरे दिन चाची के घर धरना देने पहुंच जाना.... सस्ती, फुटपाथी किताबों और फिल्मों की तरह। चाची भी क्या सोचेंगी!
पांचवे दिन रास्ते में एक साइकिल अचानक खट से रूक गई और सवार ने उतरते-उतरते सैल्यूट किया, ‘क्या हुआ? किताबों के साथ-साथ किताबों के नाम भी इश्यू करा लिए आपके लेक्चरर्स ने?’
‘नहीं, मैं तो किताबों की लिस्ट लेकर चाची के पास ही आने की सोच रही थी।’
‘तो चलिए, वहीं चलकर दे दीजिए।’ एक बेहद संभ्रांत-सी चुहल।
‘वाह! अब उतनी बेगार क्यों करूं?’
‘ठीक है, मैं भी रास्ते में ही किताबें थमाऊंगा।’
‘हरगिज नहीं.... और यूं भी अपनी मांद से बाहर थोड़ा खुली हवा में निकल लेना सेहत के लिए फायदेमंद होता है।’
‘अच्छा! वाकई, खुली हवा में घुमने वालों की सेहत देखकर सचमुच रश्क होता है।’ मेरे तीर मेरे ही तरकश में सहेज वह उसी संभ्रांत चुहल से मुस्कराता पैडिल मार गया।
बस, जैसे एक रेशमी पारदर्शी दुपट्टा-सा मेरे माथे, कंधों पर गिरा हो और इस आवरण में लिपटी मेरे लिए अब सब कुछ सुंदर था, सब कुछ शुभ, संकल्पमय और मोहक!
मैं और ज्यादा सीधी और शालीन हो गई। चिंटू, मिंटू की आसमान-फाड़, जिदियाती चीखों पर खीजने के बदले मैं उन्हें पुचकारकर बहलाने-फुसलाने लगी हूं। भाभी की अनखाती बुदबुदाहटों पर ध्यान न देकर खुद चौके में सारी रोटियां उतार खुशी-खुशी पढ़ने भी बैठ जाती हूं। अब कहीं उद्विग्न, लस्त सी पड़ी रहने के बजाय बिना मौसी के आए भी मेजपोश धो देती हूं। पुरानी जिल्दों से धूल झाड़ देती हूं। आंगन के एक कोने में लगी मालती की लतर को तराशकर पानी डाल देती हूं। गई बार मौसी की लाई रोजी की नाइटी काटकर मिंटू-चिंटू की फ्रॉकें भी बना देती हूं। अलसाई, ऊबी, उद्विग्न किरन अब सुगंध के एक घेरे में तिरती रहती है।
और बहुत जल्दी मां खुद भी इस इंद्रजाल की गिरफ्त में आ गई थीं। सिर्फ एक-दो बार देखने के बाद ही आप ही आप में कुछ सुनने-समझने लगी थीं। उनकी गुमसुमी और शिथिलता पर, रेत में अंकुर जैसा एक सपना उग आया था। वे समझतीं, उस अंकुरित सपने को लुके-छुपे सींचते, संवारते हुए उन्हें कोई नहीं देख रहा। तो क्या? मैं भी तो यही समझती थी कि मुझे कोई नहीं देख रहा।

मेरे और मां के बीच जैसे कोई अलिखित समझौता सा था। मैं अपने में संकुचित, वे अपने मेंं के पहले इस सपने का कोई स्पष्ट आकार तो बन ले। लेकिन अच्छा मुझे यह लगता कि अब मां पहले से ज्यादा मुस्करा पातीं। साथ ही अब सिर्फ अपनी गुमसुमी उदासियों में घिसटते रहने के बजाय रसोई और घर की दूसरी क्षत-विक्षत स्थितियों को सहज भाव से संभाल लेतीं।

न जाने कैसे इन्हीं स्थितियों को संभालते-संभालते अचानक अकसर उन्हें मौसी, रोजी का ज्यादा खयाल आने लगा था और वे जब तब छोटा सा निःश्वास छोड़कर कहतीं-
‘बेचारी कनक... रोजी सचमुच ही थोड़ी बेढ़ग की मोटी हो गई है। कितना भी रूपया पैसा हो, पर लड़कियों थोड़ी मोटी-दुहरी होती हैं, तो दिक्कत हो ही जाती है मनचाहा लड़का ढूंढने में। उधर से पढ़ाई-लिखाई भी तो कुछ खास नहीं की उसने! लाख पैसा हो, पर यह सब भी अपनी जगह मतलब रखता ही है। बेचारी।’
तभी अचानक एक रात मौसी आ गई न तार, न चिट्टी। मैंने चिढ़ाया, लो बहन-बहन की बात हो गई टेलीपैथी से, मौसी! अम्मा तुम्हें सचमुच याद करती रहती है आजकल।’

मौसी ने बताया- ‘रोजी के लिए एक लड़का देखना है। बाहर से आया है और यहां सिविल लाइंस में अपने किसी मामा के बंगले पर ठहरा है। अता-पता मैं नोट करके लाई हूं। अमर भइया से बोली, ‘कल किसी तरह आधे दिन की छुट्टी लेकर मेरे साथ चलने का बंदोबस्त करो।‘ तुम्हारे मौसा को तो कुछ होश-हवास है नहीं कि लड़की...’
‘लेकिन मौसी, रोजी को भी तो ले आना था!’
‘अरी चुप कर, किन्नी! मैं इन बेकार की चोंचलेबाजियों में विश्वास नहीं करती। रोजी अभी हुई कितनी दिन की कि अपने लिए लड़का परखने निकलेगी? और फिर अगर उसका कहीं और मन होता तो मैं रूकती, सोचती भी, लेकिन जब ऐसा कुछ नहीं है तो पहले मुझी को चहाना-समझना है न! ऊपर से अब तुझसे और दीदी से क्या छुपाना। पहले पहले यों ही सीधे-सीधे दिखाकर तो लड़के वालों को और भड़काना ही हुआ न! इससे अच्छा है कि पहले उस पर अपनी शान शौकत, मान रूतबे का असर डाला जाए। फिर रूप-रंग, नाक-नक्श में तो छुपाने की कोई बात रह नहीं जाती है। इस सबके बीच सिर्फ एक मोटापा और लंबाई की कमी, बस.... वैसे आजकल तो स्ट्रिक्ट डायटिंग पर रखा हुआ है उसे। जब तक मामला तय होगा तब तक आपसे-आप चार-छह किलो घट जाएगी।’

अम्मा जैसे दिल से कातर हो उठीं। मौसी की परेशानी की बात सोचकर, ‘बेचारी रोजी-सचमुच कैसा तो सुथरा चेहरा-मोहरा है और सोने सा स्वभाव अरे, हजार लड़के मिलेंगे उसे। तू बेकार खुद भी परेशान होती है और उस बेचारी पर भी हजार पाबंदियां लगा रखी हैं।’
लेकिन मौसी लौटीं तो चेहरा बुझा, बेरौनक-सा। पता चला, लड़के ने और कोई बात करने ही न दी। सिर्फ सीधे, सबसे पहले लड़की की लंबाई और दुबलेपन की बात - टॉल एंड स्लिम.... रंग-रंग, रूपए-पैसे का मुद्दा बीच में आने का मौका ही नहीं दिया।

और उसके बाद लगातार वे मौसाजी की हद से ज्यादा व्यस्तता और बेफिक्री तथ्ज्ञा रोजी की नासमझी को कोसती रही थीं। मां ने समझा-बुझाकर दिलासा दी और कंधे थपथपाकर चाय का कप थमाया, ‘सब भगवान करेंगे.... तू चाय पी।’
तभी दरवाजा खुला होने पर भी कुंडा खटका।
‘कौन? आकाश! आओ, आओ अंदर। देखो, ये मेरी छोटी बहन है बेटी सी लगती है न?’
मौसी ने प्याले से खींचकर यों ही बेमन से नजरें फेरीं कि अचानक ठहर गइ्र्रं। चेहरे पर एक रौनक सी आई और चहकती सी प्याला लिए ठीक सामने आ बैठीं।
‘कौन? बगल के कटरे वाली का ही भांजा है? बैठो-बैठो। कहां पढ़ते हो? यानी साइंस से? यानी कि रिसर्च? मतलब, इसके बाद डॉक्टर बन जाओगे न? हां, समझती हूं, भई! कहां मकान है? कितने भाई-बहन हो? अच्छा पिताजी क्या करते हैं? नहीं?.... च्च-च्च...।’ मौसी कुछ इस तरह शिष्टचार ताख पर रखकर हम सबको उपस्थिति नकारती, पूरी बेसब्री से धुआंधार सवाल किए जा रही थीं कि अचंभे से ज्यादा अशोभनीय लगा था सब कुछ।

शायद इसीलिए आकाश के साथ ही, मौसी की उपस्थिति नकारती, मैं भी पूरे विश्वास के साथ उठ आई थी और दरवाजे पर खड़ी-खड़ी देर तक बातें करती रही थीं। यद्यपि मेरे अधिकार और सीमा अभी अपरिभाषित थी। फिर भी बात शुरू होने से पहले अपनी लक्ष्मण रेखा में संकोच ही सही। और मौसी इतनी नासमझ तो हैं नहीं। शायद इसी से मौसी भी बीच में दो बार देख गई। मैं और ज्यादा आश्वस्त हुई। अपने आप को मेरी दूसरी ऊपरी आश्वस्ति यह थी कि मौसी द्वारा पूछे गए अनर्गल सवालों से उकताए और थोड़े अपमानित हुए से आकाश के प्रति क्षमा-याचना और क्षतिपूर्ति भी तो होनी चाहिए।

लेकिन दूसरे दिन जब मैं कॉलेज से लौटी तो मां का चेहरा धुआं-धुआं सा था। पता चला, मौसी खुद दोपहर में कटरे वाली चाची से मिलकर सारी बातें विस्तार से पूछ आई थीं। करीब के चाचा-मामा के पते तक नोट कर लाई थीं। अब सिर्फ कमर कसके दौड़ भाग करनी है।

मलाल सिर्फ उन्हें एक था- लड़के से जरा इत्मीनान से एक बार बातें करना चाहती थीं अपने पति-परिवार के रहन-सहन रूतबे को लेकर। लेकिन वह तो होस्टल खुलने की खबर पाते ही भागा चला गया था। वैसे भी कटरे वाली ने कहा था कि लड़का इतना मर्यादित है कि इस संबंध में अपने आप कुछ कहेगा ही नहीं। सारा कुछ अपनी मां और बुजुर्गों पर। और अभी बिना अपनी बहनों की शादी किए, रिसर्च पूरी किए, तो वह सोचेगा भी नहीं।
मौसी इसी उधेड़बुन में अपने आप से सवाल-जवाब करती रहीं। फिर अगले दिन का टिकट मंगवाकर बिजनौर चली गईं।
सवाल-जवाब मेरा मन भी करता रहा-सिर्फ यह जानने के लिए क्या मौसी की उधेड़बुन में मैं बिलकुल भी नहीं थी? कोई द्विधा, कोई द्वंद्व नहीं? मेरे और मां के चेहरे पर लिखे अक्षर क्या इतने अस्पष्ट थे उनके लिए? न, मौसी कितनी तो समझदार, जानने-समझने वाली हैं, और फिर मुझे तो इतना प्यार करती हैं, मेरी पसंद को सराहती हैं- मेरी पसंद.... आह! जैसे ठोकर-सी लगी हो!

और मेरा मन जाने कितने कोष्ठकों में विभक्त फड़फड़ाता रहा। कभी मोर पंख-सा झलझलाता, कभी टिटहरी सा द्विघाग्रस्त हो चीख-चीखकर मंडराता फिरता और कभी गौरैये सा सहमकर दुबक जाता। एक मन दूसरे से उलझता, तीसरे को संभालता, समझाता और अवश उत्तेजना के ऊपर एक सपाट चादर डालकर चुपचाप कॉलेज चला जाता।

लेकिन कुल दो हफ्ते बाद ही जैसे एक सनसनाता हुआ संवाद पूरी तरह सन्न कर गया रोजी की शादी तय हो गई है! अगले महीने की इक्कीसवीं या तेईसवीं को। शादी के बाद आकाश यहां की रिसर्च छोड़कर बाकी बची रिसर्च जर्मनी में करेगा। यहां का एक वर्ष भी उसमें जोड़ लिया जाएगा। वहां उसे यहां की चौगुनी स्कॉलरशिप मिलेगी। मौसाजी के एक दोस्त हैं वहां, सब एडजस्ट करा देंगे। आकाश के एक-दो महीने बाद ही रोजी भी चली जाएगी।

आगे हम सबको बहुत तरह से इस शुभ अवसर पर शामिल होने के लिए बुलाया गया था। अम्मा को और भी जल्दी क्योंकि उन्हें ही तो सब देखना-संभालना है-शुभ-सगुन की पूरी रवायत भी।
मैं पल भर में अपने मोरपंख झाड़कर डंडी-सी खड़ी थी, वही मोर कैसा लगता है- छितराए पंखों के साथ्ज्ञ और पंखों के बिना डूंडा....
लेकिन मां जैसे टिटहरी की तरह, टहकोरती घर भर में मंडराती फिरी थीं। अंतर सिर्फ यह था कि उनकी चीखें बिलकुल खामोश थीं। काफी देर तक यों ही अर्धविक्षिप्त-सी टहकोर लेने के बाद एकाएक मेरे सामने आकर बोलीं, ‘मैं जाकर कहूं क्या?’
‘किस्से?’
और हम दोनों के सवाल एक साथ जैसे किसी दलदल में धीमे-धीमे धंसते जाकर खत्म हो गए।
रिश्ते-नाते निभते रहे।
एक के बाद दूसरे समाचार मिलते रहे...
आकाश जर्मनी गए।
रोजी भी जर्मनी गई। दो महीने बाद रोजी को बेटी हुई, वहीं जर्मनी में। मौसी बेटी के परिवार के पास रह भी आई। रोजी ने मुझे एक साड़ी, एक सेट भेजा। आकाश की दोनों सयानी बहनों की शादियां बिजनौर मौसी के घर से ही बाकायदा बड़े शान-शौकत से हो गईं। रोजी को एक और बेटा हुआ, रोजी और आकाश सपरिवार वापस आ गए। मौसाजी ने उन्हें अपनी मिल में ही काम पर लगवा दिया।

ताजे अखबार के बुलेटिनों की तरह नई नियुक्तियां, नई तरक्कियां और योजनाओं से भरे सफों की तरह पलटते जा रहे सप्ताह, महीने और साल...
इधर, अपनी तरफ कोई समाचार नहीं था- सब कुछ वैसा का वैसा, वहीं का वहीं था। बासी-बासी सा। बढ़ा था कुछ तो भाई के दोस्तों का खोखला जमावड़ा और मां की गुमसुमी, रसोई की कालिख और धब्बे तथा गुसलखाने का पलस्तर भी थोड़ा ज्यादा उखड़-पखड़ गया था। भाभी के बच्चे उम्र में जरूर बढ़े थे, लेकिन देखने में वैसे ही जिद्दी-पिद्दी पिनकने और निकम्मे-से।
मैं ‘टॉप’ नहीं कर पाई थी। टॉप मोनिका ने किया था। इसके लिए उसे सभी संबंधित अधिकारियों-प्राध्यापकों से अग्रिम बधाई भी मिल चुकी थी। उसके पिता ने कॉरपोरेशन अध्यक्ष की हैसियत से विद्यालय और पूरे शहर की अभूतपूर्व सेवा की थी। विद्यालय ऋणी था उनका, समूचा शहर ही!
इसीलिए मुझे लेक्चरशिप भी नहीं मिल पाई थी! लेक्चरशिप मोना को मिली थी।
मैं उसी कॉलेज में टीचर हो गई थी एक मेच्योर जिम्मेदार नियम की पक्की और कडक, अनुशासन पसंद। टीचर होते हुए भी अपने भरसक लेक्चर्स के सारे गुणों (और योग्यताएं तो थीं ही) से भरपूर।
मैं सारे के सारे अखबार और पत्रिकाएं पढ़ती-स्त्रियों के अपने अधिकारों, अस्मिता और आत्मविश्वास को सुरक्षित रखने के नुस्खे मेरी जबान पर रटे होते, जैसे अचार-मुरब्बों को सुरक्षित रखने के प्रिजरवेटिवों के नाम। सच को सच बोलती और सबके बीच बोलती। लोग मेरी दलीलों की दाद देते और तफसीलों की तारीफों के पुल बांधते।

शादी मेरी नहीं हुई थी। इसे सुधारकर- ‘मैंने नहीं की थी’ कर लीजिएगा क्योंकि अपने विवाह के लिए दहेज जुटा पाने की मेरी हैसियत नहीं थी। इसे भी सुधारकर ‘दहेज जुटाने के पक्ष में मैं नहीं थ्ज्ञी’ कर लीजिएगा। भाई ही हालत और हैसियत जग-जाहिर थी।
सो, सब ठीक-ठाक चल रहा था जैसे आम तौर पर हर दूसरे घर-परिवार में चला करता है।
कि तभी जैसे करेंट-सी छू जाने जैसी खबर मिली-
रोजी नहीं रही।
तीसरे बच्चे के जन्म के साथ ही हार्ट फेल कर गया। क्यों? कैसे? कुछ पता नहीं।
रोजी मां के पास ही पैदा हुई थी। इत्ती सी थी तब से उन्होंने पाला-पोसा और दुलारा था। खबर पाते ही बिना खाए-पिए पड़ी रहीं और अगली गाड़ी से भाई को लेकर रोती-कलपती रवाना हो गईं।
लेकिन चार दिनों बाद लौटां तो बिलकुल बदली, चुप सी। जैसे कोई दुःखांत फिल्म देखकर लौटी हों। भाई ने बताया, ‘वहां सब चुप शांत! तब वे अकेली कहां तक रोती-कलपतीं। मौसाजी को सख्त चिढ़ है- रोने कलपने, चीखने चिल्लाने से, जो हो गया, सो हो गया- जो स्थिति सामने है, उसे पूरी समझदारी से संभालना चाहिए बस।’

मां भी चमत्कृत सी सचमुच बड़े आदमियों का दुःख भी कैसा गरिमामय होता है। सबके चाय नाश्ते का बाकायदा इंतजाम, धीमे-धीमे थोड़ी बहुत बातें, जैसे घरवाले, वैसे ही बाहर वाले। कोई चीखता-पुकारता नहीं आता। सब तरफ एक शालीन समझौता सा। कनक थी तो इसी घर परिवार की, लेकिन पूरी तरह मौसाजी के उसूलां, विचारों में समा गई।
वक्त-वक्त पर नाश्ता खाना, नहाना धोना, सब वैसे ही चलता है। बच्चों के टाइम में भी जरा सी भी इधर-उधर नहीं। न कोई मूर्खतापूर्ण बेहाली की बातें ही करता है बच्चों से।
और बच्चे भी कैसे शालीन अदब-कायदे वाले! इन चिंटू-मिंटू जैसे उजबक उजड्ड नहीं। जरा कुछ पूछो तो कितने कायदे से पूरा जवाब। हां, दुधमुंहा वाला तो अभी किकि आएगा ही, फिर भी कैसी साफ सुथरी आया रखी हैं। मेरी साड़ी से साफ उसी की साड़ी रहती थी।
लेकिन इतना ही सब कुछ नहीं था, इसके अलावा भी कुछ रहस्य भेद भरी फुसफुसाहटें-सी! चौकती रहती लेकिन आमने-सामने बेफिक्री का दम भरती।
आखिर एक दिन मां ने सूत्र जोड़ दिया- ‘मौसी तुझे बहुत याद करती थी।’
‘अच्छा।’
‘कहती थीं, किन्नी आकर कुछ दिनों संभाल देती।’
मैंने तीखी नजरों से मां को बेधा तो उन्होंने संभलकर जोड़ा-
‘अरे, घर क्या, स्वर्ग है स्वर्ग!’
‘ओह! तो तुम्हारा मतलब है, मैं इस नरक की टीचरी छोड़कर स्वर्ग में आयागीरी करने जाऊं?’
‘नहीं बेटी, नहीं.... आयागीरी करने नहीं, सच को संभालने। कनक ऊपर से नहीं दिखती पर अंदर-अंदर तो टूट सी ही गई है। आखिर मां का दिल है।’
‘बहुत जल्दी पसीज जाती हो, अम्मा तुम!’
मैं बिफरकर उठ खड़ी हुई और हकबकी सी मेरा मुंह निहारती मां से बोली, ‘मुझसे अब बच्चे-बच्चे संभालने का काम नहीं हो पाएगा। तुम आज ही मौसी को मेरी तरफ से क्षमा याचना सहित ‘ना’ लिख दो, समझीं।’
मां सन्न मेरा मुंह देखती रह गईं!
मैंने जरूरत से ज्यादा बेफिक्र और बेपरवाह दिखने की कोशिश की, हमेशा रूक्ष सी रहने वाली मैं बेमन से ही भाभी के दोनों नकियाते जिद्दी बच्चों के साथ हंसी बोली, उन्हीं के साथ खाना खाया और चादर तानकर सो गई।

नहीं, मैं सो कहां पाई! मैं तो जगी पड़ी थी- अपने अंदर चलते सागर मंथन को संभालने काबू करने की कोशिश में, थमता क्या? तूफान कभी थमा है पतवारों और किनारों से? मैं तो शिला सी थमी इंतजार कर रही थी उसके गुजर जाने का। कि तभी भीतरी कोठरी से भाई का फुसफुसाहट भरा स्वर फूटा-
‘क्या हुआ? किन्नी ने कहा कुछ?’
और जवाब में अपनी उत्तेजना पर किसी तरह काबू पाती भाभी-
‘हां, तुम्हारे लिए इससे बड़ी खुशखबरी और क्या हो सकती है। अब जाओ, कल यार-दोस्तों को जमा कर जश्न मना डालो इस खुशी का।’

भाई, सचमुच सुनकर हलके हो लिए थे और अपनी काहिली में बेहद सस्तेपन से हंस उठे थे, ‘वाह! बन तो ऐसी रही हो जैसे तुम्हे खुशी हुई ही नहीं। सच पूछो तो खटका और घबराहट तो तुम्हें ही ज्यादा हो रही थी कि किन्नी रिश्ता मान लेगी तो खर्चा कैसे चला करेगा हमारा? तुमने खुद ही तो जिकर किया था एक दिन मुझसे कह दो कि नहीं! चलो, अब तुम्हें तसल्ली हुई होगी, किन्नी अपनी तनख्वाह के आधे नोट तुम्हें पहले की तरह थमातीं रहेगी।’’

‘हां, और इस आधी तनख्वाह के बदले में मेरी पूरी जिंदगी हमेशा के लिए उसके नाम बंधक रखी रहेगी न? मेरा मन हो न हो, मैं साढ़े नौ के कांटे पर उसके कमरे में चाय-नाश्ता पहुंचाती रहूंगी, उसका टिफिन तैयार करती रहूंगी, कभी भी आ धमकने वाली उसकी टीचरों की खातिर-तवज्जो करती रहूंगी जरखरीद गुलाम की तरह, क्योंकि वह पूरा दिन बाहर खटती-थकती रहती है और ऊपर से मेरी गृहस्थी का बोझ ढोने का अहसान करती है मुझ पर।’

अब भाई का काहिली का अजगर यूं ही करवट बदला था, ‘अहसान की कैसी बात? वह रह भी तो रही है इस घर में!’
‘हां, वह रह रही है इस घर में अपने पूरे अधिकार और आत्मसम्मान के साथ। पूरी स्वतंत्रता का भोग करती हुई, मेरे तरह किसी की भीख पर पलती हुई नहीं! पति, बच्चे और यह घिसटती हुई जिंदगी न सही, खुली हवा में बेफिक्र सांस तो खींच सकती है वह। और घर में रहने की बात कर रहे हो न तुम! तो एक बात और सुन लो, वह कल को इस घर के आधे में हमेशा की हिस्सेदारी का दावा भी कर सकती है। भविष्य की सुरक्षा के लिए कौन आश्वस्त होना नहीं चाहेगा, खासकर एक अकेली औरत?’

फिर भाई की ‘हुम्- जैसी आवाज पर भाभी थोड़ी सचेत, थोड़ी घबराई सी बोलीं, ‘अब इसी बात को लेकर कल कोई महाभारत मत खड़ा कर देना। तुमसे तो कुछ कहते भी डर लगता है। सच सच कहूं तो मुझे किन्नी से उतनी शिकायत नहीं, जितनी तुमसे है। तुम्हारे रहते हुए भी मैं अभी तक यह नहीं जान पाई कि अपने पति, बच्चों के साथ मुक्त, निर्द्वंद्व जीवन जीना कैसे होता है? मैं सिर्फ मुक्ति चाहती हूं- इस घुटन से, जिंदगी भर की गुलामी से। मां तो खैर चलो चार-छह साल मै.... लेकिन...’
और भाभी की सिसकी फूट पड़ी थी।
स्तब्ध... अवाक् अचानक हरहराता हुआ सागर सूख गया था। उसकी जगह एक रेगिस्तान बिछ गया था- तपती दहकती हुई अंतहीन रेत ही रेत!
और उस रेगिस्तान के बीचोबीच खड़ी मैं अपना जीवन अपने ही हाथों में लिए जैसे जांच-परख रही थी.... बिलकुल एक कंचे की तरह-रंग-बिरंगा कांच का टुकड़ा... दांव मारना है इसे देकर, देखूं, कितनी दूर जाता है... कहीं नहीं... जिधर भी मारूंगी, इस रेत में धंसता ही जाएगा।
देखने में इतना रंग-बिरंगा लेकिन कैसी बेगैरत सी चीज!
फिर भी, छल उधर भी, छल इधर भी... तो फिर एक नए दांव पर ही क्यों न लगा दूं यह कांच का टुकड़ा?
सोच लिया।
‘बहरहाल, भइया की नहीं जानती, भाभी! लेकिन मैं अपने पास रखा तुम्हारा बंधक बिना शर्त वापस कर जाऊंगी।’
‘कर जाऊंगी? यानी? कहां किन्नी?’
‘कहां भी...’
‘फिर भी कहा? जरा होश में आओ, आसमानों की नहीं, जमीन की बात करो, किन्नी! अब तक तो तुमने कुछ जोड़ा-बचाया नहीं। अब अलग मकान, सारी गृहस्थी.... मजाक नहीं, इतना समझ लो। तनख्वाह का आधा से ज्यादा एक कोठरी जुटाने में निकल जाएगा। और भी बढ़कर अचानक हर तरफ सिर उठाती हुई कूटनीतिक जिज्ञासाएं और जल्दी से जल्दी सब कुछ उधेड़कर जान लेने को बेसब्र भेद-नीतियां.... अंदर-अंदर घूंट-घूंट परितृप्त होने वाली मक्कार सहानुभूतियां...।’

‘कोई बात नहीं, मुट्ठी में मेरा स्वाभिमान तो रहेगा। सिर उठाकर पूरे गुमान से जीवन बिताऊंगी अपना।’
‘गुमान! कैसा और किसका? नजरें बड़ी तेज होती हैं चारों तरफ की। ये नजरें कोई भरम नहीं पालतीं, असलियत थहाकर ऊपर से पुचकारती हैं- वाह!

शाबाश! और सिर घुमाकर, दूसरों को कुहनी मारकर मुस्करा लेती हैं। जिस दीवार के साये में तू गुमान भरी बैठी थी, उसकी नींव तो धसक गई। अब ऊपर तक दरारें फटेंगी और दरारों की पीठ सटाकर खड़े-खड़े छुपाया नहीं जा सकता, किन्नी!’
‘अच्छा! घर तो छोड़ेगी ही किन्नी, अब! है न?’
‘हां, छोड़ना ही होगा... तो इन दरकी दीवारों के ऊपर बनेगा तेरे स्वाभिमान का दयार?’
‘क्योंकि वह भी तो एक तरह की हार ही होगी। और लोग तो बेहद खुश! तब घर छोड़ते-छोड़ते भी संबंधों के इस मोहभंग का तमाशा क्यों दिखाया जाए उन्हें?’
‘तो फिर महल चुनवा लूं अपनी एक दुधमुंही अनुभूति की समाधि पर?’
‘नहीं, नहीं.... नहीं!’
‘तुम जिंदगी को दांव पर लगाने की बात कर रही थीं न!’
‘नहीं, कुछ दांव हारने के लिए ही लगाए जाते हैं, मैं नहीं लगाऊंगी जिंदगी ऐसे दांव पर!’
‘जीती ही कब तू? मोना से जीती क्या? कड़ी मशक्कत के बावजूद पढ़ाई में और योग्यता के बावजूद इंटरव्यू में जीती क्या? सोच ले!’
रात बीती-एक रीती उम्र की तरह! और सुबह होने पर मैंने मां से कह दिया कि वे मौसी को ‘हां’ लिख दें।
और अब खुली आंखों से एक सपना देख रही हूं- मौसी आई हैं और चहकती हुई, पूरे आत्मविश्वास के साथ मुझे कुछ थमाती हुई कह रही हैं, ‘यह ले, किन्नी! धूसर आसमान का यह टुकड़ा! जरा इसे धो-पोंछ देगी न, सुधर-संवर जाएगा। रोजी ने इसे सिर्फ दस साल ही तो इस्तेमाल किया होगा। मैंने सोचा, इसे तेरे लिए लेती चलूं, तुझ पर खूब फबेगा...’

-सूर्यबाला
मो. 9930968670
 

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