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कि मैं बस ऐसा ही
हूँ
बचपन के रंग बहुत गहरे हैं मन पर याददाश्त भी है कि खराब नहीं होती उम्र के साथ भी, बस यही दुखाता है मन नहीं भूल पाता वह सीख आज के स्वार्थभरे जमाने में भी कि सुख सबमें बांटों और दुख दूसरों का भी लेकर अपने दुख के साथ मन में छिपा लो देखता आया हूँ सामने मुस्कुराते चेहरे और हाथों में छिपे खंजर भी उन्हें भी लौटाया है मैंने फूल अपनी हंसी का नहीं हो पाता क्रूर उनसे भी जिन्होंने चाहा कुचलना मेरा वज़ूद बार बार नहीं रख सकता मन में कुछ भी फिर भी है बहुत कुछ जिसको सहता हूँ जो भी मिलता है उससे हंस कर मिलता हूँ यह सिध्दान्तों के बखान नहीं हैं न हैं गुणों के खजाने ये आदतें हैं मेरी कि इनसे मजबूर मैं, बस ऐसा ही हूँ.
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राजेन्द्र कृष्ण
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