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भारत में राष्ट्रवाद
लेख
भारत में हमारी असली समस्या
राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक है। यह स्थिति केवल भारत की ही नहीं बल्कि
दुनिया के सभी देशों की है। मेरी केवल राजनीति में रुचि नहीं है। पश्चिम
जगत में राजनीति, पश्चिमी आदर्शों पर हावी रही है और हम भारत में भी आपकी
नकल करने का प्रयास कर रहे हैं। हमें याद रखना होगा कि यूरोप में जहाँ शुरू
से ही नस्लीय एकता रही है और जहाँ के निवासियों के लिए प्राकृतिक संसाधनों
की कमी रही है, स्वाभाविक रूप से सभ्यता ने राजनीतिक और व्यावसायिक
आक्रामकता का चरित्र धारण कर लिया। जहाँ एक ओर उनमें किसी भी तरह की आंतरिक
जटिलतायें नहीं थी, वहीं दूसरी ओर उन्हें ताकतवर और लालची पड़ोसियों से भी
निपटना था। आपस में सही तालमेल और दूसरों के प्रति एक सजग और शत्रुता भरे
रवैये को उन्होंने अपनी समस्याओं के समाधान के रूप में देखा। भूतकाल में
उन्होंने स्वयं को संगठित किया और लूटपाट की, वर्तमान काल में भी यही भावना
जारी है - वे संगठित हैं और पूरी दुनिया का शोषण कर रहे हैं।
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हर व्यक्ति को अपने आप से प्रेम होता है। इसलिए उसकी पाशविक वृत्ति केवल
अपने स्वार्थ के लिए दूसरों से झगड़ा करने के लिए उकसाती रहती है। लेकिन
मनुष्य के पास सहानुभूति तथा परस्पर सहायता जैसी उच्च भावनायें भी होती
हैं। जिन लोगों में उच्च नैतिक शक्ति की कमी होती है और जो परस्पर बंधुत्व
का पालन नहीं कर पाते, या तो उन्हें समाप्त हो जाना चाहिए या पतन की अवस्था
में ही रहना चाहिए। केवल वही लोग जीवित रह सके और सभ्यता का निर्माण कर
सके, जिनमें परस्पर सहयोग की भावना थी। अतः इतिहास के आरंभ से ही हम पाते
हैं कि मनुष्य को इन दो विकल्पों में से किसी एक का चयन करना पड़ा – आपस
में झगड़ना अथवा निजी और सामूहिक हितों के लिए परस्पर सहयोग का भाव रखना।
हमारे आरंभिक इतिहास में, जब प्रत्येक देश की भौगोलिक सीमाएं और संचार के
साधन कम थे, यह समस्या तुलनात्मक दृष्टि से बहुत छोटी थी। तब लोगों के लिए
अपने-अपने सीमित इलाकों में ही एकता की भावना का विकास करना पर्याप्त था।
उस काल में वे अपनों के साथ एकता बनाए रखते थे और दूसरों से लड़ते थे।
लेकिन समन्वय की यह नैतिक भावना ही उनकी महानता का सच्चा आधार थी, जिसने
उनकी कला, विज्ञान व धर्म को विकसित किया। आरंभिक काल में वह सबसे
महत्त्वपूर्ण तथ्य, जिसका मनुष्य को संज्ञान लेना पड़ा था, यह था कि किसी
एक ही प्रजाति के लोग परस्पर निकट संपर्क में आएं। जिन लोगों ने अपनी
उच्चतर प्रकृति के द्वारा इस तथ्य को सही तरीके से समझा, उन्होंने इतिहास
में अपने महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया।
भविष्य में सभ्यता की पताका थामे रखने के लिए न केवल व्यक्तिगत स्तर पर
अपनी मानसिक आदतों से, बल्कि अतीत के दाग़दार झंझटों से भी मुक्ति पानी
होगी। यूरोप के सभी महान देशों के सताये हुए लोग दुनिया के अन्य भागों में
मौजूद हैं। यह न केवल उनकी नैतिक बल्कि बौद्धिक सहानुभूति को भी समाप्त
करता है, जबकि अपने से अलग नस्लों को समझने को लिए इनका होना बेहद आवश्यक
है। अंग्रेज कभी भी भारत को सही अर्थों में समझ नहीं पायेंगे, क्योंकि उनके
दिमाग सही मायने में निष्पक्ष होकर सोच ही नहीं पाते। यदि आप जर्मनी अथवा
फ्रांस से इंग्लैंड की तुलना करेंगे, तो पायेंगे कि इंग्लैंड में ऐसे
विद्वानों की संख्या बेहद कम है जिन्होंने सहानुभूतिपूर्ण अंतर्दृष्टि या
सूक्ष्मता से भारतीय साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया है। जहाँ भी संबंध
असामान्य हों और उनकी नींव राष्ट्रीय स्वार्थ और अहंकार पर रखी हुई हो,
वहाँ उदासीनता तथा तिरस्कार का यह व्यवहार स्वाभाविक ही है।
भारत में कभी भी राष्ट्रवाद की वास्तविक भावना नहीं रही है। यद्यपि मुझे
बचपन से यही शिक्षा दी गयी थी कि राष्ट्र की आराधना, ईश्वर और मानवता की
भक्ति करने से भी बेहतर है, फिर भी मुझे लगता है कि मैं इस शिक्षा से आगे
निकल चुका हूँ और मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मेरे देशवासी भी ऐसी शिक्षा
के विरुद्ध उठ खड़े होंगे, जो यह सिखाती है कि देश, मानवता के आदर्शों से
भी बड़ा होता है।
मैं किसी एक राष्ट्र के विरुद्ध नहीं हूँ, बल्कि सभी राष्ट्रों की अवधारणा
के विरुद्ध हूँ। राष्ट्र आखिर है क्या?
राष्ट्र से तात्पर्य है - सभी लोगों की संगठित शक्ति। संगठन का जोर हर समय
इस बात पर रहता है कि सभी लोग शक्तिशाली और समर्थ बनें। शक्ति और सामर्थ्य
प्राप्त करने के बाद ये अति उत्साही प्रयास मनुष्य की ऊर्जा को सोख लेते
हैं और उसे उच्च नैतिक स्तर, जहाँ वह आत्मबलिदानी और रचनात्मक होता है, से
नीचे ले आते हैं।
इस प्रकार मनुष्य की त्याग करने की शक्ति अपने नैतिक एवं उच्चतर लक्ष्य से
भटक जाती है, और संगठन, जो कि यांत्रिक है, के रख-रखाव में लग जाती है। वह
इसी में नैतिक उत्कर्ष का अनुभव करने लगता है और इसीलिए मानवता के लिए बेहत
खतरनाक हो जाता है। वह अपनी अंतरात्मा की आवाज से विमुख हो जाता है,
क्योंकि वह अपनी जिम्मेदारियों को एक ऐसी मशीन को हस्तांतरित कर देता है,
जो वस्तुतः उसकी बुद्धिमत्ता की उपज है, उसके संपूर्ण नैतिक व्यक्तित्व की
नहीं। इस युक्ति से स्वतंत्रता पसंद करने वाले लोग भी विश्व के एक बड़े भाग
में दासप्रथा को प्रोत्साहित करने लगते हैं, और उन्हें इस बात का अहंकार भी
होता है कि वे अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हैं; स्वभाव से न्यायप्रिय
और अच्छे लोग अपने कर्म और विचारों से निर्दयी और अन्यायी हो सकते हैं, और
तो और, वे यह भी सोच सकते हैं कि ऐसा करके वे दुनिया को उसके कर्मों के फल
प्राप्त करने में सहायता कर रहे हैं; स्वभाव और कर्म से ईमानदार लोग
आत्मोत्कर्ष के लिए दूसरों के मानवाधिकारों को छीन सकते हैं और निर्धनों को
दोषी ठहराते हुए यह कह सकते हैं कि वे इससे बेहतर व्यवहार के योग्य नहीं
हैं। अपने रोजमर्रा के जीवन में हमने देखा है कि व्यापार और कारोबार से
जुड़े छोटे-छोटे संगठन भी अच्छे-भले मनुष्यों में निष्ठुरता की भावना भर
देते हैं, हम आसानी से अनुमान कर सकते हैं कि जब दुनिया के सभी लोग धन और
सत्ता की जुगत में पूरी तन्मयता के साथ लगे रहेंगे, तब विश्व में कितना
नैतिक पतन होगा।
(भारत में राष्ट्रवाद, लेखक - रविन्द्र नाथ टैगोर, हिंदी अनुवाद-
डॉ.परितोष मालवीय)
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