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गुलमोहर
गर तुम्हारा नाम होता
वसंत के रंगोत्सव से
लेकर तप्त गर्म माहों तक, सिर्फ गर्मी ही क्यों ? बल्कि पावस के कजरारे गगन
से बरसते जल-झालर का अभिनन्दन करते हुए अपने रक्त-पीताभ व नारंगी रंग के
सुंदर पुष्प-गुच्छों के रंगीन चादर ओढ़े गुलमोहर वृक्ष भीषण गर्मी में भी
देखने वालों की आँखों में एक अजीब-सी ठंडक का अहसास करवाता है ।
कुछ दिन पूर्व ही गर्मी की उष्ण निष्ठुरता से लगभग समस्त पादप पुंज मलिन व
कुम्हला से गये थे, पर गुलमोहर के पुष्प नहीं, ये तो अपवाद ही बने रहे हैं
। भारतीय मनीषियों की तप्त साधना और विपत्ति में भी गम्भीर अट्हास शक्ति को
ग्रहण किये हुए यह मधुर और सुखद सन्देश का लाल विजय पताका फहराते रहा है ।
इसके सुंदर रक्ताभ पुष्प-गुच्छ वसंत के आगमन साथ ही डालियों पर आकर अपना
डेरा जमा लेते हैं, फिर तो बेशर्म अतिथि की भांति उष्ण झंझावत और इन्द्र के
भीषण कोप को सहन करते हुए सुरम्य शीतल शरद तक पेड़ की शाखाओं पर झुला झूलते
अक्सर दिखाई पड़ ही जाते हैं । सच में ये पुष्प हर मौसम में खुशहाल जीने के
महामंत्र को प्रसारित करते रहते हैं ।
‘इतने कोमल! पर इतने मजबूत!’ होते ही है ।
बाहरी स्वरूप से अक्सर लोग धोखा खा ही जाते हैं । ऐसे में संताप की कोई
गुंजाइश नहीं होनी चाहिए ।
हरीतिमा युक्त सघन वन स्थली में लाल रक्त-पीताभ प्रज्ज्वलित पुष्पों से
सुसज्जित किसी लोहित छत्रक को शीश पर धारण किये गुलमोहर दूर से ही अनायास
भ्रमित शैलानी आँखों को स्वतः अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं । यह ऐसा जीवट
स्थावर है, जो भीषण गर्मी में भी सूखी कठोर भूमि से प्राण रस खिंच कर अपनी
पसरी हुई गजसूंड-सी चतुर्दिक शाखाओं सहित सर्वदा शान्त व संतुलित बने अपने
अतुलित सौन्दर्य-सम्पदा को सगर्व अपने पर धारण किये रहता है।
‘कितनी विचित्र बात है न!’
ग्रीष्मकालीन सौर्य-तेज से लगभग समस्त वनस्पति व प्राणी जहाँ ‘त्राहि-माम्
त्राहि-माम्’ के मौन-मूक शोर कर रहे हों, वहीँ यह गुलमोहर उसी अपरिमित तेज
को आत्मसात् कर भारतीय अनासक्त साधक की सौम्य छवि को उपस्थित करते रहता है
। ऐसे ही सामाजिक उष्णता को आत्मसात् करते हुए ज्ञानाश्रयी संतों ने अमरत्व
रस से दीन-दुर्बल और टूटे लोगों में जीवन में नूतन प्राण रस का संचार किये
थे।
‘हो भी क्यों न!’
सूर्य सदृश पिता की तीव्रता को सह कर ही तो कोई कठोर बन जगत में अपने परिचय
को प्राप्त करता है । सम्भवतः भीषण गर्मी गुलमोहर की सहनशक्ति (।mmun।ty)
की परीक्षा लेने की कोशिश करती है । परन्तु स्वर्ण भी तो तप्त होकर ही
कुंदन बनता है । परिणाम भी प्रत्यक्ष ही है । अग्नि तप्त अंगारों से लाल
फूलों से सुसज्जित किरीट को अपने शीश पर धारण किये हुए सबकी की आँखों का यह
प्रीतम बना हुआ है । सबके प्यार को पाने के लिए तो आखिर तपना पड़ेगा ही।
सत्य भी है।
‘जो तपा नहीं, वह खड़ा नहीं ।’
तभी तो यह गुलमोहर रक्तिम पुष्प भगवान कृष्ण की प्रतिमा के मुकुट के
श्रृंगार में अपनी अहम भूमिका का निर्वाहन करते हुए “कृष्ण-चूड़ामणि” नाम की
सार्थकता को सिद्ध करता है । अपनी अतुलित सौन्दर्यबोधता के कारण ही ये
पुष्प ‘स्वर्ग का फूल’ की संज्ञा को प्राप्त किये हुए हैं । ‘तो फिर भला
सौन्दर्य की अभिवृद्धि में सहायक क्यों न हों ?’
कुछ जन-जातियों की महिलाओं के शीर्ष-चूड़ामणि गुलमोहर के पुष्प का ही हुआ
करते हैं ।
अपने रक्त-पीताभ सुंदर पुष्पों के कारण ही गुलमोहर सघन वन की सीमाओं को
लांघ कर अब शहरी बाग़-बगीचों के साथ ही साथ सड़कों के किनारे भी अपनी
उपस्थिति को दर्ज कराने लगा है । इसके पत्ते भले ही नन्हें-नन्हें हो,
परन्तु जीव-जन्तुओं को शीतलता प्रदान के क्षेत्र में कोई कसर यह न छोड़ता है
। आप इसकी शीतलता की तुलना बरगद और पीपल से तो मत करिए ।
कहा जाता है कि यह गुलमोहर भारतीय न होकर विदेशी पादप है । ......... ‘तो
क्या हुआ ?’ भारत के हृदय की विशालता को भी तो देखए, इसने किसको अपना नहीं
बनाया! इसने तो अपने शत्रु को भी ‘अतिथि देवो’ का दर्जा दिया । शक, हुण,
कुषाण, सहित तुर्क, मुग़ल आदि सब विविध विदेशियों को अपनी भारतीयता के रंग
में रंग कर एक कर दिया है । अब उन्हें पहचान पाना कोई सरल काम है क्या ?
नहीं, कदापि नहीं ।
अब कोई विश्वासघात पर ही उतर जाय, तो फिर आतिथेय का क्या दोष !
तो इस विदेशी गुलमोहर का पुराना सम्बन्ध हिन्द महासागर में दक्षिण अफ्रीका
के पूर्वी तट पर स्थित महासागरीय द्वीपीय देश मेडागास्कर (मलागासी गणराज्य)
से है । अपने पुष्पों की सुन्दरता के कारण ही वर्तमान में यह सेंट किट्स
तथा नेविस जैसे उष्ण-आर्द्र कटिबन्धीय सामुद्रिक द्वीपीय देशों के
राष्ट्रीय पुष्प के रूप में समादृत है । वहाँ इसे तप्त अंगारों जैसे रंग के
कारण ‘फ्लेम ट्री’ यानि ‘अग्निवृक्ष’ के नाम से भी जाना जाता है।
‘हो भी क्यों न ? आखिर विषुवतीय और कर्कीय मध्यीय अक्षांशों के तप्त
अंगारयुक्त भौगोलिक क्षेत्र से ही तो सम्बन्धित है ।’
फिर भी इसके पुष्प पल्वित क्रिया किसी वायरस की भांति इतनी शीघ्रता से होती
है कि इसके एक पुष्प खिलने मात्र के एक ही सप्ताह में पूरा का पूरा वृक्ष
ही गाढ़े लाल अंगारों जैसे रक्त-पीताभ पुष्पों से भर जाता है ।
दूर से ही सघन हरीतिमा के बीच यह वृक्ष लाल तप्त अंगार की भांति ‘अग्नि
वृक्ष’ के अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध करता है । संस्कृत साहित्य के परम
ज्ञानी पंडितों ने तो इसका और भी चमत्कारी नाम प्रदान किया है, -
'राज-आभरण', जिसका अर्थ होता है, ‘राजसी आभूषणों से सजा हुआ, वृक्ष’ ।
‘वही तो है ही यह!’
पुष्पों की सुन्दरता के आधार पर इसके सम्मुख भला दूसरा कौन-सा वृक्ष आ खड़ा
होगा ? मैं कोई पुष्पीय पौधा ‘दो दिन की चांदनी, फिर अँधेरी रात’ जैसे छोटे
पौधों की बातों में नहीं फंसना चाहता हूँ । ...... ‘पर हाँ, स्मरण हो आया
।’
‘आचार्य द्विवेदी बाबा जी के ‘शिरीष के फूल’ से मैं करबद्ध क्षमा चाहता हूँ
।’
-श्री रामपुकार शर्मा,
24, बन बिहारी बोस रोड,
हावड़ा – 711101.
(पश्चिम बंगाल)
सम्पर्क सूत्र – 9062366788.
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