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वक़्त के पंखों से उतर, छूट गया जो उँगलियों के पोरों पर

मनीषा कुलश्रेष्ठ

( शिगाफ़ लिखते हुए दिनों की बेचैनी के इंदराज)

16 जून 2006 आगरा
मुझे शाम और रात के संक्रमण काल में तैरना पसन्द है. एक तो पूल में बच्चों का आतंक लगभग ख़त्म हो जाता है, ऊपर से वो किसी पर भी डाइव कर सकते हैं बिना देखे. नौसीखिए तैराक भी आ – आ कर टकराते नहीँ. नीम और बरगद के विशाल पेड़ों पर लौटे पंछी देर तक खलबली मचाते हैं फिर सो जाते हैं.
लगभग पूरा पूल मेरा, बस दूर तैरते कुछेक बैचलर ऑफिसर्स के सिवा. हाँ, उधर से कभी – कभी इधर भटक आती अज्ञात विद्युत – चुम्बकीय तरंगों से निर्लिप्त हो तैरना होता है. जाते वक्त फ्री स्टायल आते वक्त बैक स्ट्रोक या बस फ़्लोट करते हुए आकाश निहारते हुए आती हूँ, आकाश गुलाबी से साँवला होने लगता है. आकाश जो कि पूरे दृश्य पर पारदर्शी उलटे ढक्कन - सा औंधा पड़ा होता है. अबाबीलों की जगह छोटी चिमगादड़ें ( फ्रूट बैट्स) ले लेती हैं और आपके बिलकुल ऊपर उड़ती हैं. नीला पानी भी सलेटी होने लगता है, धीरे - धीरे पानी के भीतर कुछ नहीं दिखता. फ़्लड लाइट के चारों तरफ देखो तो भीगी – पानी भरी आँखों से हज़ारों प्रकाश – पुंज नाचते दिखते हैं. अलौकिक, एकदम अलौकिक! एक जादू का वक्त होता है यह. बहुत रहस्यमय.
एक – एक कर तारे उगने लगते हैं, आकाश की नीली गुफा की क़ैद से छूटे जुगनुओं - से. तारों के उगने की सुगबुगाहट सिर्फ मैं सुन पाती हूँ. रात किसी नाज़ुक मिजाज़ स्त्री के काले गाउन की सरसराहट की तरह आहिस्ता से आसमान के फलक पर फैल जाती है, सरसराहट जिसे सिर्फ मैं सुन पाती हूँ. रौशन पंखों वाली तितलियाँ कन्धे पर बिठाए चाँद नाटकीय ढंग से अचानक आकर रात की कमर में हाथ डाल देता है और फिर शुरु होता है ‘वाल्ट्ज़’
अँधेरे में भीतर से ऊपर आते हुए मैं बच्चों की कल्पना के ‘वाटर मॉनस्टर’ को ढूँढती हूँ. वहाँ कोई नहीँ होता, बस एक मासूम, तन्हा अन्धेरा भी सर के नीचे हाथ का तकिया लगाए, आसमान के जादू को ताक रहा होता है.

2 अगस्त 2006 आगरा सब के विपरीत मुझे हमेशा क्यों यह लगता है कि किसी भी रचनात्मक लेखन की पहली शर्त यही हो कि लेखक को उस विषय या प्लॉट का कोई अनुभव ना हो. बस कानों सुना हो या कल्पनाओं में जिया हो, या दिवास्वप्नों में उतरा हो. स्वानुभूत चीज़ लिखने में शब्द अकसर साथ नहीं देते और कलम व्यर्थ के विवरणों – वर्णनों में उलझ जाती है, और आप खुद को प्लॉट में से मिटाने या स्मज करने में कहानी को बिगाड़ देते हो. यही वजह है कि मैं ने अपनी स्मृतियों से कहीं ज़्यादा अपनी फंतासियों पर यक़ीन किया है क्योंकि फंतासियाँ मैं कहीं बारीक तफ़सीलों में जीती हूँ.

26 अगस्त 2007
आगरा

आलस और न लिख पाने की यह अवस्था अवसाद जगाती है, एक भय भी. रात को नींद गुम हो जाती है, यह सोच कर कि ‘मन्नो, अब नहीं तो कब?’ कुछ कहानियाँ लिख लेना ही लक्ष्य था क्या? सब वरिष्ठ कहते हैं, अब उपन्यास लिखो, साथी लेखक लगातार लिख रहे हैं, प्रशंसा पा रहे हैं, पुरस्कार भी. यही है क्या ‘पीयर – प्रेशर’? जानती हूँ, यही वक्त है, जिसके गर्भ में असीम संभावनाएं हैं. उम्र का आने वाला साल बस लिख और लिख. ‘दाग़ अच्छे हैं’ की तर्ज पर कुछ लोग कहते हैं, अवसाद अच्छे हैं. लेखन के लिए.


22 अक्टूबर 2007
आगरा

कोई कह रहा था कि, भीतर कहीं हो तो उपन्यास एक दिन हाथ पकड़ कर खुद को लिखवा लेता है. मेरे पास पूरा प्लॉट है, बहुत सारे नोट्स भी, लेकिन वह उपन्यास जो हाथ पकड़ कर लिखवा ले जाए वो कहाँ है? मैं गूगल अर्थ के सैटेलाइट की तरह नॉर्थ पोल से साउथ पोल तक घूम रही हूँ, मेरे उपन्यास के गली – कूँचे सब मुझे साफ दिखते हैं, हर गली, हर जाने पहचाने घर तक पर स्मृति का फ़्लैग लगा दिया है, मगर वह दिशानिर्देशक बिन्दु नहीं मिलता जो कहे – आओ मेरे साथ! वह उँगली नहीं मिलती जिसे पकड़ कर मैं चल पड़ूं ... और तभी रुकूँ जब आखिरी पन्ना लिख लूँ, पहले ड्राफ़्ट का.
 

4 जनवरी 2008
जयपुर

सँभलना, ज़िन्दगी करवट ले रही है.
बहुत कुछ समानांतर चल रहा है. उपन्यास, कहानियाँ, स्मृतियाँ, फंतासियाँ..भीतर बहती विलुप्त धारा – सा. मैं एक सम्मोहन में हूँ. कोई कायाकल्प हो रहा है, भीतरी हिस्सों में. अपना ही स्व हैरान कर रहा है. दिन कहाँ उड़ जाते हैं, पता ही नहीं चलता. देह और मस्तिष्क का समन्वय गड़बड़ा गया है. असमंजस मन का स्थायी निवासी बन गया है. अपने डर से छुटकारा पा भी लूँ तो असमंजस का कोहरा छँटता नहीं. लिखो. लिखो बस लिखो और कोई राह नहीं?
मेरे लिखे की चर्चा हो रही है, मगर भीतर मैं खुद ही आशंकित हूँ. हाल ही मैं दो कहानियाँ एक साथ भेज दीं हैं. लिखा भी समानान्तर था उन्हें. क्या ये जल्दबाज़ी ठीक है? कोई विमर्श नहीं चाहिए मुझे, बस वही जो सच और सही हो. बीच – बीच में मन उचट जाता है, साहित्य का ये संसार खोखला लगता है, मैं क्यों चली आई थी इधर? सब कुछ तो था मेरे पास, बहुत से दूसरे क्षेत्र जहाँ मैं अपना बेहतरीन दे सकती थी. अब मैं शब्दों की दुनिया में हूँ और शब्दों के खोल टूटते देख रही हूँ, वे खाली हैं. * हिन्दी साहित्य में भी ठंडी आत्माओं वाले लोग रहते हैं, ठंडे दिमाग़ों, ठंडे दिलों का राज़ है यहाँ. साहित्य की दुनिया की राजनीति विकर्षित करती है. कभी साहित्य में एक जो बारीक छन्नी हुआ करती थी वह भी तार – तार हो गई है, साहित्य और भाषा के नाम पर जो पढती हूँ, वह तो मेरा प्रिय साहित्य नहीं. सम्पादकों की भूमिका का क्या हुआ? लगता तो नहीं कि वे अब भी ‘ख़ेद सहित’ रचनाएँ वापस करते होंगे?


11 जनवरी 2008
आगरा एक परछाँई लगातार साथ थी इस बार. बहुत कुछ अनजाना – सा जो अपनी चुप्पी में खुद को व्याख्यायित कर रहा था. मेरे पात्र अपना अतीत, अपना दर्शन, अपना – अपना तुर्श व्यक्तित्व लिए चुपचाप आकर मेरी गुमी हुई नींद से खेलते हुए, मेरे सिरहाने खड़े रहते हैं. हर रोज़ मैं जाग कर नोटबुक ऑन करती हूँ, उपन्यास शुरु करने के लिए, शब्द स्क्रीन पर उतर आने को बेताब हैं मगर मेरी उंगलियों की जड़ता है कि टूटती ही नहीं. मैं एडिक्शन की हद तक ‘स्पाइडर सॉलिटियर’ खेलती हूँ. रात तीन बजे तक. आज रात खेलते हुए, इन्हीं जड़ता के पलों मेँ इस ‘जिगसॉ – पज़ल’ के कुछ नए टुकड़े मिल गए हैं. अंतत: मैँने एक कोलाज बनाना शुरु कर दिया है, यास्मीन की डायरी के इर्द – गिर्द. अमिता – रहमान सर – जूनिपर रेस्त्राँ और वसीम. उपन्यास ने उँगली थाम ली है.

जनवरी 18 2008
आगरा

हर सप्ताहांत की पार्टी और सामाजिक व्यस्तताओं और लिखने को लेकर अपनी ही अकर्मण्यता से घबरा कर अचानक ही मैं ने ‘ कृष्ण बलदेव फैलोशिप’ के तहत एक वाउचर की तरह मिले सतोहल, ज़िला मण्डी के एकांतवास को भुनाने का फैसला ले लिया है. परसों जा रही हूँ. अनजानी और नई जगह और मौसम एकदम विपरीत. मुझे नहीं पता, मैं ने बस बैग पैक कर लिया है.
अंशु ने भी ज़्यादा ज़िरह नहीं की, उस पर इस बार मेरा भी निर्णय पक्का था. मिसिज़ मेहता (अंशु के पिछले स्टेशन कमाण्डर की पत्नी )की बात याद आ गई, “ कभी घर से निकलते हुए गिल्ट लेकर साथ मत चला करो कि हाय! बच्चे, हाय पति. अपने लिए भी जिया करो.” हालांकि यह बात अफवा पिकनिक में उन्होंने जवानों की घरेलू पत्नियों से मुखातिब होकर कही थी, मगर मेरे चोर मन पर लग गई थी. मैं अकेले घर से निकलते हुए हमेशा ग्लानि में डूब जाती हूँ. इस बार नहीं.”

21 जनवरी 2008
सतोहल, मण्डी ( हिमाचल प्रदेश)

घनेरी ठंड, अन्धेरा और कोहरा. बस ने मुझे सुबह चार बजे एक अजनबी पहाड़ी कस्बेनुमा शहर में उतार दिया. ठिठुरती हुई उतरी मैं और सामान का वज़न आंखों से तौलने लगी. सर्दी और बीस दिन लम्बे प्रवास के चलते यह बहुत था और भारी था. अब! रात को बस में बैठने से पहले सुरेश शर्मा जी को एन. एस. डी. और फिर उनकी पत्नी सीमा जी को भी मण्डी मैं फोन कर चुकी थी, फिर भी अजाना डर अगर कोई लेने नहीं आया तो! मगर मेरी राहत के लिए ‘बलवंत जी’ वहीं ख़ड़े थे, गाड़ी लेकर.
“ आप मनुषा जी?”
नया नाम मेरा! मनुषा...मनुष्या ! प्रलय के बाद नि:सीम, भीगी धरा के अजनबी तट पर धुन्ध में गुम अकेली ख़ड़ी. दिमाग पर भी धुन्ध छा गई थी, मुझसे अपनी ही पहचान गुम हो रही थी. क्या ज़रूरत थी घर का आराम छोड़ कर ...यहाँ आकर नॉवेल लिखने की. महान लिक्खाड़. एक पुरानी जीप और बातूनी बलवंत जी. ‘एक्स आर्मीमेन’ बलवंत जी को यह जानकर ज़्यादा खुशी हुई कि मैं एक फौजी की पत्नी हूँ, बजाय लेखिका होने के. करीब बीस किमी पहाड़ी रास्ता तय कर उन्होंने ड्रामा स्कूल के एक बेहद ठंडे और पीली, मद्धम रोशनी वाले साधारण से कमरे में छोड़ दिया. सलेटी फर्श और पीली दीवारों वाला वह कमरा भी मुझे देख कर वैसे ही अचकचाया जैसे कि मैं. ठंडा इकहरा बिस्तर, मैं ठिठकी रही कि क्या करुँ? फिर कोट उतारा और जींस – स्वेटर पहने - पहने ही किसी तरह उस बिस्तर की ठंडी कब्र में उतर गई. क्या यही चाहती थी मैं? अपने पर गुस्सा आ रहा था.
नि:सन्देह सुबह बहुत सुन्दर थी. एक सजग सुबह. सामने धूप नहाए पहाड़ दोस्ती को हाथ बढ़ाए खड़े थे, सीमा जी ने ऊपर बुलाया चाय पर, उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा. सीमा जी एक सजग – सहज मना कलाकार महिला, उन्होंने बताया कि बहुत दिनों बाद आज ही धूप खिली है. धूप के उजास से चमकते सीढीनुमा खेत, पहाड़ी लोगों का तुरंत अपनाता खुलापन, मैं फिर पहचान खोने लगी, इस बार खुशी – खुशी. मैं पेड़ , पहाड़, रंग – बिरंगी चिड़ियों का हिस्सा होने लगी.


22 जनवरी 2008
सतोहल, मण्डी ( हिमाचल प्रदेश)

रेपर्टरी में नौसीखियों के चीख़ कर बोले जा रहे सम्वादों या गीतों से मेरी नींद खुलती है. खिड़की से देखती हूं, दुबला, गोरा, दाढी वाला, चश्मा लगाए एक लड़का बैग कन्धों पर टांगे बस से उतर कर आ रहा है. (बाद में पता चलता है कि यह अश्वत्थ है, स्टुडॆंट नहीं टीचर है, एन. एस. डी. से आया है. ) मेरी किस्मत या इस उपन्यास को लिखने के पीछे की ज़िद...सारी कायनात मेरा साथ दे रही थी. वह तो जैसे सूत्रधार की तरह मंच पर उतर आया था. अश्वत्थ भट्ट कश्मीरी ब्राह्मण है. हम अगल – बगल कमरों में थे. अश्वत्थ ने मुझे नया, एकदम अलग कोण थमा दिया. अपनी आवाज़ को पतली और तीखी बना कर बोला – वहां शान्ति कौन चाह्ता है? जब अशान्ति का लम्बा चौड़ा कारोबार है. लापता लोगों, शवों तक की दुकान सजी हो तो.... मुझे रोमांच हो आया, उसकी बातों से. हम जल्दी ही दोस्त बन गए. (अश्वत्थ से बहुत कुछ मिलने वाला है मेरे उपन्यास को यह तो तब जानती थी, मगर वह ‘जिप्सी कम बोहो’ कलाकार खुद इसका एक पात्र बनेगा यह मैंने तब कहां सोचा था. -- 10 अप्रेल 2010)


24 जनवरी 2008
सतोहल, मण्डी ( हिमाचल प्रदेश) लिखते हुए बीच में उलझ जाती हूँ. कहते हैं चन्द्रकांता जी ने, ‘कथा – सतीसर’ में कश्मीर की महाभारत – रामायण पूरी लिख दी है. दिल्ली हो कर आते हुए मैं अशोक माहेश्वरी जी से मिली थी, उन्होंने ’कथा सतीसर’ दिया मुझे. वृहत उपन्यास है मगर मैं इसे अभी पढना नहीं चाहती, अपना सोचा हुआ पहला ड्राफ्ट पूरा लिख कर ही इसे पढूंगी. वरना शायद बीच ही में लिखना बन्द कर दूं. दिमाग़ बार – बार यही दलील देता है कि हॉलोकास्ट, दोनों विश्वयुद्धों के विषय पर लिखी किताबों से विश्व भर का कथा साहित्य भरा है, फिर भी लोग अब भी लिखते हैं, फिल्म बनाते हैं. ( बाद में यही दुविधा अमिता के माध्यम से व्यक्त हुई है, जब वह ब्लॉग पोस्ट लिखती है -- ‘ सब कह्ते हैं बहुत लिखा जा चुका कश्मीर पर... 10 अप्रेल 2010)

25 जनवरी 2008 सतोहल, मण्डी ( हिमाचल प्रदेश)


सामने पहाड़ों पर बर्फ गिर रही है. शाम को बहुत उदास हो जाती हूँ, जब सिवाय ठंड, हवा में उड़ते सूखे पत्तों, कस्तूर चिडिया की आतुर पुकार और रेवेन कौओं के शोर के कुछ नहीँ होता. मैं अपने भीतर यास्मीन को उतार कर महसूस करती हूँ कि मैं कश्मीर में हूँ, वसीम से मिलने जाना है. मोबाइल काम नहीँ कर रहा, तीन कि.मी. चलकर एक एस.टी.डी. बूथ पर जाती हूँ. यास्मीन के मन का उजाड़ मेरे मन में बैठ जाता है.
बहुत लम्बी चौड़ी ज़मीन है, सीमा जी की, एक पूरी की पूरी पहाड़ी उनकी है, जिसकी तलहटी में एक पानी भरा नाला है, ऊपर जंगल, बीच में लहरदार खेत, ढेर से फलों के पेड़. सडक से लगता ड्रामा स्कूल, हॉस्टल और उनका घर.
एक जगह प्राकृतिक मंच बना है, नेचुरल गोल सीढ़ियों से घिरा. यहाँ अश्वत्थ क्लास लेता है. कभी मैं भी बैठ जाती हूं, जंगली घास की महक और पानी के बहने से पैदा हुई लहरदार गुनगुन और अश्वत्थ के बोले सम्वादों के बीच लिखती हूं. काम स्पीड पकड़ रहा है.


26 जनवरी 2008 सतोहल, मण्डी


बहुत सुन्दर दिन है, बांस के झुरमुटों से ग़ुज़रती हवा, नीला आकाश, सफेद बादलों की भेड़ें और सूरज गडरिया. गंगा मेरी नई दोस्त, सीमा जी के खेत खलिहान, गाय संभालती है. मुझे गंगा सुन्दर दिखती है, गंगा को मैं, जबकि वह तो सच ही में हिमाचली सौन्दर्य का मानक है. उसे मेरी उपस्थिति प्रिय है. वह हमेशा चाह्ती है, मैं वहां बैठूं जहां वह प्याज रोप रही हो. मैं दुरूह उतार – चढाव वाले खेतों में गिरती – पड़ती पहुंच ही जाती हूं. उसकी बातें, दुहरे अर्थों वाले मज़ाक, परिवार नियोजन के ग्रामीण टोटके, प्रसव के अनुभव... एक औरत से दूसरी को इसी ‘औरतपने’ के तहत जोड़ते हैं, स्टेटस का फर्क मिट जाता है. ख़ेत – ख़लिहान, रोटी – शोटी, बच्चे – पति, बस यही भोली दुनिया है गंगा की तो. गंगा के फावड़े की खट – खट से कठफोड़्वे की जुगलबन्दी. मैं गंगा के साथ प्याज की पनीरी रोपवाती हूं, सात क्यारियां और दम फूल जाता है. मैंने कभी सोचा था क्या कि कोई ‘गणतंत्र दिवस’ एयर फोर्स की परेड या ‘बड़ा खाना’ या बच्चों के स्कूल फंक्शन से परे यहां बीतेगा, प्याज रोपते हुए! अपने भीतर दूसरे ही हिन्दुस्तान को देख पा रही हूं, खुदगर्जी के संक्रमण से बचे हुए, भौतिकता से दूर खुशहाल हिन्दुस्तान को. मुझे 31 जनवरी को लौट जाना है, 1 फरवरी को दिल्ली में ज्ञानपीठ की तरफ से 12 युवा कहानीकारों की किताबों का विमोचन है, नेशनल म्यूज़ियम के कांफ्रेंस हॉल में. ख़ुशी का अवसर है... ‘कठपुतलियाँ’’ का विमोचन.


3 फरवरी 2008
जयपुर

मेरी दोस्त वसु, स्पेन की इतनी तारीफ़ करती है और मेरी बेटी कनुप्रिया तो स्पेन - दीवानी शुरु से है. चाहे वह पॉप सिंगर ‘एनरिके’ हो या सर्वांतीस का उपन्यास ‘डॉन क्विग्ज़ॉट’ ! वसु और अविनाश केवल उसके आग्रह पर ‘लामांचा’ की बाईक ट्रेल पर गए और वहाँ से तस्वीरें भेजी. मुझे हैरानी हुई कि पनचक्कियाँ अब भी वहाँ हैं, जो सर्वांतीस के उपन्यास में अमर हो गईं. भले ही वे पन्द्रहवीं सदी की ना सही, पर वे वहाँ है, परम्परा को जीवीत रखती.
मौसी – भानजी के इस अनवरत इंटरनेट सम्वाद के बीच न जाने कब स्पेन मेरे उपन्यास में आ घुसा है. अगर चाहती तो, हर आम हिन्दुस्तानी कश्मीरी की तरह मैं अमिता को यू. एस. या यू. के. भेज सकती थी मगर मुझे लगा, साहित्य और स्पेन, स्पेन और कश्मीर का अतीत, स्पेन के मौसम और जैतून, केसर, खाने का स्वाद और गीत. कुछ हद तक करीब हैं. मेरे उपन्यास की नायिका अमिता जैसी है उसे वहीं रास आ सकता है.

10 फरवरी 2008

आगरा खुदा के वास्ते न काबे से परदा हटा जालिम
कहीं ऐसा न हो कि यां भी वही काफिर सनम निकले.
गालिब
डरती हूं यह शेर पढते हुए कि गालिब होते तो उन पर भी न जाने कितने फतवे जारी हुए होते. उपन्यास गति पकड़ चुका है, सब कुछ पीछे छोड़ कर. मुझे ये उपन्यास लिखना ही था, क्योंकि 2006 जून में पहलगाम से लौटते हुए पहली बार मैंने अवंतिपुर बसस्टॉप का वो पेड़ देखा था, उस पर तब भी गोलियों के निशान थे. उन निशानों ने मुझे सहमा दिया था ' कि अंशु की ब्रांच के एक सीनियर एयरफोर्स ऑफिसर जिसे यहां क्रूरता से क्लाशनिकोव से अन्धाधुन्ध फायर कर इसलिए मार दिया गया था वही एक वहां वायुसेना की नीली वर्दी में था, उस दिन उसकी जगह कोई भी हो सकता था.'
मुझे ये उपन्यास लिखना ही था, प्रो मोहम्मद जमां आजुर्दा की शख्सियत के लिए जो कश्मीर के शानदार अतीत का प्रतीक हैं. जो कश्मीर की रूमानियत का, सूफियाना मिजाज का और गंगा जमनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है. प्रोफेसर रहमान का यक्ष प्रश्न जो उपन्यास की नींव में है, पहली बार मैं ने उनके मुंह से सुना था. '' आप लोग यहां से चले क्यों गए?''
जून 2005 का वह खिला हुआ दिन उन्हें याद हो कि न याद हो -- उनकी कॉटेज में एक विस्थापित हिन्दु परिवार उनसे मिलने आया था. उनके परिवार के मुखिया उनके विश्वविद्यालय के दिनों के साथी रह चुके थे और उनके बच्चे बडे होकर कश्मीर घूमने आए थे. यादें घसीट लाती हैं. आजुर्दा ने वह एक प्रश्न कश्मीरी में पूछा था. मैं पता नहीं कैसे उस प्रश्न का आशय समझ गई. मैं चाय प्यालों में डाल रही थी. मेरे हाथ कांप गए जवाब सुनने के लिए.
मगर जवाब बहुत ठहरा हुआ और संतुलित था, एक युवा महिला की तरफ से आया था, जो उनके मित्र की बेटी थीं -- '' सब तो जा रहे थे.''
एक लम्बी चुप्पी के बाद सब चाय पीने लगे, चाय के साथ बात भी वहीं खत्म हो गई. मगर मेरे उपन्यास ने जन्म लिया.


23 मार्च 2008
आगरा

मैं उपन्यास के 180 पेज लिख चुकी थी लगभग आधारभूत तौर पर सम्पूर्ण खाका तैयार था. संयोग से फरवरी में पुस्तक मेले में लेखिका चन्द्रकांता जी से मिलना भी हुआ था. उन्होंने मुझे कहा कि अब क्या बचा है? कश्मीर पर और कश्मीर समस्या पर उन्होंने लगभग सब कुछ लिख दिया है. अब लिखना दोहराव भर होगा.’
मेरे भीतर मेरा उपन्यास 'कुनमुना' रहा था. 'मेरा क्या होगा?''


2 अप्रेल 2008
आगरा

सब गलत और कोई भी गलत नहीं. यह कैसे हो सकता है. गलत तो गलत है और गलतियों की लम्बी कडी इसी एक गलत से शुरु होती है. वह गलती का पहला छोर कहां है? उपन्यास में मैं शुरु ही से एक से ज्यादा एंगल्स लेकर चली थी. मगर वे भी कम पड गए. सेना का एंगल अन्शु से उपन्यास पर लगातार बहस करते हुए आ गया. ज़मान और शांतनु की बहस मेरी और उनकी बहस का ‘सत’ ही है, जिसे मैं इस्तेमाल करने का लालच रोक नहीं सकी. वे बहुत लम्बी और देर तक बहस करते हैं, यह शिकायत मुझे हमेशा रहती है और मैं बीच में खीज कर उठ जाती हूँ लेकिन इस विषय पर मैं ने उन्हें खूब उकसाया – वह आवेश में बोलते जाते... मैं उड़ते भूसे में से दाने चुगती रहती.
“ एक सैनिक, घर से दूर... बर्फ ढके चीड के नीचे खड़ा है, बेहद खराब मौसम में लगातार 5 से 7 घण्टे. अकेला यहाँ तक कि 50 मीटर की दूरी पर खडे साथी से बात नहीं कर सकता. सिगरेट नहीं सुलगा सकता क्योंकि जानता है पीछे के जंगली गलियारों में से कभी भी कोई भी गोली आकर सर फाड देगी. या एक उडता हुआ आया एक ग्रेनेड उसे 'शहीद' बना देगा.
वे लगातार तनाव में जीते हैं. बहुत हताश हो जाते हैं तो अपनी ही गन से आत्महत्या कर लेते हैं. या हल्के से शुबहे पर घबरा कर हथियार चला देते हैं. हल्के शुबहे और ग्रेनेड के बीच 'विवेक' उलटे पैरों लौट जाता है और 'बदनामियां' सहती है आर्मी.

19 मई 2008
एम एच, आगरा कैंट

उपन्यास की गति में व्यवधान. बायप्सी कराना ज़रूरी हो गया है. मैं अस्पताल में हूँ. मिलीटरी हॉस्पिटल का यह माहौल ब्रिटिश इरा में लिए जाता हैं, इन अस्पतालों की पुरानी इमारतें. बहुत बड़े और पुराने पेड़ों से घिरे बड़े विशालकाय कॉटेज, फाल्स सीलिंग्स, ऊँचे रोशनदान, बड़े दालान, हरदम धूल रहित, काले पेंट से रंगा टीक का फर्नीचर, मोटे सलेटी पर्दे, मोटी छिपकलियाँ. इतने बड़े कॉटेज में मेरी बगल में एक और पलंग ज़रूर है, मगर मैं अकेली हूँ. दो आयाएँ दालान में बैठी बतिया रही हैं. बड़े से कमरे के लिए एक ए. सी. कम है, उस पर वोल्टेज, स्टेबलाइज़र खट – खट कर रहा है. बाहर तेज़ हवा से पेड़ मेरे सिरहाने बड़ी छायाएं डालते हुए झूम रहे हैं, कच्चे – पक्के जामुन टीन की छत पर टप - टप गिर रहे हैं. टी.वी. पर कश्मीर पोस्टेड एक सेना के जवान के सुसाइड की खबर आ रही है. मैं उपन्यास के नए कोण पर खड़ी अनमना जाती हूँ. बादल गड़गड़ाने लगे हैं, बरसात की महक चोरी से भीतर आ गई है.
बगल में व्हीलचेयर रखी है. व्हीलचेयर और हाथ में नवजन्मा ! मुझे बरेली मिलीटरी हॉस्पिटल के बेहद जवान और उर्वर दिन याद आ गए, दूसरी बेटी के जन्म के समय लेबर रूम में जाते हुए अंशु ने मुस्कुराते हुए मुझे एक बोर्ड दिखाया था जो लेबररूम के बाहर लगा था. ‘सन इज़ सन टिल ही गेट्स वाइफ, डॉटर इज़ डॉटर थ्रूआउट द लाइफ’
कितना समय बह गया, जीवन के पुलों के नीचे से, फिर भी अब भी, जब मैं मिलीटरी हॉस्पिटल में आती हूँ, मुझे फेमिनिज़्म के सन्दर्भ में इस्तेमाल होने वाली टर्म ‘गर्भाशय की क़ैद’ याद आती है. मैं भीतर से कोई हार्डकोर फेमिनिस्ट नहीं, मैं खुद को समानतावादी या इक्वलिस्ट महसूस करती हूँ. मगर यह टर्म उद्वेलित करती है. यही है जो हर बार यहाँ ले आता है. मैं और अंशु दोनों ही बहुत स्वस्थ हैं, साथ जिम जाते हैं. डांसफ्लोर पर हम हमेशा सबसे पहले उतरते हैं अंत तक बने रहते हैं, हम दोनों ही अपनी उम्र से कम ही दिखते हैं. मगर यहाँ आकर मैं क्यों मात खा जाती हूँ.


21 मई 2008
एम एच, आगरा कैंट कल ओ.टी. में जाने के लिए प्रतीक्षारत थी मैं, मेरे साथ ही अस्पताल का सफेद गाउन पहने दर्द से बुरी तरह कराहती एक आर्मी के सूबेदार की मध्यवयस पत्नी भी थी. कर्नल बातूनी हैं. ( सेना में डॉक्टर भी कमीशंड अफसर और रैंक ओनर होते हैं.) खैर, वो मुझसे सौजन्यतापूर्ण दो – चार ज़ुमले बांट कर उससे मुखातिब हुए.
“तुम वही हो न, जिसके पति का ऑपरेशन हो चुका है. मुझसे झूठ ही कहती रही कि माहवारी होती रही है. अब जाँच से पता चल रहा है कि तीन महीने से बच्चा है, वह भी नली में.”

”सच कह रहे थे साब, होत रही थोड़ी – थोड़ी. हमें ना पतो चलो.” किसी तरह वह बोली.


कर्नल ने मुझे देखा और हँस कर कहा, “ महाभारत का ज़माना है कि आकाश से टपक गया? नली में गर्भ ठहर गया है, नली फटने को है, मरने को बैठी है तब आई है यहाँ. ” मैं उसका राख होता चेहरा देखती रह गई. उसकी शर्मिन्दगी पर खुद शर्मिन्दा हो गई. ‘गर्भाशय की कैद’! और यह मेरी ‘हमक़फ़स’. कोई मर्द इस क़दर ज़लील नहीं होता होगा क्या किसी को गर्भवती करके?


3 जून 2008
आगरा

मैंने अपनी आज़ादी का ठीक – ठीक मतलब समझा हो या न हो मगर उसे जिया है. मैंने अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता को हरसम्भव बचाने की कोशिश की है. सहज ही या लड़ कर, छीन कर और बहला – फुसला कर मैंने इसकी डोर अपने हाथ में रखी है. विचारों की, अभिव्यक्ति की, पहनावे की, खान – पान की या अपने आलस और कामचोरी की आज़ादी भी. विवाह को ‘व्यवस्था’ न बनने देने की ज़िद की आज़ादी.
ज़िन्दगी का मोह, आज़ादी का स्वाद, जीवन और मनोलोक को लेकर अनवरत जिज्ञासाओं के उत्तर ढूँढने का पागलपन, इमानदार अभिव्यक्ति का साहस ही मुझे ‘मैं’ बनाता है.


4 जुलाई 2008
आगरा

इस नॉवल को लगभग खत्म करते – करते यह स्वीकार कर लूं कि अमिता के दोनों रोमांस का रोमांच मैंने लिखते हुए जिया है. मैं अमिता – इयान के बीच की उस थरथराती उत्तेजना से गुज़री और छिटकी हूं. ज़मान और अमिता के बीच मेरी आत्मा हमेशा बनी रही. कई बार तो लगा कि अवचेतन की यह अतिसजगता मेरे उपन्यास की थीम से खेलने लगेगी. मन रोमांस से लबालब था आज मेरा मन किया कि इस रात ज़मान को अमिता के पास रोक लूं, ज़मान की ज़िद और स्टबर्ननेस ने बचा लिया वर्ना... अंत सँभले न सँभलता!!!
मन्नो, उपन्यास में कहीं झोल नहीं चाहिए. चाहे तू 30 जुलाई का 30 अगस्त कर लेना.
26 अगस्त 2008 पहला ड्राफ्ट खत्म हुआ. हैरानी होती है कि, इस डायरी में पूरे समय एक चिनार की पत्ती और मोर पंख साथ रखे रहे. कल मैं डर गई, ख़बरों में फिर कश्मीर और इतने ब्लास्ट. ख़ौफ मेरी कलम को सिहरा गया.
मन किया कि भूमिका से पहले ये बयान लिख दूं कि समस्त परिवेश, पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं, किन्हीं भी जीवित या मृत व्यक्तियों से समानता महज संयोग हो सकती है. डर हावी था नींद पर, सोने पर भी सपनों में यासीन मलिक को सफाई देती रही हूँ ... मैंने कहा ना जीवित या मृत व्यक्तियों से समानता महज संयोग हो सकता है.


30 अगस्त 2008
आगरा

किसी रिश्ते के भरभरा कर गिरने पर लोग भाग खड़े होते हैं, कहने को दरकती दीवारें देख मैं भी बाहर आ जाती हूँ और उसे पूरा ढहते देखती हूँ, मलबे को टटोलती हूँ कि कमी कहाँ रह गई थी. हमेशा मैंने पाया कि submission, पूर्ण समर्पण के सीमेंट और उसकी पुख़्तगी की तारीफ सब करते हैं, अंतत: यही उस रिश्ते के ढहने की वजह बन जाता है. खालिस सोने, खालिस सीमेंट की तरह यह खालिस समर्पण बहुत कमज़ोर साबित होता है. कुछ तो मिलावट, कुछ तो त्रुटि छोड़नी होती है. कुछ रख लेना होता है बचा कर अपने लिए.


8 सितम्बर 2008
आगरा

उपन्यास का पहला ड्राफ्ट खत्म होते ही मैं ने कथासतीसर पढा. कथासतीसर एक 'महागाथा'. फिर भी मेरा छोटा - सा उपन्यास मुस्कुराया. थैंक गॉड! कोई दोहराव नहीं था, मेरे अश्वत्थ - अमिता और यास्मीन – जुलैखा, ज़मान – शांतनु - वसीम उनके लम्बे कालखण्ड वाले उपन्यास से अलग - थलग खड़े, असल घनीभूत आतंकवाद के बाद का अकेलापन झेल रहे थे. जहां उन्होंने अपनी महागाथा खत्म की थी, वहीं मेरे पात्रों ने आंख खोली थी. चन्द्रकांता जी की बटनियों के डजेरुहो और चन्द्रहारों की चमक से परे मेरे पात्र ' अमिता - अश्वत्थ और यास्मीन – वसीम, ज़मान – शांतनु ''अपना अपना सच कहने का खतरा मोल लेने जा रहे थे. “
‘कथा सतीसर’ पढा. बेहद लम्बा फलक . कितनी – कितनी पीढियां, उनकी कथाएं – उपकथाएं. पौराणिक – ऐतिहासिक गाथाएं – उपगाथाएं मगर वृहतता में भी इतना शानदार निभाव प्रशंसनीय. नि:सन्देह उपन्यास में बहुत कुछ आ चुका था, एक सिरे से लेकर अंतिम सिरे तक निष्पक्ष रहकर भी वे मानो सच कहने के ख़तरे मोल नहीं ले पाईं. बटों के वैभव, खान – पान, साड़ी ज़ेवर को जिस रुचि से दिखाया, उसके सामने दूसरे पक्ष की मेहनतकशी के बावज़ूद पीढियों बनी रहने वाली दीनता फीकी पड़ गई. मुसलमानों की विपन्नता व शोषण को उन्होंने बस रस्मन दिखा दिया.
मैंने अवंतिपुर का वो पुराना एयरफोर्स बेस देखा है, वहां बस स्टॉप के पास एक पेड़ अब भी है, जिस पर गोलियों के निशान हैं, उसके सामने बस के इंतज़ार में खड़े मेरे पति के सीनियर को उनके सामने ही गोलियों से छलनी कर दिया गया था. आप पलायन के बाद कश्मीर आईं? करगिल छद्म युद्ध के बाद भूकंप पीड़ित कश्मीर के गांव देखे हैं? मैं ने देखे है. बहुत करीब से. सीमा से लगा देहात, खास तौर पर तंगधर वैली, ऎसा लगता है कि आप मोर्टार और ग्रेनेडों से छलनी अफगानिस्तान को देख रहे हैं.

बाकि रही बात कश्मीर पर लिखा सारा साहित्य तो मैंने नहीं पढा मगर यह तय है, उस सब के बाद भी, मेरे बाद भी, बहुतों के बाद भी इस ‘के इश्यू’ पर लिखा जाना हमेशा बाकि रहेगा.


29 अक्टूबर 2008

मेरे भीतर कई बार हिन्दी साहित्य जगत को लेकर मोहभंग की स्थिति कग़ार तक आ गई है. स्त्री विमर्श के तमाशे ने सबसे ज़्यादा आहत किया है. स्त्री – विमर्श में अकसर पुरुष रुचि लेते दिखे. किसी भी फेमिनिस्ट लेखिका की किताब आते ही लोग शब्दों की स्कर्ट उठा कर देखते हैं कि यहाँ सेक्स कहाँ है, देह की आज़ादी की बात कितनी है. स्त्री विमर्श का शोर सबसे ज़्यादा साहित्य में मचता है और यहीं वह औंधे मुंह गिरा है.
5 नवम्बर 2008 उपन्यास के शीर्षक को लेकर झंझट है. क्या रखूँ. ‘शिगाफ़’ शब्द मुझे बहुत पसन्द है. के बी, कैफी, मीना कुमारी के यहाँ बहुत आता है, अर्थ है – दरार . मुझे पसन्द है और एकदम माकूल भी है. बहुतों ने ख़िलाफत की. यहाँ तक कि उर्दूदां सीमा शफ़क ने भी. लेकिन ज़िद... न समझे तो न समझे कोई. कसप, क्याप को भी तो आखिर समझा गया न! ये तो शिगाफ़ है.

1 जनवरी 2009
उपन्यास भेज दिया राजकमल प्रकाशन को. मुझे उम्मीदें हैं, मगर बहुत से संशय भी रहे हैं, मसलन ‘ब्लॉग फॉर्म’ को लेकर हिन्दी जगत की ‘हसन जमाली’ जड़ता पर शुरु में शक था मगर फिर खुद को समझाया कि जब हमारे हमउम्र साथी ही नहीं हमारे वरिष्ठ भी आजकल ब्लॉग लिख रहे हैं, तो ... यह फॉर्म किसी को अख़रना तो नहीं चाहिये, फिर कुछ नया – सा लिखने के लिए चलो, यह खतरा भी सही. सराहे जाकर भी क्या होगा? वही चने – मटर - सी रॉयल्टी. मुट्ठी भर लोगों में चर्चा ! उस पर साहित्य के बाहर की दुनिया की तो पूछो ही मत, एक दिन एक युवा लड़की घर आई, मेरे स्टडी में आकर उसने प्रेमचन्द की फ्रेम जड़ी तसवीर देख कर पूछा, “ योर फादर इन लॉ ? ”

18 अप्रेल 2009
किसी पत्ती को छिपाने के लिए किसी जंगल से बेहतर कोई जगह नहीं, वैसे ही प्रेम को छिपाने के लिए कहानी से बेहतर क्या हो सकता है. बहुत शोर है, ज्ञानोदय के ‘प्रेम कथा’ के विराट विशेषांक का, सब अपनी – अपनी पत्तियाँ लिए अतीत के जंगलों की तरफ भटक रहे हैं!

4 जुलाई 2009
आकाश छूकर भी चिड़िया को तो इसी ज़मीन के मौसम प्यारे होते हैं. दाम्पत्य बेशकीमती है, घर अनमोल, इस ‘कोज़ी’ स्थायित्व की कोई तुलना नहीं. घर जिन दो पहियों पर टिकता है उनमें से एक स्त्री है. एक माँ के लिए बच्चों से महत्वपूर्ण क्या है? फिर भी क्या किन्हीं धमकियों की ज़रूरत रह जाती है? बिना सीँखचों की क़ैद के बाद भी किसी कंटीली बाड़ की ज़रूरत रह जाती है? चिड़िया हर उड़ान से पहले सोचती है – कब, किस पल? हैरानी होती है कि कहाँ बेची थी आज़ादी उसने? कब हुआ था यह क़रार कि बस एक लीक पर चलेगी, अपने सारे सुख तज कर. कब यह तय हुआ था कि उसकी ज़िन्दगी खुले ताश के पत्तों पर हारती रहेगी और वह अपने पत्ते हाथ में छिपाए मुस्कुराता हुआ जीतता चला जाएगा.
इसी विषय पर ‘केयर ऑफ स्वात घाटी’ लिखी थी, महिला दिवस पर रेडियो के लिए. जल्दी - जल्दी बस दो घंटों में इसे घसीटा था. फिर उसे जितेन्द्र गुप्ता ने ‘अकार’ के लिए माँग लिया. अनपेक्षित रूप से इसे भी सराहा गया, मुझे हैरानी तो बहुत हुई जब राजेन्द्र यादव जी का फोन आया, लगभग गरियाता हुआ, उनका अपना तुर्श अन्दाज़, जो मुझे प्रिय है – “ इतनी अच्छी कहानी और दे दिया करो किसी भी लोकल अखबार के सान्ध्य संस्करण में.”
मैं ने हंस कर कहा – “ आप तो उस औघड़ बाबा की तरह हैं, जिसकी खड़ाउं की मार में भी आशिर्वाद होता है.” मैं ने अपने मन का सच ही कहा था.
30 अक्टूबर 2009 प्रियम्वद ने मेरी कहानी ‘स्वात – घाटी’ के रेडियो वर्ज़न को ‘पॉलिटिकली इनकरेक्ट’ कहा. मुझे नहीं पता कि किसी कहानी की परख के लिए यह ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ शब्द कितना तो ‘पॉलिटिकल’ है, कितना तो ‘करेक्ट’. क्या कहानी ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ तभी होती है जब कोई मैसेज देती हो? नवजागृति का या किसी कड़वे – कठोर समाधान का!
 


29 अप्रेल 2010
जयपुर

जयपुर आते समय मैं ने अखिलेश जी की किताबें ‘अचम्भे का रोना’ और ‘आपबीती’ ( रूसी चित्रकार मार्क शागाल की आत्मकथा) रख ली थीं. पढ कर मैं अचम्भित. एक चित्रकार – लेखक का अनूठा संकरण, हिन्दी जगत को नए मुहावरे देता, रेखाओं सी सीधी – सरल भाषा में नया ही कुछ रचता हुआ शिल्प. मैंने बिना लाग – लपेट और पूर्वाग्रह के तय कर लिया कि उनकी दोनों पुस्तकों पर अपने ढंग से लिखूँगी.
अखिलेश का चित्रकार तो लगभग अल्पभाषी है, वहाँ रंग बातें करते हैं, मगर जब अखिलेश का लेखक कुछ कहता है तो वह अभिव्यक्ति चमत्कृत करती है. ईमानदार धार लिए चमकीली अभिव्यक्ति की असरदार सम्प्रेषणीयता. गद्यकार अखिलेश, अनजाने ही या आदतन अपने चित्रकार से एक नया मुहावरा, नई भाषा और सादे से मगर अनूठे शिल्प का टूल किट लेकर चलते हैं जो अमूर्तन को मूर्त करता है, जो हिन्दी साहित्य जगत में विरल है, बल्कि अपने आप में एक ही है.
अखिलेश के यहाँ सहजता सर्वव्यापी है, उनके व्यक्तित्व में, बातों में - सम्वादों में, घर में, स्टूडियो में मित्रों के साथ, वह सहजता जो अपने आपमें उतनी ही महीन, सघन और बहुपरतीय – गुम्फन लिए होती है, जितने कि अखिलेश के चित्र. पहली नज़र में उनके चित्र बहुत कठिन लगते हैं समझने में, बारीकी में एब्स्ट्रेक्ट? इतना महीन? फिर गहरे उतरो तो, एक कैलाइडोस्कोप खुल जाता है, फिर दिखता है, खपरैल वाली छ्त पर गिरे नीम के लाल - पीले पत्ते या भूरी रेगिस्तानी लहरदार रेत पर से सरसराता गुज़रा एक हरा सांप, आइस्पाइस खेलते में घर के अँधेरे स्टोर रूम में हर आहट पर बनते - बिगडते भय और रोमांच के पुँज. आंख पर बंधी ब्लाइंड फोल्ड में से दिखती आकृतियां. एक रेश्मी रूमानी नीली शाम में विदा के बाद का खुरदुरा सलेटी सन्नाटा, एनेस्थीसिया के शुरुआती असर में दिखते काले – भूरे – धूसर माँसल वृत्त. हाल ही में जुते खेत की लाल – काली मिट्टी पर बने बटेर के झुण्ड के पंजों के बेतरतीब निशान.
वे चुनते हैं अवचेतन के नितांत एलियन रंग. वे रंगों के कबीर हैं, कविता गुनगुनाते हुए रंग कातते हैं. न जाने कब कविता रंग में और रंग कविता में बुन जाते हैं.


8 मई 2010
आगरा

किले की पूरे शहर पर पड़ती छायाएँ अकसर अब मेरे मानस पर पड़ने लगी हैं. मारवाह के पौधे की गन्ध स्मृतियों को बहुत पीछे लौटा जाती है, कहते हैं चालीस की उम्र के बाद व्यक्ति अपनी जड़ों की तरफ पलटता है. चित्तौड़गढ़ में छूट गया मेरा बचपन और किले के नीचे स्थित स्कूल ‘भामाशाह भारती’. 1976 के बसंत के दिन, किसी धूमकेतु के प्रकट होने के दिन. (उसे तब हमने हैली कॉमेट ही समझा था, मगर था वह कॉमेट ‘वेस्ट’.) मुझे याद है, उस दिन पूरा स्कूल आकाश की तरफ मुँह उठाए था, सुबह आठ बजे...हल्का सा याद है कि कोई धूमकेतु दिखा था.
पुराने दिन स्मृति में अब चमकने लगे हैं. चित्तौड़गढ़ पर मैं अपना दूसरा उपन्यास लिखना चाह रही हूं, कहाँ से शुरू करूं? जो उंगलियों की पोरों पर, वक्त के पंखों से उतर कर छूट गया है, उसे बिना शब्द विलास के, बस सहज ही यूं का यूं कैसे पकड़ूँ कि....... ?


मनीषा कुलश्रेष्ठ
संपादक हिंदीनेस्ट

 

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