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 स्वर्ण भस्म सी वह

चकचा के आती हल्की नींद में सम्मू की आंख खुल गई... कहीं दूर से अलगोजे की धीमी स्वरलहरी उसे सुनाई दे रही थी। एक टीस थी उस धुन में जिसे सिर्फ वही सुन पा रही थी। पौह माह के ठंडे सिले पडे धोरों को पार कर आती अलगोजे की धुन उसके काळजे मे धंस रही थी। आज फिर शायद सद्दे को नींद नहीं आ रही थी। सम्मू ने छाती के चिपक कर सोये छ: माह के बच्चे को सम्भाला तो वो भी कुनमुना कर उसके और नज़दीक आ कर मुंह को मां की छाती के चिपका कर दूध पीने लगा। लेटे लेटे ही सम्मू ने पास ही सोये दूसरे बड़े बच्चे को भी मोटी गूदडी से ढक दिया तो बच्चा भी ममता की गरमास में सोया रहा। आंखो की कोरो में झलके पानी को अपने अंदर जब्त करती सम्मू अलगोजे की धुन के साथ जैसे अतीत में विचरण करने को पहुंच गई।
जैसाणे के रेगिस्तानी धोरों के बीच किसी एक धोरे पर बसी थी मांगळियारों की बस्ती।

वैसे तो दूर दूर की ढाणियों में पीढ़ियों से मुसलमान, भील, मांगळियार, मेघवाल और कालबेलियों की अलग अलग जातियों की बस्तियां बसी हुई थी। सभी के अपने अपने काम और अपने अपने धरम। शहरी बातों से इतर वो सब बस अपनी अपनी जिया जूण पूरी करने वाले ही थे। किसी को किसी के धरम या किसी के करम से कोई आपत्ति नही थी। पीढ़ियों का साथ था लेकिन सभी अपने अपने परम्पराओं और संस्कृति में रचे बसे थे। सम्मू मांगळियारों के एक परिवार की बेटी थी। और वहीं था सद्दे, सद्दा, सद्दै खां... लेकिन उसके लिये सद्दे ही था।

कभी था वो मागंळियारो के इस डेरे में रहने वाला सबसे गबरु जवान, हस्ट पुष्ट और हर ऐब से दूर। अनाथ सद्दा को उसका फूफा अपने डेरे में बचपन में ही ले आया था और सम्मू के साथ चौमासे की बारिशों में धोरों पर बैठ कर पैर के चारों तरफ रेत की ढिगळी मांड कर कब वो दोनो अपनी ऐसी ही टपरी संग साथ बनाने के ख्वाब देखने लगे... उन्हें पता ही नहीं चला था। खड़ताल और अलगोजा बजाना उसे फूफा ने बचपन से ही सिखा दिया था और मांगळियारो के एक से बढ कर धुरंधरों के साथ जब वो खड़ताल की ताल बैठाता तो सुनने वाले बस मन्त्र मुग्ध हो सुनते जाते थे। अलगोजे की धुन तो वो बस सम्मू के लिये निकालता था। फूफा कई बार उससे अंग्रेज पर्यटको के सामने अलगोजे की धुन छेडने को कहता लेकिन फूफा के नाराज होने पर भी सद्दा अलगोजा नहीं बजाता था।

वो जब भी सम्मू के साथ अकेला धोरे के दूसरे पार जहां पीळी गारा मिट्टी के बडे बडे खड्ड थे और सम्मू वहां से गारा लेने जाती जो कि झोंपे के आगे के आंगन को निपने के काम में आती... साथ हो जाता था। डेरे से दूर दोनों वहां अपनी एक नई दुनिया में पहुंच जाते थे। सद्दा वहां अपने अलगोजे को होंठो से लगा कर जब धुन छेडता तो सम्मू को लगता जैसे उसके ठंडे पड़े होंठो पर सद्दे ने अपने गरम गरम होंठ रख दिये है...अलगोजे की मीठ्ठी धुन में सम्मू खो सी जाती । ऊबड़ खाबड़ जमीं पर गारे को खोदने से बनी गहरी खोह में कभी कभी सम्मू थक कर बैठ जाती और सद्दे वहीं उसके पास, बिलकुल पास आ कर उसके पेरों पर अपना माथा टिका कर अपलक सम्मू को देखता। उपर उठे सम्मू के चेहरे में कभी उसे पळकता सूरज दिखता तो कभी ठण्डी छांव देता चांद दिखता। बस दोनों ने इतनी ही दुनिया सजा रखी थी। संग साथ को सपने सा सजा रखा था दोनों ने, कोई अड़चन भी नहीं थी दोनों के ब्याह में भी। एक ही डेरे के रिस्तेदार थे दोनों के आपसरी में और उनके संबध भी आपस में ही होते थे।

सम्मू उमर के उस बहाव में थी जहां अभाव कम और आँखो में तिरते हरियल सपने ज्यादा थे... अंतस में ऊमड़ती प्रीत की डोर के आगे जरूरतों पर ज्यादा निगाह न जाती थी, दो जून की रोटी, तन पर कपड़े बस हो गया सब और बाकी घर का काम, कोस दो कोस से पाणी लाणा, आंगण निपणै को गारा लाना और साळियों (बकरियां/ऐवड) की सार सम्भाळ करना इतना ही काम था।

सद्दा और वो जब भी मिलते बस अपने लिये ऐसे ही डेरे में अलग एक झोपड़ी की कल्पना करते थे, वो ही उनका महल था और वो ही उनका सच था। पर समय का फेर जब ऊपर से निकलता है तो अच्छे अच्छों को अपने झपेटे में ले लेता है।
वक्त का पहिया तो अपनी चाल से चल रहा था।
सम्मू की बड़ी बहन चौथी बार पेट से थी। शरीर से कमजोर थी लेकिन जब तक औरत के धर्म में थी बच्चा करना तो उसका काम था, साल दर साल वो जापे के लिये आ जाती पीहर के डेरे में और सम्मू के बापू पर एक और कर्जा चढ जाता बाणिये का। नहीं नहीं करते ही थोडा बहुत संधीणा तो कराना ही पडता छोरी को और उसमें ही उसकी तो कमर दोहरी होते जा रही थी। साथ ही बाकी घर का खाण खरच, वो भी तो देखना पडता था न सम्मू के बापू को। मां बेचारी जैसे तैसे गरस्ती की गाड़ी खिंचने में बापू की मदद करती थी... खेती बाड़ी की खुद की तो कोई ज़मीन थी नहीं और होती तो भी इस पसरे हुये रेगिस्तान में सिवाय बाठगौ और खीपडौ के अलावा क्या होता था किसानों के। दो बोरी बाजरी से कोई पूरा साल थोडे ही निभाव होता। जिन के बढैरो की थोडी बहुत ज़मीन थी नहरी पानी की सुविधा का आसरा था, खुद के खेत थे उनकी फिर भी जीया जूण ठीक ठाक कट रही थी बाकी का तो ऊपर वाला ही रखवाळा था।

इन दिनों सावन अपने पूरे रुआब पर था, धरती पर अमृत बरसा रहा था। बहुत दिनों के अडीक वाली बरसात जाने आज सारी कसर निकाल देना चाहती थी। धरती की सोंधी सुंगध चहूंओर फैली हुई थी। सद्दै अपने ढाणी से बाहर आ कर धोरें पर बैठ गया था और बस दूर स्थित सम्मू की ढाणी की ओर देख रहा था और मन ही मन सोच रहा था कि काश आने वाले किसी सावन की ऐसी बरसात में वो और सम्मू साथ साथ भीगे और अपनी साळियों को बांधने की जुगत करें, वही उसके प्यार का रुप था।

सम्मू की ढाणी में उसकी जापे आई बहन की रह रहकर सिसकारियां सुनाई दे रही थी। माँ ने सम्मू को झट दैणी पास ही रहने वाली दायण माँ को बुलाने के लिये भेजा और खुद कभी चूल्हे पर पानी गरम कर रही थी, कभी पुराने गूदडों की गाँठ में से कुछ काम के कपडे टाळने की कोशिश कर रही थी। इतने जापे हो गये थे तो अनुभवी हाथों को पता था कि इस घड़ी क्या क्या चीज की जरुरत पड सकती है। दायण मां सम्मू के साथ भागी चली आई थी, ढाणी के झोंपड़े में दायण मां के जाते ही मां ने टूटी फूटी किवाड़ी को उड़का दिया था.... रह रह कर आती दर्द और टीस की आवाजों से सम्मू का दिल भी बैठा जा रहा था।
औरत की जूण में आते ही समझदारी जैसे साथ ही आ जाती है तिस पर अभावों के साथ पली बढ़ी लड़कियां तो अपनी उम्र से जरा जल्दी ही बड़ी हो जाती है। सम्मू बस मन ही मन प्रार्थना कर रहीं थी कि सब कुछ ठीक से हो जाये... तीन बच्चे पहले से ही है केशी के, चौथा करने की कहां जरुरत थी, पर ये भी बात समझे तब न। गांव की नर्स और प्राथमिक स्कूल की बैनजी दोनों कितनी बार घर घर ढाणी ढाणी आ कर समझाती है कि जाप्ता रखो, ज्यादा टाबर टिंगर मत करो, पर कोई समझे तब न। और इक्का दुक्का कोई उनकी बात को‌ समझ कर अपने पति या सास से इस बारे में बात करती है तो उनके घरवाले उनकी बात नहीं मानते है। ‌ लारळी साल उसकी चाचा की लड़की को कितना कूटा था उसके पति ने इसी बात पर। गहरी सांसे लेती सम्मू मन ही मन अपने विचारों के घोड़ों को इधर उधर दौड़ा कर झोपड़े की तरफ देखती हुई आंगन के कुछ काम करती हुई समय काटने की जुगत कर रही थी।

"हे मावड़ी!!".... केशी की चीख झोपड़े से बाहर तक आई।
तीखी चीख के साथ अचानक जैसे एक बारगी सब कुछ शांत हो गया। सम्मू और उसके बापू के पेरौं में धूजणी छूट गई। मिनट दो मिनट बाद बच्चे के रोने की आवाज आई और दोनों के कलेजे में पड़े धक्के को जैसे राहत मिली पर अचानक ही मां के रोने का स्वर भी कानों में पड़ा। सम्मू भाग कर किवाड़ी खोल झोपड़े में घुसी। मां हाथ के बच्चे को छाती के चिपकायें ज़मीन पर बैठी थी, दायण मां केशी के चेहरे पर‌ कपड़ा ढाळ रही थी। ‌ केशी देह की, जीवन की तकलीफों से मुक्त हो चुकी थी। सम्मू जैसे शून्य में पहुंच गई थी। रेगिस्तान का सूनापन उसके आस पास फैल गया था। और इसके साथ ही बह गये थे उसके सुनहरे सपने जो उसनें और सद्दे ने साथ साथ होने के देखे थे। जीवन के कठोर यथार्थ से जब सम्मू बावस्ता हुई तो जैसे उसके जीवन जीने की गमक ही खो गई। बहन के बच्चों को सम्भालने की जिम्मेदारी में कब वो उनकी मासी मां बन के अपने बहनोई संग ही ब्याह दी गई, वो खुद भी न समझ पाई।
सद्दा, उसकी प्रीत, बचपन का दोनों का प्यार वक्त की जरूरत के नीचे दफन हो गया। वो बहन का घर सम्भाल चुकी थी... और उसके खुद के पेट का भी अब तो एक बच्चा हो गया था।
सद्दा अकेला रह गया था और अब तक अकेला ही था। मां कि ढाणी आते - जाते जब भी वो कभी सम्मू को सामने दिख जाता... दर्द भरी आंखों से बस ताकता रहता था सम्मू को। सम्मू उसके अकेलेपन को देख कर सहम जाती थी..... और बस एक ठंडी उसांस लेकर रह जाती थी। आधी रात की अलगोजे की दर्दीली धुन बंद हो गई थी... सम्मू अतीत से वर्तमान में आई।
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उसका रोज का ही नियम था ये।
भरी दुपहरी हो, बरसात हो या सर्दियों का मौसम हो, उसे ड्यूटी पर आना ही होता था। शहर से पेंतालीस किमी दूर अपर प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका विमलेश मेडम। बस एक रविवार मिलता था, उसे भी घर, बच्चों, सास ससुर और पति की फरमाइशों के नाम कर रखा था। जीवन एक मशीन के चक्र की तरह पूरा हुवा जाता था। शहर से दूर के गांव की स्कूल में अध्यापिका थी, रोज का अप डाउन जरुरी था। आज भी बस स्टेंड पर बस का इंतज़ार करती, हाथों और मुंह को ग्लव्ज और स्कार्फ से ढक कर खडी थी। प्यास से होंठ सूखने लगे थे, बैग में से पानी की बोतल निकाल कर दो घूंट पानी पिया... गले की खुश्की कम हुई। पास ही उसकी स्कूल के बच्चे हाथों मे बस्ते और कुछ बच्चे बस्ते नुमा सिली हुई थेलियां लिये यूं ही आपसरी में खेल रहे थे। रोज का नियम था वो बच्चे उसे बस में बैठा कर तपते धोरों की रेत और सडक के बीच बेढब सी मुरडीयां रोड होते हुये अपनी अपनी ढाणियों की ओर चले जाते थे। स्कूल में दो ही जनों का तो स्टाफ था, उसका परिवार शहर में रहता था तो वो रोज शहर से अप डाउन करती थी साथ के सीनियर मास्टर जी दूर के शहर से थे तो उन्होनें स्कूल के पास ही एक गांव में कमरा ले रखा था। बस न आये तब तक मैडम के आस पास बच्चे रहे ये व्यवस्था सर ने ही कर रखी थी। कई बार लोकल बस आने में बहुत देर कर देती थी और उतनी देर अकेले सुनसान में खडें रहने से उसे भी थोडा भय लगता था... हालांकि उसने ये किसी से कहां नही पर अनुभवी सर ये बात समझते थे और अभिभावक की तरह ही उससे स्नेह भी रखते थे।

सर्दियों का मौसम आ गया था पर रेगिस्तान के दिन तो भास्कर की गर्मी के लिये अभिशप्त है ही, सूरज बिलकुल सिर के ऊपर चिळक रहा था। वो भी उसके जीवन समर की ही तरह उसे झुलसा रहा था। डगडग की आवाज संग एक बुलेट अभी अभी उसके सामने सड़क से गुजरी थी और सफेद झक चोले पजामे के सिवा उसे और कुछ न दिखा। वो वेसे ही निर्लिप्त मन लिये खेजड़ी की छितराई छांव मे नीचे रखे पत्थरों पर टिकने के प्रयास में बैठी रही। डगडग की आवाज कुछ ही मिनटों में वापस पास आती सुनाई दी, गरदन घुमा कर देखा तो वहीं बुलेट सवार नज़दीक आता दिखा। पास आ कर वो रुका, हेलमेट और उसके नीचे बंधा गमछा उतारे बिना ही बोला, "मैडम बस पीछे खराब हुई खडी है, जाने कब ठीक हो... शहर जा रहा हूँ, चलना है तो बैठिये। आवाज की लरज से वो चौंकी!!
‘क्या सुमेर है। ?....’ पर चुप रहीं ...
"मैडम क्या सोच रहीं है?".... बुलट सवार ने फिर से पूछा।
सुमेर ही है, पर इतने बरसों बाद ... सुमेर भी शायद उसे पहचान गया था। कुछ सोच कर उसने बच्चों को हाथ हिला कर जाने का संकेत दिया और बुलेट के एकदम पीछे सिमट कर हौले से बैठ गई। दोनों ने एक दूसरे की गंध को अपने अंतस में महसूस किया। वह बुलेट बहुत सावधानी और धीरे चला रहा था.... लेकिन बरसों बाद इस साथ के सफर में दोनों ही स्मृतियों के समंदर में पंहुच गये थे ...

वो उसकी गली के बाहर की थड़ी पर बिना मतलब बैठा रहता और बस उसके आने और जाने का इंतज़ार किया करता था। उसकी एक झलक के लिये वो दिन की धूप और सर्द शामों की ठिठुरन सहता था। एक ही कोलेज में थे दोनों... एक ही मोहल्ले के वासी। आंखो से उतरा प्रेम कब उन दोनों के दिलों में घर कर गया दोनों को पता भी न चला। कोलेज में सुमेर की सैकिण्ड हैण्ड पल्सर भी विमलेश को किसी फर्राटा बाईक से कम न लगती थी। दोनों यूं ही क्लास से बंक मार कर कहीं कहीं निकल जाया करते थे और एक दूसरे की सुगंध से अपने आप को महकाया करते थे।

तब स्मार्ट फोन का जमाना नहीं था... जब कोलेज नहीं होता था तो दोनों के बीच किताबें और उनके बीच रखे हुये छोटे छोटे खत वार्ता के जरिये थे। कभी कभी किताबों के बीच सुर्ख सुंगधित गुलाब भावनाओं के इजहार का जरिया बनते थे। सुमेर का छोटा भाई खेल खेल में डाकिये की भूमिका अदा करता था। इसके साथ ही सुमेर की भविष्य बनाने की जद्दोजहद भी साथ साथ चल रही थी और एक अच्छी नौकरी लगने के बाद उसे उस मोहल्ले से, उस शहर से आखिर रुखसती लेनी पड़ी लेकिन इस वादे के साथ कि वो वापस आयेगा और जरुर आयेगा।

दोनों के बीच अब खतों का सिलसिला था और चूंकि वो कामयाबी की सीढ़ियों पर था तो विमलेश के घरवालों को भी दोनों के रिश्ते से कोई ऐतराज़ न था। भरी दोपहरी में डाकिये की साईकिल की घंटी विमलेश को संगीत सी लगती और दोनों के खतों के सिलसिले ने भावनाओं की ऊष्मा बचाये रखने में बखुबी अपना साथ दिया था। लेकिन जीवन में कुछ भी हमेशा नहीं रहता सब एक निश्चित काल तक ही होता है.... एक कसक, एक टीस बन कर कोई दिन साथ हो जाते है।

सुमेर की ऊर्जा और काबिलियत से डरे ओफिस के एक गुट ने उसे घपले के झूठे मुकदमे में फसां कर‌ उसे जेल भिजवा दिया और वक्त के साथ विमलेश के घरवाले भी पलट गये। विमलेश के घरवालों ने उसकी शादी कहीं और करने का फरमान सुना दिया। अपना आख़िरी खत सुमेर को भेजते हुये विमलेश ने लिखा ...
"आखरी संवाद कर रहीं हूं तुमसे सुमेर ... मेरे कर्त्तव्य मुझ से मेरी खुशियों की बलि मांग रहे है। माता पिता के अहम्, उनके सुख, उनकी झूठी परम्पराओं और हठ की उपकरण मात्र है हम लड़कियां, हां खासकर लड़कियां ही। क्यूं कि लड़के तो फिर भी कभी कभी अपने अभिष्ट को‌ पा लेते है पर‌ हम लड़कियां जन्म के साथ ही अभिशप्त होती हैं। आज मैं सब कुछ त्यागकर अपने सुखों, अपने प्रेम, अपनी कोमल भावनाओं, अपने ह्रदय का गला अपने ही हाथों से घोंट रही हूं। समाज में एक लड़की सबकी नजर में केवल एक वस्तु है। अभी वो इंसान का दर्जा पाने से सदियों दूर है। मुझे पता है तुम बहुत संवेदनशील हो, लेकिन मेरी इस मजबूरी को समझोगे और मुझे माफ कर दोगे। आखरी बार तुमसे गले न मिल सकने का अफसोस मुझे ताउम्र रहेगा। अभागी हूं तुम्हारे साथ आखरी बार अपने आंसुओं को भी सांझा न कर पाउंगी। प्रेम किसी को पाने की जिद नहीं अपितु खुद को विगलित कर देने का जूनून मात्र है। जो हर प्रेमी प्रेमिका के हिस्से आता है और हमारे भी आया है। हो सके तो मुझे माफ कर देना। , विमलेश"...

उनके प्रेमिल दिन हवा हो गये ... सुरमई शामों पर सर्द रातों का पैहरा आ लगा... दिन का उजास अंधेरे में खो गया। सुमेर की नौकरी चली गई पर अब अपनी उदासियों को ही उसने अपनी प्रेमिका बना लिया। हारा हुआ इंसान या तो सब कुछ हार जाता है या फिर एक ऐसी अनोखी आभा से सराबोर हो जाता है कि फिर अपने अंधेरो की छाया किसी को भी नहीं देखने देता। दोनों के जीवन लक्ष्य बदल गये थे। ... विमलेश अपने फर्ज और कर्तव्यों के बोझ को ढो रही थी, वहीं सुमेर आस पास की गरीब बस्तियों, गांव ढाणियों के जरुरत मंद लोगों के बीच अपने जीवन की सार्थकता ढूंढने लग गया था। उसकी निस्वार्थ सेवा ने लोगों के बीच उसे अपने जन नायक 'सुमेर सा' का स्थान दे दिया था।

विमलेश भी सरकारी स्कूल में अध्यापिका लग गई और साथ ही अपनी मानसिक शांति के लिये अब उसने विद्यालय के आस पास की ढाणियों की महिलाओं के कुछ सामाजिक सरोकार के काम स्वास्थ्यकर्मी बैनजी के साथ मिल कर करने शुरु कर दिये थे.... उसे सूकून मिलता था कि वो किसी के काम आ रही है। समाज को इंसानियत के नाते कुछ लौटा रही है। गाहे बगाहे विमलेश को सुमेर की भी अच्छाइयों का पता चलता रहता था। दोनों छोटे से एक ही शहर के बाशिंदे थे तो एक दूजे के बारे में न चाहते हुऐ भी पता चल ही जाता था।
सुमेर अपने जीवन को शांति पूर्वक बिता रहा है बस यही जानकर विमलेश अपने आप को ढाढस देती थी और विमलेश अपने पति बच्चों संग गृहस्थी में रम गई है यह जानकर सुमेर अपने आप को समझा लेता था। लेकिन दोनों के जीवन में ही एक दूजे के बिना कितना बड़ा निर्वात आ गया था, वो दोनों ही एक दूजे को नहीं बता पाये थे। बस अपने जीवन निर्वात को भरने की कवायद में लगे हुये थे।

सडक पर निकलती गाय को देख कर बुलेट को हल्के से ब्रेक लगा, दोनों की स्मृतियों को विराम लगा... वो सम्भलती तब तक उसके हाथ, उसके कंधो को जा लगे ... एक स्पर्श दोनों को अंदर तक भिगो गया। मौन की भाषा उनके बीच पसर गई थी... बिना पूछे और बिना बतायें बुलेट अपना रास्ता ढूँढ रही थी ऐसे, जैसे की पता खुद चल कर अतीत की तरह सामने आ जायेगा। विमलेश के घर से कुछ पहले सुमेर ने बुलेट रोक दी, वो उतरी... हाथों से ग्लव्ज और चेहरे से स्कार्फ उतारा... साडी का पल्ला सिर पर लेते हुये गले में उलटे हो गये मंगलसूत्र को सीधा किया और शायद बिंदी ठीक करने के बहाने से आंखो का पानी अगुंली से छुपाती हुई सधे कदमों से घर की ओर चल पडी। बुलेट की डगडगाहट में अचानक से कुछ बदलाव आया... शायद कार्बोरेटर में कचरा आ गया... वो उतरा और गाड़ी को उलटी दिशा में मोड कर भारी कदमों से उसे घसीटता हुआ किसी मिस्त्री को ढूँढने चला गया।
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गाड़ी अपनी गति से रेत के धोरों के बीच की सर्पिल सड़क पर चल‌ रही थी। दोनों और सूने पड़े रेगिस्तान के बीच बस काली डामर की रोड़ दिख रही थी, पर्यटकों का मौसम था तो बीच बीच में कभी सामने से कोई टूरिस्ट बस या गाडी ही आती जाती दिख रही थी। जैसलमेर रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद हम लोगों ने गाड़ी किराये कर ली थी और उसी से आगे चार दिन घूमने का प्लान था।
कार की पिछली सीट पर बैठी थी मैं, मैं यानि स्निग्धा... स्निग्धा जायसवाल ।
जाने वहां होकर भी वहां नहीं थी। बचपन के दोस्त मुझे जबरदस्ती अपने साथ ठेल लाये थे। हम कुल जमा पांच जने थे। तीन लड़कियां दो लड़के। पर बचपन से आज तक हमारे बीच कभी जेंडर ईश्यू नहीं आया था। साथ खेले, बढे हुये, अपने अपने पसंद के क्षेत्रों में हम आज कामयाब है। और नियम से साल में कुछ दिनों का साथ, साथ निभाने के लिये होलीडे पर निकलते थे। सबकी पसंद लगभग एक सी थी, तभी आज तक दोस्ती जैसे प्यारे रिश्ते से बंधे हुये थे। आधुनिक रहन सहन और मेट्रो सिटीज के रंग-ढंग में ढले हम एक दूसरे को बेहतर समझते थे ।

अपने खुले उड़ते बालों को मैंने अपने सर पर स्कार्फ लपेट कर बांध लिया था गाड़ी की पिछली सीट पर सर टिका कर आंखे बंद कर मैं अपने जीवन में बीते दिनों आये भूचाल को समझने की कोशिश कर‌ रही थी। कहने को मौसम गुलाबी सर्दियों का था लेकिन मेरे अंदर का ताप मुझे सर्द थपेड़ों से इतर झुलसा रहा था। न जाने वो कौनसा लम्हा था कि उसकी बातों पर यकीन कर बैठी थी। मेरे विश्वास पर उसके स्वार्थ का पलड़ा भारी पड़ गया था, बेहतरीन चार पांच साल की रिलेशनशिप के बाद उसने मुझ से ये कहते हुए ब्रेकअप कर लिया था कि उसे मेरी कुछ आदतों से तकलीफ है, वो आगे कन्टीन्यू नहीं कर‌ सकता ... मै अवाक् बस उसकी बातें सुनती रह गई थी।

मेरी आदतें तो शुरु से यही थी न!! ऐसी ही थी मैं तो बिंदास, सहज, आत्मविश्वासी। और यहीं आदतें तो उसे मेरी भा गई थी, तभी तो कितना, कितना पीछे पड़ा रहा था, दोस्ती के लिए, कमींटमेंट के लिए,प्यार के लिए। मुझे शुरु से क्लीयर था कि अपनी पर्सनल और प्रोफेशनल लाईफ को हमेशा अलग रखना है और वो तो मेरे ही ऑफिस में, मेरे ही साथ था तो एक औपचारिक रिश्ता ही मेरी ओर से हमेशा रहा था। वक्त के साथ आखिर मैं भी उसके साथ सहज होती गई । उसका काम के प्रति समर्पण और परफेक्शन मेरे भी मन को भा गया। और एक दिन आखिर हम साथ थे, बिना किसी औपचारिकता के हमने साथ रहना शुरु किया। हमारे रिश्ते में प्यार था, आदर था, और एक दूसरे की परवाह थी। वो बस थोड़ा जल्दबाज़ था, हर बात को सिरे से जल्द से जल्द लगाना उसकी आदत थी, मुझे हर चीज में ठहराव पसंद था, हमारे रिश्ते को कोई औपचारिक नाम देने से पहले मैं समय चाहती थी। वो संशय में था, पर आखिर हम साथ थे।

लेकिन जब महत्वकांक्षायें आसमान छूने लग जाती है तो आदमी को अपने पैरों के नीचे की ज़मीन भी कम पड़ती दिखती है। उसकी जल्दबाजी की आदत, कम में ज्यादा पाने की इच्छाओं ने उसकी उड़ान को उस समय पंख दे दिये जब कम्पनी से उसे यू. एस. भेजा गया। मैं भी खुश थी, कि चलो उसे उसका मनचीता बादल का टुकड़ा मिलेगा और मैं भी उस बादल की छांव में कभी कभी अपने आप को भिगोउंगी लेकिन दूरियां ने अपना काम कर दिया था। और वैसे भी बांध के रखने से रिश्ते कब बंधते है। फोन कोल्स की फ्रिक्वेंसी कम होते होते मेसेज और एक दो शब्दों के टेक्स्ट तक आ गई, मेरा इंतज़ार जवाब देने लग गया था। हिम्मत करके एक दिन मैंने पूछ ही लिया कि अब हमारे रिश्ते का भविष्य क्या है?.... जवाब आया,
"आई कांट कन्टींन्यू! मुझे नहीं रहना इस रिश्ते में, कारण ये कि मुझे तुम्हारी आदतें समझ नहीं पड़ती!!"....
मैं अवाक्, क्या कहती? क्यूं कहती?..…. मौन मेरे आस पास पसर गया। लगा शायद खुद कि ही गलती रही, क्यूं नहीं उसके कहने के समय रिश्ते को नाम दे दिया?.. क्यूं ठहरने को बोला? दुनिया मेरे लिये अजनबी हो गई थी। अंदर ही अंदर मुझे अवसाद घेरने लगा। बाद में पता चला कि यू एस में उसे कोई और साथ मिल‌ गया, खुश है वो उसके साथ। मेरी हथेलियां रीत गई थी। अगर ये दोस्त न होते तो शायद जीवन कहीं अंधेरे में गुम हो जाता। लेकिन अब मन टूट गया था। विश्वास का टूटना जैसे सब कुछ टूट जाना था। जीवन जीना था, सो जी रही हूं। स्पीड ब्रेकर पर गाड़ी उछली, मैं अतीत को छोड़ वापस अपने दोस्तों के साथ थी। हम जंहा रुकने वाले थे वो रिसोर्ट आ गया था। राजस्थानी परम्परागत तरीके से हमारा स्वागत किया गया। मृगनयनी सी आंखे लिये, हाथों में थाल लिये एक सुंदर आकृति मेरे सामने खड़ी थी। सम्मोहन था उसकी आंखो में!!नख से लेकर शिख तक करीने से सजी हुई ।

हमारी रिसोर्ट में एन्ट्री पर उसने ढोली को ढोल बजाने का आँखो ही आँखो में ईशारा किया, और ढोल की थाप के साथ बहुत ही प्रोफेशनल अंदाज में कुमकुम, चावल से स्वागत कर गुड़ खिलाया। खूबसूरत इतनी की नजर ठहर गई थी, सुतवा बदन बिलकुल परफैक्ट सांचे में ढला हुआ। कालबेलियों वाले पारम्परिक परिधान, चांदी के गहनों से लकदक उसने बेहद सलीके से चेहरे का गहरा मेकअप किया हुआ था। मैं तिलक करवाने उसके नज़दीक हुई और उसकी आँखो में झांका, गहरे समन्दर सी उदासी वहाँ तैरती दिखी। मैंने उसको गले लगने का इशारा किया और वो जब झिझकती सी गले मिली तो गहरी सांस भरती सी "मैडम!!" ... बोल कर, होंठ काट कर रह गई।
"क्या नाम है आपका?"... मै पूछे बिना न रह पाई।
"हुस्नां".... बस इतना ही बोली वो।
उसके साथ एक सेल्फी ले कर हम अपने टेंट में चले गये। अब मेरे मन में बस उसकी ही तस्वीर चल रही थी, उसकी गहरी उदासी भरी आईलाईनर और आईशेडो से सजी आँखो के पीछे की कहानी मुझे बैचेन कर रही थी। मै खुद को भूल न जाने क्यूं उससे जुड़ाव महसूस कर रही थी। मेरा मन उससे बात करने को कुलबुलाने लगा। बाहर जाकर देखा तो आने वाले पर्यटकों के स्वागत में वो व्यस्त थी। रात में होने वाले रिसोर्ट के सांस्कृतिक कार्यक्रम की वो मुख्य पात्र थी। ठण्डे सर्द पडे रेगिस्तान में उसके नृत्य ने अलाव सी गरमी ला दी थी। अलग अलग जगह से आये हुये पर्यटक उसके नृत्य और भावभंगिमा को देख कर उत्साहित हो रहे थे। रात गहरी होती जा रही थी, धीरे धीरे सभी अपने अपने टैंटस् में जा कर दिन भर की थकान को नरम गरम बिस्तरों में मिटाने को चल दिये थे।

मैं अकेली थी, दोस्तों को बोल दिया कि तुम लोग जा कर आराम करो। मै आई तो अपने दोस्तों के साथ थी... पर मेरे जीवन के खालीपन को भरना इतना आसान न था। मैं इस सूने, शांत होते रेगिस्तान से बातें करना चाहती थी... इसकी मीलों फैली खामोशी में अपने आप को भूल‌ जाना चाहती थी। इतनी देर तो कमर्शियल उपयोग होते धोरों और धोरों में रहने वालो को फुर्सत नहीं थी मुझ से बतियाने की, लेकिन गहराती रात के साथ वो अपने आप में समाने लग गया था और मैं, मैं उस के साथ अभी, ये आधी रात का समय बिताना चाहती थी। डिनर ना के बराबर लिया था मैंने, भूख भी नहीं थी। भूख थी इस खामोशी की... इस बियाबान की, लालटेन की शक्ल में लगी मद्धिम रोशनाई में, मैं अपने आप को पाने की जद्दोजहद में, टेंटस् से बाहर आ कर रेत के एक धोरे पर जा कर बैठ गई। सर्द हवाओं के थपेड़ो से बचने को शरीर पर शॉल डाल‌ रखा था, लेकिन दाझते मन को ये ठंडक सुहा रही थी। मैं दुनियावी भीड़ से दूर थी।

भीड़ जो दिखाई देती है... कभी - कभी उनमें से एक चेहरा ढूंढ़ना मुश्किल हो जाता है...सभी कुछ धुंधला हैं यहां ... मैंने प्रेम किया था और प्रेमी को प्रेम में धुंधला ही होना चाहिए । मैं उसके साथ हमेशा के लिए जीना चाहती थी... या फिर इसी कोशिश में मरना भी चाहती थी। पर आज मैं नितांत खाली थी, स्मृतियों की खाली हथेलियां थी मेरे संग... यह जानते हुए भी कि स्मृतियों का कोई चोर नहीं होता.... मैं अपनी सारी ऊर्जा उसकी स्मृति को संभालने में लगा रही थी!! क्यूं कर रही थी मैं ऐसा...? क्यूं नहीं उसकी तरह ही व्यवहाँ रिकता अपना रहीं थी? क्या मेरा स्री होना ही मेरी कमजोरी था? लेकिन मां तो कहती थी कि स्री दुनिया की सबसे ताकतवर प्राणी होती हैं..! तो अब मुझे क्या हो गया...? क्यूं इतनी कमजोर हो रही हूं? मैं अपने आप में वहां होकर भी नहीं थी। लेकिन साथ ही रह रह कर मुझे वो गहरी उदासी लिये हुस्नां की ख़ामोश आंखें भी याद आ रही थी.... क्या था उन आंखों की खामोशी के पीछे का दर्द?... क्या वो भी किसी गहरे समंदर में गोते लगा रहीं है?... उसकी सांस में मुझे एक टीस महसूस हुई थी!... मैं अपने आप से बाते कर रही थी!!....

अचानक एक चीख से मेरा ध्यान टूटा, हल्की घुटी घुटी सी चीख थी। …. मैंने आवाज की दिशा में ध्यान लगाया, टेंट्स के बीच पसरे रिसोर्ट के मैदान पर नजर दौड़ाई, हर तरफ मंधम रोशनाई थी। लगभग सारे ही पर्यटक और ठहरे हुये लोग नींद की आगोश में थे। तो ये चीख कहां से आई?... क्या मेरा वहम था?... लेकिन नहीं!! कुछ ही क्षण बाद फिर से एक चीख सुनाई दी। मुझे जिस तरफ से आवाज आने का अंदेशा हुआ, उस तरफ गई। रिसोर्ट के स्टाफ के रहने की जगह के पास वाले टेंट्स से ही आवाज आई थी। मैंने हिम्मत कर के जोर से आवाज लगाई... "कौन है वहाँ ?... क्या हो रहा है वहाँ ?....अचानक टेंट्स में से हुस्नां ही भाग कर बाहर‌ निकली, अपनी ओढनी को ठीक करते हुये कातर निगाहों से मुझे देखती हुई मेरे पीछे छुपने का प्रयत्न करने लगी।

तभी पीछे पीछे एक नौजवान भी बाहर आया... "रुक!!... जाती कहा है सस्..…" मुंह से भद्दी सी गाली देता देता वो मुझे खड़ी देख कर ठिठक गया।
"क्या हो रहा है यहां?....मै कड़क कर बोली थी।
मेरे सवाल का जवाब दिये बिना वो नौजवान गुस्से की नजरों से हुस्ना को देखते हुये वापस अपने टेंट्स में चला गया, उसकी चाल बता रही थी कि वो नशे में था। मैंने तुरंत उसे सम्भाला... बोली "चलो मैनेजर के पास, बात करते हैं!!" वो सहम कर बोली "नहीं मैडम जी, थम जाओ। "...
"अरे ऐसे कैसे, वो बतमीजी कर रहा था न तुम्हारे साथ, और कौन था, क्यूं कर रहा था ये सब?... आवेश मैं मैंने एक साथ उससे दो चार सवाल पूछ लिये।
"माफ करो मैडम जी आपको म्हारी वजह से परेशानी हुई, मैं ठीक हूं आप सोई जाओ"....
"अरे लेकिन!!"... मेरे फिर से बोलने पर वो मेरे पैरों की तरफ बढ गई और माफी के अंदाज में मुझ से चुप रहने का कहने लगी। हार कर मैंने उसका हाथ पकड़ा और उसे अपने टेंट्स में लेकर आई उसे बैठने का इशारा किया और एक गिलास पानी पिलाया उसका जी थोड़ा शांत हुआ तब मैं उसके सामने बैठी और उसके बोलने का इंतज़ार करने लगी।

"गरीब लोग हां मैडम जी कांई बताऊं आपने मजबूरी और लाचारी इंसान सू कांई कांई नी कराय देवे हैं आज जीवन री सबसू मोटी चोट व्हेई जावती अगर आज आप नी आवता तो!!..… मारो धणी एक नंबर रो नशेड़ी और अलमदार है । जिया जूण री खातर अठै नाच बा गाबा को काम करूं हूं बियान ही म्हारे समाज में लुगाया रो नाच गाणो अबखो कोनी मानीजे हैं... आदमी मारे सागे ही अठै आवे है, अबार नसा मायं कठैइ पडियो व्हेला!!"
एक सांस भर के वो फिर से बोलने लगी...
"अठै कने ही म्हारी ढाणी हैं मैडम जी, तीन टाबर है, सास सुसरा है। बाकी भी परिवार है। म्हारी सासू भी यो ही काम करती ही, पैला ऐ होटल‌ रिसोर्ट कोनी हा तो सड़का पर और ब्याव शादी मायं नाचता, अब ऐ ठौड़ नसीब हुयगी है। म्हारी छोरी भी यो ही काम करसी। पढण लिखण रो तो रिवाज इ कोनी म्हारे समाज मायं... नाच गाणो म्हारे कालबेलिया समाज को जीवन रो आधार है पर अब इणमें भी बहुत गंदगी आएगी है, आज म्हनै देख'र ऐ बारै सू आयोड़ा मिनख री नित खराब हुयगी, म्हारे धणी ने शायद पीसा को लालच दियो तो बो म्हनै इ कनै ओलावे सू भेजी, म्है सोच्यों रिसोर्ट रो कोइ काम व्हैला, पण यो तो आपरी खोटी नीति सारु म्हनै बुलायो हो... आप आयगा जणा इण री आगे हिम्मत नी पड़ी। अब अगर मेनेजर तांई शिकायत करस्यूं तो‌ म्हारों नाचबा गाबा को काम छूट जाई मैडम जी, आ पिसा वाला रो तो कोई किं नी बिगाड़ सके, पण म्हारे पेट माथै लात पड़ जाय। और कोई काम म्हनै आवै कोनी, और धणी म्हारो किं कमावै कोनी, टाबरा सारु, जीया जूण सारु ओ जहर तो म्हनै पीणो ही पडसी मैडम जी"...
और उसकी आंखों से गंगा जमना बह निकली। मैं हतप्रभ सी उसकी बात सुनती रह गई!! इतना कड़वा सच? और इसे समझ आ रहा है की इसके पति ने ही इसका सौदा किया है लेकिन फिर भी वह अपने पेट की खातिर मजबूर है मैं जड़ सी हो गई। हिम्मत जुटा कर मैं बस उसके कस कर गले लग गई। उसका रोना कम हुआ। उसकी आंखों की उदासी का राज मेरे सामने था। कितना खोखला समाज है, औरत की अस्मत का सौदा चंद रुपयों की खातिर!!... मुझे खुद को इंसान कहते हुये भी शरम आ रही थी। समाज का ये विभत्स रुप मेरे सामने आ कर मुझे झंझोड़ रहा था। रात सारी आंखों में कटी।

यायावरी मेरे लिये हमेशा जीवन के नये अनुभव बटोरने की कवायद रही है। और इस बार का अनुभव मेरे लिये मीठा कम और कड़वा ज्यादा हो रहा था। जहां और लोग अपने घूमने को ऐतिहासिक इमारतों और शानदार सुख सुविधाओं वाले होटलों तक सीमित रखते थे, वहीं मैं हमेशा कोशिश करती थी कि स्थानीय लोगों से परंपराओं से उनकी संस्कृति से वाकिफ होऊं। और इसलिए ही मैं हमेशा स्थानीय गांव ढाणियों या कस्बों में यूं ही चली जाए करती थी।

सुबह का सवेरा मेरे लिये नई रोशनी लेकर आया था। मन ही मन कुछ तय करके मैंने सबसे पहले अपने दोस्तों से दिल की बात शेयर की। हम जो होली डे प्लान करके यहां तक आये थे, अब हमारा मकसद बदल गया था। सभी मेरे साथ थे। मैं हुस्नां की ढाणी के बाहर खड़ी थी। दो चार छोटी छोटी ढाणियों (घरों) का समूह था वहां। अपनी अपनी जरूरत के कच्चे झोपड़े और ओरे बना कर उन्हें कांटेदार बाड़ की चारदीवारी से अलग अलग घरों का रुप दिया हुआ था। कांटेदार बाड़ को पार करने पर अंदर की कुछ ज़मीन रेतीली ही रखी हुई थी। उसके एक तरफ दो चार बकरियां, भेड़े बांधी हुई थी। एक तरफ छोटी सी पानी स्टोर करने की कुंड बनी हुई थी। आगे एक छोटा सा प्रवेश द्वार सा बना हुआ था, उस पर दरवाजा नहीं था, द्वार के दोनों तरफ की कच्ची दीवारों को सफेदी से पोत कर उन पर गेरु रंग से मांडने उकेरे हुये थे। मैंने आज तक ये सब शहरी होटलों के टीमटाम में ही देखा था जहां ग्रामीण छवि के नाम पर लम्बे चौड़े बिल ग्राहकों के बनाये जाते थे। उसके बाद साफ सुथरा कच्चा आंगन जो बहुत ही सलीके से गारे मिट्टी का निपा हुआ और उस पर भी मांडणौ को खूबसूरती से उकेरा हुआ था।

दो गोल झोपड़ों के पास एक लोहे के शेड वाला चोकौर कमरा सा बना हुआ था। मेरे सामने कल‌ का उसका सजा संवरा चेहरा सामने आ गया, अनपढ और गांव की होने के बाद भी उसके घर और उसके व्यक्तित्व की सुथराई और सलीके से मैं बेहद प्रभावित हुई। मुझे देखते ही वो झोपड़े में से निकल कर आई और अपने आटे सने हाथों को पोछंती सी बोली..."अरे मैडम, आप यहां, आओ आओ पधारो"...
वो जैसे अपने साधारण घर और रहन-सहन को लेकर मेरे सामने सकुचा रही थी, लेकिन मैं ने बढ़ कर उसे एक बार फिर से गले लगा गया। हम दोनों की आंखो का पनियलपन बाहर आते - आते रहा।
"हां, मुझे अच्छा लगता है गांव देखना, वहां के लोगों से मिलना, और तुमसे तो अब मेरा परिचय भी हो गया तो रिसोर्ट से तुम्हारी ढाणी का पता ले कर आ गई, ठीक हो तुम न?".... मैंने प्रत्युत्तर दिया।
"भलो करियो मैडम, हा ठीक हूं मैं, आवो बैठो..." उसने एक चारपाई आंगन के छायादार हिस्से में रखी और खुद पास ही नीचे बैठ गई।
"कुसमा, पाणी पा बेटा मैडम ने!..." उसने शायद अपनी बेटी को आवाज लगाई। बारह तेरह साल की लड़की पानी का लोटा ले कर आई।
"आ छोरी है म्हारी... सबसू बड़ी। दो टाबर और है जका अबार स्कूल गया है। "... मुझे अचम्भा हुआ... हुस्नां को देख कर लगा नही कि उसके इतनी बडी बेटी होगी!!
"तुम नहीं जाती स्कूल कुसमा?"...
"ना मैडम... आ तो अनपढ़ रैगी, पर अब चार पांच साल से पास वाली स्कूल में बौत अच्छा मैडम आयोड़ा है , वे टाबरा ने घर घर जाके स्कूल जावण री बात करे... अब तो घणा टाबर स्कूल जाबा लागगा है। "..…
और उसने मैडम की कई बातें बताई कि कैसे वो बच्चों की शिक्षा और हमारे स्वास्थ्य के लिये नर्स बैनजी के साथ मिलकर कई बार हमसे मिलती है, मीटिंग करती है, हमें सरकारी योजनाओं के बारे में बताती है। गांव ढाणियों की बहुत सी महिलाओं और बच्चों को उसने बहुत अच्छी अच्छी बातें सिखाई है।
"अब भी पढ सकती है ये!!"... मैंने कुसमा की तरफ देखते हुये कहा।
"ना ओ मैडम, छोटा टाबरा ने भेजूं वो ही जीव‌ जाणे मारो"...
"कौन है स्कूल की मैडम?, मुझे मिलवाओगी उनसे?"...
"हां ,हां जरुर... अबार इ चालो, अबार मैडम स्कूल मायं इ मिल जावेगी। "....
उसकी आंखो में उत्साह दिखा मुझे। मेरी भी उत्सुकता थी कि इतने पिछड़े एरिया में कौन मैडम है जो शिक्षा को लेकर, सामाजिक सरोकार को लेकर इतनी सजग है। और अपने कर्तव्यों के लिए समर्पित है। और मुझे मन ही मन आश्वस्ति भी हुई कि चलो मै जो सोच कर यहां तक आई हूं , उसके लिये मुझे नई राह भी मिल रही है। स्कूल पंहुचने पर पता चला कि मैडम आंगनवाड़ी का नया - नया काम शुरु करने वाली सम्मू की ढाणी कि तरफ गई है।

सम्मू की ढाणी कि तरफ जाते हुये हुस्नां ने बताया कि, हम कालबेलियों में लड़कियां नाच गाने का काम करती है लेकिन सम्मू मांगळियार समाज से है, इनके सिर्फ पुरुष ही बाहर गाना बजाना करते है, मांगळियारों की महिलाएं तो अपने पुराने जजमानों के यहां बस ब्याह शादी में बन्नडे़ गाने जा सकती है। बड़ी बहन के जाने के बाद सम्मू अपने ही बहनोई को दूजवर में ब्याही हूई है। बहुत समझदार और होशियार है सम्मू। पति को जैसे तैसे मना कर आंगनवाड़ी का काम करने लग गई है कुछ आमदनी हो जाती है तो घर घरस्ती की गाड़ी आराम से चल रही है उसकी। मै यहां कि महिलाओं की जीजिविषा और संघर्षों की कायल हो रही थी। सोचा इनके संघर्ष के आगे हम शहरी महिलाओं की समस्यायें कितनी गौण हो जाती है। बात करते करते सम्मू की ढाणी आ गई। सम्मू आंगन में स्कूल की मैडम के सामने पीढे पर बैठी थी। एक उम्रदराज महिला पास ही चारपाई पर लेटी हुई थी।
"राम राम मैडम जी".... हुस्नां ने हाथ जोड़ते हुये मैडम को कहा।
"अरे हुस्नां आज यहां, सब ठीक है न?"...
"हा मैडम जी सब ठीक है... मै जिस रिसोर्ट में काम करु न, वहां ये मैडम आये हुये है बड़े शहर सू, आपसू मिलणो चावता तो सागै आया है। "...
मैंने भी मैडम को नमस्ते कहां।
मैडम अपने पीढे से उठकर दो कदम चल कर सामने आई। हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुये बोली... " स्वागत है आपका, धरती धोरां में... मेरा नाम विमलेश है। स्थानीय स्कूल में अध्यापिका हूं। "...
"जी हुस्नां ने बताया अभी, और इसकी बातें सुनकर मुझे भी आपसे मिलने की उत्सुकता हुई, इसलिए ही आप के पीछे पीछे यहां तक आ गये। मेरा नाम स्निग्धा जायसवाल है। "... सम्मू के यहां चाय पीते हुए औपचारिक परिचय से आगे निकलकर अब हम चारों ऐसे साथ थीं, जैसे बरसों की जान पहचान हो। स्त्रियों को ये नैसर्गिक गुण भगवान जन्म के साथ ही दे देता है, पल की जान पहचान बरसों की पहचान में बदल जाती है। स्त्रियों की खुशियां दोहरी और दुख सांझे होते वक्त नहीं लगता है।

सम्मू के सास की तबियत थोड़ी नासाज लगी, उनको आराम करता छोड़ कर हम घर के आंगन को पार कर ढाणी के भी बाहर आ गये। मेरे सामने खुली रेतीली ज़मीन और खुला आसमान था। गुलाबी सर्दी की शीतल, मन को सुहाये ऐसी हवा थी, हम चारों ढाणी के सामने ही एक नीम की छाया में आ गये, साफ रेत पर बैठना मेरे मन को आह्लादित कर रहा था। बात करते-करते विमलेश मैडम ने अपने पर्स में से एक पैकेट निकाल कर सम्मू की मुट्ठी में पकड़ा दिया। मेरी नजरों की जिज्ञासा देख कर पूछने से पहले ही सम्मू खुद ही बोल पड़ी...
"टाबर नी होवण री गोलीयां है मैडम, पांच है घर में, और टाबरा रा के करणो है। "....मुझे उसकी समझदारी अच्छी लगी।
"यहां के स्वास्थ्य केंद्र में जो अभी नर्स मैडम है, वो बहुत समझदार और हेल्पिंग स्वभाव की है। उसे पता है कि बच्चे होना न होना, ये इन लोगों के घरों में इनके मर्द लोग तय करते है, तो बीच का रास्ता ये है कि जिस महिला को अपने अच्छे बुरे का थोड़ा बहुत भी ख्याल है, और जो ये बातें समझ जाती है कि ज्यादा बच्चों से घर भर के क्या करना है तो उन्हें मैं या वो खुद इस तरह से चुपचाप प्रिकोशन रखना समझा देते है। घर में भी शांति रहे, स्री के देह को भी थोडा़ आराम और शांति नसीब हो। ".... विमलेश मैडम ने एक सांस में मुझे सब बता दिया। मेरे लिये एक और अचम्भा था। खुद की देह, खुद की कोख पर ही खुद का अधिकार न होना!! हम कौनसी सदी में जी रहे हैं?
अभी तो सदियां लगेगी इस भयावह स्थिति से निकलने में?कितने कष्ट है हम स्त्रियों के भाग में?... मैं तो फकत एक ब्रेक अप से ही अंदर तक हिल गई थी? लेकिन ये तो खुद की सांसो का हिसाब भी खुद नहीं रख सकती!!
मैं तो महज रात की हुस्नां की बात सुनकर, उनके समाज के बच्चों, यहां के आस पास के जरुरत मंद लोगों और स्त्रियों के लिये शिक्षा व्यवस्था और कुछ बेसिक जरुरतों के लिये अपनी और से कुछ हेल्प करने का सोच कर आई थी, पर यहां तो अभी बहुत कुछ ऐसा है जिसके लिये काम करना होगा। मै मन ही मन कुछ प्लान करने लगी।
"विमलेश मैडम, आपसे एक बात साझा करनी चाहती हूं। "... मैंने विमलेश मैडम से कहा।
मैंने उन्हें बताया कि मैं यहां एक एन जी ओ स्थापित करना चाहती हूं, जिसमें आपका और नर्स मैडम का सहयोग विशेष अपेक्षित होगा... साथ ही हुस्नां और सम्मू का भी साथ चाहिए। मैं यहां के बच्चों और खासकर यहां कि महिलाओं के लिये काम करना चाहती हूं। मेरे साथ मेरे दोस्त भी सहयोग करेंगे और जमीनी स्तर पर हम साथ काम करेंगे। विमलेश मैडम मेरी बात सुनकर बेहद खुश हुई और बोली....
"स्निग्धा जी, बहुत कम लोग इस दुनिया में मनुष्य होने का फर्ज निभा पाते है। फर्ज निभाना तो दूर, किसी की पीड़ा समझना भी आज के इस समय में बहुत बड़ी बात है। और खासकर स्त्रियों की पीड़। उसके लिये वहीं मन चाहिये। देह का दर्द समय के साथ ठीक हो जाता है लेकिन मन का, अंतस का दर्द समझने वाले यहां बहुत कम लोग है। "....एक सांस को वो रुकी..… फिर अपनी रौ में कहती गई.....
"ये जो दूर तलक फैले हुये रेगिस्तान को देख रहीं है न आप, ऐसी ही है हम स्त्रियां भी.... इस रेगिस्तान का सा ही मन है हम स्त्रियों का। इसकी धडकनों को सुना हैं क्या कभी? सुन के देखना!!... आप उसमें स्रियों वाली एक दर्द, एक टीस भरी आवाज सुनोगे। उसकी ना पूरी हो सकने वाली अरदास को महसूसोगे। इस रेगिस्तान सी ही होती है हम, हमेशा दिखती है विस्तारित सी, दूर तलक फैली सी,जो सब कुछ अपने में सिमटा लेना चाहती है, पर अपने अंदर एक उदासी की चादर समेटे हुये रहते हैं हम दोनों ही। रेगिस्तान की ही तरह स्त्री के चाहने वाले भी बहुत है, लेकिन उसकी चाह को मिटा पाये ऐसा कोई नहीं। हर समय लगती हैं वो आबाद, सब से घिरी हुई, अपने लोगों से.... जो दिखने को तो चलते है उसके साथ.... पर असल में वो उस पर ही पंगडंडी बना कर निकल जाते है। जैसे उसके कलेजे के बीच एक सीमा रेखा निकाल कर उसे पाना चाह रहें हैं..... वैसे ही जैसे रेगिस्तान के सीने में बनती है पगडंडी। पर उसे सभी अनदेखा कर निकल जाते है। स्त्री के मन पर बनी रेख को भी, उसके दाझते कलेजे को सभी अनदेखा करते हुये चले जाते है। फिर भी आप इस रेगिस्तान की जिजीविषा देखिए ये आबाद हैं... बच्चो की किलकारियों से, घरोंदे बनाते मासूम बचपन से, अपने ऊपर चलते ऐवडो के झुण्डो से ठीक ऐसे ही स्त्री भी उसी जीजिविषा को सम्भाले अपने आप को पार करने की जुगत में रहती है। वो तृप्त होना चाहती है बच्चों और परिवार के साथ। .... पर जैसे नियत समय पर रेगिस्तान को छोड़ कर लौट जाते हैं राहगीर, बच्चे और ऐवड और रेगिस्तान फिर हो जाता है वीरान, सुनसान अकेला, एक दर्द भरी आह के साथ। .... तब वो लगता कुछ कुछ मुझे मुझ सा, आप सा, हम सब सा, हम सब स्त्रियों सा। .... जो अपने में बचता है कुछ ही, पर दिखता है फैला सा बहुत विस्तारित सा लेकिन जिसका सीना अंदर से सूना और खोखला है। .... एक ना पूरी हो सकने वाली चाह से भरा, टीस वाली धडकनों से भरा ...." बोलते बोलते विमलेश मैडम की आंखों से दो आंसू ढलक कर गिर गये।

हम चारों नि:शब्द न जाने कब तलक वहां बैठी रही। एक दूसरे के भीतर की दहकती ज्वाला को महसूसती। शाम ढलने लगी थी, हम चारों को ही फिर से अपनी अपनी राह जाना था, लेकिन जा कर‌ वापस भी आना था, वापस भी मिलना था। और अपने लक्ष्य को पाना था, नई मंजिल को ऊजला सवेरा दिखलाना था।
सूरज उगने के साथ नया सवेरा ले कर आता है लेकिन आज ये ढलती सांझ अपनी सुनहरी किरणों से आप पास की धोरां धरती को सोने सा चमकदार बना रही थी। चारों ओर फैली बालू रेत में मुझे रह रह कर स्वर्ण भस्म की चमक दिख रहीं थी और मेरे सामने खड़ी तीन आकृतियां जैसे उस स्वर्ण भस्म में नहाई हुई वो संन्यासिनियां थी जो अपने तप से इस आग उगलती धरा को शीतल ठंडक देने वाली आत्माएं हो।


- सन्तोष चौधरी
हिंदी / राजस्थानी, दोनों भाषाओं में समानांतर लेखन।

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