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गंगा -  6

प्रलय में भी
प्राणों का उत्सर्ग देखा है
प्रवाह में ठहराव का
आकर्ष देखा है
जीवन मे मृत्यु
और मृत्यु में जीवन का संवाद
क्या उजड़ा क्या आबाद
सृष्टि से पूर्व
सृष्टि के बाद
न कुछ बिसरा
न कुछ याद
अनवरत यात्रा
अनगिन पड़ाव
बड़े उतार
बड़े चढाव
कीजे सुनाऊँ
क्या क्या गिनाऊँ
क्या भूलूँ
क्या याद करूँ
किससे खुद की
फरियाद करूँ
यहाँ जो भी आये
सब रोते हैं
अपने अपने पाप
मुझमे ही धोते हैं
खुद कर के मैली
मुझे ही मैली बताते हैं
फिर भी अंतिम शांति
केवल मुझमे ही पाते हैं
कुछ केवल नदी कहते हैं
कुछ मेरे कंधों पर ही रहते हैं

निर्माण और निर्वाण
मेरी आदत है
एकमात्र इबादत है
वेग से अधिक मेरा आवेग
सृजन का संवेग
केवल मेरे
इतराने , बलखाने पर मत जाना
आक्रोश देख कर हट जाना
माँ हूँ
मारती हूँ
तृष्णा भर नही
तारती भी हूँ
निमिष
पल
घड़ी
प्रहर
दिवस
रात्रि
पक्ष
मास
ऋतु
और साल
युगों से यही हाल
कभी गुना नही
कभी गिना नही
जन्म से चल ही रही हूँ
चलती रहूंगी
जब तक सनातन है
पलती रहूंगी
जीव की तरह ही अविनाशी हूँ
दर्शन की काशी हूँ
सृजन का आकाश हूँ
न मोह हूँ न पाश हूँ
जो करती हूँ
करती हूँ उपयुक्त
माया के बंधन से मुक्त
हर लहर में मोक्ष की शक्ति
भक्ति से मुक्ति, मुक्ति से भक्ति
अद्भुत विधान हूँ
गंगा हूँ
सृष्टि का एकमात्र संविधान हूँ।
 

- संजय

गंगा  । 1 2 3 4 5 7

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