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कथा कहन स्पीकर – 5
कहानी क्या है ? कहन कैसा हो?
कहानी क्या है? महज कुछ संवाद, कुछ गुफ्तगू,
कुछ आवाज़ें, या फिर अमल या हरकतें। लेखक की हज़ारों नज़रों से देखी गई,यह नई
– सी लगती कहानी की दुनिया , वही तुम्हारी अपनी पुरानी दुनिया है! मेरी समझ
से, जिस कहानी को महसूस करने और लिखने में लेखक की पांच इंद्रिया कम पड़ती
हों और उस कहानी को महसूस करने के लिए पाठक की भी पांचों अनुभूतियां काम आ
जाएं बल्कि उसे दो चार अनुभूतियां और जगानी पड़ जाएं तो वही सच्ची कहानी है।
क्या कहानी लिखना सिखाया जा सकता है? कह नहीं सकती लेकिन कहानी लिखने को
लोगों को उकसाया ज़रूर जा सकता है, कहानी लेखन को लेकर कुछ तात्विकताओं से
परिचित करवाया जा सकता है। कुछ जिज्ञासाओं को शांत किया जा सकता है।
एक बनजारे को कहानी लिखना कौन सिखाता है? उसके पैर के छाले और आँखों में
उतरते नित नये रंग। भाषा तो फिर उसकी अपनी, जो सत्य में गल्प मिलाती चले।
शेर को भैंसे जितना बता दे, पोखर तो समंदर करदे। क्या महज वह गप है? उसमें
वह यथार्थ भी है जो उसके पैरों की पीड़ा को कम करता है, ज़िंदगी की उलझनों
को सुलझा कर बताता है। किसी महान लेखक ने कहा है – “कहानी वो गप्प है जिसके
ज़रिए हम ज़िंदगी के सच दिखाते हैं।“ किसने कहा यह अभी याद नहीं आता, मगर
क्या फर्क पड़ता है नाम से। बस इतना भर मान लेना बहुत है कि सत्य इतना
टेढ़ा और चुभने वाला होता है कि कथाकार सत्य कहने के लिए गल्पकथा का सहारा
लेता है। ज़ोर का झटका धीरे से लगे।
हम कथा में बलात्कारी को भी बेनिफिट ऑफ डाउट देते हैं कि इंसानियत पर से
भरोसा न मिट जाए। किसलिए व्लादीमीर नॉबकॉव ‘लॉलिटा’ में हम्बर्ट के सघन
स्याह की बैकवर्ड जर्नी में हमें ले जाते हैं, जहां बालक हम्बर्ट, बालिका
एनाबेल ली को प्रेम करता है और उसे मरते देखता है। बस उसके यौन आकर्षण की
उम्र वहीं लॉक हो जाती है जिसके चलते वह लॉलिटा की मां को झाँसा देकर विवाह
करता है और उसकी हत्या कर लॉलिटा को लेकर भटकता है, शोषण करता है। लेकिन
कहानी इतनी ही नहीं, लॉलिटा का भी अपना सघन मनोविज्ञान है। जिसका वर्णन
मारक अतिरेक के साथ नॉबकॉव करते हैं और वह अतिरेक कितना सत्य प्रतीत होता
है। बस, यही है कहन।
लेखक सघन उलझे सच पर एक झूठ रचता है। जिस पर पाठक यकीन करता हो क्योंकि
उसमें उसे अपने जीवन के यथार्थ के अंश मिल जाते हैं। वे अंश उसे सम्मोहित
करते हैं, क्योंकि मनुष्य कहानी में कहीं अधिक रोचक प्रतीत होता है बजाय
जीवन के। क्योंकि वहां मनुष्य एक कहानी में सिमटा-सहेजा हुआ है। वरना जीवन
तो बिखराव का नाम है जो समेटने में ही नहीं आता। अच्छी कहानी का काम ही यही
है कि जो बिखरा हुआ है उसे सहेजे। अच्छी कहानी का यह भी काम है कि जो बहुत
अपने में सिमटा-बंद हो उसे बिखेर दे।
जब हम कहानी लिखते हैं पाते हैं कहानी के पात्र कहीं अधिक वास्तविक हैं
जबकि आपके आस-पास सांस लेते हिलते डुलते उलझे हुए लोगों के। हम सभी इस बात
के हामी हैं कि कहानियां सच्चाइयों से कहीं बेहतर ढंग से समझ आती हैं।
अकसर लोग कहते नज़र आते हैं कि कहानियों में जो होता है, वह जीवन में नहीं
होता! आप ग़लत हैं, इसे यूं ज़रूर कह सकते हैं कि वह सब कहानियों में होकर
रहता है, जो जीवन में होने से रह जाता है। हम बचपन से परियों की कहानियों
में इसीलिए आनंद लेते हैं कि वे हमें इस यथार्थ से परे अलबेले यथार्थ में
ले जाती हैं। कुछ लोग परियों की कहानियों को यथार्थ से पलायन कहते हैं। मगर
उन कथाओं का उद्देश्य तो पलायन नहीं, अतिरेक है। आप पोस्टमॉडर्न कहानी देख
लें, वहाँ बारीक विवरणों का अतिरेक है। जादुई यथार्थवाद फिर क्या है? मुझे
हमेशा कृष्ण बलदेव वैद से लिए साक्षात्कार की यह पंक्ति याद आती है, यथार्थ
और यथार्थ वाद में यही फर्क है कि कीचड़ में चलो और पायजामा ऊपर कर लो।
कहानी का आनंद तो कीचड़ में रपटने में है।
क्योंकि यथार्थ का सूखा रास्ता कितना उबाऊ होता है मगर कथा का रपटीली और
मनोरंजक।
मैं यहाँ किसी वाद की नहीं बस कहानी और उसके लेखन की बात करना चाहूंगी।
कहानी लिखने का कोई तयशुदा फ़ॉर्मूला तो होता नहीं, या तो आप किस्सागो होते
हो या कि नहीं। नहीं होते हो तो आप जबरन प्रयास करते हो। मेरी मां किस्सागो
थीं मगर लिखती नहीं थीं। जब वे कोई बात सुनातीं तो बालों के रंग, स्टायल से
लेकर, चेहरे के मस्से और पैर की उखड़ी नेलपॉलिश का ज़िक्र करतीं और बीच में
आप खीजने के लिए स्वतंत्र हो सकते थे – मम्मा मुद्दे पर आइए। मुझमें यह जीन
छुपे तौर पर रहा और कॉलेज में लेखनी से उभरा। ज़्यादातर मेरी कलम पर मम्मी
के किस्से हावी रहे, ‘ गफूरिया, कुरजां डाकण, सुगनी, अब्दुल हुसैन की मां,
सोफिया तमाम छोटे बड़े पात्र।
कहीं पढ़ा हुआ याद रह गया कि एक अच्छी कहानी कभी सॉल्यूशन नहीं देती...।
कैसे देंगी? सॉल्यूशन ही अपने आप में भ्रम है। परम समाधान तो कुछ होता
नहीं, अच्छी कहानियाँ विमर्श, समाधान, प्रेरक शिक्षा जैसी हायपोथैटिकल
चीजों से दूर रहती हैं। कहानी का काम है जीवन को सरल ढंग से आपके सामने
पसार देना, आप अपने फ़्लैग लगाते रहें समाधान या विमर्श के। कहानी तो बहता
पानी – रमता जोगी है। अच्छी कहानियां जीवन और मनुष्य के मन के रहस्यों से
परदा भी नहीं हटाती हैं बल्कि वे तो उन रहस्यों को विस्तार से कहती हैं,
क्योंकि ये हमारे द्वंद्व, सपनों, भूलों और विरोधाभासों और अंतहीन
जिज्ञासाओं से रची जाती हैं।
सच कहिएगा, रामकथा में मंथरा, कैकेयी, रावण, विभीषण जैसे लोग न होते या
महाभारत विरोधाभासी चरित्रों रहित होता। मुझे नहीं लगता कि हमें
कथा साहित्य में कभी आनंद आता अगर इनमें दुष्टों, मूर्खों की पर्याप्त
भूमिका नहीं होती।
कथा-कहन कार्यशाला का यह मक़सद कभी नहीं था कि कहानी लिखना सिखाया जाए।
कथा-कहन में इसीलिए कहानी और कहन के विविध पुराने-नये माध्यमों पर बात हुई।
सुनने वाली कहानी, देखने वाली कहानी, चित्रों में कहानी, मंच पर कहानी,
पढ़ने वाली कहानी तो अंतत: है ही सब कहानियों का सिरमौर! मैं विकट कहानी
पाठक हूँ मुझे कहानियाँ याद रह जाती हैं और लेखक अगर नामचीन न हो तब भी
कहानी ज़हन में…. धर्मयुग में छपी कहानी ‘ सिड़बिल्लो’ दरअसल मां ने पढ़वाई
थी।
“मन्नो पढ़ो यह कहानी।“ उस कहानी की वह बेवकूफ़ सी लड़की जो मोहल्ले भर के
काम आती रह कर भी पीछे से सिड़बिल्लो कहाई। प्रेम में भी सिड़बिल्लो रही।
वह नायिका वह कहानी आज भी मुझे हॉन्ट करती है। लेखक का नाम तब ज़हन ने
नोटिस ही नहीं किया।
विकट पाठक होना मेरे बहुत काम आया। जब भी लगा इस विषय पर कहानी लिखूं तो
यही सोचा कि इस विषय पर मैं कैसी कहानी पढ़ना पसंद करूंगी? इस लम्बे
वक़्फ़े में जाना कहानी एक लम्हे की हो या दो सदियों के बीच की, आप कहाँ
खड़े हो यह जानना आना चाहिए। कहानी भी एक फ्लाइट की तरह है अगर टेक ऑफ और
लैंडिंग मायने रखती है तो रनवे पर दौड़ने का संतुलन भी मायने रखता है।
एक पावरफुल शुरुआती लाईन किसी भी कहानी का शहतीर होती है। उस पर टिकता है
कहानी का समूचा क्राफ्ट, पहली पंक्ति में ही वह क्राफ्ट झलक जाना चाहिए
जिसे लेकर आप कहानी बुन रहे हों। शुरुआती लाईन में एक मौलिक कहन, एक
प्रस्थान बिंदू झलके ही। शुरुआती लाईन से ही बॉल रोल हो जाए। इस मामले के
प्रियंवद विशेषज्ञ हैं।
एक पाठक और अब बतौर संपादक भी बेजा विवरणों वाली शुरुआत अकसर मुझे कहानी
में घुसने नहीं देती, मैं घुसती भी हूँ तो बेमन से। फिर बाद में कहानी
कितनी ही मनोरंजक, महान क्यों न साबित हो। पहले वाक्य में गति भी चाहिए कि
गाड़ी आगे बढ़े….. घुरघुरा कर न रह जाए।
गति के लिए क्या किया जाए? मुख्य पात्रों को अजब स्थिति में मिलवाया जाए,
जैसे कसप में डीडी और बेबी टॉयलेट के मुहाने पर, किसी अटपटे मौसम का पता
दिया जाए .. नवबंर में तो ऐसी बारिश कभी नहीं देखी, दादी के हिसाब से तो
शहर मानो डूबते-डूबते बचा था। सवाल ही दाग़ दिया जाए कि बच्चू हल खोजो।
“ हयात तो कहा करती थी कि मेरा शहर बड़ा दोस्ताना है तुम जब पहुंचोगे सब
जान लेंगे तुम कौन हो मेरे?”
सीधे नायिका का परिचय – सोफिया तो नाम ही एक नमकदार रुबाई का था।
कहने का मतलब यह कि पहले पैराग्राफ़ में तो तो कहानी का शुरुआती मोमेंट्म आ
ही जाना चाहिए .... जो बेजा टायप इधर-उधर के विवरण। इस मुआमला में मैं
मोपांसा की फैन हूँ। वे भिड़ते ही पाठक को कहानी में डुबोने लगते हैं, कभी
प्रोटोगॉनिस्ट यानि कथा के मुख्य पात्र के चौंकाऊ परिचय के साथ, कभी मेज़
पर जमे कई पात्रों के परिचय के साथ।
कहानी क्या है, जिसके दरवाज़े से घुस कर हम भूल जाते हैं कि हम कौन हैं,
कहाँ हैं। पाठक कहानी बहुत वजहों से पढ़ते हैं। मनोरंजन के लिए, हँसने,
रोने, डरने, भावुक होने, प्रेम और पीड़ा को महसूस करने के लिए। दूसरी
दुनियाओं को कल्पना के माध्यम से देखने के लिए। संसार को अंतरंग ढंग से
समझने के लिए।
आप के अंदर अगर सच्चा किस्सागो नहीं है, या है तो वह जगा नहीं है तो आप ये
ग़लतियां ज़रूर करेंगे --- बहुत बकबक करेंगे अपनी कहानी में, पात्रों का दम
निकलने तक बतौर लेखक छाती पर ही चढ़ जाएंगे। विशेष पात्र गढ़ेंगे अननैचुरल
- से जिन पर अपने विचार थोपेंगे। बेडरूम में भी पात्र से अपनी भाषा
बुलवाएंगे। कहानीकार का मक़सद वाईज़ बनना नहीं है, अपने पात्रों को उनकी
सनकों और विरोधाभासों, मूर्खताओं और उदासियों के साथ अकेला छोड़ दो न। हम
अपने एकांत में जैसा व्यवहार करते हैं, पात्र को करने की आज़ादी दो। पात्र
कठपुतलियां नहीं हैं।
यह तयशुदा बात है जब आपके पास कहने को बहुत कुछ होता है आप फालतू डीटेलिंग
नहीं करते। जब कुछ नहीं होता तो आपका पात्र किसी की सायकल के डंडे पर बैठ
शहर का पूरा चक्कर काट के आ सकता है, बेजा सवाल करता हुआ। या विवाहोपरांत
पूर्व प्रेमी से मुलाकात की अति शुष्क अंतहीन भूमिका में ही प्रेमकहानी का
बंटाधार हो सकता है।
चलो यह भी जायज़ है अगर कहना आए तो सायकल पर बैठ शहर और सवाल भी रोचक हो
सकते हैं। पूर्वप्रेमी से बिनमिले भी कहानी में रोचक ट्विस्ट आ सकता है।
बशर्ते आपको कहना तो आए बिना दोहराव।
कहानी शुरू करने के कोई तयशुदा मानक नहीं होते। मानक शब्द ही कुछ अमानवीय
प्रतीत होता है। फिर भी कई लेखक संवाद से कहानी शुरू करते हैं।
बतौर पाठक मुझे पसंद आता है….. यह दूसरों को गुपचुप सुनने जैसा लगता है।
सवाल भी एक तरीका है जैसा मैंने पहले बताया – पाठक तो उत्सुक करता है।
“चक्रवाती तूफानों के दिनों में मुझे नहीं पता मैं कोचीन में क्या कर रहा
था?”
कई लोग किसी दृश्य के साथ कहानी में लिए जाते हैं - “पियानो पर जाने कितने
दिनों की धूल जमी थी, उसके वुडन कवर को एक छिपकली ने छिपने का अड्डा बना
लिया था। “
एक्शन के साथ भी कहानी शुरू की जाती है – “ वह मंदिर की तैंतीस सीढ़ियाँ
गिनते हुए उतरी और हाँफती हुई सजल के कंधों से आ टिकी। वह हाँफते हुए हंस
रही थी। ये लड़कियां अजीब होती हैं, रोते हुए हंस लेंगी, जागते हुए सो
लेंगी, कांपते हुए थाम लेंगी....।
बात फिर वहीं आ टिकती है कि आप अपने पाठक को अपनी कहानी में कैसे सोखें।
एक्साइटिंग प्लॉट से, महान पात्र, खूबसूरत भाषा के बावजूद भी कई कहानियाँ
बोगस मालूम होती हैं। वहीं सड़क की भाषा, भिखारी पात्र और किसी मुकम्मल
प्लॉट के बिना भी कोई एक जीवंत पल कहानी को जानदार बना जाता है। बशर्ते
आपका लेखन में एक किस्म की चैतन्यता हो, जिसे लि?खाने में आपने अपने सारे
सेंसेज़ खपा दिये हों तो यकीन मानिए पाठक को दो चार अतिरिक्त सेंसेज़ जगाने
पड़ जाएंगे। आपका लेखन एक सम्मोहन पैदा करेगा।
फ़िक्शन का मक़सद ही आपकी सेंसेज़ को एंगेज कर लेना है। मेंटल सिमुलेशन!
इसी के वास्ते पाठक आपकी किताब खोलता है। उसे महसूस होता है जब लेखक महज
शब्दों के एक। समूह से एक दूसरा रचना संसार रच देता है, पाठक रंग रूप रस
गंध, स्पर्श, स्वाद सब कुछ शब्दों के माध्यम से महसूस कर सकते हैं। यही वे
आपसे चाहते हैं कि जलेबी से टपका रस जब आपके शफ्फ़ाफ़ कॉलर पर टपके तो उसे
चौक के हलवाई की जलेबी याद आए न कि शर्ट की सफ़ेदी।
भाषाई क्लीशे किसी भी उम्दा कथ्य को जन्म से पहले मार डालते हैं। जहाँ ये
आए मुझे लेखक की क्षमता पर से “भरोसा उठा देते हैं।“ “ज़हन कुंद कर देते
हैं” कि “काटो तो खून न मिले।“ चेहरा लाल की जगह जामुनी क्यों नहीं होता?
ज़हन में अतीत की फिल्म की जगह अतीत का सर्कस क्यों नहीं। खैर …. भाषा पर
बहुत मेहनत करने का दावा लेखक गण करते हैं। क्या ही अच्छा हो कि वे अपनी
भाषा की प्रकृति को समझें। शब्दकोश या अन्य पुस्तकों से शब्द लेकर फॉरसेप
से कहानी में सजाने से अच्छा है कि शब्द नाव बनें और सहज तिरें।
किस्सा खुद अपनी भाषा चुनता है।
क्लीशे केवल भाषा के तौर प ही नहीं होते, किसी कथ्य के बीचों बीच भी क्लीशे
महाराज पधार जाते हैं। प्रेमिका की एकाकी मां चचा की पूर्वप्रेमिका, दादी
के संदूक में राज़ खोलता खत, अचानक परदेस में टकरा जाना। आउट ऑफ़ बॉक्स
सोचने में हम बहुत डरपते हैं। हिंदीवालों को सांप्रदायिकता, प्रेम,
दांपत्य, लोक, खेत-खलिहान, थोड़ा बहुत नकली कॉरपोरेट, लिजलिजी बिन
मनोविश्लेषण की कुंठाओं से इतर आउट ऑफ बॉक्स कम सोचा जाता है। आज कल धिया
और बाऊ जी के पूर्वप्रेम प्रसंगों तक साहस करने लगे हैं। ख़ैर…..हम इस
मामले में मलयालम, मराठी, बांग्ला, तेलुगु, तमिल, कोंकणी, पंजाबी, सिंधी
साहित्य से बहुत पिछड़े हैं। इन भाषाओं के साहित्य को खोज कर पढ़ने की इनको
कुछ पड़ी नहीं है, ये बस लिक्खाड़ है। पढ़ें वो जिनको पड़ी हो पढ़ने की।
बशीर हाथी की चोरी पर लिखते हों तो लिखें, कोंकणी का कोई लेखक मछुआरों पर
लिखे तो लिखे। हम अपने परिवेशों से कटे लोग हैं शायद।
मैंने देखा कई हिंदी के मेरे समकालीन परिवेश विहीन कहानी लिखते हैं,
काली-सफेद कहानी कहती हूँ मैं उसे। जहाँ मौसम नहीं बदलते, जैसे ट्रेडमिल पर
की गयी वॉक कोई दृश्य नहीं बदलता। उनकी कहानियों में आँधियाँ नहीं चलतीं,
तारे नहीं टूटते, बरसात होती है मगर घर के सामने तारों पर पंछी पर नहीं
सुखाते। परिवेश ऑक्सीजन है कहानी में। बानवे से कम ऑक्सीजन लेवल से काम
नहीं चलता आजकल।
मैं कहानी में ‘नेरो योर स्कोप’ की बात करती हूँ। कहानी में बिखराव और
फैलाव उतना ही हो जितना सिमट सके। चेखव की मंच पर रखी बंदूक और आखिर में
उसका चलना ज़रूरी होना…..यही हर पात्र, हर परिवेश, हर घटना के संदर्भ में
सटीक है। कहानियों में कई पात्र आकर चहलक़दमी करके चल देते हैं बिना कहानी
में योगदान दिए। ऐसे तो कहानी भीड़ से भर जाएगी न बाबू!
कहानी में बहुत विवरणों की ज़रूरत नहीं होती, मगर थोड़ी होती भी है। लोग बस
ये नहीं जानते कि कहां होती है कहां नहीं। प्राथमिकता समझें, कहानी की
ज़मीन को संकरा करेंगे तो शब्द सही-सही बजट के साथ वापरेंगे। मौन और रीतेपन
की कीमत समझेंगे।
पाठक को कतई मूर्ख न समझें। मेरे कई पाठकों ने कान काटे हैं – मैडम यह कैसे
हुआ? वहाँ आप व्यर्थ ही डीटेलिंग कर गयीं। आपके ऐसे पाठक हैं तो सौभाग्य
जानिए। हजार फ़ौरी पाठकों से एक गंभीर सवाल करने वाला पाठक भला।
नये लिखसुए, (मैं भी थी) अकसर यह ग़लती करते हैं कि पात्र को पूरी ऑटो या
रेल यात्रा डीटेल में करा देंगे मगर ज्योंही मुख्य घटना आई फास्ट फॉरवर्ड
कर देंगे। अरे भाई आपका पात्र ऑटो में चढ़ा है तो हर क्रॉसिंग पर उसके साथ
रुकने की ज़रूरत नहीं है, बशर्ते किसी क्रॉसिंग पर उसे अपनी किसी दूसरे संग
जाती ही न दिख जाए।
हम अपने पात्रों से बहुत ज़्यादतियाँ करते हैं। लेखक वो जिसके हाथ कभी
पात्र आएं ही न, अपनी मनमर्जियां करें। पात्र भी तो मनुष्य ही होते हैं न!
महानता में लथेड़ देंगे, त्याग पर त्याग करवाएंगे, प्रेमिका की छिंगी उंगली
छूने से आगे न बढ़ने देंगे तो बेचारा पन्नों पर ही आत्महत्या कर लेगा। क्या
कहता है मारे गए गुलफ़ाम का हीरामन?
“ लीक छोड़नी होगी।“
यह लीक छोड़ना ही पात्र का कथा में द्वंद्व को लाता है। द्वंद्व किसी भी
कहानी का धड़कता हिस्सा है, जिसके चलते पात्र गतिमान होते हैं। बेसिक
फिजिक्स कहती है घर्षण से ही गति बढ़ती है। जो लोग विमर्श के पक्षधर हैं
कहानी में वे भी यही मानते हैं कि कथा में द्वंद्व तत्व ही आगे चल कर कहानी
में विचार को जन्म देता है। किसी भी कहानी में विचार उसकी आत्मा है, चाहे
वह उसमें दिखे या छुपा रहे।
अब भाषा पर आते हैं। हम सब जानते हैं कहानी का ढाँचा पात्र,परिवेश, काल और
कथ्य से मिल कर बनता है। जिस पर भाषा एक मजबूत प्लास्टर का काम करती है।
यहाँ तक ठीक है। मगर सवाल तो यह उठता है कि मेरा ढाँचा तो शेर का है आपने
खाल चढ़ा दी मनुष्य की। भाषा को लेकर बहुत तरह की मिक्सिंग हिंदी में होती
है। “उसके मुख पर संजीदगी तारी थी।“ “डॉक्टर ने चुन्नी से कहा – तुम्हारी
श्वासनलिका में स्वेलिंग है।“ भाषाई खिचड़ी बड़ा दुखी करती है। अतिवाद हर
तरह का है, मधु कांकरिया जी से उधार लेकर कहूं तो ‘सेज पर संस्कृत’ है तो
‘खेत में रोमन’ भी है। भाषा पात्र, परिवेश, काल और शैली अनुरूप हो यह बात
तो भरतमुनि अपनी पोथी नाट्यशास्त्र में कह गये हैं।
संवादों में सहजता, बहाव और पात्रानुकूलता ज़रूरी है। हर चरित्र की अपनी
विशिष्ट शैली हो, बातपोशी में चाहे बारीक ही सही मगर अंतर तो है। हर पात्र
एक सी भाषा कैसे बोल सकता है। इस संदर्भ में उर्दू कथा-साहित्य का कोई सानी
नहीं कुर्तुल एन हैदर हों कि मंटो। कृष्णचंदर हों कि इस्मत चुगताई।
शैली और शिल्प की बात उठी है तो हिंदी कथा जगत में कई स्कूल हैं।
१. कथ्य शिल्प गढ़ लेता है।
२. कथ्य में थोड़ी तो घटनाजनित प्रयोगात्मकता हो।
३. कथ्य में भाषा शिल्प को जन्म दे।
४. कथ्य फथ्य कुछ नहीं होता, शिल्प ही कथ्य होता है।
मुझे हर नवाचार प्रिय बशर्ते रोचक हो। मेरे पाठक मन को उद्वेलित करता हो।
मुझे कृष्णबलदेव वैद भी पसंद हैं, वे शिल्प की प्रधानता के हामी हैं। तो
यशपाल भी जो घटना प्रधानता, ऐतिहासिक उपन्यासों में उस समय की भाषा के साथ
प्रयोग करते रहे। मुझे रेणु और उनके बाद शैलेश मटियानी भी पसंद हैं जो
आँचलिकता को उकेरने वाले चित्रों बने। निज तौर बिन कथ्य की रीढ़ पर भाषाई
शिल्प की बिसात बिछाना मुझे नहीं आया पर आ भी सकता है, कथाकार को अपनी
कहानियों ही नहीं तईं भी अनप्रिडिक्टेबल रहना चाहिए।
बात ही चली है तो प्रिडिक्टिबल कहानियॉ सबसे बेकार कहानियां होती हैं। जो
नायिका की तिरछी नज़र के साथ ही अंत का पता दे दें। इसका मतलब ये नहीं कि
आप सीधे ‘ओ हेनरी’ बन जाएं। कथा का अंत पहली पंक्ति से तो कमसकम न ही पता
चले, आधी कथा बाद चले तो बेहतर। प्रिडिक्टिबल कहानी लिखने से अच्छा है आप
एक पत्ते पर तैरते चींटे की कथा ही लिख लें, ज़ाहिर है डूबेगा, फिर भी वहां
अनप्रिडिक्टेबल बहुत कुछ है। हो सकता है नाले में डूबने से पहले फ्लायकैचर
चिड़िया उठा ले जाए, वह गटके उससे पहले कीड़ा उसी सूखी डाल पर गिर जाए और
जहां से वह टपका था, उसे अपने बंधु मिल जाएं। थोड़ी आकस्मिकता और थोड़ा
कहानीपन अपने भीतर बनाएँ रखें। कलम और जीवन दोनों में।
दृष्टिकोण बड़ी आकार, भार, रंग, गंध से हीन चीज़ है। हर कहानी में यह अलग
हो सकता है। दृष्टिकोण को लेकर अगर आप भारी दुराग्रही हैं तो ख्याल रखें आप
एक चित्रकला की कक्षा में बैठे हैं। टेबल पर लोटा रखा है, हर छात्र का कोण
अलग होगा और रेखांकन भी। इसलिए किसी भी कहानी में दृष्टिकोण लेखक का जो हो
वह निर्भर पाठक के कोण पर ही करेगा। पाठक को आज़ादी दें। लेखक का काम बस
इतना कि रोशनदान खोल दे ताकि जहां से भी पाठक कहानी को देखे वह हिस्सा रोशन
हो। लेखक का हस्तक्षेप एक कमेंट्रेटर की तरह - कम से कम हो तो भला। कहानी
को लिखा नहीं कहानी में दिखाया जाए तो कहानी हिलने-डुलने, बोलने -नाचने
लगेगी।
प्रतीकात्मकता मॉडर्न या पोस्टमॉडर्न कहानी का कोई नया इज़ाद टूल नहीं है।
यह तो शूद्रक के यहां मृच्छकटिकम और कालिदास के मेघदूतम में भी मिलता है।
वह बात अलग है कि प्रतीक बदल गये हैं। प्रतीक चौथा आयाम देते हैं कथा को,
एक और छिपी दृष्टि कथा – द्वंद्व और उससे उपजे विचार को समझने के लिए।
प्रतीक ऊँचाइयों को गहराइयों से देखने का इंगित हैं। जिसके लिए कथाकार को
अतिरिक्त संवेदना और कल्पनाशीलता जगानी होती है। जाला बुनती मकड़ी की
तत्परता और आपातकाल में अंतिम चींटी तक संकेत पहुंचाती चींटियों को भी
बारीकी से देख समझ पाने की सक्षमता। बारीक निगाह और हर जीव के प्रति
अतिरिक्त संवेदनाओं के बिना कल्पना-शीलता पंगु ही रह जाती है। परकाया
प्रवेश केवल मनुष्यों में प्रवेश जितना संकीर्ण नहीं होता। कल्पना में
कहानी जहां ले जाए वहां चले जाना चाहिए कथाकार को। कल्पना एक अनमोल तरल है
इसे ठोस कहानी में ढालना आना चाहिए। जैसे इटली के कांच के कारीगर पिघलते
कांच को मनचाहा आकार देते हैं।
हम कहानी के लिये प्लॉट, आइडिया के पीछे भागते हैं। एकाध पकड़ लिया तो उसे
छोड़ते नहीं। उस पर कहानी बने न बने बना कर मानते हैं। किसी आइडिया से
चिपकना नहीं होता, वह बदलता है तो बदल जाने दो, निकल जाता है हाथ से निकल
जाने दो। जिसे छन कर निकल जाना खा, वह आइडिया था ही नहीं। आइडिया तो वह
जिससे आप पीछा छुड़ाओ मगर वह पीछे आता रहे। हर पल रूप बदलता रहे। अच्छी
चीजें टिकती हैं। नियम है अनकहा। आइडिया असली वही है जिस पर देर तक और दूर
तक काम करने में आनंद आए। आनंद ही आनंद को जन्म देता है।
कहानी लेखन पर बात करना आसान है उपदेश देना भी पर सच पूछिए तो कहानी लिखना
सिखाया नहीं जा सकता। अगर आपका किस्सागो जागृत है और
अगर आप कहानी लिखने लगे हैं किसी तरह से तो अगला पड़ाव यह हो कि आप कहानी
को अलग- अलग मीडियम्स में कहना सीखिए। ऑडियो बुक्स, ग्राफिक, स्क्रीन प्ले,
मंच के लिए। मैं ने यही किया, हांलांकि यह किसी स्ट्रेटजी का हिस्सा नहीं
था, कभी जेबखर्च और कभी बदलाव के लिए … स्टोरीटेल, नीलेश मिसरा जी की
मंडली, स्वांग कहानी को मंचन के लिए लिखा।
‘कहानी से तटस्थ रहने की’ बड़ों की नसीहत के बावज़ूद कहानी हमेशा मेरे वज़ूद
पर चढ़ कर बोलती है, कहानी मुझमें हदें पार कर जाती है। मैं माया एंजलू की
इस बात में यकीन रखने लगी हूँ ..... “There is no greater agony than
bearing an untold story inside you.”
अंतत: हम चाहते क्या हैं खुद से? वह करना जिसमें आनंद आए । अगर कहानी लिखना
आपका सुख है तो जब इसे लिखो इतना डूब जाओ कि बाहर की दुनिया महसूस होना बंद
हो जाए।
- मनीषा कुलश्रेष्ठ
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