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गहना
बाहर
से थके झींगुरों की रुक-रुक कर आती आवाज़। अंदर सीलन भरे कमरे के बंद खिड़की,
दरवाजा और दो लोगों की साँसे इतनी उमस पैदा कर देती है की सुबह का बेसब्री
से इंतज़ार किया जाये। बिस्तर पर पड़े-पड़े अपने घाघरे को उसने टखनो तक किया
और बेसुध से हाथ को अपनी छाती से हटाया। तखत से उतरते हुए रात भर की मसली
हुई देह कुछ काँपी। चोली के आगे के बटन बंद करती हुई वो खिड़कीनुमा झरोखे तक
पहुंची और दोनों किवाड़ खोल दिए। सूरज आया नहीं था लेकिन दस्तक दे चुका था।
काले आसमान में सिंदूरी सा रंग बिल्कुल उसके चम्पई रंग की तरह। कमर तक
झूलते बालों को जूड़ेमें बाँधती बगल के ताखे से बीड़ी का पैकेट उठा कर आज के
दिन का पहला कश लगाया।
ज़िन्दगी उसे सुलगाती और वो बीड़ी को ज़िंदगी समझ फूंकने पर आमादा रहती।
पौ फटे सुलगती बीड़ी में वो क्या फूँक रही थी ये वही जाने लेकिन निगाह दूर
कहीं अटकी थी। हालाँकि उसके उस झरोखे से दुनिया नज़र नहीं आती थी। उसकी
देखने की भी हद बंधी थी। आसपास की गलियाँ, कुछ और चाल, खोलियाँ, पान सिगरेट
की दो चार खोखे और एक अकेली चाय की दुकान।
और इसके आगे? इसके आगे निगाह थम जाती क्योंकि ये बड़े शहर की तंग गलियों की
वो एक गली जहाँ दिन सन्नाटे में गुज़रता और रात रौनके लाती थी। शहर की बदनाम
गली। बदनाम इसलिए की वहाँ "फ़िज़ूल की" घिनौनी चीज़ों का बेशर्मी से धंधा होता
था। बेलौस बेचनेवाले और बिंदास खरीदने वाले।
सोनागाछी।
सोना गाज़ी से सोना गाछी और फिर 'रेड लाइट एरिया ',लेकिन हर हाल में अलग अलग
रंगो में डूबी। किसी शायर ने क्या खूब कहा है -
“ये दुनिया दो रंगी है
एक तरफ से रेशम ओढ़े एक तरफ से नंगी है
एक तरफ अंधी दौलत की पागल ऐश परस्ती है
एक तरफ जिस्मों के कीमत रोटी से भी सस्ती है
एक तरफ है सोनागाछी एक तरफ चौरंगी है”
और इस सोना गाछी के लाल बाड़ी में बीड़ी फूंकती वो हद के उस पार सूरज की
रौशनी को ताकती।
"उम्म गहना कितनी बार कहा है की नींद में तुझे छूने की तमन्ना लिए सोता
हूँ। एम्नि कोरे उठे जेओ ना!" । बिस्तर पर करवट बदलते उस आदमी की नींद में
भरी आवाज़ पर उसने मुड़ कर देखा। एक लम्बा कश लगा कर बीड़ी झरोखे के बाहर फेंक
बोली ,"छूने के जितने पैसे दिए थे उतने पूरे हुए। ओठो एबार, आराम कोरबो । "
हलकी रौशनी में उसका चम्पई रंग खिल रहा था। टखने तक घाघरा और चोली का कसाव।
कमर पर ऐसा बल पड़ता था मानो कोई पहाड़ी नदी घुमावदार मोड़ से किसी और तरफ को
चली हो। बड़ी बड़ी गहरी भूरी पनीली सी आँखें बिल्कुल जैसे चाँद रात में हुगली
का पानी।
आँखों को बमुश्किल खोलते हुए उसने हाथ बढ़ाया ,"एदीके आशो ना उठ क्यों गयी
?"
"बीवी नहीं हूँ तेरी जो गीले बाल से उठाती तुझे। ओठ तोर टाइम खेल्लास"
अंगड़ाई लेते हुए उसने बड़ी ढिठाई से कहा ," बोउ ना होली तो की होलो रानी,
रात तो शोंगे ई काटे, एदीके आये इधर तो आ। " यह कह वो तख्त से उठ कर दो कदम
में उसके करीब पहुंच गया। उसकी कमर पर अपने हाथ को लपेटते और गले चूमते हुए
बोला ,"तोर थेके मोन भौरे ना"
उसके बालों की खुशबु को भीतर तक महसूस करते हुए बोलै ," इसीलिए तो दो
ग्राहक के पैसे देता हूँ की रात नहीं तुझे यूँ सुबह एक बार छू के याद कर
सकूँ। "
"ज़यादा हीरो मत बन! जामा पौरो आर बेरोओ एखान थेके"
उसे बाहों के घेरे में रखे हुए ही वो बोला , "एक कप चाय तो पिलवा दे। फिर
सीधे निकल जाऊंगा अपना झोला ले कर। "
उसने उस आदमी को घूरते हुए झरोखे से आवाज़ लगायी ,"छोटू ! एई छोटू "
"की होच्चे की ?? भोर बेला ऐतो चीत्कार !" कोई अड़तालीस पचास के बीच की अधेड़
उम्र की औरत। बीती रात का गजरा और होठों पर पान और लिपस्टिक की मिली जुली
लाली। गदरायी देह और चेहरा मोहरा साधारण या शायद उम्र के साथ ढल गया। अपने
समय पर यकीनन सुंदर रही होगी।
गहना को एहसास हुआ की ये धंधे के बाद आराम का समय है और इसी में इतनी
चिल्ल्पों अच्छी नहीं। झरोखे से झांकते हुए बोली,"ओ बोउदी दूटो चा चाई। वो
छोटू के हाथ भेजो न!"
अपने नींद से सूजे चेहरे पर किसी भद्दी गाली को रोकते हुए बोउदी के चेहरे
की मासपेशियां खिंच सी गयी ,"होटल नहीं है। धंधा है। पैसे लगेंगे बोल दे
हुंह "मुंह बनाती पोलिस्टर की साडी का पल्लू कमर में खोसते हुए वो भीतर
गयी।
"ये बोउदी हमेशा ऐसे ही रहती है"?
" कैनो ??सही तो बोली। धंधा करते हैं और उसमे ये चाय पानी नहीं आता। वो तो
तू है वरना खेल खत्म पैसा हजम और मेरा कमरा खाली करो"
ये बोलते हुए वो वापस तखत के अपने बिस्तर पर जा कर बैठ गयी। कुल दस बाई आठ
का कमरा। नीले रंग में रंगा हुआ। दीवारें खाली थी। औरों की तरह उसने
कैलेंडर नहीं सजाये थे। दिवार का बड़ा हिस्सा सीलन के कारण गहरे रंग का
दिखता और कुछ-कुछ जगह प्लस्तर उखड़ गया था। एक के ऊपर एक दो बक्से और एक
अलमारी भी थी। तिपाई पर सुराही गिलास। एक बड़ा सा आइना था और उसके नीचे लकड़ी
का शेल्फ नुमा हिस्सा उसे टेबल का सा एहसास दे रहा था। कुछ लिपस्टिक पाउडर
श्रृंगार का सस्ता सा सामान। पलंगनुमा तखत जिस पर चटक रंग की चादर बिछी थी।
मटमैंले कवर की दो तकिया। कमरे में साँस की वजह बनती खिड़की। जहाँ वो अब तक
खड़ी थी और अब पैर हिलाती हुई बेफिक्री से उस मींजे हुए बिस्तर पर पूरे ठसक
से बैठी थी। जूड़े के बंधे बालों से एक लट कंधो पर खेल जाती थी।
"अरे पता तो है न तुझे। अकेली जान और ये झोला मेंरा दफ्तर। तेरे पास चाय पी
कर बस निकल जाऊंगा चिठ्ठी बाँटने। सुबह-सुबह ये काम फिर सूरज चढ़ने से पहले
ही डाकखाने चला जाऊंगा। पकाऊँगा खाऊँगा चिठ्टियां छाटूँगा "
"ऐई दीदी तोमार चा"
"हम्म एखाने राखो "
कोई दस बारह बरस का लड़का डाक बाबू की अबाध गति को तोड़ता हुआ दो कप चाय ला
कर रख गया।
"पान कौरो तोमार चा "
"हम्म ", खिड़की से आती सुबह की ताज़ी हवा में गहना की तलब डाक बाबू को चाय
से ज्यादा थी। लेकिन वो ठहरी धंधे की पक्की। उसका टाइम खतम हो गया है। वो
तो डाक बाबू ख़ास ग्राहक है इसलिए चाय मिल गयी। ख़ास क्योंकि एक ही आदमी दो
ग्राहक का पैसा देता है।
डाकबाबू कोई बत्तीस तैतीस बरस के हैं। पका रंग, कुछ भूरे से बाल। कद काठी
में भी साधारण किन्तु गठन अच्छी है। यहाँ से बीस किलोमीटर दूर एक गांव के
डाकघर में डाकबाबू हैं। चिठ्ठियाँ बाँटने का काम है उसका। और यहाँ वो
चिठ्ठी देने और अपने हिस्से की ख़ुशी लेने आता है। पूरी तरह अकेला है।
दक्खिन दीनापुर के पास के गाँव में ज़मीन थी। माँ बाबा थे नहीं सो ज़मीन बेच
कर बहन की शादी कर दी और इधर नौकरी वाले गांव में ज़मीन ले कर एक कमरा बना
लिया। बहन से सात पूजा पहले मिला था। खाना बनाना जानता है और औरत की कमी
यहां पूरी हो जाती है और बाकि दिन वो और उसकी चिठ्ठियाँ। घर-घर जाता है।
चिठ्ठी बाँटता और बांचता। झाल-मूडी केला के नाश्ते के बाद जब कोई पूछता है
,"चा खाबे दादा ?" तो वो मना नहीं करता। कभी कभी शाम को अपने लिए पाव भर
झींगी भी ले जाता है। झींगी माछ और भात उसके मन का भोजन है। मीठे में यदा
कदा बड़े असामियों के घर मिष्टी दोई आर शौन्देश भी मिल जाता है। कुल मिला कर
जीवन ठीक है। न अधिक की चाह न दुग्गा माई से कोई शिकायत।
तखत पर पैर हिलाती हुई गहना डाकबाबू के झोले को देखने लगी।
"कितना अजीब है न। तुम झोले भर के हंसी ख़ुशी रोना दुःख सब ले कर चलते हो और
जिसके हिस्से जो आय उसे सुना देते हो। ' झोले को खंगालते हुए वो बोली।
फूंक मार कर गर्म चाय का घूंट भरते हुए डाकबाबू हंस पड़ा " बाह ऐक बैश्या
जीबोनेर कौथा बोलचे!"
चिठ्ठियों के एक गठ्ठर को उठाते हुए ,एक लम्बी श्वास छोड़ते हुए वो बोली "
कैनो ऐक बैश्यार मोन होये ना बुझी?"
"मन ? बेश्या के लिए मन का क्या काम "??चाय के कप के ऊपर से डाकबाबू की नज़र
गहना के चेहरे पर गड गयी।
"हम्म सच है। बेश्या मन की करे तो तुम जैसे आदमी महीने के १५ दिन भूखे जाये
यहाँ से "
इस जवाब के आगे डाक बाबू के पास कोई और सवाल न था। औरत की देह से परे ह्रदय
मस्तिष्क की बात समझने लायक बड़े बड़े पढ़वइया नहीं होते ये तो फिर भी बस कुछ
जमात पास कर डाक बाबू थे।
वो मुस्करा कर चाय के साथ गहना को पी रहे थे।
"ये चिठ्ठीयां अलग क्यों है? "
"ये? इनके पते गलत हैं। "
"तो?? अब क्या करोगे?"
"साल दो साल रखूंगा फिर हुगली में बहा दूंगा "
"ओह निष्ठुर! ऐसे कैसे हुगली में बहा दोगे? पढ़ के तो देखो? जोदी किछु
गुरूत्तोपूर्णो हौये "
"हाहाहा, तुमि पोढ़बे?"
डाकबाबू का मज़ाक में कहा ये वाक्य मानो किसी ने शांत पानी में कंकर मार
दिया हो और शांत झील में अचानक लहरें उठ गयीं हो। कुछ ऐसे ही भाव उसकी गहरी
काली आँखों से उतर कर चेहरे पर बिखर गए। किसी और की चिठ्ठियाँ पढ़ने में
क्या मज़ा आएगा ये डाकबाबू सोच ही रहे थे की गहना का मनुहार कानो में पड़ा।
"हाँ न , आमी जानी। बचपन में सीखा था पढ़ना। मुझे दे दो न ये चिठ्ठियाँ।
सालों गुज़र गए कुछ पढ़े हुए। " गहना को यूँ चहकते हुए उसने कभी न देखा था।
"अच्छा तो तुझे पढ़ना है? ऐसे बोल न। ले आऊंगा तेरे लिए मनोहर कहानियाँ।
दूसरों की ज़िन्दगी को क्या पढ़ना?"
"ना, आमाके एई चाई। दे दे न। हुगली के पानी में बहने से तो अच्छा है?" गहना
मनुहार बोली।
डाक बाबू चाय का कप रख, शर्ट पहनता हुआ गहना के करीब आया, और उसके होठों पर
अपने होंठ बड़ी बेचैनी के साथ रखे। बीड़ी सिगरेट और कल की शराब की गंध सब थी
उस चुंबन में। शायद ये चुंबन उस चिठ्ठियों के गठ्ठर की कीमत था। वो धंधे की
पक्की थी। लेन-देन दोनों में चूक उसे पसंद नहीं थी। गहना ने इत्मीनान से
उसे चुंबन पूरा करने दिया और फिर उसके हटते ही हांफती हुई बोली ,"आमी
राखछी!"
ये कहते हुए, इठलाती हुई दरवाज़े तक गयी। किवाड़ खोल कर वहीँ खड़े-खड़े डाकबाबू
के जाने का इंतज़ार करने लगी। उन चिठ्ठियों की वैसे भी कीमत हुगली में बह
जाने भर की थी या फिर कभी चूल्हे में लकड़ी कम होती तो शायद आग के हवाले हो
जाती। सारी अगाड़ी पिछड़ी सोच और कीमत से अलग कुछ उपहार दे पाने का दम्भ,
डाकबाबू की चाल में दिख रहा था। किवाड़ पर उसके जिस्म पर एक आखिरी बार हाथ
फेरते हुए वो अपना झोला उठाये अपनी ज़िन्दगी में चला गया।
गहना ने दरवाज़ा बंद किया और बिस्तर पर उन चिट्ठियों के साथ ही औंधे मुँह आ
गिरी।
कुल बीस-बाइस चिठ्ठियाँ थी और कुछ पोस्टकार्ड।
प्रोनाम बाबा ,
तुमि कैमोन आछो?
कॉलेज की फीस.........
इतना पढ़ते ही वो पोस्टकार्ड परे कर दिया।
प्यारी सुमि ,
आशा है तुम ठीक होगी। माँ बाबा कैसे है? सबका ख्याल रखना। पैसे भेजे थे
मिले...............
अगला पोस्टकार्ड भी इतना ही पढ़ परे रख उसने अन्तर्देशी पत्र खगालने शुरू
किये। कुछ में बांग्ला में पते लिखे थे। अचानक उसकी नज़र एक पत्र पर पड़ी
जिसकी लिखावट सुंदर थी। सुंदर अक्षर जैसी गोल गोल मोती। उसने पत्र उठाया और
सील फाड़ कर पढ़ना शुरू किया।
प्यारी अमु ,
एइटा आमार तृतीयो चिठी। पता नहीं तुमको पहले दो पत्र मिले या नहीं।
तुमि कैमोन आछो। तुम भूली तो नहीं हो न मुझे? बचपन से आज तक तुम्हारे अलावा
कोई और दोस्त नहीं बन पाया। पिताजी के साथ इतने शहर में रहा लेकिन वहाँ
जैसा कहीं नहीं। बचपन के तमाम खेल याद आते हैं। बच्चे नहीं अब लेकिन कुछ है
जो आज भी वही है। तुमको ढूढ़ने की कोशिश में ये पत्र लिख रहा हूँ की तुम एक
का तो जवाब दोगी।
अच्छा काकी माँ कैसी है? और काका? आज भी तुमको शोनामोनी बुलाते हैं?
शोनमोनी तुमि किन्तु आमार जोन्नो शौरबोदा मिष्टी थाकबे।
तुमि की जानो, तोमार पोरे केयू आमाके छोटोन बौले नी!
मिष्टी एबौम छोटोनेर ऐक बार, देखा दौरकार।
पत्र मिलते ही एक बार ही सही जवाब देना। दस साल गुज़र गए है , दस पूजा।
तुम्हारा अबीर
ये पत्र गहना पढ़ रही थी या उसमे डूब रही थी, या की उस पत्र के बीते सालों
में झाँकने की कोशिश में थी कहा नहीं जा सकता। उसने पत्र को दो-तीन बार
पढ़ा। एक ठंडी आह भर वही मसले हुए बिछौने पर आँखें मूँद लेटी रही। कभी-कभी
कुछ पा कर न पाने का मलाल और गहरा हो जाता है। कुछ था इस पत्र में जो गहना
की नींद से भारी पलकों को भी झपकने से रोक रहा था। आँखें बंद किये हुए ही
गहना बीते सालों में विचरती रही।
पूर्वांचल के किसी गाँव की धूमिल होती तस्वीर। जेठ महीने में गेहूं के कटाई
के बाद अलसाये से दिनों में अमराई में बीतता बचपन। जैसे कोयल की कूक से
आमों के पकने का एहसास हो जाता है शायद वैसे ही चेहरे की लुनाई, गदराया बदन
लड़की के कैशोर्य की महक अगल-बगल देता है। धनवान के वैभव और दरिद्र के घर की
बेटी पर सबकी नज़र रहती है । दरिद्रता दूर करने ही उसे इतनी दूर शहर में
बाबू साहब के घर काम करने भेजा गया था। तब कुल तेरह बरस की थी।
ये सोचते सोचते उसने एक बेमन सी करवट ली। आँखें बंद कर नींद से झगड़ती हुई
सी, फिर ख्यालों में खो गयी।
उस घर से बेश्यालय का सफर मानो ज़िन्दगी को थामे रखने की आखिरी लड़ाई थी।
लड़ाई, जो वह हार गयी थी। सलांखों के पीछे से ज़िन्दगी छूटती हुई नज़र आती थी।
अब एक नया जीवन शुरू हुआ था जहाँ वह गहना थी। गहना, जिसे हर कोई एक बार
अपने शरीर पर देखना चाहता था। खेत, अमराई और वो पुरानी गहना सब सायों में
बदल गए।
आज दस बरस से ज्यादा हो गए लेकिन वो धूमिल से साये पीड़ा देते है। उम्र की
दहलीज़ कब तेरह से सोलह पर आयी और कब बीस पर उसे पता नहीं चला। वासना के हर
रूप को देखती-समझती साल दर साल आगे बढ़ते जीवन में प्रेम की आस से ज्यादा
उसे कभी न महसूस कर पाने की टीस थी।
नींद से बोझिल गहना और रात भर के बरसे पानी से उपजी उमस! बीते वक़्त की
बेचैनी में फिर करवट बदली और माथे पर हाथ रख सूरज की रौशनी को मिचमिचाती
आँखों पर ही रोक दिया।
"प्रेम !
आह कितना सुंदर शब्द।
लेकिन क्या होता है प्रेम? डाक बाबू भी तो कहता है की मुझसे प्रेम करता है
तो उसे देख हुलस क्यों नहीं उठती? और वो? या उस जैसे सभी मेरी देह से
खेलते, उसे भोगते, मसलते पर मेरे लिए तरसते हैं? मैं नहीं तो कोई और!! मुझे
क्यों नहीं मिला कोई ऐसा प्रेमी जो मेरे लिए..... और ये अमु? ये कैसी होगी?
मेरी जैसी या मुझसे रूपवान?? अबीर !! कैसा होगा वो पुरुष जो मात्र एक अमु
को खोज रहा है। मुझे किसी ने कब खोजा?" यही सब सोचते सोचते, सुबह से कब
दोपहर हुई नहीं पता।
दिन के उजाले में लाल बाड़ी भी आम घरों सा लगता। ढेर से घर के लोग और सबके
अपने-अपने काम। इस घर की मालकिन बोउदी! कब इस घर में आयी नहीं पता किन्तु
अब वो ही चलाती है ये घर। गहना जैसे कुल तीस पैंतीस औरतें और करीब पंद्रह
बच्चे। सबके अपने काम तय थे। साफ सफाई के लिए मेहतरानी आती थी और खाना
पकाने के लिए बूढी काकी के साथ कुछ उम्रदराज़ हो गयी औरतें। अब वो मात्र
बेडौल जिस्म थी जिन्हे पेट पालने के लिए कुछ करना था। हाँ, खूबसूरत लड़कियों
का ख़ास ख्याल रखा जाता था क्योंकि उनकी मांग ज़्यादा थी। बस यूँ समझ लें की
जैसे बाजार में जो चीज़ ज़्यादा बिकती है वो ख़ास हो जाती है।
गहना ख़ास थी। तराशा हुआ गदराया बदन, बेलौस अदा और अपने जिस्म के जादू का
पूरा अंदाज़ा। औरत को जब एहसास हो जाये की वो अपने जिस्म से जिसे चाहे उसे
बांध सकती है तो वो विश्वास एक अलग सा जादू भर देता है उसमें। दुनिया जीतने
की ताकत। भले ही वो दुनिया, सोनगाछी के लाल बाड़ी की दीवारों के बीच ही हो।
ये गहना की अपनी दुनिया है। दोपहर बाद नहा धो कर, गीले बालों को लाल गमछे
में लपेट सूती साडी पहने किसी आम से घर की लड़की दिखती। आज मन कुछ उद्धिग्न
था।
अमु मैं क्यों नहीं ?
अबीर सा कोई मेरा क्यों नहीं। ये विचार किसी मकड़जाल सा उसको घेर रहा था।
आज शाम से रात कब हुई नहीं पता।
खिड़की पर बैठे हुए आज गहना कहीं और ही थी। उसके उखड़े से मिजाज़ को देख बोउदी
ने वहीं नीचे से गोहार लगाई " की रे? तोर शोरीर भालो लाग्छे ना? डाक बाबू
औनेक खाटियेचे रात्तिरे बुझी?"
आसपास भी कुछ दबी-सी खिलखिलाहट सुनाई दी। आने वाले भले ही उन्हें जिस्म से
ज़्यादा कुछ नहीं समझते थे लेकिन इन जिस्मों में दिल था जो कभी-कभी मन
बहलाने की खातिर हंसी ठिठोली कर लिया करता था। किन्तु आज? हंसी से मानो
उसकी तंद्रा टूटी और एहसास हुआ की शाम हो आयी है। खिड़की पर आसमान का टुकड़ा
पिघले सोने से रात्रि की कालिमा की ओर बढ़ चला है। लाल बड़ी में चहल पहल बढ़
गयी है। नीचे बिजली के बल्ब में कुछ चेहरे सारी परेशानियों को ताक पर रख
चमक रहें हैं। फिर एक रात। फिर एक ग्राहक और कल फिर एक सुबह। रात न सही
सुबह बदली जा सकती है। उसने छोटू से बोल कर एक कॉपी और पेन मंगवाया।
"तुमि की लिखबे?"
"किछुई ना, आंकबो। कारुक्क़े बोलो ना! ये कहते हुए उसने पांच का एक नोट छोटू
के हाथ में थमा दिया। छोटू खुश था क्योंकि कॉपी पेन तो तीन रूपये में आ
जायेगा बाकि के २ उसके!
आज की रात गहना पर उतनी भारी नहीं थी। वो हर पल अबीर को सोच रही थी और खुद
ज़रा-ज़रा सा अमु हो रही थी।
आज कुचला हुआ बिस्तर उसे अखर नहीं रहा था। सुबह हो चुकी थी। थकी मसली देह
से भी वो पन्ने पर बड़ी एहतियात से अक्षर बना रही थी।
"प्रियो छोटोन ,
ऐतो बौछोर पौरे, तुमि कैमोन आछो? घर पर सब कैसे हैं?
मिष्टी के मोने आछे?
आर की मोने पौड़े ओर बैपारे?
तोमार चिठिर औपेक्खाये
मिष्टी
एक ही दिन में वो गहना से अमु और अमु से मिष्टी हो गयी थी।
पत्र के ये कुछ अक्षर मानो गहना को साँस दे रहे थे। वो चाहती थी इस श्वास
की सुगंध उस तक पहुंचे जिसके लिए वो बदल गयी। आज रात डाक बाबू आएंगे। आज
खूब अच्छे से तैयार हो कर डाक बाबू को रिझा लूँगी। एक पत्र ही तो डालना है।
भला पहुंचेगा कहाँ। और पहुंच गया तो? अबीर ने मुझे पत्र का उत्तर दिया तो?
उत्तर? मुझे या अमु को?
नहीं नहीं मुझे ही! आखिर पत्र मैंने लिखा है।
पूर्णिमा के ज्वर भाटे सा कोलाहल था ह्रदय में। आज वो खूब करीने से तैयार
हुई। लहंगा छोड़ कर चौड़े पाड़ की साड़ी पहनी। होठों पे लाली बड़ी बिंदी। कोई
ज़ेवर नहीं। चोली की डोरियां और कमरबंद, डाक बाबू की मशक्क्त के लिए बस इतना
काफी था । कमर तक लहराते बाल, आँखों में अपने मन की करने की लालसा। आज
गहना, वास्तव में गहना थी। डाक बाबू यहाँ कई सालों से आते थे। गहना को
तकरीबन डेढ़ साल से जानते हुए भी, आज उसका रूप उनकी आँखों में नहीं समा रहा
था। बाहर बरसात के बाद की निशब्दता, झींगुरों की आवाज़ से टूट रही थी और
भीतर गहना की साँस उसके कमरे की दीवारों से टकरा रही थी। लालबाड़ी में पहली
बार उसे अपने नारीत्व का एहसास हुआ। किसी और अबोले नाम और चेहरे से आज वो
प्रेम कर बैठी। आज डाक बाबू अबीर थे और गहना अमु।
कमर के मोड़ पर डाक बाबू का हाथ और उनकी छाती पर उसका सर। सुबह नींद कुछ इस
हालत में टूटी। गहना खुश थी। बहुत खुश। वो अपने पत्र की कीमत अदा कर चुकी
थी। उसका पत्र अब अबीर तक ज़रुर पहुंचेगा। यह विचार मात्र की उसकी देह को
फूलों सा हल्का किये देता था।
आज रोज़ की तरह वह खिड़की से बाहर ताकते बीड़ी नहीं पी रही थी बल्कि बेचैनी से
डाक बाबू के उठने का इंतज़ार कर रही थी। आज उसे अपना पत्र भेजने का इंतेज़ाम
करना था। बीती रात कुछ नशे सी अब भी आँखों में थी। डाक बाबू नींद में गहना
को टटोलते हुए बोले ,"कितनी बार कहा उठ के मत जाया कर। "
आज गहना ज़बान पर मीठे पान की मिठास लिए हुए थी," ओ, आमी छोटू के चा आन्ते
बोल्लाम"
"बाह, किछु पोरिबौरतोन होएछे" मुस्कराते हुए अधखुली आँखों से गहना को देखा।
गहना वहीँ खिड़की के बाहर आसमान के टुकड़े को ताकते हुए उस परिवर्तन को
मुठ्ठी में भींचने की कोशिश में थी। रोज़ की तरह छोटू चाय रख कर चला गया।
डाक बाबू भी मानो कल की गहना से निश्चिन्त हो गए थे। स्त्री का सम्पूर्ण
समर्पण पुरुष को अजब निश्चिंतिता दे देता है। चाय खत्म करते हुए गहना ने
पत्र डाक बाबू की तरफ बढ़ाया।
"आपनी की एइटा पोस्ट कोरे देबेन?"
"चिठी? तुमि काके चिठी लिखले आबार?"
गहना ने इठलाते हुए कहा ,"हम्म आमी बेश्या, आमी काके लिखबो? आमियो किछु
बिनोदना चाई "
"माने"
"ओह्हो, तुमियो! एई चिठी टा पुरोनो, आमि जोदी एकटा चिठिर उत्तौर दी तो खोती
टा की ??" यह कहते हुए डाक बाबू के करीब आयी गहना ने चिठ्ठी झोले में डाली
और उनके होठों पर अपने होठों की मुहर लगा दी।
अब चिठ्ठी पर डाक टिकट भी लग चुका था और डाक बाबू कोई सवाल करने की हालत
में नहीं थे। डाक बाबू और चिठ्ठी दोनों ही अपने गंतव्य की और चल पड़े। इधर
कुछ दिनों से गहना का मन उचाट हो आया है। रोज़ के ग्राहक रोज़ की बीड़ी। डाक
बाबू का हफ्ते में दो बार आना और उसकी उम्मीद का दो बार टूटना। इतनी जल्दी
थोड़े ही न आते है पत्र। अरे कहाँ कोलकाता कहाँ मिदनापुर। यही था न पता? सही
तो लिखा था। अक्षर उल्ट पलट तो नहीं कर दिए थे? कितना कुछ यूँ ही आषाढ़ के
बादल की तरह बिना इत्तला दिए चला आता उसके ज़हन में। न रात न दिन। समय की
सुध नहीं बस प्रतीक्षा!
कुल मिला कर एक माह से अधिक हो गया था। जेठ आषाढ़ सावन लगने वाला था। कितने
सावन बीते गहना को कभी बदली हुई हवा का एहसास नहीं हुआ किन्तु इस बार। बिना
प्रेम के विरह का स्वाद! गहना एक मृगतृष्णा के पीछे भागते हुए अब दूर निकल
आयी थी। सावन मास को लगे दस दिन से ऊपर हो गए थे। घर गृहस्ती वाले आने वाले
त्यौहार के दिनों को गिनने लगे थे। लाल बाड़ी पर मौसम का असर नहीं पड़ता था।
भूख पर भला किस का बस? पेट की हो या देह की उसे मिटाने का कोई रास्ता निकाल
ही लेता है आदमी। शाम के धुंधलके में कुछ बूंदा-बांदी का संयोग था। खिड़की
पर बैठी गहना आज ,"मैं अमु क्यों नहीं ", की बेचैनी से निकल, "मैं अमु
नहीं", की पीड़ा की छाया में थी। दूर कहीं बाउल एकतारे की धुन पर गीत गा रहा
था।
"बेला गेलो ओ लोलिते किषना एलो न "
पीछे से आयी आवाज़ ने उसकी तंद्रा को तोडा, "मुझे याद कर रही है?"
डाक बाबू को देख सहसा एक उम्मीद की लौ जली और उसी तेज़ी से बुझ भी गयी।
" देखबे ना तोमार जोननो आमी की निये एशेचि?"
"की?? दैखाओ"
डाक बाबू ने कमीज़ उतारते हुए उसकी तरफ एक लिफ़ाफ़ा कर दिया।
"पत्र! मेरे लिए अबीर का पत्र। किन्तु अभी कैसे पढ़ूँ?" लिफाफा हाथ में लेते
हुए ये ख्याल गुज़रा और इससे पहले की गहना कुछ कहती या करती उसकी देह पर डाक
बाबू का भार था। पत्र को मुठ्ठी में भींचे हुए वो शरीर छोड़ मानो फिर खिड़की
पर खड़ी हुई। आज फिर रात भारी थी। एक एक पहर गिनती हुई गहना आज तड़प उठी थी
बेबसी पर।
रात खत्म होने को थी और दिन अभी शुरू नहीं हुआ था। अपने अस्त व्यस्त लँहगे
को समेटते गहना अपना प्रथम "प्रेम पत्र " पढ़ने बैठी। मध्दम रौशनी में उस
लिफ़ाफ़े में किसी का स्पर्श सहेजा हुआ था।
"प्रिय मिष्टी ,
तोमाके कि भाबे बोलबो?
आमी तोमार चिठी पेये खूब ख़ुशी।
घर में सब ठीक हैं। माँ बाबा के साथ ही रहता हूँ। बड़ी माँ नहीं रही। याद है
न? तुमसे बहुत प्यार करती थी वो। तोमार की मोने आछे? आमार चे ओ बेशी मिष्टी
तोमाके दितो!?"
तुम्हारे घर में सब कैसे हैं। काकू काकी माँ, दादा .... तुम ?
तुम कैसी हो अमु?
मेरी याद आती थी कभी? कितना खेलते थे हम! सब समय साथ गुज़रता था। बारिश में
तुम्हारे साथ भीगना आज भी सबसे सुंदर याद में से एक है। लगता था कभी अलग ही
नहीं होंगे किन्तु।
i hope choton is still special to you आसा कोरी छोटोन ऐखोनो तोमार जोन्नो
बिस्सेषो
बचपन के साल बहुत जल्दी बीत गए और अब लगता है की कुछ पीछे रह गया। एक बार
मिलना चाहता हूँ।
अमु मुझे एक बार मिल लो। पूजा आने वाली है। मैं कोलकाता आऊंगा तब।
मिलोगी मुझसे ?
उत्तर की प्रतीक्षा में।
तुम्हारा छोटोन
सुबह हो चुकी थी। बाहर की ताज़ा हवा कपाँती हुई उसकी देह छू कर गुज़र रही थी।
खुली केश राशि उसके चेहरे को दोनों ओर से ढंके हुए, जैसे काले बादल चाँद को
ढकने का असफल प्रयास कर रहे हो। उसके चेहरे पर बेचैनी और पीड़ा की जगह अब
इत्मीनान और ख़ुशी ठहरी थी। आज वो प्रेम के पहले स्पर्श को भीतर तक महसूस कर
तृप्त थी। खिड़की से छनते हुई सूरज की रौशनी में उसका सौंदर्य अलौकिक था।
चिठ्ठी को तह बना कर चोली के भीतर रख वो बिस्तर पर आयी। सलवटों भरा बिस्तर
और रात भर की भोगी देह को भूल वो एक-एक शब्द का उत्तर मन ही मन दोहराते हुए
सो गयी।
"आमार प्रियो छोटोन ,
सोचती थी इस बार फिर सावन आ कर भी नहीं आएगा। तुम्हारा पत्र सावन को ले कर
आया है।
तुमसे मिल कर एक बार फिर साथ में बादल बारिश और बूंदे देखनी है।
माँ बाबा दादा सब ठीक है।
और मैं....
छोटोन जो छूट गया उसे ढूंढने, आमादेर ऐ क बार दैखा कौरा उचित। नोबोमि पूजा
दिने?
बिशर्जन बेला।
one more thing send letter to nearby shop. i will collect . आर ऐकटा
जिनिश, चिठीर नोतून ठिकाना दिच्ची, ओखाने पाठियो, आमी निये नेबो!
तोमार मिष्टी
एक बार फिर चिठ्ठी डाक बाबू को देते हुए उसकी कीमत अदा कर दी और साथ कह
दिया,"ये चिठ्ठी वाला खेल बड़ा अच्छा है। एक दो और दे दो न। जोदी कारूर आसा
होये उठते पारी"
"आच्छा? तो आजकाल खैला चोलचे? आसा कोरी जीबोनेर खैला ना! "
"अरे ना ना! अच्छा एइटा ओंतिम पौत्रो। तुमको सही नहीं लगता तो नहीं
लिखूंगी!" चहरे पर पसंदीदा खिलौना छिन जाने के भाव लिए गहना बिखरे से कमरे
को ठीक करने लग गयी।
डाक बाबू को गहना से प्रेम नहीं था और न ही उस पर अधिकार समझते थे। हाँ,
लगाव था। देह से और उसकी अदा से। उस उन्मुक्त प्रेम से भी जिसकी एक झलक
गहना ने उस रात्रि दिखाई थी। ओह किसी अच्छे घर की होती तो ब्याह रचा लेता
लेकिन।
फिलहाल देह की कीमत दे कर काम चल रहा है। लेन देन का नाता था लेकिन रूठी
हुई स्त्री को मनाने और इस प्रक्रिया में गहना की निकटता का मोह न छोड़ पाए।
फिर इधर कुछ दिनों के लिए अपने गाँव जाने वाले थे तो कहाँ मिलेगी गहना??
सारा सामान समेट डाक बाबू ने गहना की चिठ्टी झोले में रख ली। बालो को कंधे
से हटाते हुए एक चुंबन रख हाथों से उसकी देह को महसूस करते हुए उसके होठों
तक आये,"आमी पोस्ट कोरे देबो। आमार जोन्नो औपेक्खा कोरो"
"हम्म्म "
अब उस कमरे में बस गहना थी और उसकी प्रतीक्षा। बादल आज झूम कर बरस रहे थे।
प्रेम उत्सुकता से उत्पन्न हो, प्रसन्नता और पीड़ा की राह से होते हुए अब
उन्माद में बदल गया था। गहना, प्रेम उन्माद में स्वयं को भूल बैठी थी। अबीर
अमु से मिलने का इच्छुक है तो वो ज़रूर मिलेगी। अबीर के साथ बिताये सालों की
एक धुंधली कहानी बीन ली थी उसने और खुद ही उस मकड़जाल में फंस गयी थी। खेत
खलिहान और अपने घर से बेश्यालय के बीच के सफर में अबीर आ गया था। उसके साथ
बगिया में खेलते हुए वो हंसती हुई दौड़ती भागती और पुआल के ढेर पर गिर जाती।
अबीर की बड़ी माँ कितना प्यार करती उससे। हमेशा ही उसे अबीर से ज्यादा मिठाई
चुपके से देती और अबीर उससे लड़ता। आहा कितना प्रेम था हम दोनों में। मैं और
अबीर।
गहना का जी ठीक नहीं।
लाल बाड़ी में आज कल गहना के चिरपरिचित ग्राहक नहीं आते। डाक बाबू गाँव गए
हैं। बोउदी समझती थी धंधे में ऊंच नीच होती है। कभी कभी छुट्टी चाहिए।
उन्होंने गहना को कुछ दिन की छुट्टी दे दी।
देह और मन दोनों का ख्याल रख। इसी से कमाते हैं। तोमार की किछु दौरकार?
साड़ी दुशाला गौयना के गौयना चाई?
कभी-कभी बोउदी माँ सी लगती। लेकिन हर बात माँ से ही कहाँ कह पाते हैं।
गहना ने ना में सर हिलाया। उसे बस ये तसल्ली थी कुछ दिन, बस कुछ दिन उसकी
देह उसकी है। दिन निकल रहे थे। किन्तु इस बार गहना को विश्वास था कि चिठ्ठी
आएगी। अबीर उससे मिलने आएगा। रोज़ अपने पिटारे से श्रृंगार का सामान देखती।
लहंगा साड़ी अलट पलट देखती की क्या पहनेगी।
भाद्रपद खत्म होने को था और आश्विन माह लगने वाला था। पूजा भर बोउदी
लालबाड़ी का धंधा बंद रखती।
कहती थी "माँ ऐशे गेछे!!"
लालबाड़ी में पूजा नहीं होती थी किन्तु जाने क्यों बोउदी इस बीच कुछ अलग सी
होती। सभी को बाहर जाने की इजाज़त मिलती। हाँ साथ में मेहतर होते थे।
इधर गहना इस सारे उल्लास से दूर बस दिन गिनती थी - प्रथमा द्वितीया आज
षष्ठी!
दो रात से सोई नहीं थी। उन्माद बढ़ता तो रह-रह कर खिड़की के बाहर झाँकती। कोई
डाकिया दुकान पर ठहरे तो आस जगे!
दिन आधे से ऊपर हो गया। दरवाज़े पर खटका हुआ, और भेड़ा हुआ दरवाज़ा खोल छोटू
झाँका। उसके हाथ में लिफाफा था। एई दीदी, नाओ तोमार चिठी।
आमार प्रियो मिष्टी ,
नवमी को विसर्जन के समय गंगा घाट पर नाव में प्रतीक्षा करूंगा। मेरे हाथ
में पीला दुशाला होगा। हाँ सिंदूर खेला में सभी स्त्रियां लाल पाड़ वाली
साडी में दिखेंगी किन्तु तुमको मैं सुर्ख लाल जोड़े में देखना चाहता हूँ।
लाल रेशम में अमु।
बस कुछ दिन, फिर हम मिलने वाले हैं। माँ दुर्गा की बिसर्जन बेला पर हमारा
मिलन "
बाक़ी कितना कुछ है कहने को सब मिल कर।
तुम्हारा अबीर
आज षष्ठी। माँ का मुखदर्शन कितना शुभ हुआ उसके लिए। दुग्गा दुग्गा।
एक-एक दिन गिनते हुए गहना पीड़ा और विरह की अग्नि में होम हो रही थी और यह
पत्र मानो सुवासित जल की ठंडक सा प्रतीत हो रहा था। वो खुश थी। बहुत खुश।
इतनी खुश शायद वह अपने होश में कभी नहीं हुई। कम से कम जब से उसने गहना नाम
अपनाया तब से तो नहीं। उसका असली नाम क्या था? पता नहीं। अब वो खुद को भूल
चुकी थी। उसे याद था तो सिर्फ यह की वो अबीर से प्रेम करती है। प्रेम के
स्वाद को उसने विरह से जाना था और अब बस दो दिन शेष हैं जब वह अबीर से
मिलेगी। अब वो सब सुनेगी जो अबीर अमु से कहना चाहता था।
नोबोमि भोर बेला। हल्की ठंड। जवाकुसुम के पेड़ों पर चटक लाल फूल उगने लगे
थे।
पिछले तीन दिनों से गहना अपने साज शृंगार में लगी थी। चटक लाल रेशमी साड़ी।
दो साल पहले एक साहूकार ग्राहक ने पेशगी दी थी। आज वो सारा श्रृंगार करना
चाहती थी। आँखों में सुरमा, होठों पे लाली, माथे पर बिंदी सजा, गहना गहने
पहन नख शिख तक साक्षात् सौंदर्य की प्रतिमूर्ति लग रही थी। भीतर का प्रेम
उन्माद और लालसा उसके रोम-रोम को पुलकित कर रहा था। बाहर का शोर आज नोबोमि
के उल्लास का पता दे रहे थे। विसर्जन की बेला करीब है। वो लालबाड़ी की दहलीज़
से बाहर आ गयी। इस दहलीज़ से बस, घाट तक का सफर। घाट पर अबीर नौका में उसकी
प्रतीक्षा में है।
नोबोमि के दिन की भीड़ कोलकाता की गलियों को संकरी कर देती हैं। पूजा की
रौनक देखते ही बनती थी। बिजली के लट्टू पंडाल में चमक रहे थे। माँ दुर्गा
का भव्य रूप। माँ अपने भक्तों को असीम सुख देकर अब वापस कैलाश जाएँगी। कहीं
ट्रैक्टर तो कहीं हाथ गाड़ी पर माँ की प्रतिमा रखी जा रही थी। विसर्जन की
घड़ी पास थी। सब कुछ देखते सुनते हुए गहना के कदम उसे घाट के करीब ले आये
थे। घाट पर भी कितनी भीड़ ! चारों तरफ लोग थे। धूनी का धुँआ था, ढोल की थाप
का शोर था। "बौलो दुग्गा माई की...बौलो दुग्गा माई की" ये जय ध्वनि हर तरफ
से उसके कानो तक आ रही थी।
सबके बीच, गहना के इर्द गिर्द केवल निःशब्दता थी। उसे दिख रही थी वो नौका
और उस पर एक नवयुवक। करीब २२ -२३ वर्ष का नौजवान। देखने में ऐसा की देव खुद
रूप बदल के आये हो। श्याम - वर्ण, मज़बूत कद -काठी। माथे पर झूलते घुंघराले
से बाल जो रह-रह कर घाट की हवा में उड़ रहे थे और साथ ही उड़ रहा था पीला
दु:शाला। गहना कुछ पल को भूल गयी की वो कहाँ है। उसे दिख रहा तो बस अबीर और
उसकी बेचैनी। भीड़ में अपनी अमु को ढूंढती आँखे बार-बार लाल रेशम पहने अमु
को ढूंढ रही थी। उसे देखते ही गहना के भीतर का तूफान शांत हो गया।
प्रेम क्या होता है, इस सवाल के जवाब में समय ने उसे प्रेम का रस्वादन करने
दिया और वो क्या कर रही है?
कहीं दूर शंखनाद हुआ, सिन्दूर खेला का हर्ष। आसमान में हर तरफ अबीर ही
अबीर। गहना के लाल रेशम सा सुर्ख अबीर -सिन्दूर उसके माथे को भी सजा रहा था
। जयघोष से रोम-रोम सिहर रहा था। हर तरफ ढोल की थाप पर नाचते हुए लोग। माँ
दुर्गा की विशाल मूर्ति उसके बहुत पास से गुज़री। गहना उस पल मानो प्रेम के
सम्मोहन से जागी।
"बाज़ारु है बेश्या है लेकिन धोखेबाज़ नहीं थी तू। प्रेम पाने का ये तरीका??
"किसी के प्रेम को यूँ धोखे से अपने नाम?? जब पता चलेगा तब? इतना विश्वास,
इतना प्रेम इसके बदले में ये विश्वासघात? छिः !"
"तेरा नहीं है वो "
"मेरा नहीं तो किसका, मुझसे ही तो मिलने आया और
और....
"मुझसे नहीं अमु से मिलने आया। 'मैं' जो अमु बन गयी, पर 'अमु ' हूँ नहीं।
किन्तु मेरा प्रेम तो अबीर है।
ओह मां।
अबीर मेरा नहीं ! जो गहना अमु बनती थी यह उसका प्रेम है।
गहना तो जानती है प्रेम उसके लिए नहीं बना।
धुनि नाच और अबीर मिला धुआँ उसके नथुनों से होता हुआ प्रेम उन्माद को शांत
कर रहा था। प्रेम, अब सम्मोहन के ढलान से उतर , पीड़ा के पड़ाव पर खड़ा है।
गहना ने प्रेम चखा, प्रेम जिया किन्तु आगे मात्र विरह है।
नौ दिन के उत्सव के बाद माँ दुर्गा जल में समाहित होती प्रतिमाएँ और नज़र
गड़ाए वह वहीं जड़वत खड़ी थी।
"बौलो दुग्गा माई की...बौलो दुग्गा माई की"
"ओगो माँ शाथै निये जाओ। आमी एई बैथा आर शोज्जो कोरते पारबो ना। ", गहना की
चीख उस शोर में किसी ने न सुनी। उसके चेहरे का रंग विरह ,पीड़ा और बीते हुए
सालों की वेदना से बदल गया।
प्रेम के इतने करीब आ कर वापस जाने का कोई रास्ता नहीं था। दुर्गा की
मूर्ति जल में प्रवाहित होती हुई देखने की भीड़ बढ़ती गयी।
नौका पर बैठा नवयुवक विसर्जन देखता और फिर भीड़ में कुछ खोजता। बार बार
दु:शाला संभालता और फिर किसी को ढूंढने दूर-दूर तक भीड़ के उस पार देखने की
कोशिश करता।
विसर्जन की बढ़ती भीड़ में उसे एक बड़ी मूर्ति के साथ लाल रेशम में कोई स्त्री
पानी में विलीन होती दिखी। उसने आवाज़ तो दी किन्तु उसकी आवाज़ जय घोष में खो
गयी।
"बौलो दुग्गा माई की...बौलो दुग्गा माई की"
विसर्जन सम्पन्न हुआ, घाट निर्जन, नावें खाली और आसमान से सारी लालिमा
सियाह रात में विलीन।
- सरिता निर्झरा
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