(रेलयात्रा में मिली उस नीली आंखों वाली महिला सहयात्री के नाम)
नीली – सलेटी चमकती आंखों वाली
एक औरत को
क्यों लगता था कि वह एक कठपुतली है
अनजान सूत्रधार के हाथों
निश्चित किये नाटकों में खेलती – नाचती
नीली – सलेटी चमकती आंखों वाली यह औरत
एक मानसिक रूप से कमज़ोर
किशोरी की मां थी
कई – कई अंकों में चलता उसका शो
कहीं जाकर थमता था तो
सुबह आठ से दो के बीच —
जब सब अपने कामों पर चले जाते
वह किशोरी भी भेज दी जाती
अपने जैसे ही बच्चों वाले स्कूल को
तब वह लटका करती अनजान परदों के बीच
ढीले डोरों के साथ काठ पड़ी देह पसारती
अब होती हैं ना —
कुछ दीवानी कठपुतलियां
देह के साथ मन भी पसार लेती हैं
डोरों से विलग हो
खेलना चाहती हैं
कोई स्वरचित मौलिक खेल
वह भी दीवानी थी
इन पलों में वह नहीं होना चाहती थी
रिटार्टेड बच्ची की मां
इंतजा.र करती बीवी
सौ सौ तहों में लिपटी औरत
इन पलों में वह होती थी
एक नर्तकी
एक गायिका
एक अल्हड़ नायिका
वह होना चाहती थी
एक चिड़िया
जो नष्ट कर देती है
अस्वस्थ – अविकसित अंडे
खोल से निकलने से पहले ही
वह उड़ना चाहती थी
पर फैला कर
दूर दूर तक
आज भी वह कठपुतली है
लेकिन
सेवानिवृत कठपुतली
लटक आई सूजी पलकों
में चमकते उसके
नीले नेत्र गोलकों में
नीला विशाल आकाश
एक आंसू सा अटका है
पिछले साल ही
उसकी रिटार्टेड बेटी ने
42 वें जन्मदिन के बाद
महाप्रस्थान किया था !!