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एक कहानी
चलिये एक कहानी सुनिये, पसंद ना आये
तब भी सुनिये ...एक था देश, तीन तरफ समुद्र और एक तरफ पहाड से घिरा हुआ
..बाकी देशो जैसा ही था वो, यहाँ भी किताबे पढी जाती थी और जूते पहने ही
जाते थे, पर चतुर लोग हर जगह होते ही हैं, यहाँ भी थे, वे जूतो की मदद से
सामान खरीदने बेचने लगे, जितने करारे जूते उतना ज्यादा सामान, धीमे धीमे
जूतो ने वहाँ की मुद्रा को विस्थापित कर उनकी जगह ले ली, यहाँ तक भी सब
ठीक था, पर जूतो के पास भी अपनी अकल थी, अपना संगठन था, उन्होने अपनी
हैसियत पहचानी और आदमियों के हाथों इस्तेमाल होने से इनकार कर दिया,
आदमियों के लिये जूतो से लडना कठिन था, वे पराजित हुये, और खुद ही जूता
हो गये, अब उस देश मे जूतातंत्र स्थापित हुआ, जाहिर है इस तंत्र मे किताबो,
प्रशासन, पुलिस और न्यायालयो की जरूरत रह नही गयी, न्याय वह था जो जूते
तय करें, सबल जूते अपनी बात मनवाने लगे, हर आपत्ति और सवाल का जवाब जूते
देने लगे, जूता देख हर असहमति, सहमति मे बदलने लगी, जूतो की बोली, राजबोली
हुई दूसरी किसी भाषा मे बोलने वालो के मुँह जूतो ने बंद कर दिये, किताबों
के मुँह भी बंद हुये, जो बोलने से नही मानी वो जूतो तले कुचली गयीं,
खानपान, उठने बैठने के जो सलीके जूतो ने तय किये वो जूते पडने के डर से
सभी ने माने, गजब की एकरूपता देखने को मिली इस देश मे, और इसे ही सुशासन
कहा गया ! |
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