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गयी यशो

म्मा!!! आंखे खोलते ही उसके होंठों पर मीठी सी मुस्कान खिली, और उसने अपनी बाहें फैला दीं। गीगा!!! कह कर मैं उसके पास बैठी और उसे गले लगा लिया। आज वो हमेशा के मुकाबले मुझे ज्यादा ज़ोर से, ज्यादा देर तक पकडे रही।
“उठ यशो, आज फ्लाइट है बेटा।“ कहकर मैंने धीरे से अपने आप को उससे अलग किया, पर मेरा हाथ नही छोड़ा उसने।
“मम्मा, मैं ना,आपको रोज सुबह लंदन से ‘मम्मा!!! वाला मैसेज भेजूँगी” उसने मुसकाते हुए कहा।
“गीगा, मैं तुझे रोज गीगा!!! वाला रिप्लाइ दूँगी।“ मैं हंसी।
“अच्छा अब उठो, काम बहुत है।“,कह कर मैंने हाथ छुड़ाया और उसको नाश्ते के लिए नीचे आने की हिदायत देकर कमरे से बाहर निकाल गयी।
नाश्ते की मेज़ पर सब साथ ही बैठे थे आज। यशो को फ्रिज में मशरूम दिखे तो बहुत खुश हुई।
“ये!! मशरूम! कम से कम आज आखिरी दिन तो खा लूँ!” झट से अपने लिए मशरूम टोस्ट बनाया और मेज़ पर ले आई। साफ दिख रहा था कि पापा-मम्मा , दादा-दादी, और गौरी के चहरे उतरे हुए हैं।
“सुनो सब! उसने ऐलान किया। “कोई नहीं रोएगा! आप लोग सब मुझे यहाँ छोड़ कर बाली गए थे ना पिछले साल? बस ये समझ लो उसका बदला ले रही हूँ अकेले लंदन जा कर।“ वह हंसी। अंदर रसोई से मीना की बर्तन धोते - धोते आवाज आई , “वापस कब आओगी यशो?”
“मालूम नहीं दीदी, इस बार नौकरी के लिए जा रही हूँ ना, कह नहीं सकती।“ कह कर वो खाने में मगन हो गयी।
सुबह का काम थोड़ा निपटा कर मैंने सोचा उसका पैक किया सामान एक बार देख लूँ, कुछ भूली तो नहीं? ऊपर उसके कमरे मे गयी तो देखा कि उसने दोनों खिड़कियाँ पूरी खोल रखी हैं औरअपना चेहरा बाहर निकाल कर खिड़की के बाहर झूमते हुए सब्ज़ पत्तों वाले पिलखन को एकटक निहारते हुए गहरी साँसे ले रही है, मानो पेड़ को अपनी नजर में और उस से आती हवा को अपनी साँसों में क़ैद कर ले।
“यशो!” मैंने धीरे से कहा तो उसने अपना रुख मेरी ओर किया। आंखे नदी जैसी भरी हुई थी पर मजाल है कि पलकों का बांध तोड़ कर बह जाएँ!
“हाँ मम्मा, क्या हुआ?” उसकी आवाज़ में हल्का सा कंपन था ।
“ तेरा सामान चेक करलें बेटा? बड़ी वाली सूट्कैस खोल तो जरा?”कह कर मैं वही बैठ गयी। सूट्कैस खोला तो सबसे ऊपर उसका भरतनाट्यम का कास्टूम और आभूषण दिखे।
“हे भगवान! ये क्यों ले जा रही है तू? वहाँ क्या काम पडेगा इनका?” मैंने वो सब बाहर निकालते हुए कहा। “मम्मा, वापस रखो इनको!” वो तुरंत मेरे हाथ से लेती हुई बोली। अपनी गोदी मे रख कर आभूषणों का डब्बा खोला, और एक एक करके सबको उठा कर देखती गयी। उजले सफेद चमेली के फूलों का गाढ़ा गूँथा गजरा जब हाथ मे आया तो उसने बरबस ही उसे अपने गाल से लगा लिया। मेरी आँखों के आगे बीते हुए उसके कितने ही नृत्य कार्यक्रम रील की तरह गुजरने लगे। अतीत के आईने मे मुझे दिख रही थी 15 साल की मेरी यशो, पीले बॉर्डर वाले मोरपंखी रंग की भरतनाट्यम साड़ी मे सजी, अपने बालों की वेणी बना कर यही गजरा बड़े करीने से टाँक रही है। आठ साल से जो आभूषण उसने संभाल कर रखे थे और जिन्हे हर शो के लिए पहनती आई थी, वो तो उसके साथ जाने ही थे।
“लंदन के नेहरू सेंटर मे पर्फॉर्म करूंगी अब मम्मा! नौकरी के कारण डांस थोड़े ही छोड़ूँगी!” कहते हुए उसने डब्बा बंद किया और सूटकेस में रख दिया।
सारा सामान देख भाल कर सूटकेस बंद करके मैंने उससे दोपहर के खाने के लिए पूछा।
“दाल और साँठे की रोटी खानी है। “ मैं ओके कह कर नीचे उतरने लगी तो मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था। हमेशा वेस्टर्न खाने की शौकीन मेरी यशो आज दाल रोटी की फरमाइश कर रही है? इतने मे ही रंजन का मैसेज आया, “क्या कर रही है यशो?”
“अपने कमरे मे है, क्यों?”
“कुछ नहीं, बस टाइम स्पेन्ड करना चाहता था उसके साथ।“
“आ जाओ।“ कह कर मैं खाना बनाने मे व्यस्त हो गयी। थोड़ी देर मे दरवाजे पर घंटी बजी, खोला तो रंजन थे। बिना कुछ कहे सीधे ऊपर उसके कमरे में चले गये। खाना बना कर उन्हे नीचे आने की आवाज लगाने के बजाए मैं खुद ही ऊपर गयी तो देखा कि रोज़ अपने काम मे 9 से 9 बजे तक व्यस्त रहने वाले उसके पापा और हमेशा काम या दोस्तों मे मसरूफ़ रहने वाली यशो आपस मे बातें करने मे मगन थे। जी तो चाहा कि थोड़ी देर मैं भी वही थम जाऊँ, ठहर जाऊँ । लेकिन घड़ी की सुई थी कि न थमती थी न ठहरती थी। दोनों को नीचे आने के लिए बोल कर मैंने खाना लगाया। यशो ने बड़े ही चाव से गरम गरम साँठे की रोटी खाई, और एक खत्म कर के बोली, ‘मम्मा, एक और बना सकती हो’? मेरे पाँव जैसे लड़खड़ा गए , हाथों से रसोई के काउन्टर को कस कर पकडा तो संभली। ये वही यशो है जिसकी एक फुल्का खाने के लिए भी मिन्नते करनी पड़ती थीं? उसकी रोटी और अपनी प्लेट ले कर मैं टेबल पर आकर बैठी तो वो मुसकुराते हुए बोली -
“हाँ तो मम्मा पापा! मेरे जाने से पहले आप मुझे क्या अड्वाइस देना चाहते हो?” मुझे लगा शायद हमेशा की तरह आज भी वो मज़ाक कर रही है, पर उसके चेहरे पर मासूम सी संजीदगी थी। मुझे काटो तो खून नहीं। कैसे बोलूं उसको कि मेरी बच्ची! तू आज हुमसे वो पूछ रही है जो तेरी उम्र का कोई शायद ही अपने माता-पिता से पूछता होगा; निहाल है हम तुझे पाकर! पर स्तब्ध सी मैं बस उसे देखती ही रह गयी। कौर था कि गले से नीचे उतारने का नाम ही नहीं ले रहा था।
इतने में गौरी हंसी, “यशो दीदी, जाने से पहले आप मुझे क्या अड्वाइज़ देना चाहती हो? “ यशो के चेहरे पर संजीदगी कि जगह शरारत खेलने लगी।
“सुन’, उसने बनावटी गंभीरता से कहा, “जैसे मैं रसोई रोज़ रात को साफ करती हु ना, वैसे ही करना। गैस के नीचे अच्छे से पोंछना और पीछे की दीवार को तो खूब रगड़ के साफ करना नहीं तो मम्मा से डाँट खाएगी। “ और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ी।
खाना खत्म हुआ तो टिकट वगैरह सारे कागजात संभालने मे ही आधी दोपहर चली गयी। शाम को यशो ने अपने और गौरी के लिए चीज़ टोस्ट और कोल्ड कॉफी बनाई। मैंने ऊपर से खाने की मेज़ पर झाँका तो बचपन की आदत के मुताबिक दोनों अपने ग्लास एक बराबर रख कर नाप रही थी कि किसी के ग्लास मे एक भी बूंद कॉफी दूसरे से ज्यादा तो नही है? कुछ बोल नहीं पाई मैं। बस पलट गयी कि कहीं मेरे चेहरे के भाव न देख लें दोनों। वैसे भी निश्चय तो यही हुआ था ना कि कोई नहीं रोएगा? सब कुछ सामान्य ही रखेंगे? यशो तो रखे हुए थी ना सब कुछ नॉर्मल, तो मैं क्यों जाते जाते उसका मूड खराब करूं? अचानक उसके फोन की घंटी बजी। उसने जैसे ही उठाया, मारे खुशी के चीख ही पड़ी, “अमन! कैसा है तू? कहाँ है?” अमन, उसके बचपन का दोस्त, नवीं क्लास से उसके हर एडवेंचर ,हर खुशी, हर शरारत का साथी। मर्चन्ट नेवी मे लग गया था और साल के 6 महीने किसी न किसी समुद्र में होता था। आज बोन वॉयआज बोलने के लिए फोन कर रहा था। अमन का न जाने क्यों मुझसे विशेष लगाव था। साल मे दो बार तो चला कर फोन कर ही लेता था। आज भी यशो ने उससे बात करके मुझे फोन पकड़ा दिया, “लो। अमन बात करेगा।“
“हैलो अमन, कैसे हो बेटा? कहाँ हो?” मैंने पूछा।
“नमस्ते आंटी! मैं अभी...अटलांटिक ओशन मे हूँ, अपनी नाव पर।“ मुझे जोर से हंसी आ गयी।
“जो लड़का 300 सौ मीटर की शिप को ‘नाव’ कहे वो तो हीरो कि तरह उसके किसी डेक पर लेटा तारे भी गिन रहा होगा!” मैंने मज़ाक मे उससे कहा।
‘हाहा’! वो ठहाका मार के फिर बोला, “आंटी, यशो के जाने के बाद आप बिल्कुल फिक्र मत करना। मैं हूँ ना! मैं आपका पूरा ध्यान रखूँगा। कोई भी बात हो आप मुझे कॉल कर लीजिएगा। और हाँ, अगली बार जब आऊँ तो चीज टोस्ट खाना है मुझे, वही वाला जो यशो ने अभी बनाया है।“ मन ही मन मैंने सोचा कि बच्चों के दोस्तों से दोस्ती कर के कितना सुकून मिलता है। उनका बचपन मानो साथ साथ चलता है हमारे। वो नहीं हो हमारे पास तो भी उनके दोस्तों के रूप मे उनकी परछाइयाँ हमारे साथ रहती हैं।
बस इन्हीं विचारों मे खोए खोए मैंने किसी तरह रात का खाना तैयार किया. हमारा आखिरी डिनर साथ में। दादाजी जो अक्सर 8 बजे ही जीम लेते थे, आज सबके साथ खाना खाने बैठे। बातों का सिलसिला चला तो वे याद करने लगे अपने दिनों को, “भई हमारे टाइम मे तो कोई दूसरे शहर भी जाता था तो मालूम ही नहीं पड़ता था वो ठीक है या नहीं जब तक उसकी चिट्ठी न आए।हम लोग रोज़ डाकिये का इंतज़ार करते थे कि कब वो आए और कोई पत्र लाए।“
“चिंता मत करिए दादाज!” यशो चहकी, “ मैं आपको रोज़ व्हाट्सप् करूंगी अपना हाल चाल बताने के लिए।“ खाना खत्म करके यशो “थोड़ी देर मे आ रही हूँ” कहकर अपने कमरे मे चली गयी।
मैंने रसोई मे सब कुछ समेटा और कुछ देर बाद उसे आवाज लगाई कि आकर प्लेटफॉर्म साफ कर दे। जाने से पहले आखरी बार अपना रोजाना का काम कर जाए। मैं चाहती तो कम से कम आज उसे इस काम से बख़्श सकती थी। पर कुछ था मेरे भीतर जो चाह रहा था कि सब कुछ सामान्य सा ही हो। हमेशा की तरह वो प्लेटफार्म साफ करे और फिर हमारे कमरे मे आकर तब तक बातें करती जाए जब तक हम उनींदे हो कर उससे जाने की गुजारिश न करें। 15 मिनट बाद भी जब उसका कोई जवाब नही आया तो मैं ही सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर गयी कि देखूँ क्या हुआ। धीरे से उसके कमरे का दरवाजा खोला तो वहाँ अंधेरा सा था। बस बाहर पार्क मे लगी हैलोजन लाइट की रोशनी खिड़कियों की चौड़ी ग्रिल से छन कर आ रही थी। यशो पलंग के किनारे अपनी उस दीवार की ओर चेहरा किए बैठी थी जिस पर उसकी, गौरी की, उनके बचपन की और उनके दोस्तों के साथ उनकी कई तस्वीरें लगाई हुई थी। उसका चेहरा एक अप्रतिम से चियारोस्क्युरो इफेक्ट में घिरी लियोनार्डो डा विंची की पेंटिंग जैसा प्रतीत होता था जिसपर रोशनी और अंधेरे की लुका-छिपी चल रही हो। वो बस टकटकी लगाए उस क्षीण सी रोशनी में उन तसवीरों को देख क्या, शायद आँखों से महसूस कर रही थी। वो आँख बंद करके भी बता सकती थी कि कौनसी तस्वीर किसकी है और कहाँ लगी है। मैंने जैसे ही उसे हल्के से आवाज लगा कर कमरे कि बत्ती जलाई तो उसने अपनी कोहनी से अपना चेहरा ढक लिया, मानो रोशनी का और मेरा यूं अचानक आ जाना उसे बिलकूल अच्छा नहीं लगा हो। उसके पास जाकर मैंने धीरे से उसका हाथ चेहरे से हटाया तो देखा पूरा चेहरा भीगा हुआ था आंसुओं से। उसके आँसू थे कि अविरल, निशब्द, बहे जा रहे थे और वो बिना आवाज, बिना एक सिसकी लिए, बस बैठी थी पलंग पर। मेरे सब्र का बांध मानो टूटा नहीं बिखर ही गया। उसे कस के गले से लगा लिया मैंने। वो मुझे पकड़ कर उसी तरह रोती रही। निशब्द। अविरल। थोड़ी देर बाद उसके मुँह से बस यही निकला, “मुझे अपनी मनचाही ज़िंदगी और अपने परिवार का साथ, दोनों क्यों नहीं मिल सकते मम्मा!” मैं निरुत्तर, और मेरा दिल बस तार तार होने को। कुछ कुछ हमेशा पढ़ती रहती हूँ ना, एकदम से खलील गिबरान के लिखे शब्द जहन मे आए, “तुम वो धनुष हो जिससे तुम्हारे बच्चे जीवित तीरों के जैसे निकलते हैं। तुम उनके जैसे बनने का प्रयास कर सकते हो लेकिन उन्हे अपने जैसा नहीं बना सकते ,क्योंकि जीवन पीछे कि ओर नहीं जाता और ना ही बीते हुए कल के लिए रुकता है। “ मन मे खयाल आया कि गिबरान साहब, शायद आपके बच्चे नहीं थे। फलसफा जब वास्तविक जीवन मे उतर आए तो कुछ कहते नहीं बनता, बस कातर दृष्टि से देखते रह जाते हैं हम। बच्चे धनुष के तीर क्यों हैं? बूमरैंग क्यों नहीं जो किसी भी दिशा मे छोडे जाए, वापस वही आते है जहां से निकले थे!
आ गया आखिर एयरपोर्ट जाने का समय। दादीजी कंकू अक्षत की थाली लिए दरवाजे पर खड़ी थीं। दोनों सूटकेसो को रंजन पहले ही नीचे लेजाकर गाड़ी मे रख चुके थे। यशो अपना भारी सा बैकपैक कंधे पर डाल कर उतरी। आंखे साफ। चेहरा धुला हुआ। जो कुछ ऊपर कमरे मे हुआ वो बस उसके भीतर ही था, और हमारे बीच। दादीजी ने कंकु का सुंदर सा टीका उसके माथे पे लगाया। गुड की डली मुँह मे रखी। ‘अपना ध्यान रखना’, इतना सा कहते कहते ही उनका गला रुँध गया. आगे बोल न पाईं। यशो ने झुक कर प्रणाम किया, और हल्के से उनके गले लगी। दादाजी की ओर मुड़ी और उनके पाँव छूए। और दादाजी, जो कि किसी भी प्रकार के प्रदर्शन के इतने खिलाफ थे कि अपने बच्चों को भी बचपन मे सिर्फ दो उंगलियों से रेपटा लगाते थे और आशीर्वाद तो सर के एक इंच ऊपर हाथ रख कर देते थे, उन्होंने यशो को अपने सीने से भींच कर लगा लिया। दोनों से बस एक सिसकी की आवाज आई। यशो अलग हुई, और एक पल को ठिठक कर उस ड्रॉइंग रूम को, उससे निकलते डाइनिंग रूम और वहाँ से ऊपर जाती सीढ़ियाँ जो उसके कमरे तक जाती थी, सबको देखा। फिर पलटी और घर की सीढ़ियाँ उतर गयी।

- उर्वशी साबू

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