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रामायण
की प्रासंगिकता-2
द्वापर युग तो त्रेता के बाद वाला युग है। इस युग में श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है चातुर्वण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: - अर्थात मैं ने चारों वर्णों की सृष्टि व्यक्तियों के गुणों और कर्मों के आधार पर की है।अर्थात मैं ने चारों वर्णों की सृष्टि व्यक्तियों के गुणों और कर्मों के आधार पर की है। अर्थात यह जो शम्बूक का प्रक्षेप है द्वापर के बाद किया गया है, कलियुग में। पौराणिक काल में इस तरह के अनुदार प्रक्षेप अनेक धर्मग्रन्थों में किये गये हैं। महाभारत भी ऐसे प्रक्षेपों से भरा पडा है, और अनेक पुराण भी ऐसी अनुदारता, या कहें तो अमानवीय, अभारतीय ( अ - हिन्दु )प्रक्षेपों से त्रस्त हैं। इन्हीं प्रक्षेपों से त्रस्त होकर संभवत: महर्षि दयानन्द ने पुराणों को न देकर वेदों को ही मान्यता एवं निष्ठा दी थी। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में केवल शम्बूकवध ही केवल एक प्रक्षेप नहीं है, इन्हें भी थोडा बारीकी से देखा जाना चाहिये। वाल्मीकि रामायण में बालकाण्ड से लेकर युध्दकाण्ड मिलाकर छ: काण्ड हैं, तत्पश्चात एक उत्तरकाण्ड भी है। युध्दकाण्ड के समापन में ( अन्य 5 काण्ड के नहीं) 19 श्लोकों ( 107 - 125) में वाल्मीकि रामायण के समापन होने का कथन है; रामायण का श्रवण, पूजन आदि करने से मनोवांछित फलों की प्राप्ति का वर्णन है। और 106 वें श्लोक में रामकथा का समापन यह कह कर किया गया है कि, '' भाईयों सहित श्रीराम ने 10000 वर्षों तक राज्य किया।'' और 112वें श्लोक में कहा, '' पूर्वकाल में महर्षि वाल्मीकि ने जिसकी रचना की थी, वही यह आदिकाव्य है।'' 121वें श्लोक का कथन, '' श्रोताओं! आपका कल्याण हो। यह पूर्वघटित आख्यान ही इस प्रकार( रामायण) वर्णित हुआ है। आप पूर्ण विश्वास के साथ इसका पाठ करें। इससे आपके वैष्णव - बल की वृध्दि होगी।'' अर्थात युध्दकाण्ड से समापन निश्चित है। उत्तरकाण्ड या तो परिशिष्ट है या प्रक्षेप।उत्तरकाण्ड में - मुख्यतया राक्षसों के कुलों, तथा रावण के जन्म तथा उसके लंकाधिपति बनने की कथा, मेघनाद की तथा हनुमान की उत्पत्ति और विकास की कथा के वर्णन के पश्चात अचानक राम द्वारा सीता को तपोवन भेजने की कथा आ जाती है। तत्पश्चात अनेक विस्मयकारी अद्भुत कथाएं हैं जिन्हें आज साइंस फिक्शन या विज्ञान गल्प के अर्न्तगत रखा जा सकता है। और शम्बूक वध की निन्दनीय कथा भी आती है। उत्तरकाण्ड के 59 सर्ग में एक कुत्ते की इच्छानुसार उसे (कुत्ते को) मारने वाले ब्राह्मण को श्रीराम दण्डस्वरूप मठाधीश बना देते हैं। उस ब्राह्मण का अपराध यह था कि उसने अकारण कुत्ते को डण्डे से इतनी जोर से मारा था कि कुत्ते का सिर फट गया था। तब श्रीराम ने अपने मंत्रीमण्डल से इसे दंड देने के विषय में सलाह ली। उस मंत्रीमण्डल में भृगु से लेकर वशिष्ठ जैसे श्रेष्ठ मुनि थे। उन्होंने सलाह दी, '' ब्राह्मण दण्ड द्वारा अवध्य है, उसे शारीरिक दण्ड नहीं मिलना चाहिये।'' तब कुत्ते ने सलाह दी, '' उस ब्राह्मण को दण्ड स्वरूप किसी मठ का मठाधिपति बना दीजिये। ऐसा क्रूर क्रोधी ब्राह्मण मठाधीश बनने पर अपनी ऊपर तथा नीचे की सात पीढियों को नरक में डाल देता है।'' इस कुतर्की कथा की शिक्षा यह है कि ब्राह्मण को अपराध करने के बाद भी शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाना चाहिये; और उसकी पदोन्नति कर देनी चाहिये। यह कैसे दिग्गज ॠषि हैं! और कैसे राम हैं जिन्हें बालकाण्ड के प्रथम सर्ग में धर्मज्ञ, प्रजा के हितैषी, प्रजापालक तथा धर्म के रक्षक बताया गया है। ब्राह्मणों को न्याय व्यवस्था के भी ऊपर रखने का जो ब्राह्मण सोचते हैं वे सचमुच अज्ञानी, अपराधी मनोवृत्ति वाले, लालची तथा अहंकारी ही हो सकते हैं। ऐसे ही किसी ब्राहमण ने यह प्रक्षेप डाल दिया और अनजाने ही श्रीराम को और उनके प्रबुध्द मंत्रीमण्डल को भी अपने जैसा अज्ञानी सिध्द कर दिया। उत्तरकाण्ड के 55वें सर्ग में ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने, एक छोटी सी बात पर और सचमुच बिना किसी अपराध के राजा निमि को क्रोध में आकर श्राप दे दिया। पढक़र सन्देह हुआ कि क्या यह वही ब्रह्मर्षि वशिष्ठ हैं जो श्रीराम के गुरु थे और जिन्होंने विश्वामित्र को उनके क्रोधी स्वभाव के कारण ब्रह्मर्षि पद नहीं दिया था। यदि ये वशिष्ठ न भी हों तब भी ऐसे ओछे व्यवहार वाला व्यक्ति ॠषि पद की संज्ञा के योग्य नहीं हो सकता, अत: यह प्रक्षेप भी किसी ओछे ब्राह्मण ने ब्राह्मणवाद का आतंक फैलाने के लिये जोडा है। अब अद्भुत विज्ञान - गल्प की घटना आती है। ॠषि वशिष्ट और राजा निमि दोनों के एक दूसरे को श्राप देने के कारण वे दोनों देह रहित अर्थात एक अर्थ में भूत हो जाते हैं। वशिष्ट ब्रह्मा जी से नये शरीर की प्रार्थना करते हैं। ब्रह्मा उनसे कहते हैं, '' द्विज श्रेष्ठ तुम मित्र और वरुण के एक घट में छोडे हुए वीर्य में प्रविष्ट हो जाओ, तब तुम अयोनिज रूप से शरीर के साथ उत्पन्न होगे।'' यह तो अत्याधुनिक क्लोनिंग की प्रौद्योगिकी है! और राजा निमि ने देवताओं से सभी प्राणियों के नेत्रों में रहने का वरदान मांगा और वे सभी के नेत्रों में आवास करते हैं, उन्हें ही विश्राम देने को प्राणी पलकों को निमिष मात्र के लिये झपकाते हैं। इस कथा से क्या शिक्षा मिली - क्रोध नहीं करना चाहिये। इस शिक्षा के लिये कल्पना की इतनी ऊंची उडान करने में क्या बुध्दिमत्ता कि उडने की बजाय वह योजना ' क्रेश कर जाये। इसी तरह लवणासुर की कथा हमारी तर्कशक्ति और समझ को एक कोने में दबा देती है। किन्तु 66 वें सर्ग की कथा तो अतार्किक, संगतिहीन तो है ही, वीभत्स भी है। एक राजा श्वेत कठोरतम तपस्या के फलस्वरूप ब्रह्मलोक प्राप्त करते हैं। ब्रह्मलोक के नियम के विरूध्द उन्हें भूख प्यास बहुत सताती है। तब ब्रह्मा से वे राजा इसका कारण पूछते हैं। ब्रह्मा जी कारण बतलाते हैं कि उस राजा ने देवताओं, पितरों तथा अतिथियों को कभी दान नहीं दिया। और उन्हें उनकी भूख का निदान बताया कि उस राजा को कुछ वर्षों तक पृथ्वी स्थित अपने ही शरीर का मांस भक्षण करना होगा। इस वीभत्स रूपक का मैंने अर्थ समझने का बडा प्रयास किया। अपने शरीर का मांस भक्षण का अर्थ हो सकता है, शारीरिक भोग क्योंकि जब हम भोग करते हैं तो हमारे ही शरीर का क्षय होता है, हम एक तरह से अपने ही शरीर का भोग करते हैं। अर्थात राजा श्वेत भोग की वासना त्याग नहीं कर पाये थे, इसलिये वह वासना उनका पीछा कर रही थी। इस वासना के फलस्वरूप उन्हें यह वीभत्स दण्ड दिया गया किन्तु ऐसी स्थिति में राजा श्वेत को ब्रह्मलोक ही नहीं मिलना चाहिये था, क्योंकि ब्रह्मलोक की प्राप्ति का एक अर्थ अपनी वासनाओं पर सफलतापूर्वक मुक्ति भी होता है। अत: यह अर्थ नहीं जमता। दूसरा अर्थ हो सकता है अपने अहंकार से मुक्त न होना। तब भी राजा श्वेत की तपस्या को सफल ही नहीं होना था। इस दृष्टि से तो मुझे युध्द काण्ड के 128वें सर्ग के 73 तथा 74वें श्लोक भी अतिशयोक्ति पूर्ण लगते हैं। एक बार शिव तथा उमा के क्षेत्र में राजा इल शिकार खेलते खेलते पहुंच गये। उस समय शिव उमा के साथ स्त्री रूप में विहार कर रहे थे और उनके आदेश से उस क्षेत्र के सभी प्राणी तथा वनस्पति भी स्त्री रूप हो गये थे!!! शिव या अन्य किसी ईश्वर का नाम लेकर कुछ पण्डित क्या क्या कल्पनाएं कर लेते हैं! राजा इल भी इला बन गये और उनके साथियों की भी यही दशा हो गई। इला ने शिव को प्रसन्न किया किन्तु शिव ने इला को वापस इल बनाने का वरदान नहीं दिया( बेचारे इल का अपराध यही था कि वे अनजाने में शिव - उमा के क्षेत्र में एक गलत समय पर पहुंच गये थे।) तब इला ने उमा की तपस्या की। उमा ने कहा कि वे शिव की अर्धागिंनी हैं अतएव वे उन्हें केवल आधे समय के लिये ही पुरुष बनने का वरदान दे सकती हैं। इस वरदान के फलस्वरूप वे एक माह इल रहते और एक माह इला! राजा इल के जो साथी नारी बन गये उन्हें किंपुरुषी की संज्ञा दी गई और एक अलग स्थान में रहने का आदेश दिया गया। यह सब सुनकर राम तथा लक्ष्मण ने कहा कि यह तो बडे अाश्चर्य की बात है।'' मैं भी कहना चाहता हूँ कि यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है! किन्तु इतनी ऊंची कल्पना से कौनसा उद्देश्य पूरा होता है? इधर इला और चन्द्र के पुत्र बुध में प्रेम हो गया और उनके एक पुत्र हुआ पुरुरवा। इल के पिता कर्दम ने सलाह दी कि इस यौन द्वय के निदान हेतु अश्वमेध यज्ञ करें।और तब इल शिव के उस प्रभाव से मुक्त हुए। अब इस कथा का रोचक चमत्कार पैदा करने के अतिरिक्त क्या उद्देश्य हो सकता है? संभवत: यही कि इल की भांति बिना किसी अपराध के भी व्यक्ति को भयंकर दण्ड भुगतना पड सकता है। और कि विभिन्न यज्ञ ही विभिन्न दुखों का निवारण कर सकते हैं। यह काल अध्यात्म के क्षीण होने तथा कर्मकाण्ड अर्थात रिचुअल्स के बढते प्रभुत्व का काल रहा होगा, तभी यह प्रक्षेप जोडे ग़ये हों। यह कथा भय की व्याप्ति भी दर्शाती है और भय के उपयोग से भगवद्भक्ति का आदेश देती है। भक्ति तो प्रेम का ही रूप है, उसके लिये भय का उपयोग क्यों? वाल्मीकि के गुरु नारद मुनि भक्ति मार्ग के उच्च प्रणेता माने जाते हैं, उनका नारद भक्ति सूत्र एक उत्कृष्ट भक्ति सूत्र है, जिसमें नारद कहते हैं सा प्रेम स्वरूपा, अर्थात भक्ति प्रेम स्वरूप है। रामायण के उदात्त चरित्र पुरुषोत्तम राम के सभी गुण हमारे जीवन के आदर्श बनते आये हैं। राम का गर्भवती सीता को लोकापवाद के भय से वन में भेजना भी राम के आदर्श को खण्डित करता आया है। कभी कभी कुछ आधुनिक विचारक जो नारी स्वातन्त्र्य तथा नारी समानता को मानते हैं, राम द्वारा सीता की अग्निपरीक्षा को भी राम के पुरुषवादी होने का प्रमाण मानते हैं। इसमें सर्वप्रथम तो हमें यह भी देखना पडेग़ा कि क्या यौनशुचिता अपने आपमें एक आदर्श है या नहीं। पाश्चात्य सभ्यता को मानने वाले अधिकांश व्यक्ति यौनशुचिता को आदर्श नहीं मानते। और उनका अनुसरण करने वाले कुछ भारतीय भी यौनशुचिता को आदर्श तो नहीं मानते वरन् उसे एक पिछडेपन की निशानी मानते हैं; वे तो यौन अशुचिता के व्यवहार को अग्रणी होने का तमगा मानते हैं। यौन अशुचिता को या यौन स्वातन्त्र्य को सम्माननीय व्यवहार मानना भोगवाद का चरम मूल्य है। नारी स्वातन्त्र्य के नाम पर नारी आज भोग की वस्तु बन गई है। पूंजीवाद में पुरुष का उपयोग वस्तु के रूप में पहले ही हो रहा था, अब सभी नारी तथा पुरुष एक दूसरे के लिये भोग की या उपयोग की वस्तु बन गये हैं। यह दृष्टव्य है कि बढते एड्स रोग के कारण, कुंआरी मांओं की बढती संख्या तथा उनके बढते दु:ख के कारण, बढते यौन अपराधों के कारण तथा यौनशक्ति के दुरुपयोग के कारण अब यू एस ए में कन्याओं को सलाह दी जाती है _ ' विवाह पूर्व कौमार्य ही वांछनीय है। (It is better to be virgin till marriage) राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इस विचार के प्रसार के लिये उचित वित्त राशि का प्रावधान किया है। हमारे यहाँ, शायद हम अपनी पुरानी संस्कृति से इसे न सीखें मगर जब यू एस ए से यह प्रसारित होगा तभी हम सीखेंगे। ब्रिटेन में भी ऐसी जागरुकता आ रही है। 1916 में प्रसिध्द समाज शास्त्री पैट्रिक डिक्सन की पुस्तक राइजिंग प्राईस ऑफ लव ( यौनसुख के बढते खर्च) बहुत चर्चा में रही, भारत में भी उसकी चर्चा अखबारों में हुई थी। यह कोई उपन्यास नहीं वरन् समाजशास्त्र के तहत एक शोध ग्रन्थ है। उन्होंने ब्रिटेन में व्याप्त हिंसा, ड्रग्स, आत्महत्या, तलाक, मुकदमेबाजी, अवैध संतान और समाज में गिरते हुए मानवीय मूल्यों की घटनाओं तथा आंकडों पर मनन किया। उनका निष्कर्ष निकला इन सबका सर्वप्रमुख कारण है - यौन सुख की लिप्सा। तथा डिक्सन ने सुझाव दिया कि समाज को इस अभिशाप से बचाना है, तब वहां के समाज चिन्तकों ने इसे गंभीरता पूर्वक लेकर नये मूल्य स्थापित करने का निर्णय लिया है। हम अपने प्राचीन यौनशुचिता व नैतिकता तथा एकनिष्ठता के सांस्कृतिक मूल्यों को तो पुरातनपंथी मान कर बैठे हैं, अब हम भी शायद उन नये उपयुक्त मूल्यों के लिये रुके हुए हैं ताकि हम अपने गौरांग महाप्रभुओं की नकल कर धन्य हो सकें। यौन - अशुचिता की स्थिति मानवता के लिये तो अथोपतन की स्थिति है क्योंकि इसमें भौतिक लाभ के सामने तथा भोग के सामने प्रेम, करुणा, त्याग, अहिंसा, सत्य, मित्रता आदि मानवीय सम्वेदनाएं गौण हो जाती हैं। अब सीता की अग्निपरीक्षा पर विचार करें। राजा तथा रानी समाज के आदर्श होते हैं। यदि उनके चरित्र में दोष है या उसकी सम्भावना ही दृष्टिगत होती है तब समाज भी उन्हीं दोषी चारित्रिकों का अनुकरण करेगा। अतएव् राजा तथा रानी को (यथासंभव) आदर्शगुणों वाला ही होना चाहिये। राम और सीता की सच्चरित्रता के अन्य पक्षों पर तो सभी को विश्वास था। किन्तु सीता जैसी सुन्दरी रावण जैसे दुश्चरित्र राक्षस के अधिकार में दीर्घकाल तक रही, अतएव् सीता के विरोध करने के बावजूद, रावण उन पर बलात्कार कर सकता था। इस दोष की संभावना को निराधार सिध्द करने के लिये सीता की अग्निपरीक्षा हुई थी( युध्दकाण्ड, 13 - 20/ 118 में राम यही कहते हैं) राम यह भी कहते हैं कि सीता पर उन्हें पूर्ण विश्वास था और है। किन्तु यह प्रश्न उठ सकता है कि राम की अग्निपरीक्षा क्यों नहीं हुई? राम के चरित्र पर सन्देह करने का कोई कारण नजर नहीं आया अत: नहीं हुई। परीक्षाएं आवश्यकता पडने पर ही होनी चाहिये। अत: राम पर पुरुषवादी होने का आरोप निराधार है। राम के जीवन में उदात्त मानवता के यही सम्वेदनशील गुण महत्व रखते थे। सत्य के लिये परिवार में पेम बनाये रखने के लिये ही उन्होंने राज्य करने से वनवास उत्तम समझा। माता कैकयी को उन्होंने बराबर सम्मान दिया। साथ ही उन्होंने परिवार को मानव समाज की इकाई माना न कि व्यक्ति को। समाज तथा विश्व भी उनके लिये विशालतर परिवार ही था। व्यक्ति को इकाई मानने से परिवार में प्रेम, त्याग, उदारता कम हो जाती है तथा अहंकार, स्वार्थ तथा अनुदारता बढ ज़ाती है। राक्षसों अर्थात दुश्चरित्रों तथा अमानवीय मनुष्यों का नाश करने के लिये उन्होंने सुग्रीव की सहायता की थी और उससे सहायता ली।शिलावत् उपेक्षित रह रही अहिल्या को उन्होंने समाज में प्रतिष्ठा दी। उन्होंने भीलनी शबरी द्वारा दिये गये कन्दमूल प्रेमपूर्वक खाये। उन्होंने निर्बलों की रक्षा की, अपने प्राणों की बाजी लगाकर दुष्टों का संहार किया। और उनके आदर्श चूंकि मानवता की एकता, प्रेम तथा सत्य पर आधारित थे अतएव वे सनातन भी हैं। ऐसे तर्कहीन, भयाक्रान्त उत्तरकाण्ड में श्रीराम गर्भवती सीता को लोकोपवाद भय से वन में ( ॠषि वाल्मीकि के आश्रम के निकट) छुडवा देते हैं। जब एक बार सीता की शुध्दता का प्रमाण लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, विभीषण के साक्ष्य में स्वयं अग्निदेव दे चुके थे, तब लोकोपवाद का भय कैसा? यदि राजा लोकोपवाद के भय से अन्य आदर्शों को त्यागते हुए निर्णय लेने लगे, तब वह राज्य ही नहीं कर सकता, क्योंकि जनता में अनेक प्रकार के लोग होते हैं और कोई न कोई राजा के किसी भी कार्य पर या निष्कर्ष पर दोष मढ सकते हैं। क्या राजा का यह कर्तव्य या अधिकार नहीं होता कि जनमानस में फैली निराधार भ्रान्तियों को दूर करे। और अंत में स्वयं वाल्मीकि ॠषि द्वारा घोषित सीता की शुध्दता के साक्ष्य के बाद भी श्रीराम सीता से पुन: अपनी शुध्दता की घोषणा करवाना चाहते हैं। यह तो सीता के लिये अपमान पर अपमानों का ढेर सा लगाया गया लगता है। जबकि वास्तव में उस उच्चकोटि की सच्चरित्र महिला का सम्मान पर सम्मान होना चाहिये था। अत: यह सब होने के बाद, सीता एक सच्चरित्र स्वाभिमानी ( अहंकारी नहीं) व्यक्ति के समान अपनी मां भूमि में समा जाती है। इस तरह के अन्त का अर्थ तो यही निकलता है कि श्रीराम सत्ताप्रिय अहंकारी पुरुष की भांति कुंठित व्यक्ति थे, यह वह राम नहीं जिनकी खोज करने वाल्मीकि निकले थे तथा जिनके उदात्त गुणों का वर्णन स्वयं मुनिवर नारद ने पूरी तरह देखने समझने के बाद किया था और जिनका चरित्र एवं व्यवहार जो पूरी रामायण में युध्दकाण्ड तक चित्रित है, निश्चित रूप से एक पुरुषोत्तम का चरित्र है। रामायण के छ: काण्डों से ेिनसृत उद्देश्य तथा वाल्मीकि के मूल उद्देश्य से भिन्न उत्तरकाण्ड द्वारा निष्पादित यह उद्देश्य एक दूसरे के विरोधी हैं। इसलिये भी यही सिध्द होता है कि न केवल उत्तरकाण्ड प्रक्षेप है वरन् वह किन्हीं अहंकारी, लालची, अज्ञानी, पुरुषवादी ब्राह्मणों के द्वारा बाद में अपने फायदों के लिये डाला गया है। अतएव् सत्य की प्रतिष्ठा के लिये उचित यही है कि रामायण में से उत्तरकाण्ड निकाल दिया जाये, यदि रखना है तो केवल राक्षसों तथा हनुमान जी की उत्पत्ति की कथाएं रखी जा सकती हैं। कम से कम यह तो किया ही जा सकता है कि रामायण की भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया जाये कि उत्तरकाण्ड प्रक्षेप है, यह आदिकवि वाल्मीकि द्वारा रचित नहीं हो सकता; और उसे( संशोधित अर्थात जिसमें से उपरोक्त अतार्किक, पुरुषवादी, जातिवादी प्रसंग निकाल दिये गये हैं ऐसे संशोधित उत्तरकाण्ड को) केवल इस उद्देश्य से रखा जा रहा है कि उसमें ऐसी विस्मयकारी गाथाएं हैं जिन्हें आज के वैज्ञानिक भी नहीं सोच सके हैं। वास्तविक वाल्मीकि रामायण का तो युध्दकाण्ड में ही समापन हो जाता है, जो कि नि:संदेह पुरुषोत्तम राम का जीवन में गमन ही या जीवन है। -विश्वमोहन
तिवारी( पूर्व एयर वाइस मार्शल)
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