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रंगमंच - 2 सुनकर मैं ने राहत की सांस ली। आज का दिन ही खराब निकला। सबकुछ बोझिल और उदास लग रहा है। मैं पीछे आंगन में जाकर बैठ गया कुर्सी पर पांव पसार कर। आकाश में तारे चमक रहे थे। अन्धकार में गहन नीरवता थी। हवा की ठण्डक बदन को छू रही थीमैं यों ही बैठा बैठा कब सो गया, याद नहीं। मैं अस्पताल के लिये निकल ही रहा था कि देखा वह सामने बैठा है। कुर्ता पायजामा पहन कर वह जोकर सा लग रहा था। उसका चेहरा देखते ही मेरा मूड खराब होने लगता है, ''
क्या बात है?
'' मैं जानबूझ कर
कडक़ आवाज में पूछा। अब वह स्कूटर का हैण्डिल पकड क़र सामने खडा हो गया और यह परखने की कोशिश करता रहा कि बच्चों के नाम से मैं कैसा रुख अख्तियार करता हूँ। इसमें कोई दोराय नहीं कि वह चिकना घडा है। उसे देखते ही मेरे सामने विमला जीवित होकर खडी ज़ाती। उस नीरीह औरत के साथ मैं अन्याय नहीं कर सकता था। उसके सामने तो बच्चों का मोह था, भविष्य था मगर मेरे सामने तो सिवा सत्य का साथ देने के कुछ भी न था। ठीक दो माह बाद वह फिर मेरे घर के सामने बैठा था। पहले तो मुझे लगा, कोई आदमी अपने बच्चों को दिखाने लाया होगा। उसने इस बीच दाढी बढा ली थी जिसके कारण उसका चेहरा और भी डरावना लग रहा था। आंखें कंचों की तरह गोल तथा पीली लग रही थीं। ''
डॉक्टर साहब!
''
वह लपक कर पास आया। वह एकाएक गर्वोन्मत्त होकर बोला, जैसे परोक्षरूप में चुनौती दे रहा हो कि इस तरह की घटनाओं से निबटना उसके लिये मामूली बात है, '' हमारे वकील बहुत अच्छे हैं। होशियार। नामी गिरामी।कभी कोई केस नहीं हारते। जीत की गारन्टी रहती है।'' वह दाढी पर हाथ फेरता हुआ बोला। निर्लज्जता तथा धूर्तता की छाया उसके चेहरे पर सन्ध्या की कालिमा की तरह उतर आई थी। मुझे उसका चेहरा विकृत तथा घृणित लगने लगा। इस आदमी से कैसे छुटकारा मिलेगा - मैं सोच ही रहा था कि यकायक लडक़ी ने दौड क़र मेरे पांव पकड लिये, '' अंकल! मेरे पापा को छुडवा दो।'' लडक़ी का चेहरा कई दिनों से धोया नहीं गया था। धूल, आंसू, नाक के धब्बे उसके चेहरे पर चिपके थे। बाल रूखे तथा गुँथे हुए थे। मैं समझ गया कि यह चालाक आदमी ट्रेनिंग देकर लाया है बच्चों को। '' अंकल हमारा कोई नहीं है। हमारे पापा को बचाओ!'' बच्ची रटे रटाये शब्द रुदन में घोल कर बोल रही थी। मैं ने हडबडा कर बच्ची को परे धकेल कर डाँटते हुए कहा, '' यह क्या तमाशा है? बच्चों को सिखा कर लाए हो।'' लडक़ा भी निहायत खुरदरी जमीन पर पडा था और जोर जोर से रो रहा था पूरी ताकत से। क्षणों बाद ही अँगूठा मुंह में डाल कर चुसुर चुसुर करने लगा। पता नहीं कब से भूखा था या जानबूझ कर भूखा रखा गया था। हृदयविदारक दृश्य पैदा करके वह मेरी सहानुभूति प्राप्त करना चाहता था। मुझे लगा, इसे तो नट मण्डली में होना चाहिये, जहां यह करतब दिखाकर लोगों को रिझा सकता था। ''
ये नाटकबाजी मेरे सामने
नहीं चलेगी। समझे बच्चे को उठाओ और चलते बनो।'' मौका पाते ही वह फिर से अपनी औकात दिखाने लगा। मैं चकित। विमूढ सा खडा रह गया। कैसा आदमी है यह! न हारने वाला। न बुरा माननेवाला। चौराहे पर खडा किसी भी रास्ते पर जाने को तैयार। बच्चा जमीन पर पडा सो गया था। हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया था। विमला का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ खडा हुआ। इन्हीं बच्चों के लिये बयान बदला था उसने। ''
अपने वकील से कहना मुझसे
ज्यादा जिरह न करें।'' वह उत्साहित हो हाथ जोडता हुआ खडा हो गया। इस समय वह धूर्त भेडिये की तरह लग रहा था, जो अपने शिकार को येन केन प्रकारेण फाँसने में या शिकार स्थल तक ले जाने में कामयाब हो जाता है। उसने लडक़े को कन्धे पर टाँगा। उसके दुबले पतले हाथ मरी हुई बकरी के समान लटक रहे थे। लडक़ी को दूसरे हाथ से घसीटता हुआ तेजी से चला गया। उसकी चाल में जो वेग थातत्परता थीमैं समझ गया कि वह अपनी सफलता पर इतरा रहा है। सुनवाई की तारीख के पहले दिन से ही वह प्रेतात्मा की तरह आकर मेरे इर्दगिर्द मंडराने लगा था। मेरी पत्नी और मां के सामने घडियाली आंसू बहा कर करुण कथा का ऐसा रूपान्तरण किया कि मेरी मां दिन भर उदास बैठी रहीं। मेरा बैग उठाए खुशामद करता, दांत निपोरता वह मधुमक्खी की तरह चिपका था मुझसे। ''
साब वो लडक़ा मरते मरते बचा।''
उसने जानबूझ कर मेरी
कोमल रग पर हाथ रखना चाहा। वकील सचमुच अनुभवी था, तेज था। उसका नाम बिकता था। जिन्दगियों को लूटने वालों, जिन्दा जलाने वालों, कत्ल करने वालों के साथ उसकी कोई नैतिक जवाबदेही न थी। समाज के प्रति उसका कोई कर्तव्य न था। उसका असिस्टेण्ट वकील तथा मुंशी इतनी मुस्तैदी के साथ इन गुनहगारों या उनके लोगों को अटैण्ड कर रहे थे कि मैं देख कर दंग रह गया। सबसे ज्यादा व्यथा तो मेरी आत्मा पर तब छा गयी जब मैं ने मजिस्ट्रेट को न्याय की कुर्सी पर बैठे हुए देखा। यह अधबूढा मजिस्ट्रेट क्या जाने कि जलने वालों को किस तरह की हृदयविदारक पीडा होती है या उनका जीवन कितना कुरूप हो जाता है। कितने तरह के सबूत बनाये तथा मिटाये जाते हैं और किस तरह मरणासन्न व्यक्ति के बयान बदलवा कर सब कुछ अपने अनुसार कर लिया जाता है मेरा मन कर रहा था कि मैं लौट जाऊं मगर अब लौटने का कोई रास्ता भी न बचा था। प्रश्न पर प्रश्न पूछे जा रहे थे। मेरी डाईंग रिर्पोट की चीरफाड क़र रहे थे वकील। मैं ने देखा, कमरे के भीतर बाहर लोग सांस थाम कर इस बहस को सुन रहे थे और मेरी तरफ ऐसे देख रहे थे जैसे में किसी दूसरे लोक का प्राणी होऊं। मेरे बयान टाइप होकर मेरे सामने हस्ताक्षर के लिये आए तो मुझे उन्हें पढने तक की इच्छा न हुई, बल्कि मेरे अन्दर ऊर्जा ही शेष न थीमैं पुन: उन शब्दों को देखना नहीं चाहता थाजब मैं बाहर निकला तो साढे चार बज रहे थे। सूरज सिर पर था। उमस के कारण शरीर चिपचिपा रहा था। शिराओं से कोई घनघनाता पदार्थ बह गया था। ''
आपने तो सारा मामला ही गडबड
क़र दिया।''
वह दौडता हुआ आकर खडा हो
गया। छह माह बाद वही व्यक्ति मुझे दीख गया। अस्पताल के सामने। उसने मुझे देख कर भी अनदेखा कर दिया। नाराज होगा, मैं ने उसके हिसाब से गवाही जो नहीं दी थी। ''प्रकाश!
''
मैं ने पुकारा,
पहले उसने देखा,
फिर अनसुना सा करते
हुए खिसकने लगा। मैं उसका चेहरा देखे जा रहा था, जिस पर जीत का उन्माद बह रहा था। भेडिये की तरह चमकती उसकी आँखों में उपहास का रंग स्पष्ट था, '' अच्छा डॉक्टर साब! नमस्ते।'' मैं कुछ और पूछता या बताता, इससे पहले ही वह भीड में अदृश्य हो गया। |
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