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‘संतो, जागत नींद न कीजै’: देशज
आधुनिकता और भक्ति का लोकवृत्त-
डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल
‘एक अचंभा देखहु भाई’: समय मध्यकाल, कवि आधुनिक
कहाई
एक विचारक और सुधारक थे। वे मानते थे कि यहूदी पैदाइशी झूठे और दुष्ट होते
हैं। उनकी एक किताब का शीर्षक ही है: ‘यहूदी और उनके झूठ’। इसमें वे ‘अपने’
लोगों को धिक्कारते हैं कि ‘शर्म करो, यहूदी जिन्दा हैं’। वे ‘अपने’ लोगों
का आव्हान करते हैं कि इन ‘जहरीले कीड़ों’ के घर, उपासना स्थल, पवित्र
पोथियां जला दी जाएं। ऐसी हालत कर दी जाए कि यहूदी या तो सदा के लिये,
जहन्नुम नहीं तो‘कहीं और’ चले जाएं, ताकि हमारा प्यारा देश उनके फैलाए गंद
से पाक हो। देश में रहना ही है तो यहूदी हमारे दास बन कर रहें। यहूदियों से
इन विचारक को इतनी घृणा थी कि कहते थे कि ‘यदि कोई यहूदी मेरे पास बपतिस्मा
कराने आया तो उसे पुल से नदी में धक्का देकर कहूंगा- जा हो गया तेरा
बपतिस्मा’।
हिटलर की नहीं, हम बात कर रहे हैं, मार्टिन लूथर की, जो कबीर के कनिष्ठ
समकालीन थे, और जिनसे कबीर की तुलना ब्रिटिश अध्येता किया करते थे, कुछ तो
कबीर को “भारतीय लूथर” भी बताया करते थे। लूथर का समय 1483-1546 है। ‘यहूदी
और उनके झूठ’ की रचना लूथर ने जवानी के जोश में नहीं, पौढ़ी उम्र में, अपने
निधन से तीन साल पहले 1543 में की थी। इस समय वे प्रोटेस्टेंट रिफार्मेशन
के जन्मदाता के रूप में विख्यात हो चुके थे, जर्मन सामंतों के बीच मसीहा की
हैसियत हासिल कर चुके थे। लूथर के यहूदी-विरोधी विचारों ने हिटलर को काफी
प्रेरित किया था। लूथर के समय और परिवेश में पुस्तक दहन का सांस्कृतिक
कार्यक्रम जोर-शोर से चल रहा था, कुरान के लैटिन अनुवाद को भी जलाने का
फैसला हो चुका था। लूथर ने कुरान को न जलाने की सिफारिश की, ताकि लोग जान
सकें कि ‘इस किताब में कैसी- कैसी शैतानी खुराफातें भरी हुई हैं, और इसका
अनुगमन करने वाले किस हद तक शैतान की गिरफ्त में हैं’।
पुस्तक दहन के सदियों तक चले सुनियोजित अनुष्ठान में कैथॉलिक और
प्रोटेस्टेंट एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में लगे थे। जहां-जहां ये दोनों
पहुंचे, वहां-वहां इस होड़ को भी साथ ले गये। खुद “परमात्मा का वचन” भी इस
होड़ का शिकार होने से बच नहीं पाया। दक्षिण भारत में लूथरपंथी
प्रोटेस्टेंटों ने बाइबिल का तमिल अनुवाद प्रकाशित किया, और आरोप लगाया कि
‘मूर्तिपूजकों’ को सही रास्ते पर लाने में उनसे होड़ कर रहे कैथॉलिक
जेसुइटों ने इस प्रोटेस्टेंट बाइबिल की प्रतियां खोज खोज कर जलाईं। लेकिन
इस होड़ का सबसे मार्मिक दृष्टांत बना मिशेल सर्वेटस का भाग्य। जेनेवा के
प्रोटेस्टेंटों ने उन्हें उनकी पुस्तकों के साथ जिन्दा जला देने में बाजी
मार ली, फ्रांस के कैथॉलिकों को सर्वेटस के पुतले जला कर ही संतोष करना
पड़ा। आलम यह था कि इंग्लैंड के रोजर विलियम्स ने परस्पर सहिष्णुता दिखाने
का निवेदन करते हुए एक पुस्तक लिखी, तो उस पुस्तक को ही 1644 में बाकायदा
पार्लामेंट के आदेश पर फूंक दिया गया।
कबीर शाक्तों से काफी चिढ़ते थे,और तुलसीदास निर्गुणपंथियों से, लेकिन अपने
प्रशंसकों को दोनों में से किसी ने नहीं धिक्कारा कि शर्म करो, ये चिढ़ाऊ
लोग जिंदा हैं। पुस्तक दहन ने ऐसी लोकप्रियता कबीर और तुलसी के समाज में
कभी नहीं पाई। आजकल जरूर अपने देश में भाँति-भाँति के लोग भाँति-भाँति की
पुस्तकें जलाते पाए जाते हैं, यह “परंपरा” औपनिवेशिक आधुनिकता के ही
उपहारों में से एक है। तुलसीदास ‘भक्ति बेद प्रकासा’ के साधक थे, लेकिन
कबीर की साधना ‘बेद-कतेब’ दोनों के डॉग्मा से स्वायत्त, अनुभव और विवेक पर
आधारित भक्ति की थी। लूथर को ईसाइयत के बुनियादी डॉग्मा या आस्था-तंत्र और
उसके संगठित रूप से नहीं, इस तंत्र के एक रूप रोमन कैथॉलिक चर्च के
पादरियों की ताकत से परेशानी थी। इस का विकल्प उन्होंने प्रस्तावित किया-
एक और चर्च। एक और डॉग्मा। शुद्ध तर्क को तो वे आस्था- ‘फेथ’- का दुश्मन
नंबर एक मानते थे। यहूदियों से नफरत करने में ही नहीं, स्त्री मात्र को
दोयम दर्जे का मनुष्य मानने में भी लूथर कैथॉलिकों के साथ ही थे।
यह जानना भी रोचक होगा कि 1994 में ही जाकर अमेरिका के एवेंजिलिकल लूथरन
चर्च की कौंसिल ने लूथर के यहूदी विरोधी विचारों को रद्द किया, सो भी आंशिक
रूप ही।
आरंभिक आधुनिक काल के यूरोप में, 1480 से 1700 के बीच कोई एक लाख औरतें
चुड़ैल कह कर सताईं गयीं, और जिन्दा जलाईं गयीं। इस तरह जलाई जाने वाली
‘अंतिम चुड़ैलें’ होने का ‘गौरव’ लूथर के जर्मनी की ही हेलेना कर्टिस और
एगनेस ओलमंस को प्राप्त हुआ, जिन्हें 1738 में जिन्दा जलाया गया था।
विपथगामियों (हेरेटिक्स) को चर्च द्वारा निर्धारित ‘सन्मार्ग’ पर लाने वाले
इंक्विजीशन’ के बारे में तो सब जानते ही हैं। संस्थाबद्ध धार्मिक
असहिष्णुता और विस्तृत यातना के इस भयानक रूप ने हजारों लोगों की जान
अत्यंत क्रूर ढंग से ली थी, और इसकी गतिविधियों का ‘स्वर्ण युग’ वही था,
जिसे यूरोपीय इतिहास का ‘आरंभिक आधुनिक युग’ कहा जाता है। इसी युग में हुए
फीरोज तुगलक या औरंगजेब को धार्मिक असहिष्णुता और कट्टरता के देहधारी रूप
माना जाता है,लेकिन इनमें से किसी को नहीं सूझा कि विधर्मियों और
विपथगामियों को यातना देने के लिये बाकायदा एक संस्था खड़ी कर दी जाए।
मध्यकालीन और आधुनिक केवल समयसूचक शब्द नहीं, मूल्यबोधक ‘टर्म्स’ भी हैं।
आधुनिकता के बाद ही समाज प्रबोधन की दिशा में बढ़ता है।‘आधुनिक’ की
मूल्यपरक व्यंजना के ही कारण, ऐतिहासिक समकालीनता के बावजूद कबीर मध्यकालीन
और लूथर आरंभिक आधुनिक कहलाते हैं। व्यापार के विस्तार, मानवकेंद्रित चिंता
और चर्च के प्रति असंतोष के उदय के आधार पर यूरोप में मध्य और आधुनिक काल
की संधि-वेला चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी में मानी जाती है। मान्यता यह है कि
यूरोप तो मध्यकाल की ‘जकड़’ से चौदहवीं सदी में ही निकल चला था, जबकि भारत
समेत बाकी सारी दुनिया इतिहास की चौदहवीं सदी में तो थी, लेकिन यूरोप की
तरह आरंभिक आधुनिक काल में प्रविष्ट हो जाने की बजाय मध्यकाल में ही ठहरी
हुई।
आधुनिकता और प्रबोधन में अंतर किया जाता है। इतिहास-क्रम में प्रबोधन
आधुनिकता के पीछे ही आता है। आधुनिक होने के पहले कोई समाज प्रबुद्ध नहीं
हो सकता। कुछ व्यक्ति प्रबुद्ध हो सकते हैं, ऐसे लोग अपने वक्त से आगे
कहलाते हैं, लेकिन प्रबोधन के मूल्यों का व्यापक समाज में प्रचार तो
आधुनिकता के बाद ही हो सकता है। यूरोप में आरंभिक आधुनिक काल शुरु हुआ
पंद्रहवीं सदी में। प्रबोधन( एनलाइटेनमेंट) का दौर शुरु हुआ सत्रहवीं सदी
से। इसी अर्थ में यूरोपीय प्रबोधन से वंचित लोग- क्या अकबर क्या कबीर और
क्या तुकाराम अपने वक्त से आगे और आधुनिक (अर्थात् प्रबुद्ध) चित्त के निकट
कहे जाते हैं। प्रबोधन के मूल्य हैं- व्यक्तिसत्ता की स्वीकृति, सहिष्णु्ता
और विवेक। बोलचाल में आधुनिक और प्रबुद्ध घुलमिल जाते हैं। आधुनिक का अर्थ
हो जाता है विवेकपरक, व्यक्ति-सत्ता स्वीकार करने वाला, सहिष्णु चित्त; और
मध्यकालीन का मतलब व्यक्ति-सत्ता को नकारने वाला। प्रेमी जोड़े को फांसी
चढ़ाने का आदेश देने वाली पंचायत का व्यवहार मध्यकालीन और प्रेमी-प्रेमिका
का आधुनिक।
अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों की स्त्रियों की दशा सुधारने का
प्रयत्न किया, दासों के व्यापार पर रोक लगाने की कोशिश की—दूसरे शब्दों में
व्यक्ति-सत्ता के सम्मान को, हर मनुष्य की मनुष्यता की स्वीकृति को राजकीय
नीति और व्यवहार का आधार बनाने की यत्न किया। सुलहकुल( विभिन्न धर्मों का
सम्मान) को राजकीय नीति बनाया, राजधर्म की अकबरी धारणा एम. अतहर अली के
शब्दों में, यह थी, “प्रचलित विश्वासों के प्रति सहिष्णुता शहंशाह के
कर्त्तव्य का सिर्फ़ एक अंश है; बुद्धि का अनुकरण करने और इस तरह परंपरावाद
को नकारने पर लोगों को आमादा करना भी एक आवश्यक और पूरक कर्त्तव्य है”।
उपरोक्त धारणा राजसत्ता की सामाजिक भूमिका की ठेठ आधुनिक समझ को व्यंजित
करती है, लेकिन यूरोपीय न होने के पाप का फल ही कहिए कि अकबर तो मध्यकालीन
कहलाता है, जबकि उस के समकालीन, विच-हंटिंग तथा इंक्वीजीशन में विशेष महारत
हासिल करने वाले स्पेन और फ्रांस के राजा आधुनिक समय में स्थित माने जाते
हैं।
इक्तदार आलम खान को अकबर द्वारा अपनाए गए सांस्कृतिक मूल्य “आश्चर्यजनक
सीमा तक आधुनिक” दिखाई देते हैं, वैसे ही जैसे मुक्तिबोध को कबीर और दिलीप
चित्रे को तुकाराम की संवेदना आश्चर्य में डालती है। सोलहवीं-सत्रहवीं सदी
के भारतीय समाज को केवल मध्यकालीन मनोवृत्ति में जकड़ा मानें तो अकबर, कबीर
और तुकाराम के मूल्य और विचार आश्चर्यजनक तो लगेंगे ही।
माना जाता है कि कबीर स्वयं प्रबुद्ध भले ही रहे हों, लेकिन उनका समाज
आधुनिक नहीं था, उनके विचारों के प्रसार के लिये सामाजिक आधार नहीं था।
सामाजिक आधार के अंतर के हवाले से ही माना जाता है कि कुछ आपत्तिजनक बातें
करने के बावजूद लूथर कुल मिलाकर आधुनिक ही थे। दूसरी ओर, मुक्तिबोध के मन
में “ बार-बार यह प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पन्थ के अन्य कवि तथा
कुछ महाराष्ट्रीय सन्त तुलसीदासजी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं?”
मुक्तिबोध का कहना है: “मैं यह समझता हूँ कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठीक
विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक कि हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक
शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें। कबीर हमें
आपेक्षिक रूप से आधुनिक क्यों लगते हैं, इस मूल प्रश्न का उत्तर भी उसी
सांस्कृतिक इतिहास में कहीं छिपा हुआ है”।
मुक्तिबोध ने पद्धति बिल्कुल ठीक सुझाई, लेकिन उस पर अमल नहीं कर पाए।
संसार भर की तरह, भारत में भी “आपेक्षिक रूप से आधुनिक” लगने वालों का
संबंध व्यापार और व्यापारियों से होना चाहिए। उस युग की मूल गतिमान सामाजिक
शक्तियों का संबंध यूरोप में ही नहीं, भारत में भी व्यापार से ही था— इस
बात पर मुक्तिबोध ध्यान नहीं दे पाते। तुलसीदास का प्रभाव तो केवल हिन्दी
क्षेत्र तक सीमित रहा, जबकि कबीर के गीत गुजरात से ओड़ीशा तक गाए गए? कबीर
की इस व्याप्ति में व्यापारियों, दस्तकारों और उनके द्वारा ही स्थापित
कबीर-पंथ की, भक्ति के लोकवृत्त की क्या भूमिका थी? कबीर और अन्य
निर्गुणपंथी संत “निम्न” जातियों में जन्मे अवश्य, लेकिन क्या उनका प्रभाव
भी इन्हीं जातियों तक सीमित रहा? कुछ ब्राह्मणों की फैंटेसियों और संतापों
के बाहर वास्तविक सामाजिक व्यवहारों में इन “निम्न” जातियों की स्थिति कैसी
थी? ऐसे प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए भक्ति संवेदना का जैसा जातिपरक
विश्लेषण मुक्तिबोध करते हैं, वह आवश्यक तो है, पर्याप्त नहीं।
महाराष्ट्र के जो कवि मुक्तिबोध के ध्यान में थे,उनमें से एक- तुकाराम- पर
दिलीप चित्रे ने बरसों काम करने के बाद उनके कुछ अभंगों (पदों) का
अंग्रेज़ी अनुवाद ‘सेज़ तुका’(कहे तुका) प्रस्तुत किया है। अनुवाद की
भूमिका में दिलीप चित्रे भी मुक्तिबोध सा ही सवाल उठाते हैं। उन्हें लगता
है कि तुकाराम अपने वक्त से आगे हैं। तुकाराम के अनुसार, अपनी मुक्ति के
लिए हर व्यक्ति स्वयं जिम्मेवार है। दिलीप चित्रे का निष्कर्ष है कि
तुकाराम, “अपने से कोई दो सौ बरस बाद के आधुनिक मानव के अस्तित्वगत संकट और
वेदना का पूर्वाभास देते हैं”।
मुक्तिबोध और दिलीप चित्रे से बरसों पहले, “प्राचीन” हिन्दी कवियों की
“आधुनिकता” ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को भी आश्चर्यचकित किया था। काशी में बंग
साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में रवींद्रनाथ ने कहा था, “मैं हिन्दी
नहीं जानता किन्तु अपने आश्रम के एक बंधु द्वारा हमने प्राचीन हिन्दी
साहित्य के आश्चर्यजनक रत्नसमूह का कुछ-कुछ परिचय प्राप्त किया है। प्राचीन
हिन्दी कवियों के ऐसे तमाम गीतों को हमने उनसे सुना है। उनको सुनकर लगता है
जैसे वे आधुनिक हैं। इसका मतलब काव्य-सत्य चिरकाल आधुनिक है”।
यों तो,सारा महान साहित्य में व्यक्त काव्य-सत्य “चिरकाल आधुनिक” के साथ
ही, विश्व भर में बोधगम्य भी होता है, लेकिन हिन्दी के जिस प्राचीन रत्न
समूह ने टैगोर को मोहित किया, उसकी और उसके समकालिक बांगला, मराठी एवं अन्य
भाषाओं के रत्न समूह की “आधुनिकता” का सीधा, ऐतिहासिक संबंध उसके रचनाकाल
की अपनी देशज आधुनिकता से भी था।
कबीर और तुकाराम हम आधुनिकों को उनके “अपने वक्त से आगे” लगते हैं, क्योंकि
वे “आधुनिक” युग के अस्तित्वगत संकटों और वेदनाओं का “पूर्वाभास” देते
प्रतीत होते हैं। सवाल यह है कि जिसे हम “आधुनिकता का पूर्वाभास” कह रहे
हैं, वह स्वयं उन कवियों के समय का भी आभास है या नहीं? वे अस्तित्वगत संकट
और वेदनाएँ उनके अपने समय की भी हैं या नहीं?
कैसा रहा होगा वह समाज और कैसा रहा होगा उसका परंपरा-बोध, उसका स्मृति-कोष
और ज्ञानकांड,जिसने हर तरह की रूढ़ियों के आलोचक कबीर को, हिन्दू या
इस्लामी परंपरा भर को नहीं, बल्कि संगठित धर्म मात्र को नकारने वाले कबीर
को इतना व्यापक सम्मान दिया, इतने लगाव के साथ याद रखा। जिसे हम आधुनिकता
का पूर्वाभास कहते हैं, वह क्या कबीर और तुकाराम के समय में हवा से टपक
पड़ा था? इन तथा इनके जैसे अन्य कवियों की रचना ने जिस “अस्तित्वगत संकट”
को अभिव्यक्ति दी, उस संकट को इनके अपने श्रोता और प्रशंसक महसूस करते थे
या नहीं? जिस ऊंच-नीच से ये कवि क्रुद्ध थे, उस ऊंच-नीच से वैसे ही क्रुद्ध
हुए बिना ही क्या यह संभव था कि लोग न केवल इनके विचारों की सराहना करें,
बल्कि स्वयं भी इनके सरीखी बानियाँ रचने लगें।
कबीर और तुकाराम जैसे “आधुनिकता का पूर्वाभास” देने वाले कवियों को क्या
निरवधि काल और विपुला पृथ्वी से आशा करनी पड़ी कि कभी कोई समानधर्मा
उत्पन्न होगा, जो उन्हें सराहेगा, उनके महत्व की ‘खोज’ करेगा; या उनके अपने
‘स्तब्ध मनोवृत्ति’ वाले तथाकथित ‘मध्यकाल’ में ही उन्हें विपुल श्रोता
समुदाय और व्यापक सामाजिक सम्मान प्राप्त हुआ?
तुकाराम को विवश किया गया कि वे अपना काव्य स्वयं जलार्पित कर दें। कबीर को
विवश किया गया कि वे अपनी काशी नगरी छोड़ कर चले जाएँ। जिनका प्रभाव केवल
हाशिए तक सीमित हो,उनके साथ ऐसा व्यवहार करने की आवश्यकता समाज- सत्ता को
नहीं पड़ा करती। ऐसा व्यवहार उन्हीं के साथ किया जाता है, जिनके लोक-प्रभाव
से समाज-सत्ता को डर लगता हो। हिन्दुओं और मुसलमानों के जो “प्रतिनिधि”
कबीर के विरुद्ध शिकायतें लेकर सिकंदर लोदी के हुजूर में पहुँचे थे,उनकी
सबसे बड़ी शिकायत अनंतदास के शब्दों में यही थी,“तातैं हमें माने न कोई, जब
लग जुलाहा कासी होई”। कबीर के अंतिम संस्कार को लेकर जिनके बीच तलवारें
खिंच गयीं, उनमें से एक राजा थे, दूसरे नवाब। ऐतिहासिक रूप से, कबीर ने
स्वयं न तो कोई नया धर्म चलाया, न कोई निराला पंथ निकाला, लेकिन जब उनके
नाम से पंथ चला तो एक संपन्न व्यापारी ने चलाया। काशी के कबीर-चौरा की
आचार्य-परंपरा में कबीर के तुरंत बाद नाम आता है, सुरतिगोपाल साहब का। ये
वही पंडित सर्वजीत थे, जो कबीर को शास्त्रार्थ में परास्त करने की इच्छा
लेकर, दक्षिण से आए और कबीर के शिष्य बन गए। दूसरे शब्दों में, कबीर की
ख्याति दक्षिण तक पहुँच चुकी थी। कुछ किंवदंतियों के अनुसार तो सर्वजीत का
विवाह भी कबीर की पुत्री कमाली के साथ हुआ था।
किंवदंतियों की ऐतिहासिकता शोध का विषय है, लेकिन अधिक रोचक है इनकी
सांस्कृतिक संकेतात्मकता। किंवदंतियाँ ऐतिहासिक स्मृति के लोक-चित्त में
स्थापित होने की विधियाँ ही हैं। किसी समय और समाज के चित्त, चिंतन और
चिंताओं को समझने के लिए उसमें प्रचलित किंवदंतियों के संकेतों को समझना
ज़रूरी है। कबीर और तुकाराम हमें जिस “समय से आगे” लगते हैं, वह समय कैसी
सहजता से एक ब्राह्मण को जुलाहे के शिष्य तथा जामाता के रूप में याद कर रहा
है। वैसी ही सहजता से उसने उस जुलाहे को प्रसिद्ध ब्राह्मण विचारक के शिष्य
के रूप में, और साथ ही स्वयं एक मौलिक विचारक के रूप में याद किया।
किंवदंतियों के रूप में घटनाओं और उनकी व्याख्याओं को सामाजिक स्मृति में
सुरक्षित करने वाले उस समाज ने न तो जुलाहे को शिष्य बनाने वाले ब्राह्मण
का कोई सामाजिक बहिष्कार दर्ज किया, न उसे गुरु बनाने वाले ब्राह्मण का।
किंवदंतियों से ही नहीं, साहित्यिक, ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी मालूम पड़ता
है कि कबीर के समय में वर्णाश्रम के सैद्धांतिक निर्देशों, जन्मजात ऊंच-नीच
के विचार-व्यवहार को वास्तविक सामाजिक व्यवहार में जबर्दस्त चुनौतियां मिल
रही थीं। व्यापार का विस्तार होने के कारण व्यापार और दस्तकारी से जुड़ी
जातियों की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आ रहा था। वर्णाश्रम-व्यवस्था
अप्रासंगिक हो रही थी। कुछ लोगों को ऐसी अप्रासंगिकता कलियुग का प्रमाण
लगती थी, और वे इस से बहुत संतप्त रहते थे। ‘रामचरितमानस’ का उत्तरकांड ऐसे
संताप से भरा पड़ा है। तथाकथित निम्न जाति के लोगों द्वारा भक्ति के दावे
तुलसीदास को ‘भगति बेद प्रकासा’ का अक्षम्य उपहास करते लगते हैं। वे अपने
संताप को दो टूक अभिव्यक्ति स्वयं राम के मुँह से दिलाते हैं: ‘पूजिए न
सूद्र सकल गुन प्रबीना’। तुलसीदास का यह निर्देश उनके समय में शूद्रों को
पूज्य माने जाने के संताप से ही तो उत्पन्न हुआ है। दूसरी ओर, पीपा के
अनुसार : ‘जो कलि नाम कबीर न होते, तो लोक बेद और कलियुग मिलि भगति रसातल
देते’।
हर्षवर्धन के बाद की तीन-चार सदियां गतिरुद्ध अर्थव्यवस्था और व्यापार के
पतन की सदियां थीं। दसवीं सदी के बाद से आर्थिक जीवन का पुनरोदय होता दीखता
है, लेकिन देश की राजनीतिक स्थिति और व्यापार की संभावनाओं में अंतर्विरोध
था। रामशरण शर्मा इस स्थिति को “दो भिन्न वास्तविकताओं के रंग से रंगा
चित्र” कहते हुए बताते हैं, ‘इस चित्र में एक तरफ उपसामंतीकरण है, परजीवी
पुरोहित व्यापार और शिल्पोद्योग से प्राप्त आय हड़पने का प्रयत्न कर रहे
हैं, दूसरी ओर आय के नकद अनुमान, बेगार का लोप और मुद्रा का व्यापक प्रचलन
जैसे लक्षण दिख रहे हैं’। सरहपा से लेकर कबीर तक, पुरोहितवाद के विरोधियों
को मिली सामाजिक स्वीकृति इन “दो भिन्न वास्तविकताओं” के अंतस्संघर्ष के
संदर्भ में ही समझी जा सकती है। सरहपा और कबीर जैसे देशभाषा के विचारक तो
इस समय वर्णाश्रमवाद, ब्राह्मण वर्चस्व अर्थात् ‘मनुवाद’ का प्रतिवाद कर ही
रहे थे, संस्कृत चिंता भी मनु के विचारों से आगे बढ़ कर, व्यापार के
पुनरोदय के कारण उत्पन्न नयी स्थितियों के अनुरूप धर्मशास्त्र की नयी
व्याख्याएं कर रही थी। बारहवीं सदी में, देवल दो टूक शब्दों में कह रहे थे
कि ‘जहां तक व्यापार का सवाल है, लोक-स्वीकृत और व्यावहारिक व्यवस्थाओं को
एक नहीं, सैकड़ों ‘धर्मशास्त्रीय’ कथनों (“वचन शतेनापि”) पर वरीयता दी जानी
चाहिए, भले ही “वचन” स्वयं मनु का ही क्यों न हो। यही स्थिति राजसत्ता के
प्रसंग में बन रही थी। ‘यशतिलक’ में तेली वंश में जन्मे मंत्री, नाई घर में
जन्मे सेनापति, वर्णसंकर महामंत्री, वेश्यापुत्र राजा और हीनकुलोत्पन्न
राजगुरु के बाकायदा नाम लेकर उल्लेख किए गए हैं। बंगाल के वल्लालसेन ने
महेश नामक मल्लाह को महामंडलीक नियुक्त किया था, और लक्ष्मणसेन ने धोयी
नामक जुलाहे को राजकवि। ये इक्के-दुक्के अपवाद नहीं, वर्णाश्रमवादी
शास्त्रीयता और लोक-व्यवहार के संवाद के कारण सामाजिक रुझानों में आ रहे
परिवर्तनों की सूचना देने वाले उदाहरण हैं। मनुस्मृति में शूद्रों के बारे
में जो भी कहा गया हो, दसवीं सदी के बाद के स्मृतिकार और निबंधकार व्यापार
और राजसत्ता की वास्तविक जरूरतों के मुताबिक व्यवस्थाएं दे रहे थे। शूद्रों
के राजपद प्राप्त करने के उदाहरण हमने देखे, व्यापारिक साझेदारियों के
प्रसंग में भी बृहस्पति, नारद और याज्ञवल्क्य जाति या कुल को नहीं संभावित
साझेदार की क्षमता और व्यापारिक प्रतिष्ठा को ही ध्यान में रखने की सलाह
देते हैं।
दसवीं सदी से आरंभ हुए और कबीर के समय में काफी विकसित हो चुके व्यापारिक
पुनरोदय की स्थितियों के फलस्वरूप देशभाषा में व्यक्त हो रही मनीषा का
अधिकांश तो मनुवाद का तीव्र खंडन कर ही रहा था; संस्कृत चिंता में भी
शास्त्र को ‘अपडेट’ करने की प्रक्रिया लगातार चल रही थी—शूद्रों के प्रसंग
में भी, और ब्राह्मणों के प्रसंग में भी। मनु का निर्देश था कि अपराधी
ब्राह्मण को भी बहुत नरम सजा दी जानी चाहिए, उसे प्राणदंड तो किसी भी
स्थिति में नहीं दिया जा सकता। लेकिन जिस काल की बात हम कर रहे हैं, उसमें
गौतमीय धर्मसूत्रों पर भाष्य करते हुए हरदत्त व्यवस्था देते हैं कि सारे
वैदिक संस्कार विधिपूर्वक करने वाले ब्राह्मण को ही अवध्य माना जा सकता है,
ब्राह्मणकुल में जन्मे जिस-तिस को नहीं। ‘विवाद-रत्नाकर’ के रचयिता
चंडेश्वर अवध्यता के लिए इतनी कड़ी शर्तें लगाते हैं कि किसी अपराधी
ब्राह्मण का अवध्य होना असंभव हो जाए। उनके अनुसार केवल वही ब्राह्मण अवध्य
है, जो वेद-वेदांग-न्याय; इतिहास-पुराण में पारंगत हो, शास्त्रानुकूल आचरण
करता हो, षड़कर्म पालन करता हो; ऐसा ब्राह्मण भी तभी अवध्य है, जब अपराध
उससे गलती से हो गया हो। सोच-विचार कर अपराध करने वाला ऐसा विद्वान,
आचारनिष्ठ ब्राह्मण भी, चंडेश्वर के अनुसार न तो अवध्य है, न उसे शारीरिक
दंड से किसी छूट का अधिकार है। मनु के अनुसार ब्राह्मण को कठोरतम दंड
देशनिकाले का ही दिया जा सकता था, वह भी उसकी संपत्ति जब्त किए बिना।
आरंभिक आधुनिक काल की शास्त्रचिंता भी मनु को कितना पीछे छोड़ चुकी थी, यह
इन थोड़े से उदाहरणों से स्पष्ट है। लेकिन औपनिवेशिक ज्ञानकांड ने मनुवाद
को पुनर्जीवित करते हुए जाति-वर्णाश्रम-संबंध के ऐतिहासिक विकास पर ध्यान
देने की बजाय वर्णाश्रम की इतिहासातीत कल्पना को ही भारतीय समाज का शाश्वत
सत्य बना कर पेश कर दिया, ऊपर से वर्णाश्रम के साथ नस्लवाद और जोड़ दिया।
वर्णाश्रम की शाश्वतता की धारणा को सर्वाधिक व्यवस्थित अभिव्यक्ति दी लुई
डूमाँ ने। कबीर के समय में राजसत्ता को फालतू या ऊपरी वस्तु मानने की जड़
डूमाँ की ही मान्यताओं में है। उनका मानना था,“ ईसा से कोई आठ सदी पहले,
परंपरा ने सत्ता और पदानुक्रमीय वरीयता के बीच पूर्ण (ऐब्सॉल्यूट) विभेद
स्थापित कर दिया था। आधुनिक शोधकर्ता इस बात को समझ ही नहीं पाए हैं”। इस
विभेद के अनुसार ब्राह्मण की सर्वोच्च स्थिति शाश्वत तथ्य है, ऊपर-ऊपर से
देखने पर भले ही ताकत राजसत्ता के हाथ में दिखे। इसीलिए डूमाँ अंग्रेजी राज
के पहले के भारत के प्रसंग में ‘पॉलिटिकल इकॉनामी’ शब्द के प्रयोग तक को
अप्रासंगिक मानते थे। उस समय तक भारत में बस जजमानी ही थी, और सामाजिक
संबंधों तथा विधि के प्रसंग में तो बस ‘ऐब्सॉल्यूट डिफरेंस’ की ही तूती ईसा
के आठ सदी पूर्व से लेकर आज तक बोलती चली आ रही है। इसीलिए डूमाँ हीगेल को
अनेकों समकालीन विद्वानों से आगे मानते हैं, क्योंकि हीगेल ही जाति के
आंतरिक तर्क, ‘ऐब्सॉल्यूट डिफरेंस’ के मर्म और भारतीय शाश्वतता (
इतिहासविहीनता) के रहस्य को जानते थे। दुनिया में जो भी होता रहा हो, स्वयं
भारत में व्यापार और राजसत्ता ने कितने ही उतार-चढ़ाव देखे हों, डूमाँ के
अनुसार सत्ता और हायरार्की के बीच का अंतर ‘ऐब्सॉसल्यूट’ का ऐब्सॉसल्यूट’
ही बना रहा। अब यह आप पर है कि आप भारत की सनातनता पर गद्-गद् होते रहें,
या भारत की जड़ता पर छाती पीटते रहें, ऐतिहासिक विकास तो अंग्रेजी राज के
पहले के भारतीय समाज और चित्त में हुआ ही नहीं, आधुनिकता की तो बात ही
क्या!
कबीर की कविता में, उनके पूर्ववर्तियों से भिन्न, ‘चिलम न पा सकने वालों’
के आक्रोश और ‘हीन भावना की ग्रंथि’ की बजाय जो आत्मविश्वास आ. हजारीप्रसाद
द्विवेदी नोट करते हैं, उसका संवेदनात्मक कारण प्रेम-भक्ति अवश्य है, लेकिन
संरचनात्मक कारण कुछ और है, और इतिहास-लेखन की दृष्टि से वही ज्यादा
महत्वपूर्ण है। दसवीं सदी से व्यापार का जो पुनरोदय हो रहा था, कबीर के समय
तक वह काफी आगे बढ़ चुका था। व्यापारियों, दस्तकारों की आर्थिक ताकत और
सामाजिक हैसियत में बढ़ावा आ रहा था। नगर विकसित हो रहे थे, भक्ति का
लोकवृत्त प्रभावी भूमिका निभा रहा था। कबीर और उनके जैसे अन्यों के
आत्मविश्वास का संरचनात्मक कारण यही था कि चंद ब्राह्मण और मौलवी जो भी
कहते रहें, कबीर जैसे लोग इस वक्त हाशिए की आवाज नहीं, समाज के महत्वपूर्ण
तबकों-व्यापारियों और दस्तकारों की आकांक्षाओं की आवाज बन चुके थे। कबीर का
आत्मविश्वास केवल उनकी संवेदना का नहीं, भारतीय समाज के ऐतिहासिक विकास का
भी परिणाम था।
मजे की बात यह है कि पक्के भारतीयतावादी हों या ठेठ क्रांतिकारी, इस
ऐतिहासिक विकास की उपेक्षा दोनों करते हैं। भारतीय समाज की इतिहासविहीनता
के अंधविश्वास में दोनों ही विश्वास करते हैं। मनु महाराज के भक्त हों या
मनुवाद के घोर विरोधी, इस बात पर ध्यान नहीं देते कि जो ‘ऐब्सॉल्यूट
डिफरेंस’ ईसा से आठ सदी पहले स्थापित हुआ था, ईसा की आठवीं सदी आते-आते उसे
जबर्दस्त चुनौती मिल रही थी। कात्यायन को प्रमाण बताते हुए देवल और वरदराज
व्यवस्था दे रहे थे कि शास्त्रवचन की संगति लोकाचार के अनुकूल ही लगानी
चाहिए और प्रसंगविशेष में ‘धर्मानुकूल आचरण’ क्या है, इसका निर्णय राजशासन
को करना चाहिए। याने समाज जजमानी पर नहीं, ‘पॉलिटिकल इकॉनॉमी’ के आधार पर
चल रहा था। राजसत्ता ऊपर-ऊपर की, फालतू की वस्तु नहीं थी,बल्कि
धर्मशास्त्रीय प्रश्नों के निर्णय में व्यापारिक जरूरतों के साथ-साथ
राजाज्ञा की भी भूमिका निर्णायक थी। ‘धर्मशास्त्र के अर्थशास्त्रीकरण’ के
इस दौर में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को शाश्वत मानने वाले, बाकी सभी लोगों
के जीवन की सार्थकता ब्राह्मणों की सेवा में ही मानने वाले मनु आरंभिक
आधुनिक काल में इतने भी महत्वपूर्ण नहीं रह गए थे कि कबीर और अन्य लोग नाम
लेकर उनकी आलोचना करने की जरूरत समझें।
इस काल की ‘शास्त्र-चिंता’ की विशेषता आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी बताते हैं:
स्तूपाकार शास्त्र-वचनों के ढेर में से वही वाक्य प्रामाण्य मान लिए जाते
हैं जिनका उपयोग प्रचलित लोक-व्यवहार के पक्ष में हो सके। बाकी वाक्यों को
ननु कहकर पूर्वपक्ष में फेंक दिया जाता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि बंगाल
में जो वाक्य पूर्वपक्ष का है, वही महाराष्ट्र में उत्तर-पक्ष का, और
उड़ीसा में जो वाक्य उत्तर-पक्ष का है, वही काशी में पूर्व का। फिर ऐसे
विशेष वचन भी बहुत अधिक हैं, जो किसी एक प्रदेश में ही माने जाते हैं। इन
सब बातों से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उस युग का पांडित्य भी
लोक-जीवन की ओर झुकने लगा था।
यह कहने के साथ ही, आ. द्विवेदी को टीकाओं और निबंध-ग्रंथों में ‘स्वाधीन
चिंता कम होती’ दिखाई देती है—“सच पूछा जाय तो विक्रम की दसवीं शताब्दी के
बाद ही भारतीय इतिहास का वह काल आरंभ होता है जिसे संकोचनशील और स्तब्ध
मनोवृत्ति का काल कहा जा सकता है”।
बनावटी अखिल-भारतीयता और सार्वत्रिकता को जबरन थोपने की बजाय वास्तविक
स्थानीय संस्कृति को महत्व देने को, पांडित्य के भी ‘लोक-जीवन की ओर’ झुकने
को ‘स्वाधीन चिंता का अभाव’ माना जाए या लोक-संवादी शास्त्र-चिंता की
स्वाधीनता का रेखांकन? जिस काल में देशभाषा चिंतन ही नहीं, संस्कृत
पंडितों, निबंधकारों की शास्त्र-चिंता भी लोक-व्यवहार से ऐसा मुखामुखम कर
रही हो, परंपरा को लाठी की तरह भाँजने की बजाय वाद-विवाद-संवाद के जरिए
परंपरा को आधुनिक बना रही हो,अपडेट कर रही हो, उसे ‘स्तब्ध मनोवृत्ति का
काल’ कहना निराधार है। खासकर ऐसे विद्वान के द्वारा जिसकी अपनी ‘सिफारिश’
“दार्शनिक चिंताओं के मान-दंड से लोक-चिंता को मापने” की बजाय “लोक-चिंता
की अपेक्षा में उन्हें देखने” की हो।
परंपरा से संवेदना-विच्छेद किए बिना उसका रूपांतरण करने वाली चिंता और उस
से उत्पन्न होने वाली देशज आधुनिकता को “स्तब्धता”,बल्कि चारों ओर से घिरे
होने की, आत्महीनता की मनोदशा का सामना करना पड़ा औपनिवेशिक आधुनिकता और
ज्ञानकांड के दौर में।
दसवीं सदी में व्यापार का पुनरोदय हुआ था, मनु-महिमा का पुनरोदय हुआ
अठारहवीं सदी में, वारेन हेस्टिंग्स की कृपा से, जब ग्यारह ब्राह्मणों की
कमेटी ने 1773 से 1775 तक, ओरियंटलिस्ट नेथेनियल हालहेड की अध्यक्षता में
‘हिन्दू विधि’ –हिन्दू लॉ को ‘कोडिफाई’ किया। हालहेड साहब स्वयं संस्कृत
नहीं जानते थे। कोडिफाइड ‘हिन्दू लॉ’ का संस्कृत से मौखिक बांगला अनुवाद
किया गया, इस अनुवाद का अनुवाद हालहेड साहब की सहूलियत के लिए फारसी में
किया गया, और उन्होंने उस फारसी अनुवाद का अनुवाद अंग्रेजी में किया। इतने
अनुवाद-अवतारों से गुजर कर ‘हिन्दू लॉ’ में भ्रष्टता तो आ ही जानी थी।
विलियम जोंस इस भ्रष्ट अनुवाद से बहुत असंतुष्ट थे। लेकिन उनके हिसाब से यह
भ्रष्टता ‘कोडिफिकेशन’ के लिए अपनाई गयी विचित्र विधि, और हालहेड के अज्ञान
की नहीं, पंडितों के स्वभाव की ‘नैतिक भ्रष्टता’ की ही परिणति थी। निकोलस
डर्क्स याद दिलाते हैं कि एक इसी प्रसंग में नहीं, अन्य प्रसंगों में भी,
औपनिवेशिक ज्ञानकांड अपने सांस्कृतिक तथा भाषागत अज्ञान के कारण उत्पन्न
होने वाली, अनुवाद की भ्रष्टता जैसी समस्याओं का “अनुवाद” उपनिवेशीकृत समाज
के अपने “भ्रष्टाचार और कमजोरी” के रूप में’ कर देता था।
अधिक महत्वपूर्ण है यह बात कि जोंस हों या अन्य औपनिवेशिक विद्वान, मानते
यही थे कि हिन्दू लॉ या सोच-विचार का जितना विकास होना है, हो चुका है।
उन्हें इस बात का न बोध था, न परवाह कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों परंपराएं,
दोनों ‘विधियां’ शास्त्र और लोक के, सार्वत्रिक और स्थानीय के संवाद के
कारण लगातार विकसित होती रही है, स्वयं उनके समय में हो रही हैं। सार्वजनिक
वाद-विवाद, सामाजिक अनुभव और स्थानीय आवश्यकताओं के फलस्वरूप कायदे-कानून
का विकास इंग्लैंड जैसे ‘आधुनिक’ समाज में तो हो सकता था, ‘ओरियंटल
डेस्पॉटिज्म’ से ग्रस्त भारत में यह बौद्धिक जीवंतता भला कैसे संभव हो सकती
थी।
सो, जोंस साहब ने हालहेड के ‘भ्रष्ट’ पंडितों की बजाय ‘अपने’ श्रेष्ठ पंडित
चुने, और हिन्दू विधि का ‘प्रामाणिक’ पाठ तैयार किया। 1794 में जोंस द्वारा
इन पंडितों के सहयोग से तैयार किया गया ‘मनुस्मृति’ का पाठ- ‘दि
इंस्टीट्यूट्स ऑफ हिन्दू लॉ ऑर दि ऑर्डिनेंसेज़ ऑफ मनु’ प्रकाशित हुआ। अब
लॉर्ड कॉर्नवालिस आश्वस्त थे कि पंडित जगन्नाथ तर्कपंचानन जैसे प्रतिष्ठित
पंडितों के जुड़े होने के कारण इस ‘ऑर्डिनेंसेज’ को हिन्दुओं के बीच
मान्यता प्राप्त हो सकेगी, सर जॉन शोर रोमांचित थे कि ब्राह्मण विद्वानों
ने हिन्दू विधि का ‘निर्माण’ एक अंग्रेज के ‘निर्देशन’ में किया है।
यह एक ‘प्रयोग’ था, उपनिवेशीकृत लोगों पर ‘उनके अपने कायदे-कानून के
मुताबिक शासन’ के दावे करने का प्रयोग, हालाँकि ‘उनके अपने कायदे-कानून’
रचे औपनिवेशिक सत्ता के द्वारा ही जा रहे थे। इन प्रयोगों में क्या
उपनिवेशीकृत लोगों का अपना था, और क्या उनका बता कर उन पर थोपा जा रहा था।
अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजों की बनाई नयी दिल्ली की ‘तारीफ’ में एक ग़ज़ल
कही है, उसका एक शे’र , ऐसे प्रयोगों के संदर्भ में बरबस याद आता है:
औजे वक्त मुलाकी उनका, चर्खे हफ्त तबाकी उनका।
महफिल उनकी साकी उनका, आँखें मेरी बाकी उनका।
औपनिवेशिक सत्ता कई तरह के प्रयोग कर रही थी, वाद-विवाद-संवाद की प्रदीर्घ,
जीवंत परंपरा को ‘ऑर्डिनेंसेज ऑफ मनु’ और ‘दि मोहम्मडन लॉ ऑफ इनहेरिटेंस’
के जरिए जड़ बना देने के, नाक की लंबाई के आधार रक्तशुद्धि और उसके आधार पर
जाति-व्यवस्था में स्टेटस निर्धारित करने के, सारे के सारे जन-समूहों को
पैदाइशी रूप से अपराधी घोषित करके ‘कंसंट्रेशन कैंपों’ में बंद कर देने के,
अनेक जीवन-पद्धतियों को आपराधिक घोषित कर देने के, समलैंगिकता को ‘भारतीय
परंपरा’ के लिए घातक, शर्मनाक घोषित कर देने के...।
और भी अनेक प्रयोग भारतोद्धार के लिए समर्पित अंग्रेजी राज ने भारतीयों की
हितचिंता की प्रेरणा से किए। औपनिवेशिक सत्ता और ज्ञानकांड की कृपा से भारत
अपनी समस्याओं से टकराते, सोच-विचार के जरिए इतिहास में विकसित समाज के
स्थान पर तरह-तरह के प्रयोगों के लिए उपलब्ध प्रयोगशाला में बदल गया।
यह प्रयोगशाला उन लोगों को भी सुलभ थी, जो नस्लविज्ञान के व्यावहारिक
प्रयोग करना चाहते थे; और उनको भी जिन्हें अपने नैतिक जोश की सुरक्षित
निकासी के लिए किसी जगह की जरूरत थी, जो इंग्लैंड में प्रचलित अनेक अनैतिक
प्रथाओं का कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे थे। वहाँ भी ऐसा बहुत कुछ था, जो नैतिक
चेतना संपन्न लोगों को शर्मनाक—स्कैंडलस—लगता था, लेकिन भारतीय समाज तो
सारे का सारा ही “स्कैंडलस” था। सो, स्कैंडल के विरुद्ध लड़ने को कटिबद्ध
आत्माओं ने स्कैंडलस भारत को सुधारने का बीड़ा उठाया। यूरोप की
जगतोद्धार-कर्ता ग्रंथि भारत के प्रसंग में पूरी तरह सक्रिय हो उठी।
इंग्लैंड में जारी दास-व्यापार के स्कैंडल के खिलाफ विलियम बिल्वरफोर्स ने
बड़ा संघर्ष किया, दास-व्यापार के खिलाफ, 1807 में कानून भी बन गया, लेकिन
रहा बेअसर ही। किंतु अब तक बिल्वरफोर्स की नैतिक आत्मा इंग्लैंड में जारी
दास-व्यापार की चिंता छोड़ भारत के उद्धार में लग गयी। इंग्लैंड मे
दास-व्यापार का होना शर्मनाक था, लेकिन कुल मिलाकर तो बिल्वरफोर्स का देश
सभ्य, आधुनिक देश ही था न! सो, वे दास-उद्धार की बजाय सती-उद्धार में लग
गये। स्कैंडल “घर” से निकल कर “बाहर” पहुँच गया। उपनिवेश बनाने वालों को
अपने स्कैंडलों का तबादला उपनिवेशों पर कर देने की सहूलियत हासिल हो गयी।
सती-प्रथा जैसी स्कैंडलस—शर्मनाक—प्रथा से लड़ते हुए बिल्वरफोर्स अपने
देशवासियों के भी लाड़ले बने रह सकते थे। दास-व्यापार का विरोध करते हुए,
यह जरा मुश्किल था। स्कैंडल इंग्लैंड के सभ्य, आधुनिक समाज से भारत के
मूर्तिपूजक, मध्यकालीन समाज को स्थानांतरित हो गया। बिल्वरफोर्स को स्कैंडल
से लड़ने का नैतिक आत्मसंतोष भी मिला, अपने देशवासियों की सराहना भी,
सामाजिक और भावनात्मक सुरक्षा भी। लोक-परलोक दोनों ही भारत नामक प्रयोगशाला
के उपलब्ध होने के कारण सध गये।
वारेन हेस्टिग्स को यकीन था कि ‘भारतीय लोग न तो कानून के बारे में कुछ
जानते हैं, न अधिकारों के बारे में, उनमें किसी तरह का सेंस ऑफ ऑनर तक नहीं
है’। ऐसे लोगों के ‘उद्धार’ के लिए तो ही भगवान ने अंग्रेजों को भारत भेजा
था। हेस्टिंग्स की आत्मा निश्चिंत रह सकती है। बहुत से क्रांतिकारी
भारतवासी उसके प्रति आज तक कृतज्ञ हैं। थोड़ी बहुत कृतज्ञता पर भारत का भी
हक शायद है। आखिरकार, यही तो वह लैबोरेट्री थी, जहाँ भाँति-भाँति की भड़ास
निकालने के ब्रिटिश प्रयोग किए जा रहे थे। जिस मनुस्मृति को देशज आधुनिकता
कब का पीछे छोड़ आई थी, उसे हिन्दुओं की “दि बुक” बनाया जा रहा था,
संवाद-विवाद के जरिए विकसित होती रही बहुवचनात्मक परंपरा को बर्फ में लगी,
टेक्स्टवादी और केंद्रीकृत पंरपरा में बदला जा रहा था। जीवंत, स्थानीय
रीति-रिवाजों के प्रति संवेदनशील हिन्दू विधि को मनु-स्मृति केंद्रित और
केंद्रीकृत विधान में बदला जा रहा था।
1794 को मनुवाद के पुनर्जन्म का वर्ष माना जा सकता है। इसके पहले,
मनुस्मृति बीस में से बस एक स्मृति थी। निश्चय ही थोड़ी अधिक महत्वपूर्ण,
लेकिन अंतिम रूप से निर्णायक और हर स्थिति में, हर स्थान पर बाध्यकारी
कदापि नहीं। 1794 में अंग्रेज बहादुर द्वारा कराए गए ‘हिन्दू विधि-निर्माण’
ने मनुस्मृति को वह केंद्रीयता प्रदान की, जो उसे आरंभिक आधुनिक काल में तो
क्या, हिन्दू चिंतन के इतिहास में कभी भी हासिल नहीं थी। देशज आधुनिकता के
अस्तित्व को ही नकारते हुए, विचारों और रुझानों में आए परिवर्तनों से आँखें
मूंदते हुए, स्वयं धर्मशास्त्रीय चिंतन के लोक-संवादी विकास को भी धता
बताते हुए, औपनिवेशिक ज्ञानकांड ने ‘मनुवाद’ के विरुद्ध देशभाषा और संस्कृत
दोनों में चले वैचारिक, सैद्धांतिक संघर्ष को ऐतिहासिक स्मृति से बेदखल कर
दिया और मनुस्मृति को ‘पारंपरिक हिन्दू विधि (लॉ)’ के सर्वप्रमुख बल्कि
एकमात्र स्रोत के रूप में स्थापित कर दिया।
मजे की बात यह कि स्वयं औपनिवेशिक सत्ता अनुभव करती थी कि 1794 में संपन्न
जोंस के मनु-धर्मशास्त्र और कोलब्रुक द्वारा 1797-98 में संकलित
“धर्मशास्त्रों के डाइजेस्ट” से, बंगाल के बाहर, देश के सभी हिस्सों के
रीति-रिवाजों को समझने में कोई खास मदद नहीं मिलती। “ बंगाल में जो वाक्य
पूर्वपक्ष का है, वही महाराष्ट्र में उत्तर-पक्ष का”, फिर “ऐसे विशेष वचन
भी बहुत अधिक हैं, जो किसी एक प्रदेश में ही माने जाते हैं”। आ.
हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लक्ष्य की गयी इस विशेषता को उन्नीसवीं सदी
में, दकन और गुजरात के ब्रिटिश प्रशासक अपने अनुभव में देख रहे थे। इसीलिए,
आर्थर स्टील और हैरी बोरार्डेल को निर्देश दिया गया कि वे स्थानीय
रीति-रिवाजों और मान्यताओं का संकलन तैयार करें। स्टील ने विभिन्न जातियों
से उनके रीति-रिवाज की जानकारी हासिल की, लेकिन निर्णायक व्यवस्था पुणे के
ब्राह्मणों की ही मानी। इस बात को नोट करते हुए फ्रैंक कॉन्लॉन ठीक कहते
हैं कि, औपनिवेशिक सत्ता द्वारा हिन्दू विधि के कोडिफिकेशन में इस तरह का
ब्राह्मणीय रुझान समाज के अभिजन पर औपनिवेशिक शासकों की निर्भरता का
स्वाभाविक नतीजा था।
इस निर्भरता के ही फलस्वरूप ‘ऑफिशियल’ ब्राह्मण अपनी सतत सर्वोच्चता की
फैंटेसी को भारतीय इतिहास की सतत वास्तविकता बना कर औपनिवेशिक ज्ञानकांड
में स्थापित करने में सफल रहे। औपनिवेशक ज्ञानकांड और “ऑफिशियल” ( कास्ट्स
ऑफ माइंड, पृ0 223) ब्राह्मणों ने मनु-स्मृति जैसे निर्देशात्मक (
नॉर्मेटिव) टेक्स्ट को ऐसे “पढ़ा”, मानो वह उन्नीसवीं सदी समेत हर युग के
भारत के वास्तविक सामाजिक व्यवहारों का यथार्थवादी वर्णन हो। मनु के नाम से
प्रचलित फैंटेसियों को अकाट्य तथ्य का दर्जा केवल औपनिवेशिक ज्ञानकांड में
ही नहीं, उसके बाद विकसित हुई अध्ययन-परंपरा में भी मिल गया। कट्टरपंथी मनु
को “आदर्श” बताने लगे, तो क्रांतिकारी मनु के ही आधार पर ‘थ्योरी’ बनाने
लगे कि ब्रिटिश-पूर्व भारतीय समाज सिर्फ दंड और भय के बल पर ही संचालित
होता था। वर्णाश्रमवादी फैटेसी की ब्राह्मण सर्वोच्चता को, तथ्यों की
उपेक्षा करते हुए, भारतीय समाज का शाश्वत सत्य मान लिया गया। यह भी नहीं
सोचा गया कि निर्देशात्मक टेक्स्ट्स को पढ़ने का यही तरीका अपनाया जाए तो
मान लेना चाहिए कि स्वतंत्रता की घोषणा के साथ ही, अमेरिका में सचमुच
“परमात्मा द्वारा समान पैदा किए गए मनुष्यों” के बीच समानता स्थापित हो ही
गयी होगी। मनुस्मृति जैसे विषमतापरक हों, या किसी लोकतांत्रिक संविधान जैसे
समतामूलक—निर्देशात्मक टेक्स्ट्स निर्देशात्मक ही होते हैं। उन्हें उसी तरह
पढ़ना चाहिए, यथार्थ की रिपोर्ट की तरह नहीं। ऐसे टेक्स्ट्स को वास्तविक
दैनंदिन व्यवहार की जानकारी देने वाले स्रोतों, वर्णनों और टिप्पणियों के
साथ तुलना करते हुए ही इन्हें वास्तव में “पढ़ा” जा सकता है। इस तरह
“पढ़ने” पर समझा जा सकता है कि कबीर के समय के दैनंदिन व्यवहार में
मनु-स्मृति की क्या हैसियत रही होगी। क्यों दकन और गुजरात के ब्रिटिश
प्रशासकों को मनुस्मृति अपर्याप्त लग रही थी।
तुकाराम और कबीर वर्णाश्रमवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाली देशज आधुनिकता
के कवि हैं। औपनिवेशिक आधुनिकता को श्रेय जाता है देशज आधुनिकता को अवरुद्ध
करने का, वर्णाश्रम में नस्लवाद को जोड़ देने का, मनु के धर्मशास्त्र को
एकमात्र धर्मशास्त्र बना देने का, मनुवाद की पुनः प्रतिष्ठा करने का,
वाद-विवाद से भरपूर उस समय को स्तब्ध मनोवृत्ति के जड़ समय के रूप में पेश
करने का। चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी से आरंभ हुई आधुनिकता को केवल यूरोप की
विशेषता बताते हुए, उसी समय के भारत को ‘मध्यकालीन’ बनाने का।
इस अध्याय में हमें देशज आधुनिकता और उसमें उपनिवेशवादी सत्ता और ज्ञानकांड
द्वारा उत्पन्न किए गए अवरोध की ही चर्चा करनी है। इस चर्चा के लिए यूरोप
की आधुनिकता के साथ भारतीय देशज आधुनिकता की तुलना करना जरूरी है। इस तुलना
की कुछ बातें आपने देखीं, एक और देखें।
हिटलर आधुनिक था, लेकिन प्रबोधन के मूल्यों के विरुद्ध भी था।उसके विरोधी
आधुनिक भी थे, और स्वयं को प्रबुद्ध भी मानते थे, मानते हैं। लेकिन प्रबोधन
के मूल्यों से वंचित हिटलर से लड़ने के दौर में ही इंग्लैंड में, 1944 में
हेलेन डंकन नामक महिला को नौ महीने जेल में गुजारने पड़े थे, क्योंकि वह
‘विच’ –चुड़ैल थी, प्रेतात्माओं से बातें किया करती थी।
इंग्लैंड में विचक्राफ्ट एक्ट 1951 तक लागू था!
नहीं, लूथर या रिफॉर्मेशन या यूरोप की वैचारिक, सांस्कृतिक उपलब्धियों की
उपेक्षा करने या आज के पैमाने लागू करते हुए,मानवीय चेतना के विकास में
लूथर और उनके समकालीनों के योगदान का रद्द करने का मेरा कोई इरादा नहीं।
मेरी परेशानी लूथर से नहीं, उन दोहरे मापदण्डों से है जो यूरोप और
गैर-यूरोप पर लागू किये जाते हैं,उस इतिहास-बोध से है जो दुनिया भर में
ब्राह्मणवादी/ इसलामवादी/ पैगन पूर्वग्रह,जड़ता और पिछड़ापन तो तुरंत देख
लेता है; आजकल के यूरोपीय नव-फासीवादी आंदोलनों का संबंध ‘पैगनिज्म’ से
तुरंत जोड़ देता है, लेकिन यूरोपीय आधुनिकता का ‘पिछड़ापन’ और
नाजीवाद-फासीवाद में लूथर के विचारों का योगदान जिसे नजर ही नहीं आता। भारत
और दूसरे गैर-यूरोपीय देशों में ‘सार्वजनिक जीवन में धर्म की अत्यधिक
उपस्थिति’ से संतप्त लोग इस बात से बहुत चिंतित नहीं दिखते कि ब्रिटेन की
काफी प्रगतिशील यूनिवर्सिटी कैंब्रिज में कॉलेजों के ‘मास्टर’ (प्राचार्य)
चुनने के लिये बैठकें चैपल में ही होती हैं, ताकि इस चयन में परमात्मा की
स्वीकृति बनी रहे। यह बात मैं कैंब्रिज में ही प्रोफेसर एमिरिटस और
तुलनात्मक इतिहास के विद्वान सर जैक गुडी के साक्ष्य के आधार पर लिख रहा
हूं, जिनकी नवीनतम पुस्तक का शीर्षक विश्व-इतिहास के प्रति यूरोपीय रवैये
को अद्भुत रूप से व्यंजित करता है -‘ दि थेफ्ट ऑफ हिस्ट्री’- इतिहास की
चोरी! दुनिया भर में बढ़ती धार्मिक (खासकर इसलामी) कट्टरता से हम सभी
चिंतित हैं,लेकिन ‘धर्मद्रोह कानून’(ब्लासफेमी लॉ) पाकिस्तान की ही विशेषता
नहीं। ब्रिटेन में ब्लासफेमी लॉ 2008 तक मौजूद था। सलमान रुशदी का उपन्यास
‘सेटेनिक वर्सेज’ प्रकाशित हुआ तो कुछ ब्रिटिश मुसलमानों ने लेखक पर
ईशनिंदा, धर्मद्रोह करके भावनाएं आहत करने के अपराध का मुकदमा चलाने की
ठानी, और यह कानूनी स्थिति स्पष्ट हुई कि ब्रिटेन में केवल ईसा मसीह और
एंगलिकन चर्च की निंदा करना ही कानूनन अपराध है, बाकी सभी धर्मों और
कैथॉलिक चर्च की भी निंदा आप बेखटके कर सकते हैं। एंगलिकन चर्च की भावनाओं
को कानूनी संरक्षण हासिल है, बाकी के मामले में तो ब्रिटेन ‘अभिव्यक्ति की
आजादी’ के प्रति परम-प्रतिबद्ध है। ब्रिटेन के ईशनिंदा कानून के तहत ही
,‘सेकुलरिज्म’ शब्द गढ़ने वाले जी.जे. होलीओक को उन्नीसवीं सदी के पांचवें
दशक में जेल की हवा खानी पड़ी थी, क्योंकि उन्होंने ‘सुझाव’ दिया था कि
भगवान को रिटायर करके पेंशन दे देनी चाहिए!
होलीओक की जेल-यात्रा का समय वही समय था जबकि कंपनी सरकार पिछड़ेपन से
ग्रस्त भारतीयों के ‘अंधविश्वासों’ के खिलाफ ‘हीरोइक’ संघर्ष कर रही
थी,उन्हें ‘आधुनिक’ बनाने की जी-तोड़ कोशिशें कर रही थी। मैकाले साहब ने
अपनी सुविख्यात ‘मिनिट’ कुछ वर्ष पहले ही लिखी थी।
गनीमत यही है कि ब्लासफेमी लॉ के तहत किसी को जेल भेजे जाने की अंतिम घटना
1922 में हुई थी।
-
डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल
कहाँ कबीर कहाँ हम
अमीर
खुसरो
- जीवन कथा और कविताएं
जो कलि नाम कबीर न होते...’
जिज्ञासाएं और समस्याएं
कबीरः एक
समाजसुधारक कवि
कबीर की
भक्ति
नानक
बाणी
भक्तिकालीन
काव्य में होली
भ्रमर
गीतः सूरदास
मन
वारिधि की महामीन - मीरांबाई
मीरां का
भक्ति विभोर काव्य
मैं कैसे
निकसूं मोहन खेलै फाग
रसखान के
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