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।। खनक ।।

हंसती खिलखिलाती
ठहाके लगाती हुई औरतें
चुभती हैं तुम्हारी आँखों में
कंकर की तरह...
क्योंकी तुम्हें आदत है
सभ्यता के दायरों
में बंधी दबी सहमी
संयमित आवाज़ों की....

उनकी उन्मुक्त हँसी
विचलित करती है तुम्हें
तुम घबराकर बंद करने लगते हो
दरवाज़े खिड़कियां...
रोकने चलो हो उसे
जो उपजी है
इन्हीं दायरों के दरमियां ।

कितने नादान हो की
जानते भी नहीं
की लांघ कर तुम्हारी सारी
लक्ष्मण रेखाओं को...
ध्वस्त कर तुम्हारे अहं की लंका
कबसे घुल चुका है
वो उल्लास इन हवाओं में।

पहुँच चुकी है 'खनक'
हर उदास कोने में
जगाने फिर एक उम्मीद
उगाने थोड़ी और हंसी।

और हां तुम्हारी आंख का वो पत्थर
अब और चुभ रहा होगा।

।। चक्रव्यूह ।।

तुम्हारे जन्म के समय ,
चेहरों की उदासी से शुरू होकर,
तुम्हारे कौमार्य पर
तनती भृकुटियों की रेखा से होते हुए
सदा सुहागन रहो के आशिर्वाद तक,
पंक्ति दर पंक्ति
रचा गया है यह चक्रव्यूह ।

अब जबकि तुम लड़ते लड़ते
पहुँच चुकी हो भीतर तक।
तो बस यह याद रखो की
की तुम अभिमन्यु नहीं
अर्जुन हो इस महाभारत की ।

और तुम्हें बखूबी ज्ञात है
हर चक्रव्यूह का रहस्य ।

तुम्हें कर्म पथ का
बोध कराने को ही कही गई है गीता ।
स्वधर्म की रक्षा के लिए
तुम कभी भी
खींच सकती हो प्रत्यंचा।

।। हड़ताल ।।

धी आबादी दुनिया की ,
क्यों, हम एकजुट नहीं हैं ।

धर्म ,जाति, मजदूर, आदमी
यहाँ सबके ठेकेदार हैं
बस एक औरत की आबरू
दुनिया में ज़ार ज़ार है |
वहशी खुले घूम रहे ,
जब यूं गली गली ।
हमारे सम्मान की चिता,
यहां हर रोज़ जली ।
इन झूठों वादों -इरादों में
अब कोई पुट नहीं है ।
क्यों हम एकजुट नहीं है ।

कुछ दिन राजनीति की,
यह बिसात बिछाई जाएगी ।
फिर किसी निर्भया की तरह
यह भी भुला दी जाएगी ।
कोर्ट-कचहरी के अहाते में ,
माँ बाबा की उम्र बीत जाएगी ।
किस पर यहां यकीं करें,
कौन गिरगिट नहीं है ।
क्यों हम एकजुट नहीं हैं ।

तुम भी अब हड़ताल करो ,
ये ज़ुल्म कब तक चलेगा ।
स्त्री गर थम जाएगी ,
सृष्टि का पहिया कैसे बढ़ेगा।
ठान लो इस आँचल तले,
कोई दरिंदा नहीं पलेगा ।
कह दो जब तक ,
नहीं मिलता इंसाफ,
कोई चूल्हा नहीं जलेगा ।
कोई चूल्हा नहीं जलेगा ।

ममता पंडित

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