धूलि सूक्त ///
इस त्रिलोकी में
अमर केवल धूलि देवता हैं
धूल के तमाम
रंग-रस-रूप आकारों को दग्ध करती
राख और धूलि का त्याग करती हुई
इस भूलोक के पार्थिव देवता अग्नि
आखिर शांत हो जाते हैं
द्योलोक के परम देव सूर्य
थक जाते हैं जब
इस धरा धाम की धूलि को
तपाते, धूसरित करते
तो चले जाते हैं अस्ताचल की ओट
अंतरिक्ष के चरम देव इंद्र या वायु
ले उड़ते हैं इसे
सात आसमानों और समुद्रों की ओर
और आखिरकार
नीचे बरसा देते हैं वापिस
इस धरा धाम पर फिर फिर
प्रकट होते साकार धूल देव
मैं आपको सर नवाता हूं
तमाम दिशाओं में आपकी व्याप्ति बनी रहे
इसी तरह आप अखिल व्योम की सैर करते
पांव के तलवों को मुलायम जमीन सौंपते
तख्तो-ताज को खुद में गर्क करते रहें
ज्ञात-अज्ञात दसों दिशाओं से
दृश्य-अदृश्य रूप से
निरंतर अवतरित होते धूल देव
इसी तरह आप रोशनदान-ताखों से लेकर
किताब-कापियों पर अपने मुलायम कणों की
बरसात करते रहें
ताकि उनसे जूझता हुआ मैं इसी तरह
चेतन और गतिशील रहूं।