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शहर के बीचों-बीच क्या हो गया है इस शहर को ! हर दरवाज़े और मुंडेर पर उलटी लटकी हैं अबाबीलें और घूम रहे हैं चमगादड़। जो घना बाज़ार कभी भीड़ से अंटा होता था और जिसमें शोर-शराबा चमक-दमक से सटा होता था, अब वीरान है। सड़कों पर घूमते हैं आज भी कुछ धड़धड़ाते चेहरे, जो आदमी-से दिखते तो हैं, पर आदमी नहीं होते, क्योंकि उन्हें देखकर आंखें पथरा जाती हैं, चेहरा ज़र्द हो जाता है और शरीर में कंपकंपी-सी छूटने लगती है। आज शहर की सारी चिड़ियां जा छुपी हैं घोंसलों में। उनका गाना, पंख फड़फड़ाना, सब बन्द है। जब भी निकलती है बाहर कोई चिड़िया घोंसले से बाज़ के खूनी पंजे दबोच लेते हैं उसे। लेकिन इस पर भी कोई पंख नहीं फड़कता, कोई आहट नहीं होती, कहीं सुगबुगाहट नहीं होती, क्योंकि जब भी कोई पंख फड़फड़ाता है, बाज़ का अगला निशाना उसी पर सध जाता है। शहर के बीचों-बीच गुज़रते हुए लगता है, हमने अपना धर्म-कर्म का बोध उठाकर दूर धर दिया है और पूरा शहर एक बाज़ के नाम कर दिया है।
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