मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

एक असल प्रेम की कथा

कालजयी प्रेम कहानियों की जब जब बात होती है"उसने कहा था"हठात सामने आ खड़ी होती है. जबकि वस्तुतः इस कहानी में प्रेम वैसा है ही नहीं जो हम देखते,सुनते या पढ़ते आए हैं.हमारे अनुभवों का प्रेम यहां नदारद है.यहां तो वो अदद प्रेमी ही नहीं है जो प्रेमिका को चांद-तारे तोड़कर लाने का वादा कर रहा हो और वो प्रेमिका भी नहीं जो लजाते शर्माते मन ही मन अपने प्रेमी पर नाज़ कर रही हो.हाथों में हाथ डाले भविष्य के सपने देखते प्रेमी जोड़े न होने के बाद भी प्रेम कहानियों का जिक्र होने पर" तेरी कुड़माई हो गई?" और बदले में"धत!" के महीन धागे के सहारे और फिर "देखते नहीं ये रेशम से कढ़ा हुआ सालू".जैसे नश्तर के सहारे जीवन जीने वाले लहनासिंह और सूबेदारनी के चरित्र से गुंथी "उसने कहा था " का सहज ही स्मरण हो आता है.

चंद्रधर शर्मा गुलेरी का यह कमाल ही है कि युद्ध के साए में लिखी इस कहानी को सौ बरस होने के बाद सर्वश्रेष्ठ कहानियों में ही शुमार नहीं किया जाता बल्कि प्रेम कहानी के रुप में उल्लेखित किया जाता है. जबकि संपूर्ण कहानी में न तो प्रेम शब्द का ही उल्लेख है और न ही ऐसे संवाद, घटनाक्रम और स्थिति जो बताती हो कि यह प्रेम कहानी है.कहानी का आलम तो यह है कि कोई पाठक अगर पहली बार पढ़ रहा है तो पहले हिस्से को पढ़कर बच्चों की आपस की बात ही समझकर आगे बढ़ता है और दूसरा हिस्सा आते-आते लगता है यह एक युद्ध पृष्ठभूमि की कहानी है जिसका एक क़िरदार निश्चित ही "तेरी कुड़माई हो गई?" पूछने वाला बालक है और कहीं न कहीं "धत" कहने वाली बालिका भी आगे मिलेगी ही.

बालक और बालिका मिलेंगे तभी तो शुरु में ही लेखक ने उनसे सहजता से मिलवाया.बिल्कुल वैसे ही जैसे हम राह चलते अपने जैसे ही अन्य क़िरदारों से रोज़ मिलते हैं.लेकिन कहानी के पहले हिस्से में दो अलग-अलग स्थानों से अपने-अपने मामा के घर आए बच्चों का बाज़ार में यूं मिलना अकस्मात नहीं था बल्कि यह शुरुआत थी उस अनाम रिश्ते की जो पच्चीस बरस के लंबे अंतराल के बाद भी जीवित था.तभी तो सूबेदारनी पूरे अपनेपन और अधिकार से कहती है,"तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे.आप घोड़े की लातों में चले गए थे.और मुझे उठाकर दुकान के तख़्ते पर खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना.

 यह मेरी भिक्षा है.तुम्हारे आगे आंचल पसारती हूं."
यही तो कहा था उसने.जिसकी लाज रखने लहनासिंह ने अपनी जान देने में भी पीछे न रहा.पच्चीस बरस पहले आठ बरस की बालिका जो धत कहकर भाग खड़ी होती थी पच्चीस बरस बाद आज एक मां और एक पत्नी के रुप में उसके सामने थी."देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू."कह भाग खड़ी हुई बालिका की कुड़माई से बौराया लहनासिंह अपनी घर-गृहस्थी को भूल सूबेदारनी के कहे की लाज बचाने का निश्चय जब करता है तो यूं ही नहीं करता.व्यक्ति जब प्रेम में होता है तभी अपने प्रेम के लिए जान भी देने तैयार होता है.यह प्रेमवश होता है और लहनासिंह प्रेम के अधीन.

बारह बरस का बालक जब रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दे,एक छावड़ीवाले की दिनभर की कमाई खो दे,कुत्ते पर पत्थर मारे और गोभीवाले के ठेले में दूध उड़ेल दे और नहाकर आ रही किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि पाए वो भी सिर्फ़ यह सुनकर "कल.देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू." यह प्रेम नहीं तो और क्या है? बालिका जब तक "धत"उत्तर देती रही बालक एक उम्मीद से भरा रहा.लेकिन इस एक वाक्य ने मानो उसका भाग्य निर्धारित कर दिया."बालपन के इस अधूरे प्रेम ने ही तो लहनासिंह को सेना में जाने उत्प्रेरक का काम तो नहीं किया?"प्रेम में असफल व्यक्ति के लिए दुनिया निस्सार हो जाती है.फिर यहां तो बारह साला अबोध बालक था. बालिका के जवाब ने उसे जिस विक्षिप्त अवस्था में पहुंचा दिया था वह प्रेम नहीं तो और क्या है? गुलेरी जी की लेखनी का कमाल ही है कि प्रेम का एक शब्द बोले बग़ैर भी उन्होंने कमाल की प्रेम कथा लिख दी.

उसने कहा था में वह आत्मिक प्रेम है जो दैहिक प्रेम से कहीं ऊपर उठ चुका है.एक सैनिक वह भी जब परदेस में युद्ध के लिए गया हो को भी अच्छे से मालूम होता है कि जीवन संध्या का कभी भी अंत हो सकता है.लेकिन कर्तव्य के साथ जब प्रेम भी मिल जाता है तो जीत सुनिश्चित होती है लेकिन भारी कीमत देकर.दरअसल जब-जब प्रेम कर्तव्य के साथ आता है तो बलिदान और त्याग साथ लाता ही है.

युद्ध में गया सैनिक और प्रेम में पड़ा मन.दोनों ही पराधीन होते हैं.अपने मन का नहीं कर सकते.लेकिन प्रेम में पड़ा लहनासिंह अपने मन की करता है.चाहे लपटन साहब की पोल खोलने की बात हो या उसके द्वारा दिए ज़ख्म को छिपाने की बात या फिर ज़ख्म पर पट्टी बांधने की सूबेदार की सलाह या फिर कहानी के उस आख़िरी हिस्से को कैसे भूल पाएंगे जब घायलों को लेकर जाती गाड़ी में घायल लहनासिंह को छोड़ सूबेदार को जाने की इच्छा नहीं होने पर जबदस्ती लहनासिंह ने उसे सूबेदारनी की कसम दिलाई और उसे छोड़ जाने मजबूर किया.

यही तो है प्रेम.
हाथों में हाथ डाले एक दूसरे की आंखों में आंखे डाल भविष्य के सुनहरे सपनों से दूर बहुत दूर की प्रेम कथा.

-सविता प्रथमेश

Top    

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com